वीर अमरसिंह राठौड़ और बल्लू चम्पावत : राजस्थान के महान वीर जिन्होनें शाहजाह के किले में घुस कर वीरता के झण्डे गाढ दिये थे
वीर अमरसिंह राठौड़ और बल्लू चम्पावत
राजस्थान के महान वीर जिन्होनें शाहजाह के किले में घुस कर वीरता के झण्डे गाढ दिये थे
वीरवर अमरसिंह राठौड़ (11 दिसम्बर 1613 - 25 जुलाई 1644 )...
" सस्ती पड़ी न सूर सूं, खग साटै खिल्लीह।अमरै बाही आगरै, पतशाही हिल्लीह।। "
अर्थात - वीर अमरसिंह (नागौर) की खिल्ली उड़ाना मुगलों को महँगा पड़ा, प्रतिशोध में उठी उसकी तलवार ने आगरा में मुगलिया सल्तनत को हिला दिया।
स्वाभिमान के प्रतीक, आत्मसम्मान व् आन बान की रक्षा करने वाले, मुगल बादशाह शाहजहां को हिला कर रख देने वाले वीरवर अमरसिंह राठौड़ जी को कोटिश: नमन ..
अमर सिंह राठौड़ जोधपुर रियासत के राजा गजसिंह के बड़े पुत्र थे । किन्तु षड्यंत्र के कारण उनको जोधपुर की गद्दी नही मिली थी ।
अमरसिंह राठौड़ ने आगरा के भरे दरबार मे मुगल बादशाह शाहजहां के साले सलावत खां का सर धड़ से अलग कर दिया था ।
अमरसिंह जी की मृत्यु के पश्चयात उनके शव को भरे दरबार मे उठाकर किले की दीवार कूद गए थे बल्लू जी चम्पावत ।
अपने स्वाभिमान और धर्म रक्षा हेतू 31 वर्ष की आयु में अमरसिंह राठौड़ वीरगति को प्राप्त हुए ।
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मुगल सत्ता के बढ़ते प्रभाव के कारण रावजी को शाही दरबार में सैनिक सेवा देने के लिए बाध्य होना पड़ा । लेकिन फिर भी वे हर बार शाही दरबार से अनुपस्थित ही रहते ।
दिनों बाद अमरसिंह जी शाही दरबार में उपस्थित हुए। शाही दरबार लगा हुआ था और मुगल शासक शाहजहा का साला सलावत खान जो दिल्ली का प्रधानमन्त्री था. उसने रावजी को अपशब्द कहे जो एक स्वाभिमानी राजपूत यह सहन नहीं कर सका और रावजी ने अपनी कटार निकाली और सलावत खान का बध कर दिया। अगले ही क्षण शाहजंहा पर तलवार से वार कर दिया, लेकिन पहले से सचेत शाहजंहा वंहा से भागने में सफल हुआ ।
उनकी इस वीरता पर एक दोहा है -
" उन मुख ते गगो कहियो, उत् कर गयी कटार।ग कह पायो नहीं, जमदत्त हो गयी पर ।। "
अर्भात - अमरसिंह जी काफी दिन बाद जब दरबार में आये तो सलावत खान ने उनको कहा की आप इतने दिन कहा थे तब अमर सिंह जी ने उसको आँख दिखाई तो सलावत खान उनको गंवार कहना चाह रहा था तब उसने ग ही कहा था तभी अमरसिंह जी ने अपनी कटार बाहर निकाल ली और सलावत खान के " वार " कहने से पहले ही कटार को सलावत के शरीर मे घौंप दी और घोडे सहित आगरा के किले की दिवार से कूद कर बाहर आ गए।
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अमरसिंह राठौड़ युद्ध –
इसके बाद अमरसिंह राठौड़ ई.स 1935 में नागौर बहुत और अलाय के परगने जागीर में मिले थे उसके बाद ई.स 1640 -41 में पंजाब राज्य के विद्रोह का दमन करने हेतु मुग़ल सम्राट ने उनका मनसब बढाकर चार हज़ार जात और तीन हज़ार घोड़े सवार कर दिया था। कुछ दिनों के बाद ई.स 1642 में जाखनियाँ गांव को लेकर बीकानेर के राजा कर्णसिंह और अमरसिंह राठोड के बिच एक युद्ध हुआ था।
