भारतीय क्रांति के जनक : बाल गंगाधर तिलक
भारतीय क्रांति के जनक : बाल गंगाधर तिलक
'स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा' - बाल गंगाधर तिलक
बाल गंगाधर तिलक
विवरण
जानकारीबाल गंगाधर तिलक, एक भारतीय राष्ट्रवादी, शिक्षक, समाज सुधारक, वकील और एक स्वतन्त्रता सेनानी थे। ये भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता हुए; ब्रिटिश औपनिवेशिक प्राधिकारी उन्हें "भारतीय अशान्ति के पिता" कहते थे। उन्हें, "लोकमान्य" का आदरणीय शीर्षक भी प्राप्त हुआ, जिसका अर्थ हैं लोगों द्वारा स्वीकृत । । विकिपीडिया
जन्म की तारीख और समय: 23 जुलाई 1856, चिखाली
मृत्यु की जगह और तारीख: 1 अगस्त 1920, मुम्बई
पत्नी: सत्यभामा (विवा. 1871–1920)
माता-पिता: पार्वती बाई गंगाधर, श्री गंगाधर तिलक
शिक्षा: गवर्नमेंट लॉ कॉलेज, मुंबई (1878–1879), डेक्कन कॉलेज (1873–1877)
अन्याय विरोधी थे बाल गंगाधर तिलक, पत्रकारिता के माध्यम से किया था लोगों को जागृत
महान क्रांतिकारियों में से एक बाल गंगाधर तिलक का जन्म इसी दिन हुआ था। बाल गंगाधर तिलक ने भारत को आजाद कराने में अपना पूरा जीवन लगा दिया। वास्तव में, बाल गंगाधर तिलक ने भारत को ब्रिटिश कुशासन से स्वतंत्रता दिलाने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। वह न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि एक समाज सुधारक, शिक्षक, वकील और भारतीय इतिहास, संस्कृत, हिंदू धर्म, गणित और खगोल विज्ञान के विद्वान भी थे और उन्हें बहुत प्रमुख माना जाता था। आप सभी को बता दें कि बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. बाल गंगाधर तिलक के पिता का नाम श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक और माता का नाम पार्वती बाई था।
उन्हें बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक था। वह आधुनिक कॉलेज शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली भारतीय पीढ़ी में थे और यह उनकी महान विद्वता थी कि बड़ी संख्या में लोग उनके अनुयायी थे। उस समय देश में उनके प्रति जनता का प्रेम था और इसी वजह से उन्हें 'लोकमान्य' की उपाधि मिली। 1871 में, बालगंगाधर तिलक का विवाह तापीबाई से हुआ, जिन्हें बाद में सत्यभामाबाई के नाम से जाना गया। आप सभी को यह भी बता दें कि बाल गंगाधर तिलक एक उच्च कोटि के शिक्षक थे, उन्होंने देशवासियों को शिक्षित करने के लिए कई शिक्षा केंद्रों की स्थापना की। उस समय, बाल गंगाधर तिलक ने 'मराठा दर्पण' और 'केसरी' नामक दो मराठी समाचार पत्र निकाले, जो देश के लोगों में स्वतंत्रता की भावना पैदा करने के लिए एक बड़े पाठक वर्ग के साथ बहुत लोकप्रिय हुए।
बालगंगाधर तिलक को विस्तार से पढ़नें के लिये
भारत डिस्कबरी https://bharatdiscovery.org/india
स्वतंत्रता संग्राम
नरम दल के लिए तिलक के विचार
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरम दल के लिए तिलक के विचार ज़रा ज़्यादा ही उग्र थे। नरम दल के लोग छोटे सुधारों के लिए सरकार के पास वफ़ादार प्रतिनिधिमंडल भेजने में विश्वास रखते थे। तिलक का लक्ष्य स्वराज था, छोटे- मोटे सुधार नहीं और उन्होंने कांग्रेस को अपने उग्र विचारों को स्वीकार करने के लिए राज़ी करने का प्रयास किया। इस मामले पर सन् 1907 ई. में कांग्रेस के 'सूरत अधिवेशन' में नरम दल के साथ उनका संघर्ष भी हुआ। राष्ट्रवादी शक्तियों में फूट का लाभ उठाकर सरकार ने तिलक पर राजद्रोह और आतंकवाद फ़ैलाने का आरोप लगाकर उन्हें छह वर्ष के कारावास की सज़ा दे दी और मांडले, बर्मा, वर्तमान म्यांमार में निर्वासित कर दिया। 'मांडले जेल' में तिलक ने अपनी महान् कृति 'भगवद्गीता - रहस्य' का लेखन शुरू किया, जो हिन्दुओं की सबसे पवित्र पुस्तक का मूल टीका है। तिलक ने भगवद्गीता के इस रूढ़िवादी सार को ख़ारिज कर दिया कि यह पुस्तक सन्न्यास की शिक्षा देती है; उनके अनुसार, इससे मानवता के प्रति नि:स्वार्थ सेवा का संदेश मिलता है।
इंडियन होमरूल लीग की स्थापना
मुख्य लेख : इंडियन होमरूल लीग
प्रथम विश्वयुद्ध के ठीक पहले सन् 1914 ई. में रिहा होने पर वह पुन: राजनीति में कूद पड़े और
'स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा' - बाल गंगाधर तिलक
के नारे के साथ इंडियन होमरूल लीग की स्थापना की। सन् 1916 ई. में वह फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए तथा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हुए ऐतिहासिक लखनऊ समझौते पर हस्ताक्षर किए, जो उनके एवं पाकिस्तान के भावी संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के बीच हुआ था, 'इंडियन होमरूल लीग' के अध्यक्ष के रूप में तिलक सन् 1918 में इंग्लैंड गए। उन्होंने महसूस किया कि ब्रिटेन की राजनीति में 'लेबर पार्टी' एक उदीयमान शक्ति है, इसलिए उन्होंने उसके नेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध क़ायम किए। उनकी दूरदृष्टि सही साबित हुई। सन् 1947 ई. में 'लेबर सरकार' ने ही भारत की स्वतंत्रता को मंज़ूरी दी। तिलक पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा था कि भारतीयों को विदेशी शासन के साथ सहयोग नहीं करना चाहिए, इस बात से वह बराबर इंकार करते रहे कि उन्होंने हिंसा के प्रयोग को उकसाया।
