स्वामी विवेकान्द जी की १५० वीं जयन्ती
- अरविन्द सिसोदिया
१२ जनबरी २०१२ को, स्वामी विवेकान्द जी की १५० वीं जयन्ती, स्वामी जी के बारे में ..................
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स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानन्द (१२ जनवरी,१८६३- ४ जुलाई,१९०२) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासम्मेलन में सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का वेदान्त अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे।
जीवनवृत्त
विवेकानन्दजी का जन्म १२ जनवरी सन् १८६३ को हुआ। उनका घर का नाम नरेन्द्र था। उनके पिताश्री विश्वनाथ दत्त थे। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले 'ब्रह्म समाज' में गये किन्तु वहाँ उनके चित्त को सन्तोष नहीं हुआ। वे वेदान्त और योग के लिए महत्वपुर्ण योगदान दिया है।
श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेन्द्र पर आ पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। अत्यन्त गरीबी में भी नरेन्द्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रात भर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।
स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाह किये बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किये बिना वे गुरु-सेवा में सतत संलग्न रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था।
निष्ठा
एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और लापरवाही दिखायी तथा घृणा से नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को गुस्सा आ गया। उस गुरु भाई को पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा!
यात्राएँ
२५ वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिये। तत्पश्चात् उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन् १८९३ में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानन्दजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किन्तु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये। फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। "आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा" यह स्वामी विवेकानन्दजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। ४ जुलाई सन् १९०२ को उन्होंने देह-त्याग किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। जब भी वो कहीं जाते थे तो लोग उनसे बहुत खुश होते थे।
राष्ट्रीय युवा दिवस
विश्व के अधिकांश देशों में कोई न कोई दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती , अर्थात १२ जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् 1985 ई. को अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारत सरकार ने घोषणा की कि सन १९८५ से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयन्ती का दिन राष्ट्रीय युवा दिन के रूप में देशभर में सर्वत्र मनाया जाए।
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http://en.wikipedia.org/wiki/Swami_Vivekananda
Swami Vivekananda
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स्वामी विवेकानंद के अनमोल विचार
Quote 1 : Arise, awake and stop not till the goal is reached.
In Hindi : उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाये.
Quote 2 : Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter.
In Hindi : उठो मेरे शेरो, इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो , तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो , तुम तत्व नहीं हो , ना ही शरीर हो , तत्व तुम्हारा सेवक है तुम तत्व के सेवक नहीं हो.
Quote 3 : All the powers in the universe are already ours. It is we who have put our hands before our eyes and cry that it is dark.
In Hindi : ब्रह्माण्ड कि सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं. वो हमीं हैं जो अपनी आँखों पर हाँथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अन्धकार है!
Quote 4 : As different streams having different sources all mingle their waters in the sea, so different tendencies, various though they appear, crooked or straight, all lead to God.
In Hindi : जिस तरह से विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न धाराएँ अपना जल समुद्र में मिला देती हैं ,उसी प्रकार मनुष्य द्वारा चुना हर मार्ग, चाहे अच्छा हो या बुरा भगवान तक जाता है.
Quote 5 : Condemn none: if you can stretch out a helping hand, do so. If you cannot, fold your hands, bless your brothers, and let them go their own way.
In Hindi : किसी की निंदा ना करें. अगर आप मदद के लिए हाथ बढ़ा सकते हैं, तो ज़रुर बढाएं.अगर नहीं बढ़ा सकते, तो अपने हाथ जोड़िये, अपने भाइयों को आशीर्वाद दीजिये, और उन्हें उनके मार्ग पे जाने दीजिये.
Quote 6 : Never think there is anything impossible for the soul. It is the greatest heresy to think so. If there is sin, this is the only sin; to say that you are weak, or others are weak.
In Hindi : कभी मत सोचिये कि आत्मा के लिए कुछ असंभव है. ऐसा सोचना सबसे बड़ा विधर्म है.अगर कोई पाप है, तो वो यही है; ये कहना कि तुम निर्बल हो या अन्य निर्बल हैं.
