कविता - अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस नें क्या क्या गुल खिलाये,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस नें, क्या क्या गुल खिलाया,
बहादुर सुभाष भगाया, देश का विभाजन करवाया,
आज़ाद भारत को भी अदृश्य इस्लामी नक़ाब पहनाया।
शाही परिवार की खातिर सारा राष्ट्र दाव पर लाया।
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस नें क्या क्या गुल खिलाया।
===1===
लाठी से सत्याग्रह चलाया, जन जन को अखंडता पर भरमाया।
राजतिलक के लालच में, अंग्रेजों की हर इच्छा के आगे शीश छुकाया ।
सत्ता की कुर्सी आते ही सबसे पहले गाँधी की सीखों को भुलाया ,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस नें क्या क्या गुल खिलाया।
===2===
नेहरू की भूलों से भारत का नक्सा घायल हुआ,
विभाजन की विभीषिका में नरसंहारी रुदन हुआ।
हिन्दी चीनी भाई भाई का नारा भी घायल हुआ,
पड़ोसियों नें आँखें दिखलाईं, देश नें नजरें झुकाई थीं।
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस नें क्या क्या गुल खिलाया।
===3===
सैनिक सीमा पर लहू बहाते, सत्ता ने शत्रु को मखमल फैलाया,
हजारों कैदी सैनिक छोड़े उनके, पर अपनों को नहीं छुड़ाया।
लोकतंत्र की बंदी बना कर क्या खूब आपातकाल लगाया।
आज़ादी के रक्षक बनकर,भारत की आज़ादी को ही धमकाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस नें क्या क्या गुल खिलाया।
===4===
भ्रष्टाचार की परत दर परत, बोफोर्स से लेकर घोटालों तक,
तिजोरी फूली, जनता सूखी, देश लुटा उनके हवाले तक।
शाही परिवार की खातिर सारा राष्ट्र हाशिये पर आया,
आजाद भारत में भी कांग्रेस का अंग्रेज अध्यक्ष बनाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस नें क्या क्या गुल खिलाया।
=== समाप्त ====
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⭐ व्यंग्य-भारतमाला — सत्ता की कथागाथा (लंबी काव्य-रचना)
अंग्रेजों की परछाइयों में जो दल सत्ता को पाए,
क्या-क्या लीला, क्या-क्या खेल, इतिहास में रंग जमाए।
स्वराज की गाथा कहते-कहते—राज ही राज कमाए,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाए।
१. प्रारंभ की राजनीति
सत्याग्रह के नगाड़े बजते—पीछे समझौते चलते थे,
मोमबत्ती के उजालों में—कमरों में सौदे पलते थे।
इंकलाब के नारे ऊँचे—पर काग़ज़ पर समझौता छाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
कैबिनेट मिशन, क्रिप्स प्रस्ताव—सबका अंत कहानी-सा,
कहीं भाषण, कहीं जनमत—कहीं सत्ता का पानी-सा।
अखंड धरा की बातों में—नक्शों का टुकड़ा कटवाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
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२. विभाजन और सत्ता-हस्तांतरण
आधी रात को बजती घंटी—आजादी थी या सौदा था?
काग़जों पर खिंची लकीरों में—खून का गाढ़ा धौला था।
माउंटबेटन संग सलाह-मशविरा—सबने इतिहास को भरमाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
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३. विलय, रियासतें और सत्ता की ढील
हैदराबाद की कठिन घड़ियाँ—जूनागढ़ की टेढ़ी राह,
एक तरफ़ लौहपुरुष खड़े थे—दूजी तरफ़ था सत्ता की चाह।
चर्चाओं के बीच-बीच में—कुर्सी ने वक़्त गंवाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
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४. नेहरू काल और विदेशनीति
पंचशील की मीठी भाषा—सीमा की पहरेदारी भूली,
आँखों में सपनों की झिलमिल—हकीकत की धरती सूनी।
चीन की चालों के आगे—विश्वास का किला ढहाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
हिंदुस्तान का सैनिक रोता—दिल्ली में उत्सव चलता था,
जनता पूछे—“क्या हुआ?”—उत्तर बस भाषण मिलता था।
राष्ट्र सुरक्षा का जब प्रश्न उठा—सबने कंधा झटकाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
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५. आपातकाल — लोकतंत्र की रात्रि
फिर आया काला पन्ना—देश पर जैसे रात पड़ी,
स्वर की मशालें बुझती रहीं—आज़ादी की सांस अड़ी।
अख़बारों पर ताले जड़कर—सत्ता ने ताज सजाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
जेलों में विचार बंद हुए—सड़कों पर भय का शासन था,
हुक्म तानाशाही का निकला—कहते इसे “राष्ट्र अनुशासन” था।
लोकतंत्र के प्रहरी बनकर—लोकतंत्र को ही झुलसाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
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६. लाइसेंस-परमिट राज
फाइलों की लंबी कतारों में—उद्योग दम घुटते जाते थे,
परमिट की मुहरें बिकती थीं—अफसर राजा बन जाते थे।
देश का कारोबार रुका—नियमों ने जाल फैलाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
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७. 80–90 के दशक की राजनीति
चुनावी गणितों की डोर—अर्थनीति से भारी हो गयी,
कुर्सी बचाने की चिंता—जनसेवा पर भारी हो गयी।
सुधारों का श्रेय बटोर कर—बोझ किसी और पर ढकवाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
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८. घोटाले — इतिहास की परतें
बोफोर्स की हवा चली—सदन में कोहराम मचाता,
सौदे की छाया गहरी—जनता का विश्वास डगमगाता।
सवाल हवा में उड़ते—जवाब कहीं न आया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
CWG की रोशनी फीकी—2G में अंकों का अंधियारा,
कोयले में कालिख छिपी—तिजोरी में नाचा सितारा।
कोर्टों ने जब परतें खोलीं—सबने चेहरा छुपाया,
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
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९. अंत में जनता का स्वर
इतिहास की गलियों में आज भी—कदमों की गूँजें चलती हैं,
पुराने फ़ैसले याद दिला—नयी पीढ़ियाँ प्रश्न उगलती हैं।
जनता पूछे—“देश के नाम पर और कितना खेल दिखाया?”
अंग्रेजों की पार्टी कांग्रेस ने क्या-क्या गुल खिलाया।
⭐ समापन
ये सत्ता की गाथा है—व्यंग्य की एक लम्बी कड़वी रेखा,
जनता ही अंतिम निर्णायक—देश ही सबसे ऊँची रेखा।
इतिहास न टलता कभी—सच का दीपक जलता ही है,
गलतियाँ चाहे किसी की हों—लोकतंत्र संभलता ही है।
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