कविता
कविता - राजनीती अब धंधा है
लोकतंत्र बदल गया, लूटतंत्र की माया है।
राजनीति अब धंधा है, भारत माँ शर्मिंदा है।
संविधान किताबों में, सड़कों पर सौदा है,
न्याय अंधा नहीं अब, बस चुन चुन कर देता है।
कुर्सी की हवस में अब सारे सिद्धांत तार-तार हुये ,
जनसेवा के मुखौटे रह गये, गिद्धों सा व्यापार बना है ।
सच बोलो तो देशद्रोही, चुप रहो तो समझदार,
सवाल पूछना गुनाह है, लूट को कहते उपकार।
भूख को आँकड़ों में बाँधा, लाशें फाइल बन गईं,
सेवा शुल्क के लालच में, सारी नैतिकता जल गई।
कलम की स्याही बिक गई, मीडिया बना दलाल,
चीख़ें टीआरपी में डूबीं, मरा ज़मीर बेहाल।
शर्म भी अब शर्मिंदा है, आईना झुकने लगा,
सत्ता के दरबारों में, सच फाँसी चढ़ने लगा।
लेकिन अभी कहानी में, अंतिम अध्याय नहीं,
हर ज़ुल्म की उम्र होती है, अंधेरा स्थायी नहीं।
जिस दिन जनता जाग उठे, सिंहासन हिल जाएँगे,
लूटतंत्र के महलों पर, सच के झंडे लहराएँगे।
फिर राजनीति सेवा होगी, फिर बोलेगा संविधान,
भारत माँ के माथे पर, लौटेगा फिर से सम्मान।
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