स्मरणोत्सव आंदोलन
तिलक सन् 1895 ई. में 'शिवाजी स्मरणोत्सव आंदोलन' के साथ जुड़ गए। उस वर्ष 23 अप्रैल के 'केसरी' में प्रकाशित एक लेख से जनता में इतना उत्साह जागृत हुआ कि रायगढ़ में शिवाजी की समाधि के पुनर्निर्माण के लिए थोड़े ही समय में 20,000 रू. एकत्र हो गए। इसमें से अधिकांश पैसा छोटे-छोटे चंदों से प्राप्त हुआ था।
बाल गंगाधर तिलक
उसी समय से शिवाजी के जन्मदिवस और राज्याभिषेक पर भी समारोह मनाए जाने लगे। जब सन् 1895 ई. के क्रिसमस के दौरान पूना में राष्ट्रीय कांग्रेस का ग्यारहवां अधिवेशन करने का निश्चय किया गया तो पूना की सभी पार्टियों ने सर्वसम्मति से तिलक को 'स्वागत समिति' का सचिव बनाया। इस हैसियत से 'कांग्रेस अधिवेशन' के आयोजन का सभी काम तिलक को करना पड़ा। उन्होंने सितंबर तक कार्य किया। जब इस विषय पर विवाद हो गया कि क्या कांग्रेस के पंडाल में सामाजिक परिषद भी होगी तो पार्टी में जबरदस्त झगड़ा हो गया जिसके कारण तिलक ने स्वयं को इस काम से अलग कर लिया। तथापि, उन्होंने कांग्रेस की गतिविधियों में दिलचस्पी लेना बन्द नहीं किया, बल्कि बाहर रहकर कांग्रेस अधिवेशन को सफल बनाने का पूरा प्रयास किया।
अकाल का प्रभाव
सन1896 ई. में 'बंबई प्रेसीडेंसी' को भंयकर अकाल का सामना करना पड़ा। तिलक पूरी तरह राहत-कार्यों में जुट गए। उन्होंने अकाल- संहिता (फैमीन कोड) लागू करने का आग्रह 'बंबई सरकार' से किया। अकाल का प्रभाव कम करने के लिए उन्होंने सरकार को अनेक सुझाव भी दिए। अगर उन सुझावों को स्वीकार कर लिया जाता तो लोगों की तक़लीफ़ें काफ़ी कम हो जातीं। पूना में उन्होंने समय से सस्ते अनाज की दुकानें खोलकर अकाल के कारण होने वाले दंगों को रोका। जब उन्होंने शोलापुर और अहमदनगर के बुनकरों की तक़लीफ़ों के बारे में सुना तो वे स्वयं मौके पर गए और उन्होंने स्थानीय नेताओं के साथ विचार-विमर्श करके एक योजना बनाई। इसके अंतर्गत स्थानीय समितियों को सरकार के साथ सहयोग करके इस वर्ग के लोगों को उपयुक्त राहत प्रदान करने को कहा गया। यह योजना वैसी ही थी, जैसी उत्तर पश्चिम प्रांत के उपराज्यपाल ने स्वीकार की थी। दुर्भाग्यवश इस विषय पर बंबई सरकार के असहानुभूतिपूर्ण आचरण के कारण यह योजना स्वीकार नहीं की गई और यही नहीं, बंबई सरकार ने इस तरह की योजनाओं को मंज़ूरी देने की व्यवस्था में संशोधन कर दिया। सरकार की नाराज़गी का कारण यह था कि 'पूना सार्वजनिक सभा', जिसके प्रमुख नेता तिलक थे, ने जनता को उन रियासतों से परिचित कराया था, जिसे क़ानून के अंतर्गत वे पाने के अधिकारी थे। इसके अलावा, सभा ने सरकार अधिकारियों को अच्छा नहीं लगा। सभा ने सरकार को अनेक प्रतिवेदन भेजे, लेकिन उनका या तो संक्षिप्त और रूखा जवाब मिला या कोई जवाब मिला ही नहीं, और अंतत: इस पर पूरे तौर पर पाबंदी लगा दी गई। यह सब अप्रत्यक्ष रूप से तिलक पर दबाव बनाने के लिए किया गया था, लेकिन वे निर्भर होकर अधिकाधिक कार्य करते रहे।
लेखक के रूप में
कर्मयोग शास्त्र -श्रीमद्भागवत गीता रहस्य
तिलक अपना सारा समय हलके-फुलके लेखन में लगाने वाले व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने अब अपने ख़ाली समय का उपयोग किसी अच्छे कार्य में लगाने का संकल्प लेकर उसे अपनी प्रिय पुस्तकों भगवद्गीता और ऋग्वेद के पठन-पाठन में लगाया। वेदों के काल-निर्धारण से संबंधित अपने अनुसंधान के परिणामस्वरूप उन्होंने वेदों की प्राचीनता पर एक निबंध लिखा। जो गणित-ज्योतिषीय अवलोकन के प्रमाणों पर आधारित था। उन्होंने इस निबंध का सारांश इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ ओरिएंटलिस्ट के पास भेजा जो सन् 1892 ई. में लंदन में हुई। अगले वर्ष उन्होंने इस पूरे निबंध को पुस्तकाकार में दि ओरिऑन या दि रिसर्च इनटु द एंटिक्विटी ऑफ द वेदाज शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित किया। उन्होंने इस पुस्तक में ओरिऑन की ग्रीक परंपरा और 'लक्षत्रपुंज' के संस्कृत अर्थ 'अग्रायण या अग्रहायण' के बीच संबंध को ढूंढा है। क्योंकि अग्रहायण शब्द का अर्थ वर्ष का प्रारंभ है, वे इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि ऋग्वेद के सभी स्रोत जिनमें इस शब्द का संदर्भ है या इसके साथ जो भी विभिन्न परंपराएँ जुड़ी थीं, की रचना ग्रीक लोगों के हिंदुओं से पृथक् होने से पूर्व की गई होगी।
यह वह समय रहा होगा, जब वर्ष का प्रारंभ सूर्य के ओरिऑन या मृगशिरा नक्षत्र पुंज में रहते समय अर्थात् ईसा से 4000 वर्ष पहले हुआ होगा। इस पुस्तक की प्रशंसा यूरोप और अमेरिकी विद्वानों ने की। अब यह कहा जा सकता है कि तिलक के निष्कर्षों को लगभग सभी ने स्वीकार कर लिया है। अनेक प्राच्यविदों, जैसेकि - मैक्समुलर, वेबर, जेकोबी, और विटने ने लेखक की विद्वता और मौलिकता को स्वीकार किया है। पुस्तक के प्रकाशन के बाद तिलक ने कुछ समय तक प्रोफेसर मैक्समुलर और वेबर के साथ पुस्तक में उठाए गए कुछ भाषा-विज्ञानीय प्रश्नों पर दोस्ताना पत्र व्यवहार किया। इसके परिणामस्वरूप दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए कि इस विषय के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा जा सकता है।
तिलक की पुस्तक की प्रशंसा
अमेरिका के प्रो. विटने ने सन् 1894 ई. में अपनी मृत्यु से कुछ पहले ‘जर्नल ऑफ दि अमरीकन ओरिएंटल सोसाइटी’ में एक लेख लिख कर तिलक के सिद्धांतों की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। इसी तरह 'जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी' के 'डॉ. ब्लूमफील्ड' ने एक वार्षिकोत्सव में भाषण करते हुए तिलक की पुस्तक की प्रशंसा इन शब्दों में की थी-
ब्लूमफील्ड के शब्दों में तिलक की पुस्तक की प्रशंसा
‘‘पिछले दो-तीन महीने के दौरान अत्यधिक महत्त्व की एक साहित्यिक घटना हुई है- एक ऐसी घटना, जो निश्चय ही आनंददायक स्मृतियों से अधिक विज्ञान और संस्कृति की दुनिया में उथल-पुथल मचा देगी। लगभग दस सप्ताह पहले मुझे भारत से एक छोटे आकार की पुस्तक मिली। उसकी साज-सज्जा भद्दी थी और स्थानीय प्रेस में छपाई के कारण उसमें अनेक ग़लतियाँ थीं। यह पुस्तक मुझे लेखक ने, जिससे मेरा कोई परिचय नहीं था, शुभकामनाओं के साथ भेजी थी। मैंने लेखक का नाम कभी भी नहीं सुना था। बाल गंगाधर तिलक, बी.ए. एल.एल.बी, लॉ के लेक्चरर और वक़ील, पूना। इस पुस्तक का प्रकाशन श्रीमती राधाबाई आत्माराम सैगून, पुस्तक-विक्रेता और प्रकाशक, बंबई ने किया है। पुस्तक का शीर्षक है ‘ओरिऑन या रिसर्चेज इनटु द एंटिक्विटी ऑफ वेदाज़’। मेरे पास यह पुस्तक मुझे इसके पक्ष में करने के लिए नहीं भेजी गई थी। मैंने इसे एक ऐसी जगह पर रख दिया, जहाँ से मैं इसे रात्रि-भोज के बाद आसानी से उठा सकूँ और कुछ पृष्ठ पढ़ने के बाद अलग रख सकूँ। डाक के जरिए इस तरह की बहुत-सी-सामग्री मेरे पास पहुँचती रहती है।
बाल गंगाधर तिलक
इसकी भूमिका बहुत उत्साहवर्धक नहीं थी। लेखक नम्रता के साथ सूचित करता है कि ऋग्वेद का रचनाकाल ईसा के जन्म से चार हज़ार वर्ष पहले से कम नहीं हो सकता और हिन्दू परंपरा के साथ इसका काल ईसा के 6000 वर्ष पूर्व होना चाहिए। हिंदुओं को प्रचुर कल्पना-शक्ति, के बारे में कुछ भी स्वीकार करने की प्रवृत्ति को ध्यान में रख कर मैंने सोचा कि मैं पुस्तक के कुछ पन्ने उलट कर उसे मुस्कुराहट के साथ अलग रख दूँगा। लेकिन कुछ ही समय बाद मेरी मुस्कुराहट गायब हो गई और मुझे लगा कि कोई असाधारण घटना हो गई है। सबसे पहले मैं लेखक की इस बात से प्रभावित हुआ कि उन्होंने वैदिक साहित्य और इस विषय से संबंधित पाश्चात्य साहित्य का गंभीर अध्ययन किया है। शीघ्र ही मेरा सतही अध्ययन गंभीर अध्ययन में बदल गया। उपहास की भावना के स्थान पर मैं लेखक की बातों का कायल होने लगा। निस्संदेह यह पुस्तक साहित्य के क्षेत्र में सनसनी पैदा करने वाली है। तिलक की खोज के परिणामों को समझने में काफ़ी समय लगेगा।" अगर तिलक तत्काल उसी दिशा में आगे बढ़ते रहते और उन अनेक प्रश्नों का समाधान खोज़ते, जो उनकी पुस्तक में अनुत्तरित रह गए थे तो अच्छा होता, लेकिन लॉ लेक्चरर और पत्रकारिता व्यवसाय के कारण उनको भाषाशास्त्र और इतिहास से संबंधित प्रश्नों पर ध्यान देने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाता था।
तिलक और मुक़दमा
बापट केस
तिलक सन् 1894 ई. में एक महत्त्वपूर्ण मामले में व्यस्त हो गए। इस मामले के साथ उनके एक मित्र और 'बड़ौदा रियासत', दोनों के व्यापक हित जुड़े थे। यह प्रसिद्ध ‘बापट केस’ था। 'राव साहब डब्ल्यू. एस. बापट', जो बंदोबस्त विभाग के अध्यक्ष थे, पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोपों पर मुक़दमा चलाने के लिए विशेष आयोग नियुक्त किया गया था। यह केस बंदोबस्त विभाग के विरुद्ध एक षड्यंत्र का नतीजा था। यह षड्यंत्र वास्तव में 'ब्रिटिश ‘पॉलिटिकल’ विभाग का कारनामा था। श्री बापट के मु्क़दमे की कुछ विशेषताएँ थीं। यह मुक़दमा महाराज के पीठ-पीछे चलाया जा रहा था। वे यूरोप के दौरे पर थे। महाराजा के शत्रुओं को आशा थी कि मु्क़दमे के दौरान कुछ ऐसी बातें प्रकट की जाएँगी जिनसे महाराज की प्रशासन क्षमता पर चोट पहुँचेगी। लोग केवल बंदोबस्त विभाग से ही नाराज़ नहीं थे, बल्कि वे कई उच्च अधिकारियों से भी नाराज़ थे। यह स्पष्ट था कि श्री बापट को बलि का बकरा बनाया जा रहा था। उन्हें न केवल अपने अपराधों की, बल्कि दूसरों के अपराधों की भी सज़ा दी जानी थी। अभियोजन पक्ष की ओर से माननीय 'पी.एम. मेहता' और बाद में बैरिस्टर 'श्री ब्रेन्सन' और बचाव पक्ष के लिए 'श्री एम.सी. आप्टे' और 'श्री डी.ए. खरे' वक़ील थे। लेकिन बचाव का अधिकांश भार तिलक पर था। अभियोजन पक्ष के गवाहों से की गई जिरह और बचाव पक्ष के लिए दिए गए उनके अकाट्य तर्क उनकी मेहनत और योग्यता के जीते-जागते प्रमाण हैं।
पाँच अधिवेशन
तिलक की गतिविधियाँ समकालीन राजनीति में थमी नहीं। अब वे 'राष्ट्रीय कांग्रेस की डेक्कन स्थायी समिति' के सचिव नहीं रहे थे, लेकिन 'बंबई प्रांतीय सम्मेलन' के सचिव के रूप में उन्होंने उसके पाँच अधिवेशन आयोजित किए। पाँचवाँ अधिवेशन 'श्री पी.एम. मेहता' की अध्यक्षता में सन् 1892 ई. में आयोजित किया गया और पूरी तरह सफल रहा।
राजद्रोह का मुक़दमा
तिलक ने संकट की घड़ी में जनता को भाग्य के भरोसे छोड़ देने के लिए पूना के नेताओं की आलोचना की। तिलक की गतिविधियों ने जल्दी ही उन्हें ब्रिटिश सरकार के साथ टकराव की स्थिति में ला खड़ा किया। लेकिन उनकी सार्वजनिक सेवाऐं उन्हें मुक़दमे और उत्पीड़न से नहीं बचा सकीं। सन् 1897 ई. में उन पर पहली बार राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया। सरकार ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें जेल भेज दिया इस मुक़दमे और सज़ा के कारण उन्हें लोकमान्य
की उपाधि मिली। भारत के वाइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न ने जब सन् 1905 ई. में बंगाल का विभाजन किया, तो तिलक ने बंगालियों द्वारा इस विभाजन को रद्द करने की मांग का ज़ोरदार समर्थन किया और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार की वक़ालत की, जो जल्दी ही एक देशव्यापी आंदोलन बन गया। अगले वर्ष उन्होंने सत्याग्रह के कार्यक्रम की रूपरेखा बनाई, जिसे नए दल का सिद्धांत [2]कहा जाता था। उन्हें उम्मीद थी कि इससे ब्रिटिश शासन का सम्मोहनकारी प्रभाव ख़त्म होगा और लोग स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु बलिदान के लिए तैयार होंगे। तिलक द्वारा शुरू की गई राजनीतिक गतिविधियों, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और सत्याग्रह को बाद में मोहनदास करमचंद गाँधी ने अंग्रेज़ों के साथ अहिंसक असहयोग आंदोलन में अपनाया।
तिलक को जमानत
श्री रेंड और लेफ्टिनेंट आयर्स्ट की हत्या कुछ अज्ञात लोगों द्वारा 22 जून को कर दी गई। इससे बंबई और पूना में, विशेष रूप से 'एंग्लो इंडियन समुदाय' में जबरदस्त उत्तेजना फ़ैली। 26 जुलाई को बंबई सरकार ने तिलक पर मुक़दमा चलाने की मंजूरी प्रदान की और 27 जुलाई को पूर्वी भाषाओं के अनुवादक श्री बेग ने बंबई के 'चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट' श्री जे. सेंडर्स स्लेटर के सामने सूचना रखी। 27 जुलाई की रात में तिलक को बंबई में गिरफ़्तार कर लिया गया और दूसरे दिन उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। इसके फौरन बाद मजिस्ट्रेट के सामने ज़मानत की अर्जी दाख़िल की गई। सरकार ने दृढ़ता और सफलता के साथ इसका विरोध किया।
29 तारीख को इसी तरह की एक अर्जी उच्च न्यायालय में दाख़िल की गई, जिसे फिर से आवेदन करने की अनुमति के साथ अस्वीकार कर दिया गया। 2 अगस्त को यह केस हाई कोर्ट सेशन के सुपर्द कर दिया गया और अध्यक्ष न्यायाधीश, न्यायमूर्ति बदरुद्दीन तैयबजी के सामने जमानत की अर्जी फिर दाख़िल की थी। ज़मानत की अर्जी का प्रबल विरोध एडवोकेट जनरल ने किया लेकिन न्यायाधीश ने तिलक को ज़मानत दे दी।
मुक़दमे की सुनवाई
बाल गंगाधर तिलक का मुक़दमा, बॉम्बे उच्च न्यायालय (1897)
यह मुक़दमा उचित समय पर, 8 सितंबर को सुनवाई के लिए आया। सुनवाई एक सप्ताह तक चली। कलकत्ता बार के श्री प्यू और उनकी सहायता के लिए श्री गार्थ बचाव पक्ष में तिलक की ओर से और एडवोकेट जनरल श्री बेसिल लाग अभियोजन पक्ष की ओर से थे। न्यायमूर्ति स्ट्रैची ने मुक़दमें की सुनवाई की। जूरी के सदस्य थे पाँच यूरोपीय ईसाई, एक यूरोपीय यहूदी, दो हिन्दू और एक पारसी। जूरी के छह यूरोपीय सदस्यों ने आरोपी को दोषी ठहराया, जबकि तीन देशी सदस्यों ने उन्हें निर्दोष माना। न्यायाधीश ने बहुमत के निर्णय को स्वीकार कर लिया और तिलक को अठारह महीने की कड़ी क़ैदी की सज़ा सुनाई। जब जूरी के सदस्य अपने निर्णय पर विचार करने के लिए चले गए थे, अभियुक्त की ओर से न्यायाधीश को आवेदन दिया गया कि क़ानून के कुछ प्रश्न पूरी बैंच के विचारार्थ सुरक्षित कर दिए जाएँ। इस आवेदन को स्वीकार नहीं किया गया। बाद में 'एडवोकेट जनरल' को दिया गया इसी तरह का एक प्रार्थनापत्र नामंजूर कर दिया गया। 17 सितंबर, सन् 1897 ई. को उच्च न्यायालय से यह प्रमाणपत्र जारी करने का अनुरोध किया गया कि यह केस 'प्रिवी काउंसिल' में अपील करने योग्य है इस आवेदन की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश सर चार्ल्स फैरन, न्यायमूर्ति कैंडी और न्यायमूर्ति स्ट्रैची ने की और उसे अस्वीकार कर दिया।
न्याय की अपील
प्रिवी काउंसिल में न्याय की अपील की गई। माननीय श्री एसक्विथ ने, जो बाद में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री हुए, 19 नवंबर, 1897 को तिलक की अपील पर बहस की। लॉर्ड हेल्सबरी, लॉर्ड चांसलर [3] जो उस समय इंग्लैंड के कैबिनेट मंत्री थे, लीक से हटकर काउंसिल की बैठक की अध्यक्षता करने गए। सभी को पता था कि कैबिनेट के एक अन्य मंत्री [4] ने इस मुक़दमें को चलाने की मंजूरी दी थी। श्री एसक्विथ ने अपनी बहस में इस बात पर बहुत ज़ोर दिया कि न्यायमूर्ति स्ट्रैची ने जूरी को ग़लत निर्देश दिए थे। लेकिन प्रिवी काउंसिल ने समूची गवाही के सार और विवरण पर विचार करने के बाद फ़ैसले में परिवर्तन करने लायक़ कोई बात नहीं पाई। परिणामस्वरूप अपील करने की अनुमति देने का प्रार्थनापत्र नामंजूर कर दिया गया।
इस प्रकार तिलक के लिए न्याय पाने के सभी रास्ते बंद को गए। लेकिन इन घटनाओं का गहरा असर ब्रिटेन की जनता पर पड़ा। प्रो0 मैक्समुलर और सर विलियम हंटर ने अपनी विशाल हृदयता के साथ, जो उनके चरित्र का अभिन्न पहलू था, महारानी को एक प्रतिवेदन भेजने का आयोजन किया। इस पर महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे। इस प्रतिवेदन में अनुरोध किया गया था कि तिलक के प्रति इस आधार पर दया प्रदर्शित की जाएँ कि वे एक विद्वान् हैं और उनकी रिहाई के पक्ष में बहुत कुछ कहा जा सकता है। अन्य बातों के साथ इस प्रार्थनापत्र का असर हुआ और बातचीत के बाद तिलक कुछ औपचारिक शर्तें [5] मानने के लिए तैयार हो गए और उन्हें मंगलवार 6 सितंबर, 1898 को 'बंबई के महामहिम गर्वनर' के आदेशों पर छोड़ दिया गया।
रिहाई के बाद
तिलक कारावास में अत्यधिक दुर्बल हो गए थे। अपना स्वास्थ्य सुधारने के लिए उन्होंने पहले कुछ दिन 'सिंहगढ़ सेनीटोरियम' में बिताए, दिसंबर में मद्रास में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने के बाद उन्होंने श्रीलंका का दौरा किया। अपने आंदोलन को जहाँ छोड़ा था, वहीं से उसे फिर शुरू करने और आगे बढ़ाने में अगले दो वर्ष उन्होंने लगाए। उनके बहुत से काम उनके जेल जाने के कारण रुक गए थे। रायगढ़ क़िले में सन् 1900 ई. में एक विशाल ‘शिवाजी महोत्सव’ आयोजित किया गया। शिवाजी की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए एक स्मारक बनाने की दिशा में भी कुछ काम आगे बढ़ा। लेकिन किसी भी अन्य कार्य से अधिक महत्त्वपूर्ण उनका वेदों की प्राचीनता-संबंधी कार्य था।
द आर्कटिक होम इन दि वेदाज़
‘ओरिऑन’ पर पुस्तक के प्रकाशन के बाद उन्हें यह कार्य करने की ज़रूरत गहराई से महसूस हो रही थी। अपनी नई पुस्तक, द आर्कटिक होम इन दि वेदाज की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा कि पिछले दस वर्षों के दौरान मेरा काफ़ी समय उन प्रमाणों की खोज में लगा है, जो वेदों पर छाए कुहरे को उठा देंगे और तब उन पर गहरी दृष्टि डाली जा सकेगी। इसके बाद उन्होंने ‘ओरिऑन’ में व्यक्त विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए काम शुरू किया। मनुष्य जाति के आदिकालीन इतिहास से संबंधित भूविज्ञान और पुरातत्त्व की नवीनतम खोज़ों के अध्ययन के बाद वह एक अलग तरह की खोज की ओर धीरे-धीरे बढ़े और अंतत: इस नतीजे पर पहुँचे कि वैदिक ऋषियों के पूर्वज हिमानी युग में उत्तर ध्रुवीय क्षेत्र में रहते थे। जेल में अपने जबरन अवकाश का उपयोग उन्होंने ऋग्वेद के संपूर्ण संस्करण जिसे उनके पास 'प्रोफेसर मैक्समूलर' ने भेजा था, की सहायता से अपने इन सिद्धान्तों को विकसित करने में किया।
नई पुस्तक का प्रकाशन
नई पुस्तक की पहली पांडुलिपि सिंहगढ़ में सन् 1898 ई. के अंत में लिखी गई, लेकिन तिलक ने जानबूझकर इसका प्रकाशन देर से किया। वे इस विषय में भारत के संस्कृत विद्वानों से विचार-विमर्श करना चाहते थे, क्योंकि खोज अनेक दिशाओं में मुड़ रही थी। पुस्तक मार्च, सन् 1903 ई. में प्रकाशित की गई। सर्वत्र इसका स्वागत हुआ। उसके बारे में केवल एक विद्वान् 'बोस्टन विश्वविद्यालय' के अध्यक्ष और ‘पेराडाइज फाउंड’ के लेखक 'डॉ. एफ. डब्ल्यू. वारेन' के विचारों को यहाँ उद्धृत किया जा रहा है, जो सितंबर सन् 1905 ई. की ओपन कोर्ट मैग़जीन, शिकागो में प्रकाशित हुए थे।
बाल गंगाधर तिलक अपने परिवार के साथ
डॉ. एफ. डब्ल्यू. वारेन के तिलक के प्रति विचार
