विदेशों में देश की गाढी कमाई , देश के गद्दार हैं या देश के नेता


- अरविन्द सिसोदिया 
कालेधन की कहानी कब प्रारम्भ हुई पता नहीं...., मगर यह तब तूफान बन गई.., जब राजीव गांधी की केन्द्र सरकार को जनता ने बोर्फोस मामले में दलाली खाने के आरोप में सत्ता से बाहर कर दिया। तब यह सब जान गये कि विदेशों में देश की गाढी कमाई भी छुपाई जाती है। कोई भी देशहित की चिन्तक सरकार होती तो देश का धन देश में ले आती.., मगर देश और जनता को अपनी बपौती समझने वाली राजनीति ने सभी मर्यादाओं और नैतिकताओं को अंगूठा बताते हुये । हमेशा ही यह काला  धन विदेशों में ही बना रहे इस तरह की कोशिशें की। अब प्रश्न यह है कि ये लोग देश के गद्दार हैं या देश के नेता हैं।.........
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बहस
काला धन पर श्वेत पत्र
कनक तिवारी
लिक :- http://raviwar.com
अब सेवानिवृत्त लेकिन बहुचर्चित न्यायाधीश डॉ. सुदर्शन रेड्डी की अध्यक्षता वाली द्विसदस्यीय खंडपीठ ने सुरिन्दर सिंह निज्जर सहित सुप्रीम कोर्ट का एक और ऐतिहासिक फैसला 5 जुलाई 2011 को सुनाया. एक अरसे से चल रही काला धन संबंधी राष्ट्रीय चिन्ता को सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से मिटाने में एक महत्वपूर्ण दिशा मिली है. देश के कुछ ख्यातनाम व्यक्तियों राम जेठमलानी, गोपाल शर्मन, श्रीमती जयबाला वैद्य, के. पी. एस. गिल, प्रो. बी. बी. दत्ता और सुभाष कश्यप ने मिलकर एक याचिका वर्ष 2009 में अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की थी
याचिकाकर्ताओं ने देश से बाहर गए हजारों करोड़ रुपयों के काले धन की वापसी की भूमिका और लगातार चोरी को लेकर देश को जनता की गहरी चिंता से अदालत को अवगत कराया. सुप्रीम कोर्ट ने मामले का संज्ञान लेकर एक के बाद एक कारगर आदेश जारी किए लेकिन केन्द्र सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी. सरकार के विधि सलाहकार शब्द जाल के जरिए याचिकाकर्ताओं और सुप्रीम कोर्ट का ध्यान बटाने की कोशिश करते रहे. उन्हें लगा होगा कि वे कुशल तैराक की तरह कानून का भवसागर पार कर लेंगे. लेकिन दूरदर्शिता के अभाव में जीने वाली सरकार एक तरह से दलदल में फंस गई है.
सुप्रीम कोर्ट ने भारत के असंख्य लोगों का नैतिक प्रतिनिधित्व भी करते हुए काले धन की वैश्विक भूमिका को लेकर अपने निर्णय के एक चौथाई हिस्से में विशेषज्ञ नोट लिखा. ऐसा विशेषज्ञ नोट भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के तहत कार्यरत किसी भी संस्था ने आज तक शायद जारी नहीं किया. सरकारी विभागों की विवेचनात्मक और कार्यशील टिप्पणियों में एक तरह का ठंडा उबाऊपन झांकता रहता है. उसे देश की साधारण जनता भी स्वीकार नहीं कर पाती. इसके बरक्स सुप्रीम कोर्ट की भूमिका में काले धन की खलनायकी का नकाब उतारने की कोशिश प्रशंसनीय लगती है.
सुप्रीम कोर्ट के सामने मुख्य सवाल यह था कि जब सरकार ने यह स्वीकार कर लिया है कि देश के कुछ धनाड्यों का अकूत धन विदेशी बैंकों और मुख्यतः स्विटजरलैंड तथा जर्मनी के निकट स्थित एक राष्ट्र राज्य के बैंकों में जमा होता हुआ हजारों लाखों करोड़ रुपयों की अंकगणित बन गया है. तब सरकार को ऐसे खतरनाक लोगों के काले धन का ब्यौरा उजागर तक करने में हीला हवाला क्यों करना पड़ रहा है.
