कविता - जनमत रे तू जाग



“ जनमत रे तू जाग ” 
आसमान पर उगता सूरज कहता,
जनमत रे तू जाग।

सत्ता का मेला है, लोकतंत्र का खेला है,
वादों की दुकानें, झूठ यहाँ पकवान ।
अधिकारों की थाली में परोसा जाता आसमान ।
गरीब की शवयात्रा बन गया, पूंजीवाद का शैतान।
===1===
नेता भाषण देता, लंबी लंबी बांहे फैलाये,
उपदेशो के ग्रंथ लिए, उपकारों का शास्त्र पढ़ाये।
भगवान से भी बढ़ कर अपने को बताये।
पर सम्पन्नता के पहाड़ कहां से आये यह नहीं बताय।
===2===
कलम के सौदागर, खबरों का लगाएँ दाम,
सच्चाई का गला घोंटें और कहलाएँ महान।
कानून की आँखों पर चढ़ा भ्रष्टाचारी चश्मा,
गरीब न नज़र आए, अमीर की चले दुकान ।
===3===
नेता जी के भाषण में शब्दों की भरमार,
सतकर्मों में खाली दफ्तर,आंकड़ों की सरकार।
लोकतंत्र की कुर्सी पर बैठे पूंजीवादी परिवार ,
जनता चुनाव मे,कार्यकर्ता जिंदाबाद में,पर दलाल है खास।
===4===
नौकरशाही की गाड़ी में घूस का पेट्रोल भरा ,
बिना चढ़ाए तेल,न खिसके एक इंच कागज पड़ा ।
पूछ रहे कच्चे पक्के निर्माण,कब आएगा सुधार,
टेंडरों में रिश्तेदारी, कमीशन ही है असली आधार।
===5===
अन्याय का न्याय मंदिर, तारीख़ों का भंडार,
दोषी की मौज, पीड़ित का जीवन उधार।
शिक्षा - चिकित्सा बन गईं व्यापार,नौकरी पर गुलामी की गाज,
युवाओं के रोजगार को खा गया, मशीनों का व्यापार ।
===6===
जनता मात्र वोटर, कार्यकर्ता सपोर्टर,
न्याय नैतिकता क्यों नहीं जमीन पर,
पूछे कौन सवाल, इसीलिए बेहाल।
तोड़ मौन को, उठा सत्य की आवाज।
=== समाप्त ===
आसमान पर उगता सूरज कहता,
जनमत रे तू जाग।

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