‘‘यहाँ केवल यह कहना पर्याप्त है कि वर्तमान लेखक ने अपनी राय के समर्थन में जो प्रमाण दिए हैं, वे इसके पहले किसी भारतीय या ईरानी विद्वान् द्वारा किसी परिकल्पना को सिद्ध करने के लिए दिए गए प्रमाणों से अधिक निर्णायक हैं। विषय की विवेचना करते हुए शुरू से लेकर आख़िर तक पूरी स्पष्टवादिता और ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक खोज के तौर-तरीक़ों का पूरा सम्मान किया गया है। शुरू में मैं यह सोचता था कि इसके सच होने की संभावना बहुत कम है लेकिन इसके पक्ष में जो प्रमाण एकत्र किए गए उनके कारण मुझे इसे स्वीकार करना पड़ा।
बीस वर्ष पहले मानव जाति के मूल स्थान संबंधी शोध करते समय मैंने सभी वैदिक और अवेस्ता-संबंधी रचनाएँ उस समय तक उपलब्ध उनके अनुवाद पढ़े और मैं उसी नतीजे पर पहुँचा जिस पर तिलक पहुँचे हैं। मेरे तर्क में प्राचीन ईरानियों के पौराणिक भूगोल और ब्रह्मांड-वर्णन के कुछ बिंदुओं पर नई रोशनी डाली गई थी। मेरे इस कार्य को ईरानी विषयों के आचार्य प्रोफेसर स्पीगेल ने स्वीकार किया। मैंने ठहरे हुए जल और अन्य वैदिक मिथकों की भी नई व्याख्या की। अत: मेरे लिए यह विशेष रूप से प्रसन्नता का विषय था कि तिलक भी लगभग उन्हीं मुख्य निष्कर्षों पर और अनेक गौण निष्कर्षों पर पहुँचे, जिन पर मैं पहुँचा था। उल्लेखनीय है कि तिलक अपनी खोज के लिए इन ग्रंथों के अनुवाद पर नहीं बल्कि उनके मूलपाठ पर निर्भर थे। सुदूर देश में रहने वाले इस व्यक्ति को मैं सार्वजनिक रूप से धन्यवाद देना चाहता हूँ, जिसने इस क्षेत्र में मेरे कार्य की सराहना करने की उदारता प्रदर्शित की। इस क्षेत्र में उनका काम ठोस, मोहक और अधिक आधिकारिक है। जो कोई भी मनोयोग के साथ इस पुस्तक को और जॉन ओ. नील की पुस्तक, दि नाइट आफ गाड्स को पढ़ेगा, वह कभी भी यह सवाल नहीं पूछेगा कि आर्यों का आदि देश कहाँ था।"
इस पूरे दौर में तिलक अपना मानसिक संतुलन बनाए रख कर बिना किसी बाधा आदि के वे किस प्रकार अपना सामान्य काम-काज कर सके। उन्होंने कैसे प्रसन्नता का भाव बनाए रखा और अपने क़ानूनी सलाहकारों के लिए बौद्धिक प्रेरणा के स्रोत बने। गहरी चिंताओं, जिसे उनके ज्येष्ठ पुत्र की मौत ने और उग्र कर दिया था। किस प्रकार वे अपने मस्तिष्क को मुक्त और अलग-थलग रख सकें ताकि अपने प्रिय साहित्यिक अध्ययन के कार्य को जारी रख सकें तथा अपनी पुस्तक ‘दि आर्कटिक होम इन वेदाज’ को प्रकाशित कर सके- ये सभी शोध के विषय हैं।
राजनीति में योग्य नेता
तिलक बाद में पूना की मूल अधिकार क्षेत्र की अदालत में दत्तक-ग्रहण का मुक़दमा जीत गए। इससे उनके शब्द और कार्य पूरी तरह उचित प्रमाणित हो गए। अगले वर्ष तिलक ने अपने निजी मामलों, विशेषकर समाचारपत्र और छापेखाने से संबंधित कार्यों को संगठित एवं ठीक-ठाक किया। ‘केसरी’ की प्रसार संख्या में अत्यधिक बढ़ोतरी हो गई थी। अत: उसकी छपाई के लिए एक बड़ी मशीन का आयात करना ज़रूरी हो गया था। महाराजा गायकवाड़ ने 'पूना का गायकवाड़ बाड़ा' उन्हें उचित दाम पर उनके हाथों बेच दिया। इससे तिलक ज़रूरत के मुताबिक़ अपने समाचारपत्र और उसके छापेखाने को स्थायी जगह दे सके। अपनी बहुमुखी प्रतिभा का उपयोग उन्होंने मराठी भाषा के लिए नई किस्म के टाइप के विकास के लिए भी किया। वे इस टाईप का इस्तेमाल मराठी लाइनो टाइप मशीन में करना चाहते थे। इस कार्य में उन्हें उल्लेखनीय सफलता मिली। उनके नए टाइप की डिज़ाइन को इंग्लैंड में लाइनो टाइप निर्माताओं ने मंज़ूर कर लिया था, लेकिन मराठी टाइप से युक्त लाइनो टाइप मशीन के आयात में देरी हो गई। दरअसल देश में बहुत ही कम छापेखाने ऐसे थे, जो देवनागरी लाइनो टाइप मशीनों का खर्च उठा पाते थे। इसलिए इंग्लैंड के लाइनो टाइप निर्माताओं को इस बात के लिए तैयार नहीं किया जा सका कि वे अपनी पूँजी एक नई किस्म के टाइप वाली मशीन में फँसा दें।
बाल गंगाधर तिलक
तिलक सन् 1905 ई. से सक्रिय राजनीतिक आंदोलन में पूरी तरह कूद गए थे। बंगाल के विभाजन के कारण देश में राष्ट्रवादी भावनाओं का ज्वार आया। इसी के साथ स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा आदि स्वराज्य जैसे कार्यक्रम शुरू किए गए। बनारस कांग्रेस ने इन भावनाओं को संगठित और शक्तिशाली ढंग से प्रकट किया। यह बात स्वीकार की जाने लगी कि तिलक राष्ट्रवादियों की पार्टी (नेशनलिस्ट पार्टी) के सबसे योग्य नेता हैं और उन्हीं के कारण 'बंगाल के विभाजन' के बाद पश्चिमी भारत में राष्ट्रवाद की मशाल जलती रही है।
तिलक का दृष्टिकोण
