गुरु गोविंद सिंह : प्रकाश पर्व के अवसर पर




गुरु  गोविंद सिंह के 345वें जन्मदिवस  प्रकाश पर्व  के अवसर पर  
गुरु गोविंद सिंह .....
(जन्म- 22 दिसंबर सन 1666 ई. पटना, बिहार; मृत्यु- 7 अक्तूबर सन 1708 ई. नांदेड़, महाराष्ट्र) सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु माने जाते थे, और सिक्खों के सैनिक संगति, ख़ालसा के सृजन के लिए प्रसिद्ध थे। कुछ ज्ञानी कहते हैं कि जब-जब धर्म का ह्रास होता है, तब-तब सत्य एवं न्याय का विघटन भी होता है तथा आतंक के कारण अत्याचार, अन्याय, हिंसा और मानवता खतरे में होती है। उस समय दुष्टों का नाश एवं सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करने के लिए ईश्वर स्वयं इस भूतल पर अवतरित होते हैं। गुरु गोविंद सिंह जी ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा है,
"जब-जब होत अरिस्ट अपारा।
  तब-तब देह धरत अवतारा।"
जन्म
गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की औरंगज़ेब ज़बरदस्ती कोशिश करता था। इसी समय 22 दिसंबर, सन 1666 को गुरु तेगबहादुर की धर्मपत्नी गूजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोविंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। बचपन में सभी लोग गोविंद जी को 'बाला प्रीतम' कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर 'गोविंद' कहते थे। बार-बार 'गोविंद' कहने से बाला प्रीतम का नाम 'गोविंद राय' पड़ गया।
बैसाखी
सन 1699 में बैसाखी वाले दिन केशगढ़ साहब में श्री गुरु गोविन्द सिंह ने एक विचित्र नाटक किया। खुले मैदान में खडे़ होकर उन्होंने एक सिर माँगा, लोग हैरान थे कि हाथ में तलवार लेकर वह एक व्यक्ति का सिर माँग रहे हैं। यह कैसी अनोखी माँग है। बैसाख के मेले में एक सोई हुई क़ौम को जगाने का इतिहास रचा जा रहा था। लोग तब यह नहीं समझ सके। बैसाखी को कई इतिहासकार जंग-ए-आज़ादी का शंखनाद मानते हैं। ग़ुलामी की जंजीरों को काटकर गुरु गोविन्द सिंह ने हक़ हलाल की लड़ाई की शुरुआत की, वहीं जो इंसान अपने हाथों में एक लाठी भी पकड़ने में झिझकता था, उन्होंने कृपाण पकड़ने का साहस भरा। एक- एक करके पाँच जांबाज़ अपना शीश हथेली पर रख कर आगे आए और गुरु गोविन्द सिंह के उस आह्वान को चरितार्थ किया।
पंचप्यारे
वो पाँच प्यारे जो देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग- अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे, उन्हें एक ही कटोरे में अमृत पिला कर गुरु गोविन्द सिंह ने एक बना दिया। इस प्रकार समाज में उन्होंने एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा, जिसमें जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया। बैसाखी का एक महत्त्व यह है कि परम्परा के अनुसार पंजाब में फ़सल की कटाई पहली बैसाख को ही शुरू होती है और देश के दूसरे हिस्सों में भी आज ही के दिन फ़सल कटाई का त्योहार मनाया जाता है, जिनके नाम भले ही अलग-अलग हों।
आज के दिन यदि हम श्री गुरु गोविन्द सिंह के जीवन के आदर्शों को, देश, समाज और मानवता की भलाई के लिए उनके समर्पण को अपनी प्रेरणा का स्रोत बनाऐं और उनके बताये गए रास्ते पर निष्ठापूर्वक चलें तो कोई कारण नहीं कि देश के अन्दर अथवा बाहर से आए आतंकवादी और हमलावर हमारा कुछ भी बिगाड़ सकें।
सिक्खों में युद्ध का उत्साह
 सवा लाख से एक लड़ाऊँ चिड़ियों सों मैं बाज तड़ऊँ तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ - गुरु गोविंद सिंह
गोविद सिंह ने सिक्खों में युद्ध का उत्साह बढ़ाने के लिए हर क़दम उठाया। वीर काव्य और संगीत का सृजन उन्होंने किया था। उन्होंने अपने लोगों में कृपाण जो उनकी लौह कृपा था, के प्रति प्रेम विकसित किया। ख़ालसा को पुर्नसंगठित सिक्ख सेना का मार्गदर्शक बनाकर, उन्होंने दो मोर्चों पर सिक्खों के शत्रुओं के ख़िलाफ़ क़दम उठाये।
ख़ालसा पंथ
ख़ालसा का अर्थ है ख़ालिस अर्थात विशुद्घ, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाला व्यक्ति। इसके अलावा हम यह कह सकते हैं कि ख़ालसा हमारी मर्यादा और भारतीय संस्कृति की एक पहचान है, जो हर हाल में प्रभु का स्मरण रखता है और अपने कर्म को अपना धर्म मान कर ज़ुल्म और ज़ालिम से लोहा भी लेता है।
