Justice Delayed Is Justice Denied. मृत्यु के बाद आया अंतिम फैसला, न्याय व्यवस्था पर सवाल
men terminated from job get justice after 34 year not alive to celebrate
1991 में नौकरी गई, 33 साल अदालतों के चक्कर काटने के बाद हुई मौत, 34वें साल 'न्याय' मिल गया
साल 1991 में Dinesh Chandra Sharma को नौकरी से निकाला गया. उसी साल उन्होंने Labour Court का दरवाजा खटखटाया. लेबर कोर्ट से मामला High Court की सिंगल बेंच में गया, फिर डबल बेंच और उसके बाद Supreme Court के पास. सुप्रीम कोर्ट में न्याय मिलते मिलते उनकी जिंदगी खत्म हो गई.
सुप्रीम कोर्ट से न्याय मिलने में डीके शर्मा को 34 साल लग गए.
29 दिसंबर 2025
एक चर्चित कानूनी कहावत है- 'Justice Delayed Is Justice Denied.' इसका अर्थ है कि न्याय मिलने में बहुत देरी होना न्याय नहीं मिलने के बराबर है. यह कहावत सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के एक हालिया फैसले पर सटीक बैठती है, जिसमें जिंदा रहते याचिकाकर्ता को न्याय नहीं मिला. 34 साल तक अदालतों का चक्कर काटते-काटते उसकी मौत हो गई. लेकिन मौत के साल भर बाद सुप्रीम कोर्ट ने उसके पक्ष में फैसला दे दिया.
क्या था पूरा मामला?
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 1978 में दिनेश चंद्र शर्मा को भारतीय पर्यटन विकास निगम लिमिटेड (ITDC) की राजस्थान यूनिट में जयपुर के अशोका होटल में अटेंडेंट की नौकरी मिली. जुलाई 1991 में उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया. इसके खिलाफ उन्होंने लेबर कोर्ट में अपील की. कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए उनकी नौकरी बहाल करने और पिछली पूरी सैलरी देने का आदेश दिया. क्योंकि ITDC मैनेजमेंट उनके खिलाफ लगे आरोपों को साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं पेश कर सका. हालांकि ये फैसला डीके शर्मा की बर्खास्तगी के 24 साल बाद साल 2015 में आया.
ITDC मैनेजमेंट ने लेबर कोर्ट के फैसले के खिलाफ राजस्थान हाई कोर्ट में अपील की. हाई कोर्ट की सिंगल बेंच ने लेबर कोर्ट के आदेश में थोड़ा सा संशोधन करते हुए पिछली बकाया राशि का पचास फीसदी भुगतान करने को कहा. लेकिन बाद में हाई कोर्ट की खंडपीठ ने डीके शर्मा की बहाली और बकाया वेतन के भुगतान के आदेश को रद्द कर दिया.
इसके बाद डीके शर्मा ने साल 2020 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. शीर्ष अदालत ने हाई कोर्ट की सिंगल बेंच का फैसला बरकरार रखा. यानी नौकरी की बहाली और पिछला बकाया का 50 फीसदी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट की सिंगल बेंच का आधी बकाया सैलरी देने का फैसला सही था, क्योंकि इसमें निष्पक्षता और व्यवहारिकता दोनों का ध्यान रखा गया था.
जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस उज्जल भुइयां की बेंच ने कहा,
कोई व्यक्ति नौकरी जाने के बाद अपने गुजारे के लिए छोटे-मोटे काम कर सकता है, लेकिन यह बकाया वेतन देने से इनकार करने का आधार नहीं हो सकता. खासकर तब जब उसकी नौकरी सजा के तौर पर खत्म की गई हो.
सुप्रीम कोर्ट में तो दिनेश शर्मा के पक्ष में फैसला आया. लेकिन वो इस फैसले को सुनने के लिए जीवित नहीं रहे. पिछले साल उनका निधन हो गया था. उनके कानूनी उत्तराधिकारी ने इस मुकदमे को आगे बढ़ाया.
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