Tital


             (1)


में हारा सब जीते 


मेरा कविता संग्रह 



अरविन्द सिंह सिसोदिया 





                 (2)

में हारा सब जीते 

लेखक को सर्वाधिकार सुरक्षित है 

पता -    अरविन्द सिंह सिसोदिया 
           राधाकृष्ण मंदिर रोड़,
          ड़ड़वाडा, कोटा जंक्शन 
          कोटा, राजस्थान  पिन 324002


प्रथम संस्करण        2025 

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मेरा कविता संग्रह 
में हारा सब जीते 
लेखक - अरविन्द सिंह सिसोदिया 
9414180151



         (3)
 
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आत्मकथन 

मैं अपने जीवन को अभाग्य की परिभाषा नहीं कहता। मेरे लिए जीवन एक अनलिखी पुस्तक है—जहाँ हर पृष्ठ अपने साथ कोई नई सीख, कोई नई संवेदना लेकर खुलता है। कभी दुख ने मुझे तपाया, कभी आत्मस्वीकृति के शांत जल ने मुझे थामा। कर्तव्य और सद्भाव की राह पर चलते हुए मैंने अकेलापन भी झेला और विश्वासघात भी, फिर भी मेरे भीतर यह दृढ़ विश्वास हमेशा जीवित रहा कि जो कुछ भी घटा—वह ईश्वरीय योजना का ही एक अदृश्य अनुच्छेद था। इसी विश्वास ने मुझे टूटने से बचाया और शब्दों के उस संसार की ओर बढ़ाया, जहाँ आत्मा अपना बोझ उतार पाती है।

मेरा संबंध मध्यप्रदेश के गुना जिले की प्रतिष्ठित बाबरोदा जागीरदार परंपरा से है—जहाँ पराक्रम की गाथाएँ, अनुशासन का सौंदर्य और सेवा की लोकभावना पीढ़ियों से चली आ रही है। यह विरासत केवल भूमियों की नहीं, मूल्यों और संस्कारों की है।
जागीर के अंतिम जागीरदार समंदर सिंह जी और मोड़का जागीरदार परिवार की पुत्री कंवर बाई—इन दोनों की परंपराएँ मेरे रक्त में समरस हो गई हैं। समंदर सिंह जी के अकाल निधन के बाद दादीसा का मोड़का में स्थायी वास और वहीं से परिवार की नई कथा का आरंभ—इन सबने मेरे जीवन में मिट्टी की सुगंध और इतिहास की ऊष्मा दोनों को एक साथ भर दिया।
मेरे पिता भूपेंद्र सिंह और बुआसा कृष्णा कंवर—इन दोनों के स्नेह व संस्कारों के बीच मैंने जीवन की वे गहराइयाँ सीखी जो किसी विद्यालय की पाठ्यपुस्तकें कभी नहीं दे पातीं।

मेरा बचपन गुना नगर के नयापुरा की गलियों में बीता। शिक्षा अधूरी रही, पर ज्ञान की प्यास पूर्ण। किशोरावस्था में मेरी पहली लघुकथा “बाल भारती” में प्रकाशित हुई और छह रुपये का मनिऑर्डर मेरे लिए किसी बड़े साहित्यिक सम्मान से कम न था। शायद वहीं से मेरी लेखनी को वह पहला स्पर्श मिला, जिसने आगे चलकर मेरे भीतर सोच और संवेदना की अनगिनत धाराएँ जगाईं।

विज्ञान मेरा प्रिय विषय था। दसवीं कक्षा में ही मैंने अपने घर में एक छोटी-सी प्रयोगशाला बनाई—रसायनों और उपकरणों से भरी। विज्ञान प्रतियोगिता में “एलिमिनेटर” बनाकर पुरस्कार भी जीता। परंतु जीवन अक्सर अपनी राह स्वयं चुनता है—और पिताजी को ब्रेन ट्यूमर होने के बाद मुझे खेतों की ओर जाना पड़ा।
परिवार बड़ा था—छः भाई, एक बहन, और एक बीमारी से जूझते पिता। संयुक्त परिवारों की परंपरा में अक्सर बड़ा बेटा ज़िम्मेदारी के बोझ तले दब जाता है, और धीरे-धीरे उसका संपूर्ण अस्तित्व परिवार की व्यवस्था में विलीन हो जाता है। मेरे साथ भी यही हुआ।

