वैज्ञानिक और प्रमाणिक : भारतीय काल गणना का महासत्य

Scientific and Certified : The Great Truth of Indian Time Calculation
विक्रम संवत 2080 से (22 मार्च 2023 से)
कलियुग संवत् 5124
कल्पारंभ संवत् 1972949124
सृष्टि ग्रहारंभ संवत् 1अरब 95करोड 58 लाख 85 हजार 124वां वर्ष

Scientific and Certified : The Great Truth of Indian Time Calculation
 
- अरविन्द सिसोदिया
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेद के सृष्टि संदर्भ ऋचाओं का भाष्य करते हुए ‘‘कार्य सृष्टि’’ शब्द का प्रयोग किया है, अर्थात् सृष्टि अनंत है,वर्तमान सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व भी सृष्टि थी। जो सृष्टिक्रम अभी काम कर रहा है वह कार्य सृष्टि है।
बृम्हाण्ड सृष्टि का पूर्व ज्ञान...
- 5151 वर्ष पूर्व ,महाभारत का युद्ध, कौरवों की विशाल सेना के सेनानायक ‘भीष्म’..., कपिध्वज अर्थात् हनुमान जी अंकित ध्वज लगे रथ पर अर्जुन गाण्डीव (धनुष) हाथ में लेकर खड़े हैं और सारथी श्रीकृष्ण (ईश्वरांश) घोड़ों की लगाम थामें हुए है। रथ सेनाओं के मध्य खड़ा है।
- अर्जुन वहां शत्रु पक्ष के रूप में, चाचा-ताऊ, पितामहों, गुरूओं, मामाओं, भाईयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, श्वसुरों और शुभचिंतकों को देख व्याकुल हो जाता है। भावनाओं का ज्वार उसे घेर लेता है, वह सोचता है, इनके संहार करने से मेरे द्वारा मेरा ही संहार तो होगा...! वह इस ‘अमंगल से पलायन’ की इच्छा श्रीकृष्ण से प्रगट करता है।
- तब श्रीकृष्ण कहते हैं ‘‘ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होऊं या तुम न रहे तो अथवा ये समस्त राजा न रहे हों और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे।’’ उन्होंने कहा ‘‘जो सारे शरीर में व्याप्त है, उसे ही तुम अविनाषी समझो । उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है अर्थात् आत्मा न तो मारती है और न मारी जाती है।’’
- अंत में योगेश्वर श्रीकृष्ण को अपना विराट स्वरूप दिखाना पड़ता है, इस विराट रूप में विशाल आकाश, हजारों सूर्य और तेज अर्जुन को दिखता है।
‘‘दिवि सूर्य सहस्रस्य भवेद्युगपदुल्पिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याभ्दासस्तस्य।।12।।
  - श्रीमद्भगवतगीता (अध्याय 11)
-अर्जुन ने ‘‘एक ही स्थान पर स्थित हजारों भागों में विभक्त ब्रह्माण्ड के अनन्त अंशों को देखा’’
‘‘तत्रैकस्थं जगत्वृत्सनं प्रविभममनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।।13।।
  - श्रीमद्भगवतगीता (अध्याय 11)
-अर्जुन आश्चर्यचकित होकर कहता है ‘‘हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप, आपमें न अंत दिखता है, न मध्य और न आदि।’’
-तब अर्जुन आगे कहता है ‘‘यद्यपि आप एक हैं, किंतु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं।’’
‘‘द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशष्च सर्वाः।
दृष्टाभ्दुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्।।20।।
  - श्रीमद्भागवतगीता (अध्याय 11)
-भयातुर अर्जुन परम् ईश्वर को अपने ऊपर कृपा करने की प्रार्थना करता है। तब भगवान कहते हैं ‘‘समस्त जगत को विनष्ट करने वाला काल मैं हूं।’’
  ‘‘कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो’’
    - श्रीमद्भागवतगीता (अध्याय 11)
- ब्रह्माण्ड दर्शन की दूसरी बड़ी घटना, इससे पूर्व की है और वह भी श्रीकृष्ण से जुड़ी हुई है, जिसका वर्णन हमें श्रीमद्भागवत के दशम् स्कन्ध में मिलता है ।
   एक दिन बलराम जी आदी ग्वाल-बाल श्रीकृष्ण के साथ खेल रहे थे। उन लोगों ने माता यशोदा के पास आकर कहा ‘‘मां ! कन्हैया ने मिट्टी खायी।’’ हितैषिणी यशोदा ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया और मिट्टी खाने की बात पर डांटा। तब श्रीकृष्ण ने कहा आरोप झूठा है, तो यशोदा ने मुंह खोलकर दिखाने को कहा। श्रीकृष्ण ने मुंह खोल कर दिखाया। यशोदा जी ने देखा कि श्रीकृष्ण के मुंह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है। आकाश, दिशायें, पहाड़, द्वीप और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, वैद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल,जल, तेज, पवन, वियत्, वैकारिक अहंकार के देवता, मन-इन्द्रिय, पञ्चतन्मात्राएं और तीनों गुण श्रीकृश्ण के मुख में दीख पड़े। यहां तक कि स्वयं यशोदा ने अपने आपको भी श्रीकृष्ण के मुख में देखा, वे बड़ी शंका में पड़ गई.....!
- आज भी वह स्थान ‘‘ब्रह्माण्ड’’ के नाम से बृज में तीर्थ रूप में स्थित है।
इसका सीधा सा अर्थ इतना ही है कि जिस ब्रह्माण्ड को आज वैज्ञानिक खोज रहे हैं, वह हजारों-लाखों वर्ष पूर्व हिन्दूओं को मालूम थे।
 
  जीवसत्ता के विनाश का ज्ञान
‘‘ततो दिनकरैर्दीप्तै सप्तभिर्मनुजाधिय।
पीयते सलिलं सर्व समुद्रेशु सरित्सु च।।’’
  -महाभारत (वन पर्व 188-67)
   इसका अर्थ है कि ‘‘एक कल्प अर्थात् 1 हजार चतुर्युगी की समाप्ति पर आने वाले कलियुग के अंत में सात सूर्य एक साथ उदित हो जाते हैं और तब ऊष्मा इतनी बढ़ जाती है कि पृथ्वी का सब जल सूख जाता है। हमारी कालगणना से एक कल्प का मान 4 अरब 32 करोड़ वर्ष है।
 
देखिये आज का विज्ञान क्या कहता है ‘‘नोबल पुरूस्कार से सम्मानित चन्द्रशेखर के चन्दशेखरसीमा सिद्यांत के अनुसार यदि किसी तारे का द्रव्यमान 1.4 सूर्यों से अधिक नहीं है, तो प्रारम्भ में कई अरब वर्ष तक उसका हाईड्रोजन, हीलियम में संघनित होता रहकर, अग्नि रूपी ऊर्जा उत्पन्न करता रहेगा। हाईड्रोजन की समाप्ति पर वह तारा फूलकर विशाल लाल दानव (रेड जायन्ट) बन जायेगा। फिर करीब दस करोड़ साल तक लाल दानव की अवस्था में रहकर तारा अपनी शेष नाभिकीय ऊर्जा को समाप्त कर देता है और अन्त में गुठली के रूप में अति सघन द्रव्यमान का पिण्ड रह जाता है। जिसे श्वेत वामन (व्हाईट ड्वार्फ) कहा जाता है। श्वेत वामन के एक चम्मच द्रव्य का भार एक टन से भी  अधिक होता है। फिर यही धीरे-धीरे कृष्ण वामन (ब्लेक हॉल) बन जाता है।
 
   लगभग 5 अरब वर्ष में हमारा सूर्य भी लाल दानव बन जायेगा, इसके विशाल ऊष्मीय विघटन की चपेट में बुध और शुक्र समा जायेंगे। भीषण तापमान बढ़ जाने से पृथ्वी का जीवन जगत लुप्त हो जायेगा और सब कुछ जलकर राख हो जायेगा।
   महाभारत युग में यह कल्पना कर लेना कितना कठिन था मगर इस पुरूषार्थ को हमारे पूर्वजों ने सिद्ध किया।
वैज्ञानिक गणना
मूलतः सूर्य सिद्धांत ग्रंथ सत्युग में लिखा माना जाता है, वह नष्ट भी हो गया, मगर उस ग्रन्थ के आधार पर ज्योतिष गणना कर रहे गणनाकारों के द्वारा पुनः सूर्य सिद्धान्त गं्रथ लिखवाया गया, इस तरह की मान्यता है।
अस्मिन् कृतयुगस्यान्ते सर्वे मध्यगता ग्रहाः।
बिना तु पाद मन्दोच्चान्मेषादौ तुल्य तामिताः।।
इस पद का अर्थ है ‘कृतयुग’ (सतयुग) के अंत में मन्दोच्च को छोड़कर सब ग्रहों का मध्य स्थान ‘मेष’ में था। इसका अर्थ यह हुआ कि त्रेता के प्रारम्भ में सातों ग्रह एक सीध में थे। मूलतः एक चतुर्युगी में कुल 10 कलयुग होते हैं, जिनमें सतयुग का मान 4 कलयुग, त्रेतायुग का मान 3 कलयुग, द्वापरयुग का मान दो कलयुग और कलयुग का मान एक कलयुग है।
वर्तमान कलियुग,महाभारत युद्ध के 36 वर्ष पश्चात प्रारम्भ हुआ,  (२२ मार्च २०१२ संध्या ७ बज कर १० मिनिट   से)  ५११४  कलि संवत् है। (अर्थात् ई.पू. 3102 वर्ष में 20 फरवरी को रात्रि 2 बजकर 27 मिनिट, 30 सेकेण्ड पर कलियुग प्रारम्भ हुआ।)
‘संवतसर बहुत पुराना’’
-ऋग्वेद के 7वें मण्डल के 103वें सूक्त के मंत्र क्रमांक 7 में संवतसर की चर्चा है।
‘‘ब्राह्मणासो अतिरात्रे ने सोमे सरो न पूर्णमभितो वदन्तः।
संवत्सरस्य तदहः परिष्ठः यन्मण्डूका प्रावृषीणं बभूव।।
गणित से ही गणना
- काल को कितना ही जानने समझने के बाद भी उसका इकाई निर्धारण करना और गिनना एक अत्यंत कठिन कार्य था। यह शून्य और दशमलव के बिना सम्पन्न नहीं था।
- आधुनिक गणित के मूर्धन्य विद्वान प्रो. जी.पी. हाल्स्टेंड ने अपनी पुस्तक ‘गणित की नींव तथा प्रक्रियाएं’ के पृष्ठ 20 पर लिखा है कि ‘‘शून्य के संकेत के आविष्कार की महत्ता कभी बखानी नहीं जा सकती। ‘कुछ नहीं को न केवल एक नाम तथा सत्ता देना वरन् एक शक्ति देना, हिंदू जाति का लक्षण है, जिनकी यह उपज है। यह निर्वाण को डायनमों की शक्ति देने के समान है। अन्य कोई भी एक गणितीय आविष्कार बुद्धिमता तथा शक्ति के सामान्य विकास के लिए इससे अधिक प्रभावशाली नहीं हुआ।’’
- इसी प्रकार हिंदुओं के द्वारा गणित क्षैत्र में दूसरी महान खोज दशमल का आविष्कार था, जिसने सोच और समझ के सभी दरवाजे खोल दिये।
‘हिन्दू गणना में बहुत आगे रहे...’
(क) प्राचीन ग्रीक में सबसे बड़ी ज्ञात संख्या ‘‘मीरीयड’’ अर्थात् 10,000 थी।
(ख) रोमन की सबसे बड़ी ज्ञात संख्या 1000 थी।
(ग) यजुर्वेद संहिता में सबसे बड़ी ज्ञात संख्या 10 ऊपर 12 (दस खरब) थी।
(घ) ईसा पूर्व पहली शताब्दी में ‘ललित विस्तार’ बौद्ध ग्रंथ में 107 संख्या बोधिसत्व कोटी के नाम से बताई गई और इसके आगे प्रारम्भ कर, १० के ऊपर 53 (तल्लक्षण) तक सामने आती है।
(ङ) जैन ग्रन्थ ‘अनुयोग द्वार’ में ‘असंख्येय’ का मान 10 ऊपर 140 तक सामने आता है।
- अंकगणित, बीजगणित की भांति ही रेखागणित का जन्म भी भारत में ही हुआ। पाई का मान हमार आर्यभट्ट ने बताया।
- ऋग्वेद में नक्षत्रों की चर्चा है, राशी चक्र को आरों के रूप में सम्बोधित किया गया है। कुछ नक्षत्रों के नाम भी मिलते हैं।,अर्थववेद में ,जैन ग्रन्थों में 28 नक्षत्रों के नाम आये हैं, इनमें से एक अभिजित नक्षत्र हमारी आकाशगंगा का नहीं होने से गणना में 27 नक्षत्र ही रखे जाते है। जो आज भी वैज्ञानित तथ्यों पर खरे है।
और अनंत की कालगणना...
- श्रीराम को 14 वर्षों का वनवास हुआ था,श्रीराम का समय 17 लाख 50 हजार वर्ष पूर्व का गणना से बैठता है। अर्थात तब काल गणना थी। सबसे बडी बात तो यह है कि रामेश्वरम सेतु जो समुद्र में डूबा हुआ है की आयु अमरीकी वैज्ञानिकों ने भी लगभग इतनी ही आंकी है।
- विराट नगर की चढ़ाई के समय कृष्णपक्ष की अष्टमी को जब अर्जुन,अज्ञातवास त्यागकर प्रगट हुए व कौरवों को ललकारा ,तो समस्या यह खडी हुई कि अज्ञातवास का समय पूरा हुआ अथवा नहीं, तब कर्ण और दुर्योधन ने ‘अभी तो तेरहवां वर्ष चल रहा है, अतएव पाण्डवों का तेरह वर्ष का प्रण पूर्ण नहीं हुआ और प्रतिज्ञानुसार उन्हें पुनः12 वर्ष वन में ओर रहना चाहिये । इस प्रकार की मांग करते हुए, भीष्मपितामह समय-निर्णय के लिए व्यवस्था देने को कहा, तब भीष्म ने कला-काश्ठादि से लेकर संवत्सर पर्यन्त के कालचक्र की बात कहकर व्यवस्था दी कि ‘ज्योतिष चक्र के व्यतिक्रम के कारण वेदांगज्योतिष की गणना से तो 13 वर्ष, 5 महीने और 12 दिन होते हैं; किंतु पाण्डवों ने जो प्रण की बातें सुनी थी, उनको यथावत् पूर्ण करके और अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति को निश्चयपूर्वक जानकर ही अर्जुन आपके समक्ष आया है।’ अर्थात तब संवतसर भी था और काल गणना भी थी।
-काल की छोटी गणनाओं के बारे में तो बहुत आता रहता है मगर बडी गणनायें,जिनका यूरोपवाले मजाक उडाते थे ,मगर हिन्दू ऋषिओं की जानकारी ने आश्चर्य से मुंह में उंगली दबाने पर मजबूर कर दिया है।
- जब हमारे सामने 71 चतुर्युगी का मान 4,32,0000000 वर्ष यानि ‘कल्प’ 4 अरब 32 करोड़ वर्ष। कल्प अहोरात्र यानि 4 अरब 32 करोड़ वर्ष का दिन और इतने ही मान की रात्रि यानि कि 8 अरब 64 करोड़ वर्ष।
-ब्रह्मवर्ष: 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष
-ब्रह्मा की आयु: 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्ष
- आकाशगंगा की एक परिक्रमा में लगभग 25 से 27 करोड़ वर्ष का अनुमान है। संध्यांश सहित एक मन्वन्तर का काल खण्ड भी 30 करोड़ 84 लाख 28 हजार वर्ष का है।
 
   यूरोप के प्रसिद्ध ब्रह्माण्डवेत्ता ‘कार्ल वेगन’ ने उनकी पुस्तक“COSMOS” में लिखा है कि ‘‘विश्व में हिन्दू धर्म एक मात्र ऐसा धर्म है, जो इस विश्वास पर समर्पित है कि इस ब्रह्माण्ड में उत्पत्ति और लय की एक सतत प्रक्रिया चल रही है और यही एक धर्म है जिसने समय के सूक्ष्मतम से लेकर वृहदतम नाप, जो सामान्य दिन-रात से लेकर 8 अरब 64 करोड़ वर्ष के ब्रह्मा के दिन-रात तक की गणना की है, जो संयोग से आधुनिक खगोलीय नापों के निकट है।’’
 
-इस संदर्भ में,नई खोजों से बहुत स्पष्टता से सामने आ रही है कि ब्रह्माण्ड में 100 से अधिक बहुत ही शक्तिशाली ”क्वासर“ स्रोत हैं जिनका नीला प्रकाश हमारे पास अरबों प्रकाश वर्ष दूर से चल कर आ रहा है। जिसका सीधा गणितीय अर्थ यह है कि वह प्रकाश इतने ही वर्ष पूर्व अपने स्रोत से हमारी ओर चला..., अर्थात् हमें मिल रही किरणों की आयु मार्ग में लगे प्रकाषवर्ष जितनी है।
- ‘‘‘क्वासर’3 सी 273’’ से 3 अरब वर्ष, ‘‘क्वासर’3 सी 47’’ से 5 अरब वर्ष और ‘‘क्वासर ओएच 471’’ से 16 अरब वर्ष पूर्व चलीं किरणें प्राप्त हो रही हैं। अर्थात् आकाश में जो कुछ हो रहा है, उसके मायनों में हमारे कल्पों की गणना, ब्रह्मा के वर्ष, ब्रह्मा की आयु की गणना ! ब्रह्मा की आयु जो विष्णु के पलक झपकने (निमेष) मात्र होती है तथा फिर विष्णु के बाद रूद्र का प्रारम्भ होना आदी आदी सच के कितने करीब खडे है।
-इसी प्रकार वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंचमण्डल क्रम वाली हैः-1.चन्द्र मण्डल 2.पृथ्वी मण्डल 3. सूर्य मण्डल 4.परमेष्ठी मण्डल (आकाशगंगा का ) 5.स्वायम्भू मण्डल (आकाशगंगाओं से परे )..! आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि यह सभी मण्डल वास्तविक तौर पर हैं ,पूरी गति व लय के साथ गतिशील हैं,चलायमान हैं..!!
बृम्हांण्ड,गणित और काल की विश्व में इतनी विशाल प्रमाणिक जानकारी हिन्दूओं के अलावा कोई नहीं कर सका...! और आज विज्ञान उन बातों की बेमन से ही सही मगर हां भरने को मजबूर है।

अरविंद सीसौदिया
-राधाकृष्ण मंदिर रोड़,
डडवाड़ा, कोटा जं. ( राजस्थान )
 
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महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में कब हुआ था इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। भारतीय परंपरा, महाभारत और पौराणिक साहित्य अनुसार यह पांच हजार वर्ष पूर्व हुआ था। इतिहासकार डी.एस त्रिवेदी ने विभिन्न ऐतिहासिक एवं ज्योतिष संबंधी आधारों पर बल देते हुए युद्ध का समय 3137 ईसा पूर्व निश्चित किया है। पीसी सेनगुप्ता के अनुसार महाभारत में आए कुछ ज्योतिषीय संबंधी प्रमाण युद्ध का समय 2449 ईसा पूर्व निश्चित करते हैं।

आगे चलकर उन्होंने युद्ध के तीनों तीथी क्रमों पर परीक्षा की जो इस प्रकार है, 1. आर्यभट्टा 3102 ईसापूर्व, 2.वृद्धवर्ग 2449 ईसा पूर्व, 3.पुराणों के अनुसार परीक्षित से लेकर महापद्म तक की पीढ़ियों का आकलन जो 1015, 1050, 1125 एवं 1500 वर्ष के लगभग चला आ रहा आता है। ये वृद्धवर्ग के वचन को ‍अधिक महत्व देते हुए युधिष्ठिर संवत् का समय ईसा से 2449 वर्ष पूर्व निश्चत करते हैं। इसके लिए उन्होंने महाभारत को अंतिम आधार मानते हुए समय निश्चित किया है।
 