वह मतीरे के राड के नाम से प्रसिद्ध थे , इस लड़ाई में अमरसिंह ने अपनी ताकत अजमाते हुए युद्ध को अपनी और करदेने के जित लिया था। और दूसरे वक्त युद्ध में नागौर के बीकानेर से हार सहन करनी पड़ी थी। इसकी वजह से अमरसिंह को मुग़ल दरबार में बहुत बड़ा सन्मान मिला था। वह देखकर वहा के आसपास के सरदार अमरसिंह को निचे दिखाने की साजित करते रहते थे।
अमरसिंह और शाहजहाँ का विवाद –
केसरीसिंह जोधा को बादशाह की आज्ञा के कारण अटक पार जाना था। लेकिन इस आदेश पालने में हिचकिचाहट बताई तो तब उनका मनसब ले लिया था। यह संदेश अमरसिंह को मिला तब अमरसिंह केसरीसिंह को मिलने तुरत गए और बादशाह की नाराजगी की बिना परवाह किए, उन्होंने 30 हज़ार का पट्टा तथा नागौर सुरक्षा का उत्तरदायित्व उनको सौपा था। ऐसे ही अमरसिंह ने जोधा की सन्मान की रक्षा करके दिखाई थी।
अमरसिंह के प्रति कान भंभेरणी –
अमरसिंह के विरोधी मनसबदारो को उसके विरुद्ध बादशाह के कान भरने का अच्छा अवसर मिला था। इस कान भरने में सुलावत खान भी शामिल था। इसका असर बादशाह पर भी पड़ा। उन्होंने एक दिन अमरसिंह को एक कटु वचन सुनाए तभी अमरसिंह का स्वाभिमान जाग उठा और क्रोध से उसके नेत्र लाल हो गए। इसका फायदा अमरसिंह के विरोधी ने उठाया और मनसबदारों ने विरुद्ध बादशाह के कान भरने का सबसे बेहतरीन अवसर प्राप्त हुआ और उसमे सुलावत खान भी मिला हुआ था। उसका असर सीधा बादशाह पर पड़ा था और अमरसिंह एव बादशाह शाहजहाँ के बिच विवाद उत्पन हुआ था।
भारतीय संस्कृति में स्मरण –
वीर अमर सिंह राठौड़ भारतीय संस्कृति में इच्छा ,स्वतंत्रता और असाधारण शक्ति के मुख्य प्रतीक कहा करते है। वह कोई भी ना लालच ना डर वह अपने फैसले पर सबसे अडग रहने में सक्षम थे। उन्होंने वह एक स्वतंत्र इन्सान के रूप में वीरगति को प्राप्त करलिया था। उनकी पत्नी बल्लू जी चंपावत की शौर्य और बहादुरी की गाथा आज भी राजस्थान राज्य के लोकगीतों और अमर सिंह राठौर की रागनी आगरा के विस्तरो मे और उनके आसपास गूंजती हुई सुनाई देती है।
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अमरसिंह राठौड़ (11 दिसम्बर 1613 - 25 जुलाई 1644) मारवाड़ राज्य के प्रसिद्ध राजपूत थे। वो १७वीं सदी में भारत के मुग़ल सम्राट शाह जहाँ के राजदरबारी थे।[1] अपने परिवार द्वारा निर्वासित करने के बाद वो मुग़लों की सेवा में आये। उनकी प्रसिद्ध बहादुरी और युद्ध क्षमता के परिणामस्वरूप उन्हें सम्राट द्वारा शाही सम्मान और व्यक्तिगत पहचान मिली। जिसके बाद उन्हें नागौर का सुबेदार बनाया गया और बाद में उन्होंने ही यहाँ शासन किया। सन् १६४४ में उनकी अनधिकृत अनुपस्थिति में सम्राट द्वारा कराधान से नाराज हुये और कर लेने के लिए जिम्मेदार सलाबत खान का तलवार से गला काट दिया। उनका वर्णन राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब के कुछ लोकगीतो में प्रसिद्धि प्राप्त है।
राजा गज सिंह मुगल शासक शाहजहां के अधीन मारवाड़ क्षेत्र के शासक थे। उनके पुत्र अमर सिंह राठौड़ एक महान योद्धा और एक देशभक्त थे, लेकिन उनके पिता ने उन्हें मुगलों से एक डाकू को बचाने के कारण राज्य से निर्वासित कर दिया था। बाद में वह शाहजहां की दिल्ली सल्तनत में शामिल हो गए जहा उन्होंने शाहजहां को अपनी वीरता से प्रभावित किया। जिससे उन्हें नागौर का जागीरदार बनाया गया। हालांकि सम्राट के भाई सलाबत खान, राज्य में अमर सिंह राठौड़ के उत्थान से जलते थे और अमर सिंह को बदनाम करने का अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें जल्द ही यह मौका मिल गया जब अमर सिंह की अनधिकृत अनुपस्थिति के बारे में कुछ छोटी सी चीजों के बारे में पता चला। सलाबत खान ने एक मुद्दा के रूप में इसे इतना बढ़ा दिया कि शाहजहां ने सलाबत से अमर सिंह को दंड देने का आदेश दिया। इसका फायदा उठाते हुए, सलाबत ने अमर सिंह को धमका कर उसी वक्त दंड का भुगतान करने को कहा। सलाबत ने यह भी चेतावनी दी कि वह अमर सिंह को बिना दंड का भुगतान किये उन्हें जाने नहीं देंगे। अमर सिंह ने अपनी तलवार बाहर निकाली और सलाबत को मौके पर मौत के घाट उतार दिया। सम्राट शाहजहां भी इस घटना से अचंभित हो गए और अमर सिंह को मारने के लिए अपने सैनिकों का आदेश दिया। हालांकि, बहादुर अमर ने अपने युद्ध कौशल को दिखाया और उन सभी को मार डाला जिन्होंने उनपर आक्रमण किया था। वह जल्दी से किले से भाग गए और सुरक्षित स्थान पर लौट गए।
अगले दिन अदालत में सम्राट ने घोषणा की कि अमर सिंह को मारने वाले को जगीरदार बना दिया जाएगा हालांकि कोई भी अमर सिंह राठौर के साथ दुश्मनी मोल लेने के लिए तैयार नहीं था, क्योंकि उन्हें सिर्फ एक दिन पहले ही अमर सिंह क्रोध का सामना करना पड़ा था। अर्जुनसिंह जो अमर सिंह के साले थे , ने लालच में आकर इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। अर्जुनसिंह ने अमरसिंह से कहा कि शाहजहां को अपनी गलती का एहसास हो गया है और वे अमरसिंह जैसा योद्धा नहीं खोना चाहता। हालांकि अमर सिंह को शुरुआत में विश्वास नहीं था, परन्तु जल्द ही वे अर्जुनसिंह के विश्वासघात की कला के झांसे में आ गए।
इस बीच, शाहजहां की अदालत के सामने एक छोटा दरवाजा खड़ा किया गया था, जिससे अमर सिंह को अदालत में प्रवेश करने के लिए उसके सामने झुकना पड़ेगा। पहले अमर के कृत्यों को और अदालत में कार्यवाही देखकर , एक उत्सुक फकीर ने सम्राट से पूछा, "हम इतने सारे योद्धाओं वाले हिंदुस्तान को कैसे जीत सकते हैं" शाहजहां ने कहा, "रुको और देखें कि हम कैसे करेंगे "। अमर सम्राट के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं था और अर्जुनसिंह ने ये जान लिया। उसने अमर सिंह को पहले प्रवेश करने कहा। अमर ने उनकी सलाह मान ली , अर्जुनसिंह दूसरी तरफ से आया और अमर सिंह की छाती में खंजर घोंप दिया ,अमर सिंह वही पर वीरगति को प्राप्त हुए। तो अर्जुनसिंह ने उनका सर काटा और सम्राट के पास ले गया। राजा ने फकीर की ओर इशारा किया और कहा "अब तुम्हें पता है कि हमने योद्धाओं से कैसे छुटकारा दिलाया"। बाद में शाहजहां ने अर्जुनसिंह को भी मार दिया।
अमर सिंह की मृत्यु की सूचना पर, बल्लू जी चंपावत और राम सिंह के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने किले पर हमला किया, जहां अमर सिंह का मृत शरीर पड़ा था । हालांकि हजारों मुगल सैनिकों ने राजपूत बलों को घेर लिया, बहादुर राजपूत बलों ने उनका सामना किया, जब तक कि अमर सिंह के शरीर को किले से दूर नहीं ले जाया गया। यद्यपि उन सभी राजपूत लड़ाकों ने अपना जीवन मृत्यु को समर्पित कर दिया, लेकिन वे कभी भी मुगल सल्तनत के सामने झुके नहीं ।
बाद में, किले का वह संकीर्ण दरवाजा आम तौर पर "अमर सिंह दरवाजा" के रूप में जाना जाने लगा, क्योंकि यह मुस्लिम सेना के समक्ष राजपूत बहादुरी का प्रतीक था। कुछ इतिहासकारों का दावा है कि शाहजहां ने स्थायी रूप से दरवाजा बंद करने का आदेश दिया, क्योंकि वह उसे राजपूत बलों के हाथों से उनकी हार की याद दिलाता था। नागौर जिले में अमरसिंह राठौड़ की 16 खंबो की छतरी है। अमरसिंह राठौड़ को "कटार का धनी" कहा जाता है। लोक कथा में उन राजपूत लड़ाकों की प्रशंसा में एक हृदयस्पर्शी गायन शैली विकसित हुई, जो स्वाभिमान के लिए लड़े और गर्व से मरे । आज आगरा के किले में आने वाले पर्यटकों के लिए मुख्य द्वार अमर सिंह द्वार ही है ।
क्योंकि यह मुस्लिम सेना के ऊपर राजपूत बहादुरी का प्रतीक था। कुछ इतिहासकारों का दावा है कि शाहजहां ने स्थायी रूप से दरवाजा बंद करने का आदेश दिया क्योंकि यह उन्हें राजपूत बलों के हाथों से उनकी हार की याद दिलाता था। लोक कथा में उन राजपूत लड़ाकों की प्रशंसा में एक हृदयस्पर्शी गायन शैली विकसित हुई , जो स्वाभिमान के लिए लड़े और गर्व से मरे।आज आगरा के किले में आने वाले पर्यटकों के लिए मुख्य द्वार अमर सिंह द्वार ही है। अमर सिंह राठौड़ को असाधारण शक्ति, इच्छा और स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता है। न ही डर, न ही लालच अपने फैसले को प्रभावित करने में सक्षम थे। वह एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में अमर सिंह राठौर वीरगति को प्राप्त हुए और बल्लू जी चंपावत की बहादुरी अभी भी राजस्थान में लोकगीतों और आगरा के आसपास याद है।
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राजस्थान के महान वीर जिन्होनें शाहजाह के किले में घुस कर वीरता के झण्डे गाढ दिये थे
राजा गज सिंह मुगल शासक शाहजहां के अधीन मारवाड़ क्षेत्र के शासक थे । उनके पुत्र अमरसिंह राठौड़ एक महान योद्धा और एक देशभक्त थे, लेकिन उनके पिता ने उन्हें मुगलों से एक डाकू को बचाने के कारण राज्य से निर्वासित कर दिया था। बाद में वह शाहजहां की दिल्ली सल्तनत में शामिल हो गए, जहाँ उन्होंने शाहजहां को अपनी वीरता से प्रभावित किया, जिससे उन्हें नागौर का जागीरदार बनाया गया । हालांकि सम्राट के भाई सलाबत खान, राज्य में अमर सिंह राठौड़ के उत्थान से जलते थे और अमर सिंह को बदनाम करने का अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें जल्द ही यह मौक़ा मिल गया, जब अमर सिंह की अनधिकृत अनुपस्थिति के बारे में कुछ छोटी-छोटी बातों के बारे में पता चला । सलाबत खान ने एक मुद्दे के रूप में इसे इतना बढ़ा दिया कि शाहजहां ने सलाबत को अमर सिंह को दंड देने का आदेश दिया । इसका फायदा उठाते हुए, सलाबत ने अमर सिंह को धमका कर उसी वक्त दंड का भुगतान करने को कहा। सलाबत ने यह भी चेतावनी दी कि वह अमर सिंह को बिना दंड का भुगतान किये उन्हें जाने नहीं देगा । अमर सिंह ने अपनी तलवार बाहर निकाली और सलाबत को मौके पर मौत के घाट उतार दिया । सम्राट शाहजहां भी इस घटना से अचंभित हो गए और अमर सिंह को मारने के लिए अपने सैनिकों को आदेश दिया। हालांकि, बहादुर अमर ने अपना युद्ध कौशल दिखाया और उन सभी को मार डाला, जिन्होंने उनपर आक्रमण किया था। और अपने घोड़े पर सवार होकर किले से घोड़े सहीत छलांग लगा दी और किले से बाहर निकल कर सुरक्षित स्थान पर लौट गए।
अगले दिन अदालत में सम्राट ने घोषणा की कि अमर सिंह को मारने वाले को जागीरदार बना दिया जाएगा, हालांकि कोई भी अमर सिंह राठौर के साथ दुश्मनी मोल लेने के लिए तैयार नहीं था, क्योंकि उन्हें सिर्फ एक दिन पहले ही अमर सिंह क्रोध का सामना करना पड़ा था । अर्जुन सिंह जो अमर सिंह के साले थे, ने लालच में आकर इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। अर्जुनसिंह ने अमरसिंह से कहा कि शाहजहां को अपनी गलती का एहसास हो गया है, और वह अमर सिंह जैसा योद्धा नहीं खोना चाहता । हालांकि अमर सिंह को शुरूआत में इस बात पर विश्वास नहीं था, परन्तु जल्द ही वे अर्जुनसिंह के विश्वासघात की कला के झांसे में आ गए।
इस बीच, शाहजहां की अदालत के सामने एक छोटा दरवाजा खड़ा किया गया था, जिससे अमर सिंह को अदालत में प्रवेश करने के लिए उसके सामने झुकना पड़े । पहले अमर के कृत्यों को और अदालत में कार्यवाही देखकर, एक उत्सुक फकीर ने सम्राट से पूछा, "हम इतने सारे योद्धाओं वाले हिंदुस्तान को कैसे जीत सकते हैं" शाहजहां ने कहा, "रुको और देखो कि हम कैसे करते हैं"। अमर सम्राट के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं था और अर्जुनसिंह ने ये जान लिया। उसने अमर सिंह को पहले प्रवेश करने कहा। अमर ने उसकी सलाह मान ली, अर्जुनसिंह दूसरी तरफ से आया और अमर सिंह की छाती में खंजर घोंप दिया,अमर सिंह वही पर वीरगति को प्राप्त हुए। तो अर्जुनसिंह ने उनका सर काटा और सम्राट के पास ले गया । राजा ने फकीर की ओर इशारा किया और कहा "अब तुम्हें पता हो गया कि हमने योद्धाओं से कैसे छुटकारा पा लिया"। बाद में शाहजहां ने अर्जुनसिंह को भी मार दिया ।
अमर सिंह की मृत्यु की सूचना पर, उनकी पत्नी, बल्लू जी चंपावत और राम सिंह के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने किले पर हमला किया, जहां अमर सिंह का मृत शरीर पड़ा था । हालांकि हजारों मुगल सैनिकों ने राजपूत बलों को घेर लिया, बहादुर राजपूत बलों ने उनका सामना किया, जब तक कि अमर सिंह के शरीर को किले से दूर नहीं ले जाया गया। यद्यपि उन सभी राजपूत लड़ाकों ने अपना जीवन मृत्यु को समर्पित कर दिया, लेकिन वे कभी भी मुगल सल्तनत के सामने झुके नहीं । बाद में, किले का वह संकीर्ण दरवाजा आम तौर पर "अमर सिंह दरवाजा" के रूप में जाना जाने लगा, क्योंकि यह मुस्लिम सेना के समक्ष राजपूत बहादुरी का प्रतीक था। कुछ इतिहासकारों का दावा है कि शाहजहां ने स्थायी रूप से दरवाजा बंद करने का आदेश दिया, क्योंकि वह उसे राजपूत बलों के हाथों से उनकी हार की याद दिलाता था। नागौर जिले में अमरसिंह राठौड़ की 16 खंबो की छतरी है। अमरसिंह राठौड़ को "कटार का धनी" कहा जाता है। लोक कथा में उन राजपूत लड़ाकों की प्रशंसा में एक हृदयस्पर्शी गायन शैली विकसित हुई, जो स्वाभिमान के लिए लड़े और गर्व से मरे । आज आगरा के किले में आने वाले पर्यटकों के लिए मुख्य द्वार अमर सिंह द्वार ही है ।
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बल्लूजी चाम्पावत
✍️जोधपुर के महाराजा गजसिंह ने अपने जयेष्ट पुत्र अमरसिंह को जब राज्याधिकार से वंचित कर देश निकला दे दिया तो बल्लूजी चाम्पावत व भावसिंह जी कुंपावत दोनों सरदार अमरसिंह के साथ यह कहते हुए चल दिए कि यह आपका विपत्ति काल हैं व आपत्ति काल में हम सदैव आपकी सहायता करेंगे ,यह हमारा वचन हैं। और दोनों ही वीर अमरसिंह के साथ बादशाह के पास आगरा आ गए। यहाँ आने पर बादशाह ने अमरसिंह को नागौर परगने का राज्य सौंप दिया। अमरसिंह जी को मेंढे लड़ाने का बहुत शौक था इसलिए नागौर में अच्छी किस्म के मेंढे पाले गए और उन मेंढों की भेड़ियों से रक्षा हेतु सरदारों की नियुक्ति की जाने लगी और एक दिन इसी कार्य हेतु बल्लू चांपावत की भी नियुक्ति की गयी इस पर बल्लूजी यह कहते हुए नागौर छोड़कर चल दिए कि ” मैं विपत्ति में अमरसिंह के लिए प्राण देने आया था ,मेंढे चराने नहीं।
✍️ अब अमरसिंह के पास राज्य भी हैं ,आपत्ति काल भी नहीं, अत: अब मेरी यहाँ जरुरत नहीं है |
और बल्लू चांपावत महाराणा के पास उदयपुर चले गए , वहां भी अन्य सरदारों ने महाराणा से कहकर उन्हें निहत्थे ही “सिंह” से लड़ा दिया | सिंह को मारने के बाद बल्लूजी यह कर वहां से भी चल दिए कि वीरता की परीक्षा दुश्मन से लड़ाकर लेनी चाहिए थी। जानवर से लड़ाना वीरता का अपमान है। और यह कहकर उन्होंने उदयपुर भी छोड़ दिया किन्तु महाराणा बल्लु जी की वीरता से अति प्रसन्न हुए और महाराणा ने मित्रता की सौगंध देकर मित्रता पक्की कर ली…
✍️इसके बाद जब सन् 1644-45 के करीब अमरसिंह राठौड़ आगरा के किले में सलावत खां को मारने के बाद खुद धोखे से मारे गए , तब उनकी रानी हाड़ी ने सती होने के लिए अमरसिंह का शव आगरे के किले से लाने के लिए बल्लू चांपावत व भावसिंह कुंपावत को बुलवा भेजा ………क्योंकि विपत्ति में सहायता का वचन उन्ही दोनों वीरों ने दिया था…
✍️बल्लूजी चाम्पावत ने जैसे ही यह दुखद समाचार सुना तो वह सन्न रह गया। अमरसिंह राठौड़ जैसे शूरवीर योद्घा के समय मुगल बादशाही का ऐसा क्रूरतापूर्ण कृत्य सुनकर चाम्पावत का चेहरा तमतमा गया। उसने आसन्न संकट का सामना करने और मां भारती की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का निश्चयय किया….. बल्लू चाम्पावत के हृदय में देशभक्ति और स्वामी भक्ति की सुनामी मचलने लगी, उसकी भुजाएं फडकने लगीं, उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसी घटना और वह भी अमरसिंह राठौड़ के साथ हो सकती है? उसने बिना समय खोये निर्णय लिया, तलवार उठायी और एक योद्घा की भांति मां भारती के ऋण से उऋण होने का संकल्प लेकर चल दिया….
✍️अभी बल्लू सिंह ने एक पग ही रखा था कि बाहर से एक सेवक दौड़ा हुआ आया। उसने बल्लू चाम्पावत से कहा कि ”महोदय मेवाड़ के महाराणा ने आपको स्मरण करते हुए एक घोड़ा भेंट स्वरूप आपकी सेवा में भेजा है।”
बल्लू चाम्पावत की आर्थिक स्थिति उस समय अच्छी नहीं थी। उसने जब यह समाचार सुना कि मेवाड़ के महाराणा ने एक घोड़ा उसके लिए भेजा है तो उसे हार्दिक प्रसन्नता हुई, क्योंकि जिस मनोरथ के लिए वह निकल रहा था-उसके लिए घोड़े की नितांत आवश्यकता थी। इसलिए बल्लू चाम्पावत को लगा कि महाराणा के द्वारा भेजे गये घोड़े की शुभसूचना उसी समय मिलना जब इसकी आवश्यकता थी-निश्चय ही एक शुभ संयोग हैं। उसने अपने लक्ष्य की साधना के लिए मेवाड़ी घोड़े का ही प्रयोग करने का निर्णय लिया। उसके मेवाड़ से आये व्यक्ति को ससम्मान अपने प्रयोजन की जानकारी देकर बताया कि महाराणा जी से हमारा प्रणाम बोलना और उन्हें हमारी विवशता की जानकारी देकर यह भी बता देना कि बल्लू चाम्पावत यदि अपनी लक्ष्य साधना में सफल होकर जीवित लौट आया तो आपके चरणों में उपस्थित होकर अवश्य ही भेंट करेगा और यदि नही लौट सका तो भी संकट के समय अवश्य ही उपस्थित होऊंगा……
✍️अब बल्लू चाम्पावत की दृष्टि में केवल आगरा दुर्ग चढ़ चुका था, उसे एक पल भी कहीं व्यर्थ रूकना एक युग के समान लग रहा था। इसलिए बिना समय गंवाये वह आगरा की ओर चल दिया। उसके कई साथी उसके साथ थे। घोड़ों की टाप से जंगल का एकांत गूंजता था। मानो भारत के शेर दहाड़ते हुए शत्रु संहार के लिए सन्नद्घ होकर चढ़े चले जा रहे थे। शत्रु निश्चिंत था। उसे नहीं लग रहा था कि कोई ‘माई का लाल’ अमरसिंह राठौड़ के शव को उठाकर ले जाने में सफल भी हो सकता है? यद्यपि बादशाह के सैनिक अमरसिंह राठौड़ के शव की पूरी सुरक्षा कर रहे थे और अपने दायित्व का निर्वाह पूर्णनिष्ठा के साथ कर रहे थे। फिर भी उनमें निश्चिंतता का भाव था, उनके भीतर यह भावना थी कि किले के भीतर आकर शव को उठाने का साहस किसी का नही हो सकता। बस, यह सोचना ही उनकी दुर्बलता थी और उनकी सुरक्षा व्यवस्था का सबसे दुर्बल पक्ष भी यही था…
✍️अमरसिंह राठौड़ का शव दुर्ग के बीचों-बीच रखा था। उधर बल्लूजी चाम्पावत तीव्र वेग के साथ किले की ओर भागा आ रहा था। उसके दल के घोड़ों के वेग के सामने आज वायु का वेग भी लज्जित हो रहा था। हवा आज उसका साथ दे रही थी और बड़े सम्मान के साथ उसे मार्ग देती जा रही थी।
✍️अचानक मुगल सैनिकों के बीच एक नौजवान वीर लड़ाई लड़ रहा है बल्लु जी को समझतें देर न लगी कि एक तीव्र वायु का झोंका मुगल दुर्ग के द्वारों को धक्का देकर भीतर प्रवेश कर रहा है। वह नौजवान अमर सिंह जी की भतीजा राम सिंह ही हैं इससे पूर्व कि वह उस वायु के वेग को समझ पाते कि यह कोई हवा ना होकर मां भारती का सच्चा सपूत बल्लूसिंह चाम्पावत अपने स्वामी के शव के पास मुगल सैनिकों से लड़ते हुए राम सिंह और बल्लु सिंह जी दुर्ग में प्रवेश कर चुके थे। मुगल सैनिक दुर्ग में उनके प्रवेश की कहानी को समझ नही पाये और इससे पहले कि वह उसे शव के पास घेर पाते भारत के यह शेर अपने स्वामी को एक झटके के साथ उठाकर अपने घोड़े सहित दुर्ग की दीवार की ओर लपके मुगल सैनिकों ने दुर्ग के द्वार की ओर मोर्चा लेना चाहा, पर बल्लू दुर्ग के द्वार की ओर न बढक़र किले की दीवार पर घोड़े सहित जा चढ़ा वहां से उसने घोड़े को नीचे छलांग लगवा दी और अमर सिंह राठौड़ के शव को तो बल्लू ने राम सिंह को को दे दिया और उन्हें वहां से बाहर भी निकाल दिया, पर वीर बल्लु जी चांपावत स्वयं किले के भीतर ही युद्घ करते-करते बलिदान हो गया…
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