Quote 7 : If money help a man to do good to others, it is of some value; but if not, it is simply a mass of evil, and the sooner it is got rid of, the better.
In Hindi : अगर धन दूसरों की भलाई करने में मदद करे, तो इसका कुछ मूल्य है, अन्यथा, ये सिर्फ बुराई का एक ढेर है, और इससे जितना जल्दी छुटकारा मिल जाये उतना बेहतर है.
Quote 8 : In one word, this ideal is that you are divine.
In Hindi : एक शब्द में, यह आदर्श है कि तुम परमात्मा हो.
Quote 9 : That man has reached immortality who is disturbed by nothing material.
In Hindi : उस व्यक्ति ने अमरत्त्व प्राप्त कर लिया है, जो किसी सांसारिक वस्तु से व्याकुल नहीं होता.
Quote 10 : We are what our thoughts have made us; so take care about what you think. Words are secondary. Thoughts live; they travel far.
In Hindi : हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का धयान रखिये कि आप क्या सोचते हैं. शब्द गौण हैं. विचार रहते हैं, वे दूर तक यात्रा करते हैं.
Quote 11 : You cannot believe in God until you believe in yourself.
In Hindi : जब तक आप खुद पे विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पे विश्वास नहीं कर सकते.
Quote 12 : Truth can be stated in a thousand different ways, yet each one can be true.
In Hindi : सत्य को हज़ार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी हर एक सत्य ही होगा.
Quote 13 : The world is the great gymnasium where we come to make ourselves strong.
In Hindi : विश्व एक व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं.
Quote 14 : All differences in this world are of degree, and not of kind, because oneness is the secret of everything.
In Hindi : इस दुनिया में सभी भेद-भाव किसी स्तर के हैं, ना कि प्रकार के, क्योंकि एकता ही सभी चीजों का रहस्य है.
Quote 15 : The more we come out and do good to others, the more our hearts will be purified, and God will be in them.
In Hindi : हम जितना ज्यादा बाहर जायें और दूसरों का भला करें, हमारा ह्रदय उतना ही शुद्ध होगा , और परमात्मा उसमे बसेंगे.
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राष्ट्र चेतना के कीर्ति पुरुष - स्वामी विवेकानन्द
भारतीय-दर्शन एवं अध्यात्म की चैतन्य, साकार विश्व चेतना का साकार रूप स्वरूप स्वामी विवेकानंद थे, जिनकी वाणी में तेज, हृदय में जिज्ञासाओं का महासागर विद्यमान था। उनकी सत् साहित्य सादृश्य जीवन शैली में संजीवनी सा प्रभाव था। स्वामी जी के मानसिक वैचारिक गुणों के अमृत घट से भारत ही नहीं, अपितु संसार ने भी पाया ही पाया है। स्वामी जी ने देश व दुनियां के दिग्भ्रमित लोगों को नवजीवन, नई सोच, नई दिशा दी। सचमुच तेजस्वी जीवन के धनी गौरवशाली ज्ञान गरिमा के प्रेरक युवा युग पुरुष थे, स्वामी विवेकानंद। स्वामी जी ने भारत की रग-रग में स्वाभिमान व राष्ट्र-चेतना का संचार किया। समाज सुधारक, राष्ट्र चेतना के उन्नायक अध्येता-ज्ञाता-कीर्ति पुरुष स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व व ज्ञान आभा से देश ही नहीं सारा संसार आलोकित हुआ था। आज भी स्वामी विवेकानन्द जी की जीवन शैली व उपदेश प्रासंगिक हैं। प्रेरणा पुरुष स्वामी विवेकानंद जी को आज भी सारे संसार में जाना जाता है।
कहा जाता है कि लीक से हट के चलने वाला व्यक्ति प्रतिभाशाली होता है। इसी क्रम में बात, स्वामी विवेकानंद की। समाज सुधारक राष्ट्र चेतना के कीर्ति पुरुष स्वामी जी ने विदेशी सत्ता के रहते अथवा चलते पराधीन भारत में, जुल्म-शोषण, अन्याय से दुखी, भारतवासियों में एवं राष्ट्र की जख्मी आत्मा, घायल प्राणों में राष्ट्रीय चेतना स्पंदित की। वहीं अंधविश्वासी, रूढवादी समाज को नई दिशा दी। स्वामी जी ने अपने अध्यात्म ज्ञान व आत्मशक्ति से भारतवासियों में आत्मबल का संचार किया। विलक्षण व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानन्द का नाम व काम भारत ही नहीं, अपितु संसार में भी अमर है और रहेगा।
युवा शक्ति के प्रेरणास्रोत विवेकानन्द का जन्म बारह जनवरी, 1863 ई. में कलकत्ता शहर में पिता विश्वनाथ के घर हुआ, इनकी माँ का नाम भुवनेश्वरी था। पुत्र् जन्म पर माँ को लगा, उन्होंने ध्यान कर ईश्वर से मनौती के रूप में जो मांगा था, वही मिला। स्वामी जी का प्रारम्भिक नाम वीरेश्वर था, इस कारण माता ने इन्हें विले कह पुकारा, वहीं पिता ने नाम रक्खा नरेन्द्रनाथ। यही नरेन्द्रनाथ आगे चलके समाज व राष्ट्र चेतना का साकार रूप देश व दुनियां में भारतीयता की पहचान स्वामी विवेकानन्द बने।
ध्यान, चिंतन, मनन, पूजा इनके अपने पारिवारिक संस्कार थे। विद्यालय में प्रवेश पर अंग्रेजी में पढना इन्हें रुचिकर नहीं लगा। कहते थे, यह विदेशी भाषा है, लेकिन बाद में वे अंग्रेजी पढने को राजी हो गए थे। बचपन से ही स्वामी विवेकानन्द मेधावी व विलक्षण थे, माना जाता है बचपन में अपने पडोसी से सुन-सुनकर इन्होंने मुक्तिबोध व्याकरण के सभी सूत्र् कंठस्थ कर लिए थे। माँ भुवनेश्वरी से रामायण व महाभारत सुन कई महत्त्वपूर्ण अंश इन्हें याद हो गए, जो प्रायः जुबान पर रहा करते थे। उच्च पावन संस्कारों में पल्लवित, बचपन में इनकी प्रतिभा का यह आलम था कि पढते वक्त पाठ्यपुस्तकों में छोटी-सी सीमाएं इन्हें संतुष्ट नहीं कर पाती थीं। विडम्बना युवा अवस्था में पिता का साया उठने पर दुखों की अनुभूति स्वाभाविक थी। नौकरी करने पर भी परिवार की स्थिति सामान्य नहीं हुई। इन्हीं तथा और भी कई विकट हालातों से जूझते, कुछ विशेष कर गुजरने के लिए वे बडे बेचैन रहते थे। समाज की विकृत स्थितियों ने भी इनके मन को झकझोरा। कहा जाता है निर्धन, गरीबों व दुखियों को देख इनका हृदय करुणा से भर जाता था, यह द्रवित हो, पास में देने को कुछ नहीं होता तो अपना धोती-कुरता भी दुखियों को दे देते थे। इनका चिंतन था तथा स्वभाव भी कि किसी के जीवन में बैठकर ही उसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। अपनी व्यापक जिज्ञासाओं के चलते ये, ईश्वर की खोज में उन्मुख व चिंतित रहा करते थे। यह कई महन्तों व साधु संतों की शरण में भी गए, किसी एक धार्मिक समाज से भी जुडे, पर बनावटीपन से इनका मन ऊब गया। यह सोचा करते थे, ‘‘ऐसे तत्त्वदर्शी महापुरुष कहाँ मिलेंगे जो ब्रह्म से साक्षात्कार करा दें।’’
अपनी इसी बलवती, प्रबल इच्छाशक्ति के चलते विवेकानंद जी को स्वामी रामकृष्ण परमहंस का शिष्यत्व मिला, जिससे इनकी जिज्ञासाओं को विराम मिला और साथ ही संतुष्टि भी। अपने गुरु से विवेकानंद ने निर्भीकता, आध्यात्मिकता, सच्चरित्र्ता, स्वदेश प्रेम का वरदान व तेजस्वी व्यक्तित्व प्राप्त किया। स्वामी जी प्रायः सोचा करते थे संसार में इतनी विषमताएं क्यों हैं ? जिज्ञासा शांत कैसे हो ? इसी मंथन में इन्होंने अविवाहित रहने का व्रत ले लिया और वैराग्य पथ की ओर इनके कदम बढने लगे। अध्यात्म के पथ पर चलते देश व दुनियां ने स्वामी विवेकानन्द को प्रतिभा व आध्यात्मिकता के चरमोत्कर्ष पर देखा। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में, नरेन्द्र (यानी विवेकानंद जी) ‘‘ध्यानसिद्ध पुरुष थे।’’ साहित्य सदृश जीवन शैली के धनी स्वामी विवेकानन्द के जीवनवृत्त, आध्यात्मिकता व प्रतिभा को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता।
सन् 1893 ई. का विश्व इतिहास में वह यादगार दिन, अमरीका शिकागो शहर में आध्यात्मिक सभा और उसमें स्वामी विवेकानन्द की उपस्थिति। मंच पर विभिन्न देशों के प्रतिनिधि, हजारों श्रोता और अंत में बोलने की बारी आयी, स्वामी विवेकानन्द की। भाइयो और बहनो का सम्बोधन सुनते ही मंचस्थ एवं श्रोता सभी आत्मविभोर और मंत्र्मुग्ध हो उठे। स्वामी जी के बोलने से पाश्चात्य जगत् को मानव जाति के एकत्व की अनुभूति हुई। मंत्र्मुग्ध श्रोता अभिभूत थे। चेतनायुक्त भारतीय आध्यात्मिक दर्शन और स्वामी जी की तेजस्वी वाणी, मंत्र्मुग्ध श्रोताओं की तन्मयता, एक बार तो लगने लगा कि विश्वगुरु भारत की पताका फिर फहरा उठी है। इस संदर्भ में भगिनी निवेदिता ने लिखा है, ‘महासभा में स्वामी विवेकानन्द का अंतिम भाषण सत्ताईस सितम्बर को था, जिसने भारतीय संस्कृति के महत्त्व को सर्वोच्च शिखर पर अधिष्ठित कर दिया।’ मानना होगा, वस्तुतः यही वह दिन था जब विवेकानन्द विश्व में भारत की अमिट पहचान बने। तदुपरान्त स्वामी जी विभिन्न देशों में होते हुए स्वदेश लौटे, इसी क्रम में कोलम्बो से चल वह जहाज से भारतीय समुद्र तट पर पहुँचे, जहाज से उतरते ही वे पहले धरती पर लेट गए और इधर-उधर बार-बार लेटते रहे और बोले, बहुत दिनों बाद माँ का (भारत भूमि) का स्पर्श मिला है। मातृभूमि में लिपट वह सारे कल्मष दूर हो गए। बाद में स्वामी जी मद्रास रुकने के बाद कलकत्ता आए। अब जन जागरण उनका मिशन बन गया था, इसे पूरा करने वे भारत के विभिन्न अंचलों में निकल पडे।
भारत में स्वामी विवेकानन्द ने रूढवादी विचारों, अंधविश्वासों को छोडने एवं पराधीनता को त्यागने का आह्वान किया, उनके विचारों से जनता में विश्वास भर गया, उन्होंने स्वतंत्र्ता के लिए देशवासियों में स्वाभिमान जगाया। स्वामी विवेकानन्द के समाज सुधार के वक्तव्यों ने समाज में अंधभक्तों की आँखें खोल दीं। इसी दौरान स्वामी जी को दुनियां के कई देशों के निमंत्र्ण मिले। वे फिर उन देशों में गए। अब तो विदेशों में भारतीय वेदान्त, दर्शन, आध्यात्मिकता के बजे डंके की गूँज जगह-जगह सुनाई देने लगी थी। वहाँ भी स्वामी जी ने पाश्चात्य भौतिकता की नकारात्मक सोच को उद्बोधित कर काफी कुछ बोला, कहा। बावजूद इसके स्वामी विवेकानन्द लोगों के चहेते विश्व में प्रिय आदर्शों के धनी, मुखरित महान् व्यक्तित्व के रूप में उन्मुखता से स्थापित हुए।
अब बात करें स्वामी विवेकानन्द जी के भारतवर्ष सम्बन्धी विचारों की। उन्होंने यथार्थ दर्शाते हुए कहा, ‘‘भारत भूमि पवित्र् भूमि है, भारत मेरा तीर्थ है, भारत मेरा सर्वस्व है, भारत की पुण्य भूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारतवर्ष है, जहाँ मानव प्रकृति एवं अन्तर्जगत् के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे।’’ स्वामी जी कहा करते थे, ‘‘भारत वर्ष की आत्मा उसका अपना मानव धर्म है, सहस्रों शताब्दियों से विकसित चारित्र््य है।’’ उन्होंने देशवासियों से कहा ‘‘चिन्तन मनन कर राष्ट्र चेतना जागृत करें तथा आध्यात्मिकता का आधार न छोडें।’’ स्वामी जी ने तत्कालीन देश, काल वातावरण पर अपना मंतव्य इस प्रकार स्पष्ट किया। ‘‘सीखो, लेकिन अंधानुकरण मत करो। नयी और श्रेष्ठ चीजों के लिए जिज्ञासा लिए संघर्ष करो।’’ स्वामी जी का यह भी स्पष्ट मत था कि उनका (पाश्चात्य जग का) अमृत हमारे लिए विष हो सकता है। उन्होंने कहा था, दो प्रकार की सभ्यताएं हैं, एक का आधार मानव धर्म, दूसरी का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति। इन्हीं संदर्भों में उनका यह भी कहना था कि समन्वय हो, किन्तु भारत यूरोप नहीं बन सकता, उनके मतानुसार प्रेम से असम्भव भी सम्भव हो सकता है। युवाओं से उनका सम्बोधन था, ‘‘ध्येय के प्रति पूर्ण संकल्प व समर्पण रखो।’’ उन्होंने कहा भारत के राष्ट्रीय आदर्श सेवा व त्याग हैं। देश को त्यागी व समाजसेवी चाहिए। पुनरुत्थान के संदर्भ में उनका कहना था, जिन्दा रहना है तो विस्तार करो, जीवन दान करोगे तो जीवन दान पाओगे। स्वामी जी ने स्पष्ट कहा, हमें पश्चिम से मुक्त होना है, पर उनसे बहुत कुछ सीखना है, सब जगह से अच्छी बात लो। स्वामी विवेकानन्द अक्सर कहते थे, ‘‘नैतिकता, तेजस्विता, कर्मण्यता का अभाव न हो। उपनिषद् ज्ञान के भण्डार हैं उनमें अद्भुत ज्ञान शक्ति है, उनका अनुसरण कर अपनी निज पहचान स्थापित करो।’’