अगले वर्ष निंदनीय हिन्दू-मुस्लिम दंगे के बाद अनेक नए प्रश्न सामने आए। उनसे राजनीतिक वातावरण में जबरदस्त परिवर्तन आया। तिलक इन नई चुनौतियों का सामना करने के लिए सबसे आगे थे। उन्होंने 'एंग्लो इंडियन' अधिकारियों की नीतियों का जबरदस्त विरोध किया। इन अधिकारियों ने भी अनुभव किया कि आम जनता पर उनका कितना प्रभाव है। सांप्रदायिक दंगों के बारे में तिलक का दृष्टिकोण चाहे सही या ग़लत हो, स्पष्ट और निर्भ्रांत था। उनका कहना था कि हिन्दू-मुस्लिम दंगो का कारण कुछ अदूरदर्शी एंग्लो इंडियन अधिकारियों द्वारा गुप्त रूप से इन दोनों संप्रदायों के लोगों को भड़काना है। उनकी राय में इस शरारत की जड़ लॉर्ड डफ़रिन द्वारा शुरू की गई फूट डालो और राज करो की नीति है। इन दंगों को नियंत्रित करने का एकमात्र तरीक़ा यह है कि सरकारी अधिकारी हिन्दू मुसलमानों के बीच कड़ाई के साथ निष्पक्ष आचरण करें। उन्होंने कुछ वर्ग के अधिकारियों के विरुद्ध पक्षपात का प्रत्यक्ष आरोप लगाया जिसे स्वभावत: इन अधिकारियों ने पसंद नहीं किया। गवर्नर लॉर्ड हैरिस और उनके सचिव श्री ली वार्नर, दोनों तिलक के इन विचारों से नाराज़ थे, लेकिन तिलक सरकारी नाराज़गी से डरने और दबने वाले व्यक्ति नहीं थे। अपने पत्र 'केसरी' के जरिए आम जनता पर उनका व्यापक प्रभाव था और यही प्रभाव मुख्य रूप से जनता में एक नई भावना विकसित कर रहा था। शिक्षित लोगों में भी उनका प्रभाव बहुत था। वे दो बार 'स्थानीय विधान परिषद्' और बंबई विश्वविद्यालय के ‘फेलो’ निर्वाचित किए गए। सन् 1895 ई. में वे 'पूना नगरपालिका' के सर्वाधिक मतों से सदस्य निर्वाचित हुए। एक कुशल कार्यकर्ता के रूप में उन्हें सहयोगियों का आदर मिला।
सामाजिक और राजनीतिक दर्शन
अपनी पुरानी परंपरा और संस्थाओं के प्रति जनता में अब नई जागरूकता प्रकट हो रही थी। इसके सबसे स्पष्ट उदाहरण थे पुरानी धार्मिक आराधना, गणपति-पूजन और शिवाजी के जीवन से जुड़े प्रसंगों पर महोत्सवों का आयोजन। इन दोनों आंदोलनों के साथ तिलक का नाम घनिष्ठ रूप से जुड़ा है। तिलक का दृढ़ विश्वास था कि पुराने देवताओं और राष्ट्रीय नेताओं की स्वस्थ वंदना से लोगों में सच्ची राष्ट्रीयता और देशप्रेम की भावना विकसित होगी। विदेशी विचारों और प्रथाओं के अंधानुकरण से नई पीढ़ी में अधार्मिकता पैदा हो रही है और उसका विनाशक प्रभाव भारतीय युवकों के चरित्र पर पड़ रहा है। तिलक का विश्वास था कि अगर स्थिति को इसी प्रकार बिगड़ने दिया गया तो अंतत: नैतिक दीवालिएपन की स्थिति आ जाएगी, जिससे कोई भी राष्ट्र उबर नहीं सकता। यह एक गंभीर समस्या थी और भारत सरकार तक ने उस समय इस ओर ध्यान दिया था। सरकार की नज़र में इस बीमारी का इलाज भारतीय स्कूलों में नैतिक शिक्षा की पाठ्यपुस्तकों की पढ़ाई शुरू करना था। तिलक ने सरकार के इस सुझाव की कठोर आलोचना 'मराठा' के अनेक अंकों में की। तिलक के विचार में, भारतीय युवकों को स्वावलंबी और अधिक ऊर्जावान बनाने के लिए उनको अधिक आत्म-सम्मान का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। यह तभी किया जा सकता है, जब उन्हें अपने धर्म और पूर्वजों का अधिक आदर करना सिखाया जाएँ। अत्यधिक और निरुद्देश्य आत्मआलोचना एक तपस्वी या दार्शनिक के लिए अच्छी हो सकती है, लेकिन व्यावहारिक जीवन में इससे प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। अतिरिक्त देशप्रेम के कारण कभी थोड़ी-बहुत अप्रिय स्थिति उत्पन्न हो सकती है, लेकिन इसके अच्छे नतीजे भी निकलते हैं, जबकि पूर्ण आत्मत्याग का नतीजा केवल आलस्य और मौत हो सकती है।
संक्षेप में, यही तिलक का सामाजिक और राजनीतिक दर्शन है। इस बारे में दो राय हो सकती हैं कि यह सही है या नहीं लेकिन कोई व्यक्ति यह नहीं कह सकता है कि उन्होंने इसका अनुसरण नहीं किया। तिलक पर अकसर सामाजिक सुधारों के मामले में ढोंग और अस्थिरता का आरोप लगाया गया है। वे अपनी ही तरह के व्यावहारिक समाज-सुधारक थे। उन्होंने अपनी लड़कियों को शिक्षा दी, शास्त्र सम्मत अधिकतम आयु होने तक उनका विवाह स्थगित किया, जाति संबंधी प्रतिबंधों में छूट देने की अपील की और आमतौर पर समाज-सुधार आंदोलन का समर्थन किया। लेकिन इसके बावज़ूद उन्होंने समाज-सुधार पार्टी की आलोचना की। सतही स्तर पर निरीक्षण करने वालों को उनके व्यवहार में यह विरोधाभास नज़र आता है, जबकि उनके विरोधी इसका कारण उनकी सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने की इच्छा बताते थे। वास्तविकता यह है कि इस विषय में उनका आचरण उनके पक्के विश्वास का नतीजा था। वे समाज-सुधार चाहते थे- लेकिन उनको उन आदमियों और उनके तरीक़ों पर, जो समाज सुधार की आवाज़ उठा रहे थे, विश्वास नहीं था। उनकी राय में, पिछली पीढ़ी के समाज-सुधारकों के पास ना तो वह योग्यता थी और न वे नैतिक गुण थे, जो सुधार आंदोलन की सफलता के लिए आवश्यक हैं। अत: उनकी आलोचना आम तौर पर उन व्यक्तियों के विरुद्ध होती थी, उन उद्देश्यों के विरुद्ध नहीं होती थी जिसके लिए ये लोग कार्य कर रहे थे। वास्तव में राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों की आलोचना के बारे में उनका सिद्धांत यही था। वे किसी सरकारी क़दम का अनुमोदन कर सकते थे लेकिन उस उपाय को लागू करने वाले अधिकारियों की आलोचना करते थे। इसी प्रकार वे किसी सुधार को लागू करने के पक्ष में होते थे लेकिन वे उन लोगों की आलोचना करते थे, जो इस सुधार के मठाधीश होने का दावा करते थे।
घटना-प्रधान जीवन
तिलक का जीवन घटना-प्रधान रहा है। वे मौलिक विचारों के व्यक्ति थे। वह संघर्षशील और परिश्रमशील थे। वे आसानी से कुछ भी ठुकरा सकते थे। वह तब विशेष प्रसन्नता का अनुभव करते थे, जब उन्हें कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता था। उनके अधिकांश कार्य परोपकार की भावना से भरे होते थे। उनकी एकमात्र इच्छा थी लोगों की भलाई के लिए कार्य करना और यह बात स्वीकार की जाती है कि वे अपनी इस इच्छा को काफ़ी हद तक पूरी करने में सफल रहे थे। उनमें योग्यता, अध्यवसाय, उद्यमशीलता और देशप्रेम का ऐसा अनूठा संगम था कि अंग्रेज़ सरकार उनसे हमेशा चौकस रहती थी। तिलक के अनेक मित्र उनके प्रति शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार के रवैये को संभवत: यह कह कर स्वीकार करेंगे कि यह उनके वास्तविक मूल्यों का जीता-जागता प्रमाणपत्र है।
मृत्यु
सन 1919 ई. में कांग्रेस की अमृतसर बैठक में हिस्सा लेने के लिए स्वदेश लौटने के समय तक तिलक इतने नरम हो गए थे कि उन्होंने 'मॉन्टेग्यू- चेम्सफ़ोर्ड सुधारों' के ज़रिये स्थापित 'लेजिस्लेटिव काउंसिल' (विधायी परिषदों) के चुनाव के बहिष्कार की गाँधी की नीति का विरोध नहीं किया। इसके बजाय तिलक ने क्षेत्रीय सरकारों में कुछ हद तक भारतीयों की भागीदारी की शुरुआत करने वाले सुधारों को लागू करने के लिए प्रतिनिधियों को सलाह दी कि वे उनके ‘प्रत्युत्तरपूर्ण सहयोग' की नीति का पालन करें। लेकिन नए सुधारों को निर्णायक दिशा देने से पहले ही 1 अगस्त, सन् 1920 ई. में बंबई में तिलक की मृत्यु हो गई। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए महात्मा गाँधी ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता और नेहरू जी ने भारतीय क्रांति के जनक की उपाधि दी।
जब गजानन बने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में सहायक...
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव का जो सार्वजनिक पौधरोपण किया था वह अब विराट वट वृक्ष का रूप ले चुका है। ऋद्धि-सिद्धि के देव गणेशजी न केवल भारत में अपितु तिब्बत, चीन, वर्मा, जापान, जावा एवं बाली, थाईलैंड, श्रीलंका, म्यांमार एवं बोर्नियो इत्यादि तमाम देशों में भी विभिन्न रूपों में पूजे जाते हैं। यही नहीं, इन देशों में गणेशजी की प्रतिमाएं भी चप्पे-चप्पे पर देखने को मिलती हैं। भारतीय पुराणों में गणेश जी की अनेक कथाएं समाहित हैं।
ब्रितानी हुकूमत की गुलामी की जंजीरों से देश को आजाद करने के लिये फड़फड़ा रहे क्रांतिकारियों ने गणेशोत्सव को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया था। दरअसल, अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों को एकजुट करने के लिए गणेशोत्सव जैसा पर्व जरूरी था जहां सभी लोग एक पांडाल के नीचे मिल सकें और वहां फिरंगियों को सत्ता से उखाड़ फेंकने पर चर्चा की जाए लेकिन ब्रितानी शासन काल में कोई भी हिन्दू सांस्कृतिक कार्यक्रम या उत्सव को साथ मिलकर या एक जगह इकट्ठा होकर मनाने की इजाजत नहीं थी।
अंग्रेज हुक्मरानों को हमेशा यह डर सताता रहता था कि हिन्दुस्तानी एक साथ इकट्ठा होंगे तो वह सरकार के खिलाफ षडयंत्र रचेंगे हालांकि गोरों के लाख बंदिश लगाने के बावजूद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में पुणे में पहली बार सार्वजनिक रूप से गणेशोत्सव मनाया।
पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा गया, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का जरिया बनाया गया और एक आंदोलन का स्वरूप दिया गया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
गणेशोत्सव सार्वजनिक होने के बाद इसे आजादी की लड़ाई के उपयोग के लिए किए जाने की बात पूरे महाराष्ट्र में फैल गई। बाद में नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का नया ही आंदोलन छेड़ दिया था। अंग्रेज भी इससे घबरा गए थे। इस बारे में रोलेट समिति की रिपोर्ट में भी चिंता जताई गई थी।
रिपोर्ट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन विरोधी गीत गाती हैं, स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं। पर्चे में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाने और मराठों से शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है। साथ ही अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष को जरूरी बताया जा रहा है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें