सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

 

  सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के भीष्म पितामह अमीर खुसरो विश्वगुरु भारत की अनमोल  धरोहर है - ICN हिंदी

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के व्याख्याकार विनायक दामोदर सावरकर - Live7 TV |  DailyHunt

 एक महत्‍वपूर्ण संदर्भ : प्रदीप जैन बनाम भारत संघ 1984 मामले में निर्णय देते हुए उच्‍चतम न्‍यायालय के मुख्‍य न्‍यायाधीश जस्टिस पीएन भगवती और अमरेंद्र नाथ तथा जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने कहा था- ”यह इतिहास का रोचक तथ्‍य है कि भारत का राष्‍ट्र के रूप में अस्तित्‍व बनाए रखने का कारण एक समान भाषा या इस क्षेत्र में एक ही राजनैतिक शासन का जारी रहना नहीं है, बल्कि सदियों पुरानी चली आ रही एक समान संस्‍कृति है। यह सांस्‍कृतिक एकता है, जो किसी भी बंधन से अधिक मूलभूत और टिकाऊ है, जो किसी भी देश के लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसने इस देश में एक राष्‍ट्र के सूत्र में बांध रखा है।

 सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
प्रवक्‍ता ब्यूरो

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम समुन्नत संस्कृतियों में से एक है। इसकी सुदीर्घ परंपरा में अनेक मनीषी विद्वानों, मंत्र द्रष्टा ऋषियों तथा तत्ववेत्ता मुनियों के..

लेखक- डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम समुन्नत संस्कृतियों में से एक है। इसकी सुदीर्घ परंपरा में अनेक मनीषी विद्वानों, मंत्र द्रष्टा ऋषियों तथा तत्ववेत्ता मुनियों के जीवनानुभवों के शाश्वत निष्कर्षों की संचित निधि जुड़ी है। इसकी वरेण्यता आप्त ऋषियों ने ‘सा संस्कृति विश्ववारा’ कहकर रेखांकित की है। इसी संस्कृति के आचरित चरित्र ने सर्व मानवों को प्रशिक्षित कर संस्कारित किया है। प्रमाण में यह श्लोक उध्दृत कर सकते हैं-

एतद्येश प्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मना,
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:।

संस्कृति सभ्यता नहीं है। सभ्यता जहां आचरण का बाह्य पक्ष है, वहां संस्कृति जीवन का आंतरिक सौन्दर्य है। जीवन जीने की दृष्टि है। शाश्वत मूल्यों की मंजूषा है। औदात्य की प्रतिष्ठा है। पवित्रता की लेखनी से लिखा जागतिक कर्मों का पावन संविधान है। उच्चासन पर विराजमान सारस्वत मूर्ति संतों का संभाषण है। अभ्युदय का विज्ञान तथा नि:श्रेयस का ज्ञान है। नैर्ष्कम्य का उपनिषद तथा जीवन मुक्ति का आरण्यक है। माधुर्य की भागवत ही नहीं, कर्म की गीता भी है। जीवन का सत ही नहीं, सृष्टि का ऋण भी है। सुख का श्वास ही नहीं, सिध्दि का विन्यास भी है। नवजागरण का शंखनाद ही नहीं, प्रगति एवं समृध्दि का पांचजन्य भी है। अत: गुणात्मक है। सर्व श्रध्देय है। इसके विपरीत सभ्यता सभाओं में बैठने की शिष्टता का मानदंड भर है। सृष्टि व्यवहार का औचित्य है। संस्कृति जहां आध्यात्मिक मूल्य है, वहां सभ्यता विज्ञानात्मक संचेतना है। संस्कृति जहां शाश्वत सत्यों को सहेजे है, वहां सभ्यता यांत्रिक परिणामात्मक उपयोगी सत्यों को सहेजे है। दोनों के वैभिन्य के बीच अंतर्बाह्यता की तथा आध्यात्मिक एवं भौतिकता की अति सूक्ष्म झीनी-सी पारदर्शी पट्टिका है, जिसे सरलता से पृथक करना कठिन है।


 
जब हम राष्ट्र के आगे सांस्कृतिक शब्द का प्रयोग करते हैं, तब तत्काल हमारा ध्यान, राष्ट्र जनों के उन जीवन-मूल्यों की ओर जाता है जो शाश्वत ही नहीं, राष्ट्र जीवन को अहम् से वयम् की ओर तथा सयम् से ओम तत्सत् की ओर ले जाने वाले हैं। राष्ट्र जीवन को पूर्ण एवं सार्थक बनाने वाले हैं। राष्ट्रजनों की अंतश्चेतना को विकसित एवं सृदृढ़ बनानेवाले हैं। इन्हीं सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आस्था जनित निष्ठा ही राष्ट्रजनों को राष्ट्रीय बनाती है। इस तरह राष्ट्रीयता का मूल स्वरूप राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक है। निश्चित भू भाग तथा निश्चित निष्ठावान जन तो भौतिक उपकरण हैं। संस्कृति ही आध्यात्मिक, गुणात्मक तथा शाश्वत जीवन-मूल्य है, जिनका अनुसरण करती प्रजा उसे राष्ट्र का रूप प्रदान करती है। मातृभूमि के प्रति भक्ति तथा जन के प्रति आत्मीयता का भाव सांस्कृतिक मूल्य हैं। यही तीनों मिलकर राष्ट्र को राष्ट्र बनाती हैं। राष्ट्र किन्हीं संप्रदायों तथा जन-समूहों का समुच्चय न होकर, एक जीवमान इकाई है। ऐसे राष्ट्र पुरूष का सजीव व्यक्तित्व है, जिसमें भूमि, जन एवं संस्कृति की जीवंत एकता का सतत निवास वर्तमान रहता है। दशम मंडल में ऋग्वेद के ऋषि से शिष्य पूछता है कि राष्ट्र पुरूष के जो विविध रूप दिए गए हैं वे कितने प्रकार से व्यकल्पित किए जा सकते हैं? 

 मंत्र है-
यत् पुरूषं व्यवर्धु: कति धा व्यकल्पन्
मुखं किमस्य कौ बाहु का ऊरू पादा उच्यते? 10-8-11

तब ऋग्वेद का ऋषि उत्तर देता है-

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:
उरू तदस्य यद्वैश्य पद्मयां शूद्रो अजायत्। (10-9-92)

अर्थात् राष्ट्र पुरूष का मुख ब्राह्मण, बाहु राजन्य, उरू वैश्य तथा पादशूद्र है। चारों वर्णों के संघात से ही राष्ट्र प्रमुख का निर्माण होता है। इनमें कौन बड़ा है और कौन छोटा, यह कहना अपराध ही होगा। कर्म निष्ठा ही चारों के लिए मुक्ति प्रदाता बनती है। इस मंत्र के आशय को इस प्रकार भी व्याख्यायित कर सकते हैं कि समाज जीवन में चार प्रकार की मनुष्य प्रवृत्तिायां कार्यरत हैं, बुध्दि, सूक्ति, अर्थ तथा श्रम शक्ति। बुध्दि ज्ञान का पथ प्रशस्त करती है। शक्ति सीमाओं की रक्षा करती है आंतरिक अराजकता का शमन करती है। अर्थ औद्यौगिक एवं व्यापारिक विकास का हेतु है तथा श्रम विकास की योजनाओं की सम्पूर्ति का एकमेव साधन है।

स्वीकृत सांस्कृतिक जीवन दृष्टि ही एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र से पृथक करती है। प्रत्येक राष्ट्र उसकी स्वीकृत जीवन दृष्टि से ही पहिचाना जाता है। पृथकता की यह स्वीकृति तथा इसका सैध्दांतिक पक्ष ही राष्ट्रवाद को जन्म देता है। कोई भी विचार तभी वाद का रूप लेता है जब उसके आचरण कर्ता उस विचार को जीवन का एक अंग बना लेते हैं। राष्ट्र को सामने रखकर जब कोई सिध्दांत या चिंतन निरूपित होता है, तब वह विचार राष्ट्रवाद के नाम से अभिहित किया जाता है। राष्ट्रवादी हर कार्य को राष्ट्र की तात्कालिक परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए निर्धारित एवं व्यवहारित करता है। फिर चाहे वह प्रश्न राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा का हो या जन के मौलिक अधिकारों की संरक्षा का या संस्कृति की गरिमापूर्ण मर्यादा को सुरक्षित रखने का। राष्ट्रवादी पहले अपने राष्ट्र का हित देखता है। उसके पश्चात् ही नीति निर्धारित करता है तथा आवश्यक संरक्षात्मक कदम उठाता है।


 
यहां यह प्रश्न उपस्थित हो आना स्वाभाविक है। जब राष्ट्र की परिभाषा में संस्कृति शब्द समाहित है तब राष्ट्रवाद के आगे अतिरिक्त सांस्कृतिक शब्द लगाने की क्यों आवश्यकता पड़ी। सच में यह एक गंभीर प्रश्न है तथा गहराई से विवेचन की अपेक्षा रखता है। संस्कृत शब्द में ‘ठक्’ प्रत्यय लगकर ‘कितिच’ सूत्रानुसार सांस्कृतिक शब्द बनता है। इसे हम संस्कृति का भाववाचीकरण कह सकते हैं। सांस्कृतिक शब्द अपनी परिधि की व्यापकता में संस्कृति के सभी उपादानों एवं उपकरणों को समेटे होता है। हम जानते हैं संस्कृति शब्द ‘कृ’ धातु से ‘सम’ उपसर्ग पूर्वक ‘सुट्’ आगम करके ‘क्तिन’ प्रत्यय के योग से निष्पन्न है। ‘सम’ उपसर्ग जहां भी जुड़ता है वह वहां संस्कारित अथवा सुन्दरीकृत का अर्थ देता है। ‘सम’ के सभी अर्थ पश्चात्वर्ती शब्द को विशेषित करते हैं। विद्वान उसके दो ही अर्थ मुख्य रूप से ग्रहण करते हैं। एक तो संस्कारित सम्यक कृति और दूसरा संभूय कृति के रूप में। संघश: कृति सम्भूय कृति कहलाती है। इस तरह संस्कृति संस्कार युक्त सम्भूय कृति है। संस्कार, सामाजिक विद्रूपताओं के साथ मनीषियों के बौध्दिक संघर्ष का सुपरिणाम है। मनुष्य उन पर विजय के पश्चात जिन तात्विक एवं सात्विक निष्कर्षों पर पहुंचता है, वे निष्कर्ष ही शनै:-शनै: संस्कृति बनते चलते हैं। मानवीय जीवन मूल्य बन जाते हैं। कह सकते हैं मानव के जीवनानुभवों का नवनीत ही संस्कृति है। समाज से संघर्ष का क्रम निरंतर बना ही रहता है। इस कारण संस्कृति में नैरंतर्य बना रहता है। यहां यह स्पष्ट कर देना उचित रहेगा कि संस्कृति की स्वीकृत जीवन-दृष्टि में कहीं कोई बदलाव नहीं आता। ऐसे निष्कर्ष संस्कृति के आचरण पक्ष के उपादानों एवं उपकरणों में अभिवृध्दि ही करते हैं। प्रत्येक राष्ट्र अपनी सांसकृतिक परंपरा के शाश्वत मूल्यों से जब तक जुड़ा चलता है, तब तक वह जीवंत एवं समुन्नत बना रहता है। स्खलन उसकी गरिमा तथा प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाता है। मर्यादाओं को नष्ट ही नहीं करता, उपेक्षा तथा तिरस्कार का भाव जगा, परिणामगत दुर्बलताओं को स्वीकारने में भी संकोच नहीं करता। हम जानते हैं सांस्कृतिक स्खलन के कारण ही विश्व के अनेक राष्ट्र मिट गये। इकबाल ने कहा भी है-

यूनान मिश्र रोमां सब मिट गये जहां से
अब तक मगर है बाकी नामोनिशा हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।


 
यह जो ‘कुछ बात है’ यह हमारी सांस्कृतिक निष्ठा ही है। अपनी सनातन संस्कृति के साथ अटूट जुड़ाव ही है। इसी से अनेकों झंझावातों के बीच भारत-तरणी विपत्तिा समुद्र को पार करने में सक्षम एवं समर्थ सिध्द हुई है। इसकी पृष्ठभूमि में भारतीय राष्ट्रीय जीवन का अपनी मूल्यवान आध्यात्मिक संस्कृति को जड़ से दृढ़ता से पकड़े रहना ही है। इसी सत्य को बार-बार उजागर करने के हेतु से मनीषियों को राष्ट्रवाद के आगे सांस्कृतिक शब्द जोड़ने की आवश्यकता अनुभव हुई है। एक और भी कारण हो सकता है। जब राष्ट्रवाद के आगे सांस्कृतिक शब्द जुड़ जाता है तब वह सोच का एकमेव सांस्कृतिक अधिष्ठान भी निर्धारित कर देता है। तब मनीषि, जीवन के समस्त व्यवहारों में संस्कृति को सामने रखकर ही नीति निर्धारित नही ंकरते, आचरण तक भी सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में ही तय करते हैं। तब लक्ष्य का ही नहीं, साधनों की पवित्रता का भाव भी सामने रहता है। इसी कारण तो महाभारत में धर्मराज का यह कथन ‘अश्वत्थामा हतौ नरो वा कुंजरौ’ कभी अभिशंसित नहीं हुआ। यह किसी अपवाद को सहन नहीं करता। तीसरा कारण यह भी हो सकता है राष्ट्र के उपादान तत्व भू और जन के साथ संस्कृति अपनी पृथक सत्ताा के साथ अलग विचार की अपेक्षा रखती है। जब सांस्कृतिक शब्द राष्ट्रवाद के आगे जुड़ जाता है तब किसी अवमूल्यन, किसी गिरावट अथवा किसी अपवाद के लिए कोई स्थान शेष नहीं रहता। तब राष्ट्र हित चिंतन की एकमात्र कसौटी सांस्कृतिक बोध ही रह जाती है। राष्ट्रवाद की अवधारणा का एक मात्र निकष सांस्कृतिक अधिष्ठान पर अवस्थित विचार ही रह जाता है। इस तरह यह जोड़ निरर्थक नहीं सार्थक ही कहा जाएगा। इसका परिणामात्मक लाभ भी राष्ट्र को मिला है। इसी बल पर आज भारत विपत्तियों की भारी चट्टानों के बोझ को शीश से उतार फेंकने में, पराधीनता की बेड़ियों को काटने में, धर्मांधता की आंधी को रोकने में तथा मतांतरण के षडयंत्रों को उध्वस्त करने में पूरी तरह सफल हो, विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आने का व्यग्र खड़ा है।

