कविता - लोकतंत्र की अभिलाषा थी
लोकतंत्र की अभिलाषा थी,
जग के आंसू पोंछू,
घर-घर में खुशहाली दूँ,
मानवता का गगन चुमू,
पर भ्रष्टाचार ने नस-नस में
लूटतंत्र का कैंसर फैलाया है,
विश्वास की नींव हिलाकर,
सपनों का आकाश जलाया है,
जन-जन की उम्मीदों को
लोभ की दीमक खाती है,
न्याय के मंदिर की सीढ़ियाँ
अब सत्ता की मुट्ठी जाती है,
पर फिर भी एक दीपक मन में
सत्य की लौ जगाता है,
हर अन्याय के अंधेरे को
मानवधर्म मिटाता है,
एक दिन फिर से जनशक्ति की
ताकत पर्वत हिलाएगी,
धर्म नहीं, नीयति नहीं—
जनता ही व्यथा मिटाएगी,
अभी लड़ाई जारी है,
पर उम्मीदों का सूरज निकलेगा,
सत्य की राह पकड़कर अंततः
लोकतंत्र ही फिर फूलेगा-फलेगा।
लोकतंत्र की अभिलाषा थी,
जग के आँसू पोंछू,
घर-घर में खुशहाली दूँ,
मानवता का गगन चूमूँ,
पर भ्रष्टाचार ने नस-नस में
लूटतंत्र का कैंसर फैलाया है,
कुर्सियों के सौदागर अब
जनता की पीठ पर चढ़ते हैं,
रोटियों के वादे करके
महलों में चैन से पड़ते हैं,
सच की आवाज़ दबाने को
झूठ के ढोल बजाए जाते हैं,
और गद्दी के ये कठपुतले
किसके इशारों पर नाचते हैं?
जनता की पीड़ा का मोल
चंद नोटों में आँका जाता है,
न्याय भी अब बोली लगाकर
अक्सर सबसे ऊँचे को जाता है,
नाली में बहता लोकतंत्र
कागज़ों में शाही कहलाता है,
और भूखे पेट की कराहों पर
सत्ता हँसकर गीत सुनाता है,
पर अब चुप्पी टूटेगी,
अब डर का दरवाज़ा खुलना है,
इन नकाबपोश मालिकों को
आईना पूरा दिखना है,
जनता जब सचमुच उठेगी
तो सिंहासन काँपेगा,
सच की आग भड़कते ही
झूठ का साम्राज्य राख होगा
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