ईश्वर की भक्ति, प्रार्थना और विविध प्रकार आराधना, जाने अनजाने अपराधों से मुक्ति की ही युक्ति है - अरविन्द सिसोदिया Ishwar

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विचार - ईश्वर की भक्ति, प्रार्थना, दर्शन के रूप में पाप मुक्ति के लिए किया गया अपरोक्ष प्राश्चित ही है, जो एक प्रकार से क्षमा मांगना और दंड से राहत पाने जैसा ही है। यही भाव गंगा स्नान से पाप मुक्ति का भी है।

व्याख्या - यह विचार बहुत ही अर्थपूर्ण है। ईश्वर की भक्ति, प्रार्थना, दर्शन के माध्यम से पाप मुक्ति की प्राप्ति करना एक प्रकार का अपरोक्ष प्राश्चित ही है, जिसमें हम अपने पापों के लिए क्षमा मांगते हैं और दंड से राहत पाने की कामना करते हैं। यही तथ्य ईश्वर के प्रति समर्पित किये जानें वाले सभी कृत्यों में होता है। वशर्ते उसमें स्वार्थ भाव न हो। जहां भी लाभ की कामना से कोई कार्य किया जाता है, वह एक प्रकार से कर्ज होता है, जो आत्मा के खाते पर लिख जाता है और उसे जन्मजन्मान्तर तक आत्मा भिन्न भिन्न शरीरों में जन्म लेकर चुकाती रहती है।

यह विचार हिंदू धर्म में गंगा स्नान  एवं अन्य स्नान, व्रत, पूजन आदि से भी जुड़े हैँ। गंगा स्नान को पाप मुक्ति का एक साधन माना जाता है, जिसमें हम अपने पापों को धोकर पवित्र होते हैं।

आपके विचार से यह भी स्पष्ट होता है कि ईश्वर की भक्ति और प्रार्थना के माध्यम से हम अपने पापों के लिए क्षमा मांग सकते हैं और दंड से राहत पा सकते हैं। यह एक बहुत ही सकारात्मक और आशावादी दृष्टिकोण है।
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बहुत सुन्दर प्रश्न है ,यदि हमसे अनजाने में कोई पाप हो जाए तो क्या उस पाप से मुक्ती का कोई उपाय है।

श्रीमद्भागवत जी के षष्ठम स्कन्ध में , महाराज राजा परीक्षित जी ने श्री शुकदेव जी से ऐसा ही प्रश्न किया था । उन्होंने प्रश्न किया कि - भगवान आपने पञ्चम स्कन्ध में जो नरको का वर्णन किया ,उसको सुनकर तो गुरुवर रोंगटे खड़े जाते हैं। प्रभूवर मैं आपसे ये पूछ रहा हूँ की यदि कुछ पाप हमसे अनजाने में हो जाते हैं , जैसे चींटी मर गयी, हम लोग स्वास लेते हैं तो कितने जीव श्वासों के माध्यम से मर जाते हैं। भोजन बनाते समय लकड़ी जलाते हैं ,उस लकड़ी में भी कितने जीव मर जाते हैं । और ऐसे कई पाप हैं जो अनजाने हो जाते हैं । तो उस पाप से मुक्ती का क्या उपाय है भगवन ।

आचार्य शुकदेव जी ने कहा -राजन ऐसे पाप से मुक्ती के लिए रोज प्रतिदिन पाँच प्रकार के यज्ञ करने चाहिए ।

महाराज परीक्षित जी ने कहा - भगवन एक यज्ञ यदि कभी करना पड़ता है तो सोंचना पड़ता है, आप पाँच यज्ञ रोज कह रहे हैं ।

यहां पर आचार्य शुकदेव जी हम सभी मानव के कल्याणार्थ कितनी सुन्दर बात बता रहे हैं ।

बोले राजन....

पहली यज्ञ है -जब घर में रोटी बने तो पहली रोटी गऊ ग्रास के लिए निकाल देना चाहिए ।

दूसरी यज्ञ है राजन -चींटी को दस पाँच ग्राम आटा रोज वृक्षों की जड़ो के पास डालना चाहिए।

तीसरी यज्ञ है राजन्-पक्षियों को अन्न रोज डालना चाहिए ।

चौथी यज्ञ है राजन् -आँटे की गोली बनाकर रोज जलाशय में मछलियो को डालना चाहिए ।

पांचवीं यज्ञ है राजन्- भोजन बनाकर अग्नि भोजन , रोटी बनाकर उसके टुकड़े करके उसमे घी चीनी मिलाकर अग्नि को भोग लगाओ। राजन् अतिथि सत्कार खूब करें, कोई भिखारी आवे तो उसे जूठा अन्न कभी भी भिक्षा में न दे ।

राजन् ऐसा करने से अनजाने में किये हुए पाप से मुक्ती मिल जाती है । हमे उसका दोष नहीं लगता । उन पापो का फल हमे नहीं भोगना पड़ता।

राजा ने पुनः पूछ लिया ,भगवन यदि गृहस्त में रहकर ऐसी यज्ञ न हो पावे तो और कोई उपाय हो सकता है क्या। तब यहां पर श्री शुकदेव जी कहते हैं राजन्....

*कर्मणा कर्मनिर्हांरो न ह्यत्यन्तिक इष्यते।*

*अविद्वदधिकारित्वात् प्रायश्चितं विमर्शनम् ।।*

नरक से मुक्ती पाने के लिए हम प्रायश्चित करें। कोई ब्यक्ति तपस्या के द्वारा प्रायश्चित करता है।कोई ब्रह्मचर्य पालन करके प्रायश्चित करता है।कोई ब्यक्ति यम,नियम,आसन के द्वारा प्रायश्चित करता है।लेकिन मैं तो ऐसा मानता हूँ राजन् !

*केचित् केवलया भक्त्या वासुदेव परायणः।*

राजन् केवल हरी नाम संकीर्तन से ही जाने और अनजाने में किये हुए को नष्ट करने की सामर्थ्य है ।

इस लिए हे राजन् !----- सुनिए

स्वास स्वास पर कृष्ण भजि बृथा स्वास जनि खोय।

न जाने या स्वास की आवन होय न होय।।

राजन् किसी को पता नही की जो स्वास अंदर जा रही है वो लौट कर वापस आएगी की नही ।

इस लिए सदैव *हरी का नाम जपते रहो। हरि नाम का कलयुग में बहुत महत्व है।इसीलिये रामचरितमानस में बाबा तुलसी बार बार नाम संकीर्तन का उपदेश देते हैं।

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।

गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥

भावार्थ:-यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, (क्योंकि) इस युग में श्री रामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥

* एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥

भावार्थ:-(तुलसीदासजी कहते हैं-) इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए॥

*नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥

कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥

भावार्थ:-कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्‌जी हैं॥

*राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।

जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥

भावार्थ:-राम नाम श्री नृसिंह भगवान है, कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करने वाले जन प्रह्लाद के समान हैं, यह राम नाम देवताओं के शत्रु (कलियुग रूपी दैत्य) को मारकर जप करने वालों की रक्षा करेगा॥

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