गोविन्द सिंह जी ने एक नया नारा दिया है- 
वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह।
गुरु जी द्वारा ख़ालसा का पहला धर्म है कि वह देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दे। निर्धनों, असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे। जो ऐसा करता है, वह ख़लिस है, वही सच्चा ख़ालसा है। ये संस्कार अमृत पिलाकर गोविंद सिंह जी ने उन लोगों में भर दिए, जिन्होंने ख़ालसा पंथ को स्वीकार किया था।
ज़फरनामा में स्वयं गुरु गोविन्द सिंह जी ने लिखा है कि जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। गुरु गोविंद सिंह ने 1699 ई. में धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही ख़ालसा पंथ की स्थापना की थी। ख़ालसा यानि ख़ालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त करके उन्होंने न सिर्फ़ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उनका स्पष्ट मत व्यक्त है-
मानस की जात सभैएक है।
ख़ालसा पंथ की स्थापना (1699) देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। एक बाबा द्वारा गुरु हरगोविंद को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनाई गई थीं।
एक आध्यात्मिकता की प्रतीक थी।
दूसरी सांसारिकता की।
गुरु गोविन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया था। ख़ालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज़्बा था।
एक से कटाने सवा लाख शत्रुओं के सिर
गुरु गोविन्द ने बनाया पंथ खालसा
पिता और पुत्र सब देश पे शहीद हुए
नहीं रही सुख साधनों की कभी लालसा
ज़ोरावर फतेसिंह दीवारों में चुने गए
जग देखता रहा था क्रूरता का हादसा
चिड़ियों को बाज से लड़ा दिया था गुरुजी ने
मुग़लों के सर पे जो छा गया था काल सा
गुरु गोविन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है-
पंच पियारा बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं- ख़ालसा मेरो रूप है ख़ास, ख़ालसा में हो करो निवास।
वीरता व बलिदान की मिसालें
परदादा गुरु अर्जुन देव की शहादत।
दादा गुरु हरगोविंद द्वारा किए गए युद्ध।
पिता गुरु तेगबहादुर सिंह की शहादत।
दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना।
दो पुत्रों को ज़िंदा दीवार में चुनवा दिया जाना।
इस सारे घटनाक्रम में भी अड़िग रहकर गुरु गोविंद सिंह संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है। यह उनके महान कर्मयोगी होने का प्रमाण है। उन्होंने ख़ालसा के सृजन का मार्ग देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए, समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिए अपनाया था। वे सभी प्राणियों को आध्यात्मिक स्तर पर परमात्मा का ही रूप मानते थे। 'अकाल उस्तति' में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जैसे एक अग्नि से करोड़ों अग्नि स्फुर्ल्लिंग उत्पन्न होकर अलग-अलग खिलते हैं, लेकिन सब अग्नि रूप हैं, उसी प्रकार सब जीवों की भी स्थिति है। उन्होंने सभी को मानव रूप में मानकर उनकी एकता में विश्वास प्रकट करते हुए कहा है कि हिन्दू तुरक कोऊ सफजी इमाम शाफी। मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो।
मृत्यु
गुरु गोविन्द सिंह ने अपना अंतिम समय निकट जानकर अपने सभी सिखों को एकत्रित किया और उन्हें मर्यादित तथा शुभ आचरण करने, देश से प्रेम करने और सदा दीन-दुखियों की सहायता करने की सीख दी। इसके बाद यह भी कहा कि अब उनके बाद कोई देहधारी गुरु नहीं होगा और 'गुरुग्रन्थ साहिब' ही आगे गुरु के रूप में उनका मार्ग दर्शन करेंगे। गुरु गोविंदसिंह की मृत्यु 7 अक्तूबर सन 1708 ई. में नांदेड़, महाराष्ट्र में हुई थी।
आज मानवता स्वार्थ, संदेह, संघर्ष, हिंसा, आतंक, अन्याय और अत्याचार की जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनमें गुरु गोविंद सिंह का जीवन-दर्शन हमारा मार्गदर्शन कर सकता है।

टिप्पणियाँ

  1. गुरु गोविंद सिंह के 345वें जन्मदिवस प्रकाश पर्व एक बेहतरीन पोस्ट .
    नव वर्ष के अवसर पर आप हार्दिक मंगलकामनाएं .

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