देव महोदय ने आर्यभट्ट, वराहमिहिर एवं प्राचीन वंशावली को जोड़ते हुए युद्ध का समय का अनुमान ईसा से 1400 वर्ष पूर्व लगाया है। जे.एस. करन्दीकर ने अनुसार युद्ध 1931 ईसा पूर्व हुआ था। युद्ध के प्रथम दिन मृगशीरा नक्षत्र था। वी.बी आठावले ने अनुसार युद्ध की तिथि 3016 ईसा पूर्व है। इन्होंने अपने मत के पक्ष में तीन ठोस आधार इस प्राकर दिए हैं:- 1. युद्ध के समय 13 दिन पश्चात सूर्य एवं ग्रहण हुए हैं, जो अक्टूबर मास (अश्‍विन और कार्तिक) में दिखलाई दिए। 2. उसी समय पुष्‍य नक्षत्र ईसा के पश्चात् 4. इनके मत से महाभारत के भीतर ईसा के 400 वर्ष पश्चात जोड़ घटाव होते रहे हैं। जिनका उल्लेख इस पुस्तक के भीतर विस्तार सहित हुआ है। विन्टरनिट्ज के अनुसार महाभारत का प्राचीनतम रूप चौथी शती ईसा पूर्व से अधिक प्राचीन नहीं, इनके मत से महाभारत का नवीनतम रूप ईसा के 400 वर्ष पश्चात् तक विकसित होता रहा।
 
अंतिम निष्कर्ष : महाभारत का युद्ध और महाभारत ग्रंथ की रचना का काल अलग अलग रहा है। इससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न होने की जरूरत नहीं। यह सभी और से स्थापित सत्य है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में लगभग 3112 ईसा पूर्व (अर्थात आज से 5129 वर्ष पूर्व) को हुआ हुआ। ज्योतिषियों अनुसार रात 12 बजे उस वक्त शून्य काल था। इस मान से यह मान जाएगा कि महाभारत युद्ध भी 31वीं सदी ईसा पूर्व ही हुआ था।
 
विद्वानों का मानना है कि महाभारत में ‍वर्णित सूर्य और चंद्रग्रहण के अध्ययन से पता चलता है कि युद्ध 31वीं सदी ईसा पूर्व हुआ था लेकिन ग्रंथ का रचना काल भिन्न भिन्न काल में गढ़ा गया। प्रारंभ में इसमें 60 हजार श्लोक थे जो बाद में अन्य स्रोतो के आधशर पर बढ़ गए।
 
आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईसा पूर्व में हुआ और कलियुग का आरम्भ कृष्ण के निधन के 35 वर्ष पश्चात हुआ। एक नवीनतम अध्ययन अनुसार राम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था। शल्य जो महाभारत में कौरवों की तरफ से लड़ा था उसे रामायण में वर्णित लव और कुश के बाद की 50वीं पीढ़ी का माना जाता है। इसी आधार पर कुछ विद्वान महाभारत का समय रामायण से 1000 वर्ष बाद का मानते हैं।
 
ताजा शोधानुसार ब्रिटेन में कार्यरत न्यूक्लियर मेडिसिन के फिजिशियन डॉ. मनीष पंडित ने महाभारत में वर्णित 150 खगोलीय घटनाओं के संदर्भ में कहा कि महाभारत का युद्ध 22 नवंबर 3067 ईसा पूर्व को हुआ था। उस वक्त भगवान कृष्ण 55-56 वर्ष के थे। इसके कुछ माह बाद ही महाभारत की रचना हुई मानी जाती है।
 
महाभारत, गीता और कृष्ण के समय के संबंध में मेक्समूलर, बेबेर, लुडविग, हो-ज्मान, विंटरनिट्स फॉन श्राडर आदि सभी विदेशी विद्वानों द्वारा फैलाई गई भ्रांतियों का अब कोई मतलब नहीं।

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