जिसने सबसे अधिक दिया, वही अंततः घर की छीनाझपटी का सबसे बड़ा शिकार बना। विश्वासघातों की आँच ने मुझे भीतर तक झुलसा दिया। और एक समय ऐसा आया जब परिस्थितियों ने मुझे गुना छोड़कर राजस्थान के कोटा आ जाने को विवश कर दिया।
पर ईश्वर कहीं न कहीं न्याय करता है—कोटा मेरे लिए आश्रय, सम्मान और आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना का स्थल बना। यहाँ मुझे वह मान मिला, जिसे पाने की मैंने आशा तो की थी, पर दावा कभी नहीं किया। मेरी इच्छा है कि अंतिम श्वास भी इसी शरणभूमि में लूँ।

कोटा आने के बाद मेरे जीवन ने एक नया मोड़ लिया। यहाँ मुझे न केवल सम्मान मिला, बल्कि पत्रकारिता और राजनीतिक दायित्वों ने मेरे भीतर एक नई दृष्टि भी जागृत की। आम आदमी की पीड़ा, व्यवस्था की अनदेखी, भ्रष्टाचार के अदृश्य जाल और सत्ता की परतों के भीतर छिपे सत्य—इन सबको मैंने बहुत निकट से देखा। समाचारों की स्याही और जनसरोकारों की धूप-छाँव में चलते हुए मैंने समझा कि व्यवस्था कितनी बार कमजोर लोगों की आवाज़ दबा देती है। यही अनुभव मेरी कविताओं के शब्दों को धार देते गए। जो व्यवस्था-विरोध आज मेरी पंक्तियों में दिखता है, वह किसी कल्पना का परिणाम नहीं—वह इस देश की जमीनी हकीकत है, जिसे मैंने अपनी आँखों से देखा और अपनी आत्मा से महसूस किया है। मेरे शब्द उसी सच्चाई की संतान हैं, जो प्रतिदिन इस समाज के आँगन में जन्म लेती है और संघर्ष करती है।

बाबरोदा और मोड़का की मिट्टी में रचे-बसे संस्कार—राजपूती परंपरा का साहस, गाँव की सादगी और इतिहास के संघर्ष—इन सबने मेरी आत्मा को बचपन से ही एक विशिष्ट रंग दिया। इन्हीं अनुभवों और संघर्षों के मिलन से धीरे-धीरे मेरे भीतर कविता का बीज अंकुरित हुआ।
जीवन चाहे जितना कठोर हुआ, कविता उतनी ही कोमलता से भीतर जन्म लेती गई—जैसे पीड़ा और सौंदर्य, दोनों एक-दूसरे को गढ़ते हों।

मेरे लिए कविता केवल शब्दों का संकलन नहीं। यह मेरे भीतर का उपचार है, आत्मा का संवाद है। मेरे वे मौन क्षण—जिन्हें मैंने कभी किसी से नहीं कहा—वे ही आज पंक्तियों में आकार ले रहे हैं। कभी पीड़ा के रूप में, कभी स्मृति के रूप में, और कभी किसी अलौकिक, अनाम शांति के रूप में।

यह कविता-संग्रह मेरे जीवन की यात्रा है—मेरी मिट्टी, मेरा परिवार, मेरी विरासत, मेरे संघर्ष और मेरे भीतर की वह नमी, जिसने हर आघात को शब्दों में बदलने की शक्ति दी। यह मात्र मेरा आत्मकथन नहीं—यह उन सभी संवेदनशील हृदयों की कथा है, जिन्होंने जीवन की चोटों के बावजूद प्रेम, विश्वास और ईश्वर की उपस्थिति को थामे रखा।

मैं यह आत्मकथन पाठकों के समक्ष इस आशा के साथ रखता हूँ कि मेरी पंक्तियों में उन्हें अपने जीवन का कोई दीपक, कोई छाया, कोई स्मृति अवश्य मिल जाए। यदि ऐसा हुआ—यदि किसी पाठक ने यह महसूस किया कि उसकी पीड़ा किसी और ने भी उतनी ही गहराई से जानी—तो मेरा लेखन अपने उद्देश्य तक पहुँच जाएगा।
कविता तभी पूर्ण होती है, जब वह लेखक की आत्मा से निकलकर किसी और हृदय में शरण पा ले। यही मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा है।

    आपका 

अरविन्द सिंह सिसोदिया 
राधाकृष्ण मंदिर रोड़,
 ड़ड़वाडा, कोटा जंक्शन 
कोटा, राजस्थान पिन 324002

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