उदाहरण के लिए हसन अली और तापुरिया दंपत्ति को ही स्वयं प्रवर्तन निदेशालय ने क्रमशः 40 हजार करोड़ रुपयों और 20580 हजार करोड़ रुपयों की कर अदायगी का नोटिस जारी किया है. फिर भी उन्हें हिरासत में लेकर पूछताछ करने की कोई त्वरित और कठोर कार्यवाही नहीं की गई. हसन अली का पासपोर्ट जब्त किया गया तो उसने कथित तौर पर एक राजनेता की मदद से पटना से दूसरा पासपोर्ट बनवा लिया. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को बार बार हिदायत दी है लेकिन सरकार की अजगर गति निश्चिंत भाव से जारी रही.

इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं की मांगों पर विचार किया कि देश के काले धन के जमाखोरों और टैक्स चोरों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने में सरकार जानबूझकर ढीली पड़ती जा रही है. ऐसे काले धन को देश के बाहर आसानी से ले जाया जा रहा है. फिर उसे चोरी छिपे लाकर देश की अर्थव्यवस्था में रुकावट, महंगाई और काला बाजार को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. काला धन भारत विरोधी आतंकी कार्यवाही में भी इस्तेमाल होने के आरोप लगते रहे हैं.
याचिकाकर्ताओं ने सरकार से बार बार सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत कई तरह की जानकारियां मांगीं लेकिन वे उन्हें तरह तरह के शासकीय और वैधानिक बहानों की आड़ में नहीं दी गईं. याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि संकेत सूत्र उपलब्ध होने के बावजूद भी विदेशों से प्रामाणिक जानकारियां इकट्ठी नहीं की जा रही हैं. अन्वेषण सही दिशा में एवं त्वरित गति से नहीं हो रहा है. काले धन के भारत में रह रहे कारोबारियों से भी पूछताछ करने में सरकारी एजेन्सियों को परहेज हो रहा है. यह भी आईने की तरह साफ हो रहा है कि ऐसे काला धन सम्बन्धी जानकारी प्रभावशाली राजनेताओं, नौकरशाहों और धनाड्यों की मिली जुली कुश्ती की तरह जनता तो क्या सुप्रीम कोर्ट के इजलास में आने नहीं दिया जा रहा है.

सुप्रीम कोर्ट ने स्विटजरलैंड के विवादास्पद बैंकों की भारतीय अर्थव्यवस्था को तहस नहस करने की कोशिशों को सरकारी दावों के बावजूद ठीक ठीक समझने में भूल नहीं की. स्विस बैंक यू. बी. एस. की एक इकाई यू. बी. एस. सिक्यूरिटी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड ने भारत स्थित स्टैंडर्ड चार्टर्ड म्यूचुअल फंड व्यवसाय को खरीदना चाहा था. इस बैंक के खिलाफ 2004 में भारतीय स्टॉक एक्सचेंज को भी क्षतिग्रस्त करने के आरोप सेबी ने लगाए थे. इसके बावजूद रिजर्व बैंक ने किसी अज्ञात दबाव के कारण पहले की गई मनाही को बाद में वापस ले लिया.

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि उसे संविधान के भाग 3 में वर्णित होने से इस बात का संवैधानिक अधिकार है कि वह भारत की संप्रभुता की रक्षा करे. ऐसा करना सुप्रीम कोर्ट का संविधान के बुनियादी ढांचे की नस्ल का अधिकार है. सरकार चाहे इसे कितना ही कार्यपालिका के अधिकार की तरह परिभाषित और प्रचारित करे. सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रकरण में केन्द्र सरकार को कड़ी लताड़ भी लगाई. उसने दो टूक कहा कि केन्द्र सरकार का रवैया ढुलमुल, बलाटालू, संशयग्रस्त और लगातार अस्वीकार का रहा है. बड़ी मुश्किल से केन्द्र सरकार ने जांच दल गठित करना कबूल किया लेकिन उसकी बेढंगी रफ्तार जैसी पहले थी वैसी अब भी है.

कछुआ गति से चलते अन्वेषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट को गंभीर और स्पष्टवादी भी होना पड़ा. सरकार ने करीब 10 सदस्यों के एक सरकारी जांच दल को गठित किए जाने का ऐलान तो किया. सुप्रीम कोर्ट ने जब कथित जांच प्रक्रिया को लेकर एक के बाद एक कड़े सवाल दागे तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार सरकारी वकील की घिग्गी बंध गई. इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेष अनुसंधान टीम बनाने का निर्णय घोषित किया. इस जांच दल की अध्यक्षता के लिए सुप्रीम कोर्ट ने उसके सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री जीवन रेड्डी को अध्यक्ष और तथा श्री ए. बी. शाह को उपाध्यक्ष घोषित करते हुए सरकार द्वारा गठित जांच दल के सभी 10 सरकारी अधिकारी सदस्यों को कायम रखा. कोर्ट ने इसे एक अत्यंत अपवादात्मक आदेश तो माना लेकिन साफ किया कि ऐसा आदेश भारत के उन असंख्य लोगों के प्रति संवेदनशील होकर दिए जाने की जरूरत महसूस हुई है जिन्होंने भारत का सार्वभौम संविधान बनाया है. अदालत ने दो टूक कहा कि ऐसे निर्णय विनीत नारायण बनाम भारत संघ (1996) राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग बनाम गुजरात (2004), संजीव कुमार बनाम हरियाणा (2005) तथा सेन्टर फॉर पी. आई. एल. बनाम भारत संघ (2011) वगैरह में सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी दिए हैं. 

करुणा की भाषा में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी लिखा कि हमारे देश के लोग गरीब हैं और कई दृष्टियों से शोषित हैं. लेकिन फिर भी भारत के यही गरीब और शोषित लोग ही नैतिक और मानववादी दृष्टिकोण से बहुत अमीर हैं. अपनी तमाम तकलीफदेह हालत और असफलता के बावजूद इन लोगों के महान मानवीय, सहिष्णु और विश्वासमय गुणों के कारण ही उन्हें अमीरों और शक्तिशाली लोगों से किसी तरह कमतर नहीं आंका जा सकता. ऐसे लोगों की नैसर्गिक महानता का साक्षात्कार तभी हो सकता है जब संविधान की मंशाओं के अनुरूप उनके जीवन को गरिमामय बनाया जा सके. सुप्रीम कोर्ट ने विनयशील भाषा में यही कहा कि ऐसा करना उसका संवैधानिक उत्तरदायित्व है और वह ऐसा करने के लिए लगातार प्रतिबद्ध है. इस फैसले को एक छोटे प्रयत्न के रूप में भले समझा जाए लेकिन संविधान की रक्षा और कष्ट सहते संघर्षशील लोगों के जीवन मूल्यों और दृष्टि में इजाफा करना ही लोगों की सेवा करना है.
सरकार ने विदेशों से हुए कई तरह के अंतराष्ट्रीय समझौतों का हवाला देते हुए ठीक ठीक जानकारियां एकत्रित करने के लिए कई तरह की बहानेबाजियां कीं. उसके साथ साथ यह भी कहा कि लोकतंत्र में प्राइवेसी अर्थात निजता का अधिकार मूलभूत अधिकार है. काले धन के जमाखोर भी भारतीय नागरिक होने से मूलभूत अधिकारों से च्युत नहीं हैं.
अदालत ने इन दोनों तर्कों की दार्शनिक मीमांसा करते हुए धज्जियां उड़ा दीं. अपने तर्कशक्ति-निरूपण में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार का समर्थन किया और कहा कि उसे निजी अधिकारों से छेड़छाड़ करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. फिर पूछा कि जिन प्रकरणों में पुख्ता जांच रिपोर्ट मिल गई हो उन काले नामों को उजागर करने को कौन सा संवैधानिक प्रतिबंध आड़े आएगा. सरकार ने इतनी कम और अधूरी जांच की है कि काले धन के जमाखोरों को निजता के कानून के छाते की आड़ से कब तक बचाया जा सकेगा, जब जन-उत्सुकताओं का देश में अंधड़ चल रहा हो. अपुष्ट, अपूर्ण और अफवाहनुमा जानकारियों के आधार पर भले ही किसी नागरिक की गोपनीयता का अधिकार छीना नहीं जाए. लेकिन उसे बेदाग या दोषी सिद्ध करने की जांच प्रक्रिया परोक्ष और तटस्थ मूल्यक ढंग से पूरी नहीं किए जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने तीखे सवाल किए.
जर्मनी, स्विटजरलैंड एवं अन्य देशों से हुए अंतराष्ट्रीय करारों की आड़ में सरकार ने मुंह छिपाने की कोशिश की लेकिन उसकी पगड़ी खुलती गई. अदालत ने पाया कि जर्मनी के साथ हुए तथाकथित समझौते के अनुच्छेद की आड़ में ‘लेखटेन्सटीन‘ (Liechtenstein) नामक उसके निकट स्थित राष्ट्र-राज्य के बैंकों में जमा धन को ऐसी व्यापारिक नजीरों के जरिए जानने और लाभ से बचाया नहीं जा सकता.
अंतराष्ट्रीय विधिशास्त्र के कई मानकों का विश्लेषण करते हुए अदालत ने आजादी बचाओ आंदोलन के अपने पुराने निर्णय में प्रसिद्ध विधिशास्त्री फ्रैंक बेनियन के कथन से सहमति का इजहार किया कि कई अंतराष्ट्रीय करार जानबूझकर बदनामी के ठीकरे होते हैं क्योंकि वे ऐसे लोगों को बचाने का तिलम्मा रचते हैं जिन्हें संसद के अधिनियम रच कर नहीं बचाया जा सकता. तरह तरह की संवैधानिक और शास्त्रीय व्याख्याओं विश्लेषण से च्युत यह ऐतिहासिक फैसला भारतीय जन जीवन का वास्तविक बैरोमीटर है.
अदालत ने यह कटाक्ष भी किया कि राज्य शक्ति के कुछ पैरोकार यह तिरस्कारयोग्य दलील देते हैं कि यदि मुकदमा दो पक्षों अर्थात याचिकाकार जनप्रतिनिधियों और राज्य के बीच है तो यह याचिकाकर्ताओं का कर्तव्य है कि वे खुद पूरी जानकारी और तथ्य एकत्रित कर ही अपना मुकदमा पेश करें. उन्हें राज्य से ऐसी सूचनाओं की अपेक्षा क्यों करनी चाहिए. अपनी गरिमामय भाषा और सारवान अभिव्यक्तियों में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक नागरिक जब संवैधानिक प्रतिबद्धता के तहत संविधान के उदात्त मानक मूल्यों की रक्षा के लिए देश के सबसे बड़े संविधान न्यायालय में दस्तक देता है तो उसे सरकार के विरुद्ध युद्ध करता हुआ व्यक्ति नहीं कहा जा सकता.
हम भारत के करोड़ों लोग खुद संविधान के निर्माता हैं. उनके द्वारा चुनी गई सरकारों का यह संवैधानिक कर्तव्य है कि वह सभी जरूरी जानकारियां अदालतों और न्यायालयों को मुहैया कराये. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के धुले लेकिन सिकुड़े कपड़ों पर अपने गरमागरम तर्कों की इस्तरी चलाई. अदालत ने साफ किया कि ऐसे मुकदमों में जनप्रतिनिधियों की अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल भी इतिहास से अपनी पहचान मांगता है जो उसे संविधान के अनुच्छेद 19 में मिली हुई है. इसलिए यदि कोई अंतर्राष्ट्रीय करार भारत के संविधान की हेठी करता है, उनसे मुंह चुराता है या उसे शब्द छल से दिग्भ्रमित करने का प्रयास करता है-तो ऐसे किसी भी अंतर्राष्ट्रीय करार की कोई कानूनी मान्यता नहीं हो सकती है.
इस लेख के लिखे जाने के पहले ही केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनरीक्षण याचिका दायर की है. केन्द्र सरकार का कहना होगा कि संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का त्रिशंकु संतुलन है. जो कार्य विधायिका और कार्यपालिका को क्रमशः करने हैं उनमें न्यायपालिका का हस्तक्षेप नहीं हो सकता. न्यायपालिका को कार्यपालिका के निर्णयों और आदेशों के विकल्प देने के बदले केवल समीक्षा करनी चाहिए. वह चाहे तो सरकार को और हिदायतें दे दे और सरकार के हर निर्णय की संविधानगत समीक्षा करती रहे. लेकिन उसे लक्ष्मण रेखा लांघकर कार्यपालिका की सरहद में आने की संवैधानिक गलती नहीं करनी चाहिए.
केन्द्र सरकार की कोशिश सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक कर्तव्योन्मुखता को झिंझोड़ने की है, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. उसमें राजनीतिक कुटिलता लबालब है. सुप्रीम कोर्ट की इसी बेंच ने छत्तीसगढ़ सरकार के विशेष पुलिस अधिकारी और सलवा जुडूम संस्था को लेकर महत्वपूर्ण फैसला किया है. उनके कारण भाजपा के रणनीतिकार नामीगिरामी संविधानविदों को लेकर पुनरीक्षण याचिका तो दायर करेंगे ही. मौजूदा प्रकरण कांग्रेसी रणनीतिकारों के माथे पर पसीने की बूंदें फैला गया है. 
केन्द्र सरकार देश में बरसों से मेडिकल कॉलेजों में दाखिला नहीं करवा पा रही है. वह पिछले 25-30 वर्षों से भारत के जंगलों की रक्षा नहीं कर पा रही है. वह देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए गरीबी रेखा से नीचे के नागरिकों को सस्ता और पर्याप्त अनाज अपने दम पर मुहैया नहीं करा रही है. वह देश में लाखों टन सड़ा अनाज गरीब जनता में बांटे जाने का खुले आम विरोध कर रही है. वह 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले और आदर्श सोसायटी जैसे प्रकरण में अपने दम पर कुछ नहीं कर पा रही है. वह राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले में भी कांग्रेस के दिग्विजयी प्रवक्ता के जरिए सुरेश कलमाड़ी और आदर्श सोसायटी में विलासराव देशमुख को न्यायाधीश मामले में भी निर्दोष घोषित कर रही है.
कई और सार्वजनिक महत्व के कर्तव्यों के साथ देश का सुप्रीम कोर्ट ही ऊपर लिखित समस्याओं को संज्ञान में लेकर निगरानी करता हुआ पेशी दर पेशी जूझ रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने ही उम्मीदवारों में खर्च की सीमा और उनके उजागर करने की चुनाव आयोग के जरिए मुश्कें बांध रखी हैं. ऐसे में यही देखना दिलचस्प होगा कि क्या सुप्रीम कोर्ट एक जाहिल सरकारी व्यवस्था से अब भी यह उम्मीद करना चाहेगा कि वह देश के काले धन के जमाखोर चेहरों को सरकार के भरोसे बेनकाब करेगा क्योंकि देश की जनता की बांईं आंख तो बरसों से अशुभी अपशकुनों के कारण फड़क रही है.

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सोनिया गांधी का 84 हजार करोड़ काला धन स्विस बैंक में!
Wed, 01/19/2011 - 15:00 — Site Admin
http://www.aadhiabadi.com
सुप्रीम कोर्ट ने विदेशी बैंकों में काला धन जमा करने वाले भारतीयों के नामों को सार्वजनिक किए जाने के मामले में 19 जनवरी 2011 को एक बार फिर सरकार की जमकर खिंचाई की। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि आखिर देश को लूटने वाले का नाम सरकार क्‍यों नहीं बताना चाहती है? बेशर्म मनमोहनी सरकार खीसें निपोरती नजर आई। इससे पहले 14 जनवरी 2011 को भी सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को जमकर फटकार सुनाई थी। अदालत ने पूछा कि विदेशी बैंकों में काला धन जमा करने वालों के नाम सार्वजनिक करने को लेकर सरकार इतनी अनिच्छुक क्यों है? 
हम आपको बताते हैं कि सरकार देश को लूटने वाले काले धन जमाखोरों का नाम क्‍यों नहीं बताना चाहती है। वास्‍तव में कांग्रेस के राजपरिवार गांधी परिवार का खाता स्विस बैंक में है। राजीव गांधी ने स्विस बैंक में खाता खुलवाया था, जिसमें इतनी रकम जमा है कि यदि उन नोटों को जलाकर सोनिया गांधी खाना बनाए तो 20 साल तक रसोई गैस खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
चलिए मुद्दे पर आते हैं, हमारे पास क्‍या सबूत है कि राजीव गांधी का बैंक खाता स्विस बैंक में है? सो पढि़ए, 
एक स्विस पत्रिका Schweizer Illustrierte के 19 नवम्बर, 1991 के अंक में प्रकाशित एक खोजपरक समाचार में तीसरी दुनिया के 14 नेताओं के नाम दिए गए है। ये वो लोग हैं जिनके स्विस बैंकों में खाते हैं और जिसमें अकूत धन जमा है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का नाम भी इसमें शामिल है।
यह पत्रिका कोई आम पत्रिका नहीं है. इस पत्रिका की लगभग 2,15,000 प्रतियाँ छपती हैं और इसके पाठकों की संख्या लगभग 9,17,000 है जो पूरे स्विट्ज़रलैंड की व्यस्क आबादी का छठा हिस्सा है।
राजीव गांधी के इस स्विस बैंक खुलासे से पहले राजीव गांधी के मिस्‍टर क्‍लीन की छवि के उलट एक और मामले की परत खोलते हैं। डा येवजेनिया एलबट्स की पुस्तक “The state within a state – The KGB hold on Russia in past and future” में रहस्योद्धाटन किया गया है कि राजीव गांधी और उनके परिवार को रूस के व्यवसायिक सौदों के बदले में लाभ मिले हैं। इस लाभ का बड़ा हिस्‍सा स्विस बैंक में जमा है। 
रूस की जासूसी संस्‍था KGB के दस्‍तावेजों के अनुसार  स्विस बैंक में स्थित स्‍वर्गीय राजीव गाँधी के खाते को उनकी विधवा सोनिया गाँधी अपने अवयस्क लड़के (जिस वक्‍त खुलासा किया गया था उस वक्‍त कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी व्‍यस्‍क युवा नेता नहीं बने थे) के बदले संचालित करती हैं। इस खाते में 2.5 बिलियन स्विस फ्रैंक हैं जो करीब 2 .2 बिलियन डॉलर होता है। यह 2.2मिलियन डॉलर का खाता तब भी सक्रिय था, जब राहुल गाँधी जून 1998 में वयस्क हुए थे। भारतीय रुपये में इस काले धन का मूल्‍य लगभग 10 ,000करोड़ रुपए होता है।
कांग्रेसियों और इस सरकार के चाहने वालों को बता दें कि इस रिपोर्ट को आए कई वर्ष हो चुके हैं, लेकिन गांधी परिवार ने कभी इस रिपोर्ट का औपचारिक रूप से खंडन नहीं किया है और न ही संदेह पैदा करने वाले प्रकाशनों के विरूध्द कोई कार्रवाई की बात कही है।

जानकारी के लिए बता दें कि स्विस बैंक अपने यहाँ जमा राशि को निवेश करता है, जिससे जमाकर्ता की राशि बढती रहती है। अगर इस धन को अमेरिकी शेयर बाज़ार में लगाया गया होगा तो आज यह रकम  लगभग 12,71 बिलियन डॉलर यानि 48,365 करोड़ रुपये हो चुका होगा। यदि इसे लंबी अवधी के शेयरों में निवेश किया गया होगा तो यह राशि 11.21 बिलियन डॉलर बनेगी. यानि 50,355 करोड़ रुपये हो चुका होगा। 

वर्ष 2008 में उत्‍पन्‍न वैश्विक आर्थिक मंदी से पहले यह राशि लगभग 18.66 बिलियन डॉलर अर्थात 83 हजार 700 करोड़ रुपए पहुंच चुकी होगी। आज की स्थिति में हर हाल में गांधी परिवार का यह काला धन 45,000 करोड़ से लेकर 84,000 करोड़ के बीच में होगी।
कांग्रेस की महारानी और उसके युवराज आज अरख-खरबपति हैं। सोचने वाली बात है कि जो कांग्रेसी सांसद व मंत्री और इस मनमोहनी सरकार के मंत्री बिना सोनिया-राहुल से पूछे बयान तक नहीं देते, वो 2जी स्‍पेक्‍ट्रम, कॉमनवेल्‍थ, आदर्श सोसायटी जैसे घोटाले को अकेले अंजाम दिए होंगे? घोटाले की इस रकम में बड़ा हिस्‍सा कांग्रेस के राजा गांधी परिवार और कांग्रेस के फंड में जमा हुआ होगा?
यही वजह है कि बार-बार सुप्रीम कोर्ट से लताड़ खाने के बाद भी मनमोहनी सरकार देश के लूटने वालों का नाम उजागर नहीं कर रही है। यही वजह है कि कठपुतली प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जेपीसी (संयुक्‍त संसदीय समिति) से मामले को जांच नहीं करना चाहती, क्‍योंकि जेपीसी एक मात्र संस्‍था है जो प्रधानमंत्री से लेकर 10 जनपथ तक से इस बारे में पूछताछ कर सकता है। यही वजह है कि भ्रष्‍टाचारी थॉमस को सीवीसी बनाया गया है ताकि मामले की लीपापोती की जा सके। सुप्रीम कोर्ट बार-बार थॉमस पर सवाल उठा चुकी है, लेकिन विपक्ष के नेता के विरोध को दरकिनार कर सीवीसी बनाए गए थॉमस के पक्ष में सरकार कोर्ट में दलील पेश करती नजर आती है। क्‍या वजह है कि एक भ्रष्‍ट नौकरशाह को बचाने के लिए संसदीय मर्यादा से लेकर कोर्ट की फटकार तक सरकार सुन रही है?

सरकार के पास ऐसे 50 लोगों की सूची आ चुकी है, जिनके टैक्‍स हैवन देशों में बैंक एकाउंट है। लेकिन इसमें केवल 26 नाम ही सरकार ने अदालत को सौंपे हैं। जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी और जस्टिस एस. एस. निज्जर की बेंच ने 19 जनवरी 2011 को सरकार से पूछा कि इसे सार्वजनिक करने में क्या परेशानी है? कोर्ट ने कहा कि सभी देशों के सभी बैंकों की सूचनाएं जरूरी हैं। अदालत ने यहां तक कह दिया कि देश को लूटा जा रहा है।

जानकारी के लिए बता दें कि 1948 से 2008 तक भारत ने अवैध वित्तीय प्रवाह (गैरकानूनी पूंजी पलायन) के चलते कुल 213 मिलियन डालर की राशि गंवा दी है। भारत की वर्तमान कुल अवैध वित्तिय प्रवाह की वर्तमान कीमत कम से कम 462 बिलियन डालर है। यानी 20 लाख करोड़ काला धन देश से टैक्‍स हैवन देशों में जमा है।
यदि यह रकम देश में आ जाए तो भारत के हर परिवार को 17 लाख दिए जा सकते हैं। सरकार हर वर्ष 40 हजार 100 करोड़ मनरेगा पर खर्च करती है। इस रकम के आने पर 50 सालों तक मनरेगा का खर्च निकल आएगा। सरकार ने किसानों का 72 हजार करोड रुपए का कर्ज माफ किया था और इसका खूब ढोल पीटा,  इस रकम के आने के बाद किसानों का इतना ही कर्ज 28 बार माफ किया जा सकता है!
क्‍या अभी भी जनता कांग्रेसी राज परिवार को राजा और खुद को प्रजा मानकर व्‍यवहार करती रहेगी? यदि जनता नहीं जगी तो देश तो कंगाल हो ही रहा है, उसकी आने वाली पीढ़ी भी बेरोजगारी, गरीबी से लड़ते-लड़ते ही दम तोड़ देगी... और फिर राहुल गांधी और होने वाले बच्‍चे किसी विदेशी मंत्री को बुलाकर उसे देश की गरीबी दिखाएंगे, मीडिया तस्‍वीर खींचेगी...अखबार और चैनल रात-दिन उसका गुणगान करने में जुट जाएंगे और उधर स्विस बैंक के खाते में गांधी परिवार की आने वाली कई नस्‍लों के लिए धन जमा होता रहेगा... 

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