इसी संदर्भ में एक और प्रश्न अंतर्राष्ट्रीयतावादियों ने उठा, राष्ट्रवाद के आगे प्रश्नवाचक लगाने का दुस्साहस किया है। अंतर्राष्ट्रीयतावादी तथा छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी राष्ट्रवाद का नाम सुनते ही नाक भौंह सिकोड़ते हुए कानों में अंगुलियां नहीं, शीशा डाल लेते हैं। मानों राष्ट्रवाद का शब्द प्रयोग, कोई एक बड़ा अपराध हो। ऐसा सोचने वाले स्वयं वर्गवादी हैं। ‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ’ यह कहने वाले स्वयं द्वैतवादी हैं। जो श्रमिक नहीं हैं उन्हें वे शोषक की संज्ञा देते हुए शत्रुवत मान, उनके विनाश तक की भयंकर कामना लिए होते हैं। समाज तक से उनका बहिष्कार तथा तिरस्कार का भाव लिए होते हैं। जबकि राष्ट्रवादी सोच वाला मानव मात्र के हित को अपने राष्ट्र हित से पृथक नहीं मानता। वे भूल जाते हैं, राष्ट्रवादी भारत के मंत्र द्रष्टा ऋषियों ने ही गाया है ‘माता भूमि पुत्रोहम् पृथिव्या:। इन्होंने ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ तथा ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ जैसे विश्वात्मक वैश्विक मंत्र दिए हैं। इन मंत्रों की पृष्ठभूमि में वही भारतीय सांस्कृतिक अवधारणा कार्यरत है जिसका अधिष्ठान अध्यात्म है। सारी सृष्टि एक ही चेतन सत्ताा का विस्तार है। कहीं कोई भेद नहीं है। कोई द्वैत नहीं है। यह अभेदात्मक अद्वैत दृष्टि ही उपर्युक्त वैश्विक सोच की नींव में है। दुनिया के मजदूरों को एक करने का नारा देने वाले रूस और चीन आज भी अलग-अलग राष्ट्र हैं। ये बहुत समय तक सीमा संघर्ष में उलझे भी रहे हैं। इनने अपनी प्रादेशिकता का त्याग कब किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ को ही लें। यह राष्ट्रों का संघ है। राष्ट्रों की सापेक्षता स्वीकार कर चला है। अपने को अंतर्राष्ट्रीय कहने वाले भूल जाते हैं कि इस शब्द प्रयोग में ही राष्ट्रों की उपस्थिति अनिवार्य है। सारा विश्व राष्ट्रों में बंटा है। हर राष्ट्र की अपनी संस्कृति है। हर राष्ट्र की अपनी भाषा है। जिन राष्ट्रों ने परकीय भाषा एवं संस्कृति अपना रखी है, वे पूर्व में उस राष्ट्र के प्रमुख में पराधीन रह चुके हैं वे राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र होकर भी सांस्कृतिक एवं भाषाई दृष्टि से आज भी पराधीन ही हैं। जिन राष्ट्रों की अपनी भाषा संस्कृति नहीं होती निश्चय ही वे राष्ट्र कहलाने के योग्य पात्र नहीं है।


 
कई राष्ट्रों की संस्कृति को संप्रदायों ने संकुचित कर कट्टरतावादी रूप दे दिया है। कट्टरता ने गर्हित हिंसा तक के सामने अपना घृणित एवं गर्हित चेहरा उजागर कर दिया है। इससे उनका घृणा भरा आत्मघाती रूप सामने आया है। इससे मानवता का उदारचरित प्रभावित हुआ है। आज सांप्रदायिक कट्टरता ने आतंकवाद का स्वरूप ग्रहण कर, जन जीवन को भयाक्रांत कर दिया है। सांप्रदायिकता तब और भयावह हो जाती है जब वह अपने चिंतन को ही अंतिम मान कर चलती है। तब वह दूसरों के प्रति कहर ढाने लगती है। विष विमन करती हुई दूसरे राष्ट्रों को खंडित तक करने को तुल जाती है। आज इस सांप्रदायिक कट्टरता की आग से विश्व का कोई भी राष्ट्र अछूता नहीं बचा है। सांप्रदायिक कट्टरता धर्म के उदार चरित्र को भूल आज रक्त से सड़कें रंगने में लगी है। यह संस्कृति नहीं, विकृति है अपकृति है। भारत के ऋषियों ने इस कट्टरता का विरोध करते हुए यही कहा है-

अयं निज: परोवेति गणना लघु चेहसाम्
उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुंबकम्।

उपर्युक्त श्लोक के संदर्भित परिप्रेक्ष्य में तो राष्ट्रवाद के आगे सांस्कृतिक शब्द प्रयोग और भी आवश्यक हो जाता है। यह शब्द प्रयोग राष्ट्रवाद के विरूध्द उद्धोषित लघु चेतस घोषणाओं को जड़ से निर्मूल कर, चिंतन को उदार सहिष्णु मान-संपदा से परिपुष्ट कर देता है। प्रकाश का नंदादीप बन मानवता का पथ प्रशस्त करता है। तब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मानवता का पर्याय, औदात्य का कल्पतरू तथा सर्व हित की चिंतामणि बन जाता है।

भारतीय साहित्य के अवलोकन से हमें इस सत्य के दर्शन होते हैं कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही सदा सर्वदा साहित्य का आदर्श रहा है। क्या संस्कृत साहित्य, प्राकृत साहित्य, पाली साहित्य, अपभ्रंश साहित्य और क्या लोकभाषा साहित्य, सभी ने संस्कृति और राष्ट्रीयता को ही अपना कथ्य बनाया है। प्रगतिवाद जनवाद के नाम से जो अभारतीय चिंतन भारतीय साहित्य में साम्य का नारा लेकर अनुप्रविष्ट हुआ, ऐसे समाज ने कुछ काल के भ्रम के बाद ही नकार दिया। समाज को वह नग्न यथार्थ कहे, या भोगा हुआ यथार्थ कभी स्वीकार नहीं हुआ। सामाजिक सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों पर साहित्य के माध्यम से कभी स्वीकार नहीं हुआ। सामाजिक सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों पर साहित्य के माध्यम से किया जाता यह सीधा आक्रमण भारतीय समाज को भी गले नहीं उतरा। उस साहित्य के लेखकों को पाठकों की खोज के उपाय अपनी बैठकों में सोचने पड़ रहे हैं। इसी तरह से भारतीय समाज ने अस्तित्ववादी, क्षणवादी आधे-अधूरे पाश्चात्य दर्शन को भी कभी स्वीकार नहीं किया है। भले ही इन्होंने प्रयोगवाद, नई कविता आदि के नाम लेकर कितने ही बड़े नाटक क्यों न हों। इनके समकालीन प्रयास समय की कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं।

इसका कारण भी है। साहित्य और संस्कृति का अन्योन्याश्रित संबंध रहा है। साहित्य संस्कृति का संवाहक है और संस्कृति साहित्य की आशा है। संस्कृति साहित्य में लिपटी रहती है। कभी कथानक के रूप में, तो कभी शिल्प के रूप में। वही साहित्य श्रेष्ठता अर्जित करता है जो संस्कृति को अधिकाधिक आत्मसात् किये होते हैं। संस्कृति विहीन साहित्य की कल्पना शशक श्रृंगवत है। संस्कृति भी वही जीवित रहती है जिसका विपुल परिमाण में साहित्य उपलब्ध होता है। जिस संस्कृति का साहित्य नहीं होता, वह संस्कृति कालांतर में अकाल काल कवलित हो जाती है।


 
मानवता को उजागर करनेवाला साहित्य ही है। साहित्य मनुष्य और समाज की मनोभावनाओं को शब्द के स्तर पर प्रभासित करता हुआ, मानवीय आदर्श की प्रतिष्ठापना करता है। साहित्य के शब्द-शब्द में भावोद्रेक की अप्रतिम शक्ति होती है। यह व्यक्ति को उसकी वास्तविक स्थिति से परिचित करा, उन उदात्ता विश्वासों से जोड़ता है जो उसे महामानव बनाते हैं। सामाजिक धरातल पर मानव का यह उदात्ता की ओर आरोहण है। व्यक्ति के धरातल पर जीवन प्रवृत्तियों का उन्नयत भी साहित्य ही करता है। साहित्य मानवीय संवेदना जगा, मानव संबंधों में सघनता उपजाता है। यह मनुष्य के भीतर चल रहे आंतरिक संघर्ष को तीव्र कर स्वस्थ एवं सही पथ पर अग्रसर करता है। साहित्य की परिधि में जहां सामाजिक संबंधों का नैकटय आता है वहीं सांस्कृतिक परंपरा की पहचान को नवीनतम रूपों से ग्रहण करने की प्रेरणा भी आती है।

साहित्य सृजन इस तरह एक सांस्कृतिक कर्म है। यह संस्कृति को अक्षुण्ण रखता है। संस्कृति साहित्य को अनुप्राणित करती है। साहित्य की जीवनीशक्ति के मूल में उसकी गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा ही होती है। साहित्य, संस्कृति का संवाहक होकर भी सदैव संस्कृत्योन्मुख रहता है। संस्कृति विमुख साहित्य की स्थिति उस रोगी की तरह होती है जिसे मृत्यु-मुख में जाने से कोई उपचार नहीं रोक पाता। जब भी साहित्य संस्कृति विमुख हुआ है, वह या तो दिग्भ्रम की स्थिति जीने लगता है अथवा मृत्यु का ग्रास बना है।

संस्कृति की प्रभविष्णुता अति सूक्ष्म किंतु अति तीव्र होती है। ऐसे समय में वह साहित्य को ही नहीं समय को भी नियंत्रित करती है। संस्कृति की यह प्रभविष्णुता कभी प्रत्यक्ष दिखती है तो कभी नहीं। प्रत्यक्षता की स्थिति में इसे सांस्कृतिक शक्तियां बलशाली हुई समय-रथ की वल्गा थामें दिखाई देती है। आज समय साहित्य के सम्मुख चुनौती बनकर खड़ा है। ऐसी स्थिति में तो साहित्य को समय से आगे निकलने का सामर्थ्य अर्जित करना ही चाहिए। इस हेतु उसे अपने सांस्कृतिक अधिष्ठान पर अंगद चरण जमा खड़ा होना है। तभी वह प्रतिगामी शक्तियों के चेहरों पर चढ़े मुखौटों को हटाने की शक्ति स्वयं में जगा सकेगा। इन दिनों प्रतिभागी शक्तियों ने विश्व-अराजकता के कर्णणारों के साथ दुरभि संधि कर रखी है। ऐसे प्रयासों को कुंठित कर विश्वमंच पर साहित्य को सत्यं शिवं सुंदरम् से अभिमंडित अपनी श्रेष्ठ सांस्कृतिक छवि उपस्थित करनी है। इस सांस्कृतिक समर में भारत को साहित्य के साथ-साथ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भी ध्येय े रूप में अंगीकार कर आलोक की नवीनतम दीपशिखा के साथ विश्वमंच पर खड़ा होना है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अपनाव आज राजनीति के लिए जितना आवश्यक है उससे कम साहित्य के लिए नहीं है। साहित्य का इतिहास अथ से आज तक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ही इतिहास है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ध्येय वाक्य के रूप में जब तक अंगीकार नहीं करेंगे, भारत वैभव के उन्नतम शिखरों का स्पर्श कदापि नहीं कर सकेगा। कालजयी साहित्य नहीं लिखा जा सकेगा। वर्तमान के संकटापन्न इस काल में यदि प्रतिगामी शक्जियों को दुर्बल समझ, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दुर्लक्ष्य किया तो निश्चय ही यह स्थिति भारत को महंगी पड़ सकती है। इसलिए राजनीति और साहित्य दोनों को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को दृष्टि-पथ में रख, औपनिषदिक मंत्र ‘चरैवेति चरैवेति’ का घोष गुंजाते हुए त्वर गति से आगे बढ़, भारत को विकसित राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा करना है।

(लेखक सुप्रसिध्द साहित्यकार हैं।)

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 वैचारिक प्रबोधन

‘फेसबुक’ पर विचारशील चर्चा के उद्देश्‍य से हमने एक शृंखला की शुरुआत की है। बुद्धिजीवी मित्र इस चर्चा में हिस्‍सा ले रहे हैं और अपने विचार से सबको लाभान्वित कर रहे हैं। आपसे भी निवेदन है कि इस परिचर्चा में भाग लें, जिससे हम सबके ज्ञानराशि में वृद्धि हो सके। (सं.)


सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद क्‍या है ?

[सरल शब्‍दों में; पूर्व में, भारतवर्ष के विभिन्‍न प्रदेशों में अलग-अलग स्‍वाधीन राज्‍य थे। राजनीतिक दृष्टि से विभिन्‍न राज्‍यों में विभक्‍त होते हुए भी सांस्‍कृतिक दृष्टि से पूरा भारतवर्ष एक राष्‍ट्र माना जाता था।
यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गए जहां से/अब तक मगर है बाकी नामोनिशां हमारा/कुछ बात है कि हस्‍ती मिटती नहीं हमारी/सदियों रहा है दुश्‍मन दौरे जहां हमारा- यह जो ‘कुछ बात है’ यह हमारी सांस्‍कृतिक निष्‍ठा ही है।
भारत की एकता और अखंडता का आधार सांस्‍कृतिक एकता है इसलिए यह स्‍वाभाविक है भारतीय राष्‍ट्रवाद को सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद की संज्ञा दी जाए।]
 
Rajesh Jha
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद राष्ट्रिय पहचान का सभ्यतामूलक आधार और नागरिक जीवन का चरम उत्कर्ष है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद समान विरासत से उदभासित समुदायों का गठजोर है जो एक जैसा स्वप्न जीते है और एक जैसा भविष्य पसंद करते हैं।


संजीव सिन्हा
एक महत्‍वपूर्ण संदर्भ : प्रदीप जैन बनाम भारत संघ 1984 मामले में निर्णय देते हुए उच्‍चतम न्‍यायालय के मुख्‍य न्‍यायाधीश जस्टिस पीएन भगवती और अमरेंद्र नाथ तथा जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने कहा था- ”यह इतिहास का रोचक तथ्‍य है कि भारत का राष्‍ट्र के रूप में अस्तित्‍व बनाए रखने का कारण एक समान भाषा या इस क्षेत्र में एक ही राजनैतिक शासन का जारी रहना नहीं है, बल्कि सदियों पुरानी चली आ रही एक समान संस्‍कृति है। यह सांस्‍कृतिक एकता है, जो किसी भी बंधन से अधिक मूलभूत और टिकाऊ है, जो किसी भी देश के लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसने इस देश में एक राष्‍ट्र के सूत्र में बांध रखा है।

Chandan Srivastava
मैने प्रवक़्ता पर भी पूछा था कि कोई मित्र जानकारी दें कि राष्ट्र और राज्य मे क्या अंतर है?? मै महीनो से इस सवाल का जवाब तालाश रहा हूं लेकिन मिल नही रहा. कृपया मदद करें.

शिवानन्द द्विवेदी सहर
भारत शुरू से ही सांस्कृतिक एवं उदार राष्ट्रवाद का समर्थक रहा है । यही इसकी मूल संस्कृति भी है । भारत के राष्ट्रवाद को आप जमर्नी के राष्ट्रवादी नजरिये से देखने की भूल नही कर सकते ।

 

संजीव सिन्हा
राज्य एक राजनीतिक अवधारणा है, जो कानून के बलपर चलती है और कानून को सार्थक रखने के लिए उसके पीछे राज्य की दण्डशक्ति खड़ी रहती है। ……राष्‍ट्र एक सांस्‍कृतिक अवधारणा है, जिस देश में लोग रहते हैं, उस भूमि के प्रति उन लोगों की भावना, इतिहास में घटित घटनाओं के सम्बन्ध में समान भावनाएँ और समान संस्कृति, इन सबसे राष्‍ट्र बनता है।


Chandan Srivastava शुक्रिया सर.

Rohit Gautam
 मेरे मत अनुसार भारतीय या हिन्दू या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद शब्द तात्विक रूप से सही नहीं है क्यूंकी राष्ट्र अपने आप में वह इकाई है जिसका आधार संस्कृति या कुछ जीवन मूल्य हैं तो राष्ट्रवाद कहते समय ही यह बात स्पष्ट है कि इसमें संस्कृति , भारतीयता और हिन्दुत्व हैं ………. अतः केवल राष्ट्रवाद पर्याप्त है ………. यह ऐसे ही है जैसे ” शुद्ध घी ” … घी तो घी है जो शुद्ध नहीं वो घी नहीं …. अतः “शुद्ध घी ” नहीं केवल ” घी ” ….. ऐसे ही राष्ट्रवाद बस


Umesh Chaturvedi
भारत में राजनीतिक राष्ट्रीयता की अवधारणा सही मायने में फलीभूत हुई 1947 में आजादी मिलने के बाद…आजादी के पहले बेशक करीब दो सौ साल तक अंग्रेजों का राज रहा, लेकिन पूरे देश पर उनका राजनीतिक एकाधिकार जैसा कुछ नहीं था। विदेश, रक्षा और मुद्रा जैसी कुछ चीजें उन्होंने अपने हाथ में रखी थी। लेकिन राज यानी शासन उनके अलावा करीब 600 सौ रजवाड़ों-जमींदारों-रियासतों के हाथ में था। फिर अगर हम अपने हजारों साल पुराने संकल्प मंत्रों में जंबू द्वीपे की बात ना सिर्फ दक्षिण-पूरब-पश्चिम और उत्तर बल्कि आज के पाकिस्तान और बांग्लादेश के इलाकों में भी करते हैं तो इसका मतलब साफ है कि भारतवर्ष की राष्ट्रीय अवधारणा राज पर आधारित नहीं, बल्कि संस्कृति पर आधारित रही है। 1947 के बाद संस्कृतिआधारित राष्ट्र की अवधारणा में राज का भी आधार शामिल हो गया..1947 के पहले हमारे पुरखे राजनीतिक आधार पर भारत में तमाम अलगावों के बावजूद भी इसे एक राष्ट्र के तौर पर स्वीकार कर लेते थे..लेकिन आजादी के बाद संस्कृति के आधार में राज का आधार इतने गहरे तक संपृक्त हो गया कि अब राष्ट्रीयता की अवधारणा संस्कृति के साथ राज पर भी आधारित हो गई है..दुर्भाग्य यह है कि हमारे कुछ मित्र इस तथ्य को जानने-समझने के बावजूद राष्ट्र की संस्कृति आधारित अवधारणा को कूपमंडूकता का पर्याय मानते रहे हैं।


Shriniwas Rai Shankar
पहली शंका.-क्या अधूरे राष्ट्रवाद से काम चल जायेगा..सर्वांगीण राष्ट्रवाद की जरुरत नहीं..?क्या बिगत में हमारे राष्ट्रवाद में कुछ अपूर्णता नहीं थी,जिसके चलते हम बारम्बार गुलामी में फंसे..?हमारा बड़ा जनसमुदाय..अशिक्षा..और पिछड़ेपन में डूबा रहा .क्या १९४७ के विभाजन और फिर शेष भारत के पुनर्गठन के बाद देश एक नए तरह के राष्ट्रवाद के दौर में नहीं पहुँच गया है..?क्या आज हमारी सांस्कृतिक बुनियाद नयी मंजिलों का निर्माण नहीं कर रही है..?पुराने राष्ट्रवाद..संस्कृति..और सभ्यता को हम आज अधुरा क्यों नहीं मान लेते ..?दिक्कत क्या है..समय का चक्र नवीनता लेकर आता है..जो..सबको बदलने पर मजबूर कर देता है..मेरा सुझाव है..की राष्ट्रवाद के सभी अंगों..आयामों..और स्वरूपों पर चर्चा हो..और यह समझते हुए..हो..की दुनिया के सभी मुल्को का राष्ट्रवाद संक्रमण और परिवर्तन के दौर में है….सबको सर्वांगीण राष्ट्रवाद की आवश्यकता है.राष्ट्र वाद में संस्कृति जरुर सबसे महत्वपूर्ण तत्व था ,है..और रहेगी .

 

बृजभूषण गोस्वामी

संस्कृति एक विचार है
वह नदी की धार है
पेड़ की डार सी
नदी की धार सी
टेडी मेडी
जुडती बटती पगढार है
हमारी संस्कृति की बिशेषता।
अनेकता में एकता।
बृक्षो में मूल,
नदियों में उद्गम की बूंद,
पारिवारिकता अपेक्षित ब्यवहारिकता,
नियम संयम अहिंसा व आस्तिकता,
जो चिरवंश बिचार बीज में सुप्त ।
यही है उदगमी हिन्दुत्व ।
जो बिदेशो में बिषम ब्यक्त,
स्वदेश की समब्यक्तता।
जो हर हिस्से में जीवन बन पहुचता।
वही तुममे एकता के रूप में दीखता।
यही है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ……


पंकज कुमार झा संस्कृति और राष्ट्र के संबंधों को एक सरल प्रश्न के द्वारा समझने की कोशिश. एक राष्ट्र के रूप में भारत आखिर कितना पुराना है? क्या कोई भी व्यक्ति यह कहेगा की भारत मात्र 66 वर्ष पुराना राष्ट्र ही है? तो आज़ादी से पहले अलग-अलग राज्यों में बंटा ढेर सारे आक्रमणकारियों द्वारा अलग-अलग कब्जाये गए ढेर सारे भू-खंड कैसे भारत के रूप में जाने जाते रहे हैं. मेरे दादा जी जिस भारत में रहते थे वह भारत आखिर क्या था और कैसे वह मद्रास और आसाम के साथ कनेक्ट था? जबाब मिलता है की ‘संस्कृति’ ही वह आधार था जिस पर केरल के किसी कालडी गाँव का युवक शंकर भी मिथिला तक को अपना ही देश मानते हुए हिंदुत्व का जयघोष करने निकल पड़ता है. ऐसे ही कोई बंगाली युवक नरेन्द्र जब शिकागो पहुचता है तो वह किसी बंगाल देश का प्रतिनिधि नहीं बल्कि भारत का सांस्कृतिक दूत ही होता है. किसी खेतरी के राजा का आतिथ्य भी वह ‘भारतीय’ के रूप में ही प्राप्त करता है. तो उस समय भी खेत्री को नरेन्ज से जोड़ने वाला एकमात्र कारक ‘संस्कृति’ ही था न? यह भारत ही है न जिसकी ‘संस्कृति के चार अध्याय’ दिनकर ने लिखा और नेहरू ने जिसकी प्रस्तावना लिख उसपर मुहर लगाई थी. इसके अलावा हुड नेहरू जिस ‘भारत की खोज’ करने निकले थे वह भी उस राज्य की खोज तो बिलकुल नहीं कर रहे थे न जो 1947 में अस्तित्व में आना था…है न? तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आशय यही है की राष्ट्र का आधार संस्कृति ही होना चाहिए.

नरेश भारतीय विश्व भर में यह एक सर्वमान्य मत है कि कोई भी भूखंड तभी एक राष्ट्र माना जाता है जब एक सांस्कृतिक सूत्र में बंधा हो. भारत हमेशा से अनेक विविधताओं का भूखंड रहा है और इस पर भी युग-युगों से एक विशिष्ट संस्कृति में सूत्रबद्ध रहने के कारण एक राष्ट्र के रूप में स्थापित रहा है. राज्य और राष्ट्र की परिभाषाएं यहीं पर भिन्न होती हैं. अयोध्या के श्रीराम और महाभारत के श्रीकृष्ण इसी के बल पर राज्यों की सीमाओं के बंधन से मुक्त एक विशाल भूखंड के एक कोने से दूसरे कोने तक जाने और माने गए. भारत को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बाँधने वाले वही हैं.

नरेश भारतीय वर्तमान सन्दर्भ में भी विभिन्न भाषाओँ, समुदाय, मज़हब-सम्प्रदायों, पूजा उपासना विधियों के होते हुए भी भारत के एक राष्ट्र होने की अवधारणा कहीं भी क्षीण नहीं होती. जिस किसी ने भारत की धरती पर जन्म लिया है, इसका अन्न जल ग्रहण किया है वह इस भारत राष्ट्र का अंग है. इसका राष्ट्रीय है. भारत के ऐसे राष्ट्रीय होने के नाते उससे अपेक्षित है कि वह अपने इस देश की संस्कृति, परम्पराओं, इसके इतिहास को जानते हुए और मान्यता देते हुए इस धरती को अपने पुरखों की धरती मान कर इसके हितार्थ ही अपना कर्तव्य करने के लिए सतत तत्पर रहे. यही अन्तराष्ट्रीय स्तर पर मान्य सोच है.

लेखक के विषय में
संजीव कुमार सिन्‍हा
संजीव कुमार सिन्‍हा
2 जनवरी, 1978 को पुपरी, बिहार में जन्म। दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक कला और गुरू जंभेश्वर विश्वविद्यालय से जनसंचार में स्नातकोत्तर की डिग्रियां हासिल कीं। दर्जन भर पुस्तकों का संपादन। राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर नियमित लेखन। पेंटिंग का शौक। छात्र आंदोलन में एक दशक तक सक्रिय। जनांदोलनों में बराबर भागीदारी। मोबाइल न. 9868964804
संप्रति: संपादक, प्रवक्‍ता डॉट कॉम

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