कविता - कार्यकर्ता तो ठगा जाता है
कविता - कार्यकर्ता तो ठगा जाता है
खूब भागा, खूब दौड़ा,
अपनों को छोड़ भगवान भरोसे,
नेताओं की जयकारों में रमता रहा,
झूठे सपनों के पीछे भागता रहा।
कार्यकर्ता था भूखा प्यासा डटा रहा।
पर सच यही था कि वह ठगा गया।
===1===
चिल्लाते नारों में उसका जोश था,
भीड़ में रहकर संख्या बढ़ाता रहा,
तालियों की गड़गड़ाहट में खोता रहा,
जीवन नेताओं के लिए पिरोता रहा।
तब पता नहीं था कि वह ठगा गया।
===2===
पर दर्द में कोई साथ न आया ,
जब मुश्किल ने दरवाज़ा खटखटाया,
न नेता था, न लेता था , न वादे थे न भाषण था,
न राशन था, न आसन था।
तब समझ आया कि वह ठगा गया।
===3===
वक्त के संग वे झूठे साबित हुए,
साँसें बोझिल, राह अकेले हुये,
आँखें जब सहारे को ढूंढें रहीं थीं,
तब समझ आया जीवन का सार,
कार्यकर्ता भ्रम में फंसा न समझा कि वह ठगा गया,
===4===
कुल मिला कर अब पार्टी नहीं, परिवार ही आधार है,
दुःख दर्द में खडे होकर वे ही करते प्यार हैँ,
नारे जयजयकारे नीति सिद्धांत तो सिर्फ बातें हैँ,
जो पैसा कमा कर लाता है वही नेताजी को भाता है।
कार्यकर्ता तो ठगा गया,कार्यकर्ता तो ठगा जाता है।
===समाप्त===
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें