कविता - न्याय क्यों बाज़ार बन गया



कविता - न्याय क्यों बाज़ार बन गया 

(एक विद्रोही कविता-संग्रह में प्रमुख रचना)
लेखक: अरविन्द सिंह सिसोदिया 

उन सभी आवाज़ों के नाम,
जो न्याय माँगते-माँगते ख़ामोश कर दी गईं।

भूमिका (Preface)

यह कविता उस सत्य की प्रतिध्वनि है
जिसे अदालतों ने फाइलों में बंद कर दिया,
और सत्ता के गलियारों ने
पैसे की बोली में बेच दिया।
यह रचना केवल शब्द नहीं —
अन्याय के विरुद्ध खड़ी होती जनता की सांस है।

कविता - न्याय क्यों बाज़ार बन गया 

वह सोचता था, वहाँ न्याय होगा,
पर वहाँ तो पग-पग पर पैसों का खेल है,
टाइप से लेकर टाइम तक़ रेलमपेल है,
झूठ का पहले से लिखा हुआ दस्तावेज है,
अड़गों का, तारीखों का, उलझाने का अजीब खेल है।
अन्याय का पोषण होता, 
जानबूझकर न्याय से धोखा होता।
छोटी-छोटी बातों और बकवासों की ओट लेकर,
न्याय को अन्याय के साथ दसकों घसीटा जाता 
कैसे कहें इसे न्याय का मंदिर,
यहाँ तो न्याय को बली पर चढ़ा दिया जाता है।
क्या कोई बताएगा,न्याय क्यों बाज़ार बन गया???
===1===
कमियों का ज़िक्र तो करना पड़ेगा,
अन्याय की जवाबदेही तो तय होगी,
पर किस अदालत में? किस तारीख़ पर?
यह कोई नहीं बताएगा।
ट्रक भर नोट न्यायाधीश के घर,
पर सज़ा पर सब मौन हैं,
यही वह प्रेरणा है जहाँ न्याय गौण है,
अन्याय, अधर्म, अत्याचार ही शान हैं।
मैं क्यों मरा? कोई जवाब नहीं!
जिसने मुझे मारा — वही निर्दोष है?
यहाँ तो न्याय को बली पर चढ़ा दिया जाता है।
क्या कोई बताएगा,न्याय क्यों बाज़ार बन गया???
===2===
क्या यह सरकार, सिस्टम और क़ानून का
सबसे बड़ा खोट नहीं ??
सब जानते हैँ… पर सब मौन हैं।
आपराधिक चेहरों पर लोकतंत्र के मुखौटे,
ईमानदारों पर झूठे मुक़दमे की चोटें,
यहाँ गुनाह की कीमत तय है,
बस जेब भारी होनी चाहिए।
फैसले एक तरफा पक्षपात में बदलते हैं।
तारीख़ें उम्मीदों में जीवन बिताती हैं,
सच अदालत की चौखट पर रोता रहता देता है,
और झूठी बातें गुल खिलाती है।
कानून के रखवाले ही कानून को मजाक बनाते हैं,
न्याय के तराज़ू और बंद आँखें,न्याय को सूली चढ़ाते हैँ।
क्या कोई बताएगा,न्याय क्यों बाज़ार बन गया???
===3===
न्यायालय अकेला ही दोषी नहीं..!
भाँग पूरे कुएं में घुली है।
आप अर्जी लेकर पहुंच भर जाओ,
फिर मौज सबकी बनी है।
लोकतंत्र के प्राण है जनप्रतिनिधि,
पर जनप्रतिनिधि के प्राण कमीशन खोरी में अटके हैँ,
कहां नैतिकता ढूंढेंगा कोई,
यहाँ तो बीज में ही भ्रष्टाचार की बदबू भरी है।
समाज जीवन कितने कष्ट और झमेले में है,
यह सोचने की, किसको कहां पढ़ी है!
यहाँ तो न्याय को बली पर चढ़ा दिया जाता है।
क्या कोई बताएगा,न्याय क्यों बाज़ार बन गया???
===4===
सात सो पीढ़ी का इंतजाम हो जाये,
बस, यही जीवन की सफलता का उद्देश्य बन गया !
किसको गरिमा की चिंता, किसको न्याय से लेना देना!
आवेदन से लेकर निर्णय तक़, मुर्गा फंस गया मौज हो गईं!
पर, इंसाफ़ को कैद के पिंजरे मुक्त करवाना होगा !
फैसलों की नीलामीयों को सबके सामने लाना है।
अन्याय सहना और चुप रहना भी अपराध है भाई,
सड़ी गली व्यवस्था बदली तो पढ़ेगी,
में कमजोर था हार गया, पर तुम्हे तो लड़ना ही पढ़ेगा।
न्याय को जिन्दा करना है, तेजस्विता तो जगानी होगी।
सवालों का सैलाब उठायें, जनमत को जगाएं,
अन्याय के प्रतिरोध बन कर, न्याय को जीवन दिलाएं।
=== समाप्त ===

✤ लेखक टिप्पणी (Author’s Note)
यह कविता न्याय प्रणाली की विडंबनाओं पर
एक जरूरी व्यंग्य है।
जब प्रश्न पूछना अपराध बन जाए —
तब कविता ही समाज की अंतिम आवाज़ बनती है।

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