स्वामी विवेकानन्द का अपना अनुभव, उन्होंने कहा ‘‘नासतः सत् जायते*!’’ निरस्तित्व में से अस्तित्व का जन्म नहीं हो सकता। जिसका अस्तित्व है, उसका आधार निरस्तित्व नहीं हो सकता। शून्य में से कुछ सम्भव नहीं। यह ‘कार्यकरण सिद्धान्त’ सर्वशक्तिमान है और देश कालातीत है। इस सिद्धान्त का ज्ञान उतना ही पुराना है, जितनी आर्य जाति। सर्वप्रथम आर्यजाति के पुरातन ऋषि कवियों ने इसका ज्ञान प्राप्त किया, दार्शनिकों ने इसका प्रतिपादन किया और उसे आधारशिला का रूप दिया जिसके ऊपर आज भी सम्पूर्ण सनातन जीवन का प्रासाद खडा होता है।’’ उनका चिंतन था, वेदों में एक सुगठित देव शास्त्र्, विस्तृत कर्मकाण्ड, विविध व्यवसायों की आवश्यकता की पूर्ति हेतु जन्म गत वर्षों पर आधारित समाज रचना एवं जीवन की अनेक आवश्यकताओं का और अनेक विलासिताओं का वर्णन है। उनका कहना था, यही वह पुरातन भूमि है जहाँ ज्ञान ने अन्य देशों में जाने से पूर्व अपनी आवास भूमि बनाई थी, यह वही भारतवर्ष है। इसी धरा से दर्शन के उच्चतम सिद्धान्तों ने अपने चरम स्पर्श किए। इसी भूमि से अध्यात्म एवं दर्शन की लहर पर लहर बार-बार उमडी और समस्त संसार पर छा गयी। वस्तुतः स्वामी विवेकानन्द जी का अपना चिंतन बहुत ही विस्तृत, महान् तथा प्रेरणायुक्त है।
स्वामी विवेकानन्द जी के समय देश की हालत बडी जर्जर थी, उन्होंने लिखा स्वधर्मी, विधर्मी लोगों के दमन चक्र में पिसकर लगभग चेतनाशून्य हो गए। उन्होंने पुनरुत्थान के संदर्भ दान का महत्त्व बताया, धर्मदान, विद्यादान, प्राणदान और अन्न जल दान और भी महत्त्वपूर्ण विचार उनके रहे। उन्होंने कहा ‘‘सत्य दो, असत्य स्वयं मिट जाएगा।’’ ग्रंथों में छिपे आध्यात्मिक ज्ञान को प्रकाश में लाएं। उनके अनुसार, आत्मविश्वास की अपनी अद्भुत शक्ति है। उनके मतानुसार निस्स्वार्थ कार्यकर्त्ता ही सबसे सुखी होता है, निष्काम कर्म ही सर्वोत्तम है, उनका चिंतन रहा, इच्छा, चाह ही प्रत्येक दुख की जननी है। श्रेष्ठ मनुष्यों का भी लोकैषणा पीछा नहीं छोडती। आज के संदर्भों में देखा जा सकता है, उनके विचारों की प्रासंगिकता कितनी सटीक थी और है, कोई व्यक्ति कर्म के लिए कर्म नहीं करता, कहीं न कहीं कोई कामना विद्यमान रहती ही है। धन, सत्ता, यश, लालसा, कोई न कोई आज समाज में, राजनीति में स्पष्ट देखी जा सकती है।
भारतीय और पाश्चात्य नारी संदर्भों में स्वामी जी ने न्यूयॉर्क में भाषण देते हुए कहा, भारतीय स्त्र्यिों की बौद्धिक प्रगति पर मुझे बडी प्रसन्नता होगी, यह बात उन्होंने वहाँ की स्त्र्यिों की बौद्धिक प्रगति देखकर कही थी। ‘‘भारतीय स्त्र्यिां इतनी शिक्षा सम्पन्न नहीं, फिर भी उनका आचार विचार अधिक पवित्र् होता है।’’ उनके मतानुसार स्वदेश भारत में प्रत्येक स्त्री को चाहिए कि वह अपने पति के अतिरिक्त सभी पुरुषों को पुत्र्वत् समझे व पुरुष को चाहिए, अन्य स्त्र्यिों को मातृवत् समझे। शिक्षा संदर्भों को स्वामी विवेकानन्द ने इस प्रकार स्पष्ट किया। उन्होंने कहा, वर्तमान शिक्षा निषेधात्मक एवं निर्जीव है, वस्तुतः शिक्षा में चरित्र् निर्माण के विचारों का सम्मिश्रण हो। शिक्षा का लौकिक परमार्थ हमारे हाथों में हो तथा हमारी आवश्यकता के अनुरूप हो। समाज सुधारक एवं प्रबल राष्ट्र चेतना के धनी स्वामी विवेकानन्द ने समाज सुधार एवं राष्ट्र उत्थान की अलख जगाकर कई महत्त्वपूर्ण बातें कहीं। उनका कहना था जिन खोजा तिन्ह पाइयां...निस्स्वार्थ सही दृष्टिकोण हो, आदर्श के लिए जियो, पूजागृह ही सब कुछ नहीं, मदान्ध मत बनो, कट्टरतावादी मत बनो, अंधविश्वास त्यागो, कठिनाइयों का निर्भीकता से सामना करो। वीर बनो, उदार बनो। आत्मनिरीक्षण करो, अपने में सच्चरित्र् का निर्माण करो। उन्होंने कहा, अपने में क्षुद्र ‘मैं’ से मुक्ति पाओ।
उल्लेखनीय अध्यात्म ज्ञान-चेतना, दर्शन के मनीषी ज्ञाता, भारतीय संस्कृति के प्रखर, मुखरित प्रहरी, समाज सुधार एवं राष्ट्र चेतना जगाने वाले महान् कीर्ति पुरुष स्वामी विवेकानन्द 1892 में हिमालय से विभिन्न स्थलों पर होते हुए कन्याकुमारी पहुँचे थे, वहाँ तट पर स्थित दैवी शक्ति की वंदना कर समुद्र में तैरते हुए ढाई किलोमीटर दूर समुद्र में विशाल चट्टान पर पहुँचे, उसी चट्टान पर ध्यान लगा, चिंतन मनन में तन्मय हो गए। यहाँ स्वामी जी को दिशा बोध हुआ, ज्ञान व प्रेरणा मिली। स्वामी विवेकानन्द यहीं से जलयान द्वारा अमरीका (शिकागो) पहुँचे थे, जहाँ उन्होंने पाश्चात्य जगत् को भारतीय दर्शन अध्यात्म का ज्ञान देकर चकित किया था।
तेजस्वी स्वामी विवेकानन्द जी को कन्याकुमारी में जिस चट्टान पर ध्यान से ज्ञान, प्रेरणा व चेतना मिली, उस चट्टान पर कन्याकुमारी में स्वामी विवेकानन्द का स्मारक बना है। इस स्मारक का उद्घाटन 02 सितम्बर 1970 को पूर्व राष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरी ने किया था। वस्तुतः स्वामी विवेकानन्द का स्मारक समाज सुधार, राष्ट्र चेतना जगाने वाले, युवा कीर्ति पुरुष का स्मारक है। स्वामी विवेकानन्द के समाज सुधारों एवं राष्ट्र चेतना की प्रासंगिकता आज भी अक्षुण्ण है। स्वामी विवेकानन्द देश व दुनियां में अमर हैं। उनके समाज सुधार के कार्य समाज की थाती है तथा उनके द्वारा जगाई राष्ट्र चेतना देश के इतिहास का अहम हिस्सा है। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने उनके सम्बन्ध में भविष्यवाणी की थी, ‘‘तू संसार में महान् कार्य करेगा, तू मनुष्यों में आध्यात्मिक चेतना लाएगा और दीन दुखियों के दुःख दूर करेगा’’, विवेकानन्द ने यह भविष्यवाणी हमेशा याद रखी। निस्संदेह विवेकानन्द, भारत की अमर विभूतियों में हैं। उनकी राष्ट्रीयता, उनके क्रांतिकारी विचार वर्तमान युवा पीढी के मार्गदर्शक हैं। उनकी ओजस्वी वाणी, तेजस्वी व्यक्तित्व, चारित्र्कि दृढता, आध्यात्मिकता स्तुत्य व अविस्मरणीय हैं।
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