सांस्कृतिक राष्ट्रवाद - बाळ आपटे
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अर्थलेखक: प्रा. बाळ आपटे(लेखक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व सांसद हैं) अनुवादक: रामनयन सिंह http://www.pravakta.com/development-means |
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शाब्दिक तौर पर राष्ट्रवाद एक आधुनिक ‘पद’ है। ऐसा माना जाता है कि आधुनिक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा फ्रांस की क्रांति (1789) के बाद विकसित हुई। सामाजिक विकास या राजनैतिक सिध्दांत के तौर पर राष्ट्रवाद की संकल्पना आधुनिकता की ऐतिहासिक व्याख्या हो सकती है, लेकिन मूल स्वीकार्य बात यह है कि राष्ट्रों का अस्तित्व प्राचीन काल से था।
किसी राष्ट्र की पहचान एक राष्ट्र के रूप में कैसे होती है? या दूसरे शब्दों में वे क्या घटक हैं, जिनसे राष्ट्र का निर्माण होता है? राजनैतिक विचारक एंथोनी डी. स्मिथ (जिन्होंने राष्ट्रवाद की संकल्पना पर काफी कुछ लिखा है) ने राष्ट्र को कुछ इस तरह परिभाषित किया है, ‘मानव समुदाय जिनकी अपनी मातृभूमि हो, जिनकी समान गाथाएं और इतिहास एक जैसा हो, समान संस्कृति हो, अर्थव्यवस्था एक हो और सभी सदस्यों के अधिकार व कर्तव्य समान हों।’ रूपर्ट इमर्सन ने राष्ट्र को इस तरह परिभाषित किया है, ‘एक संबध्द समुदाय जिसकी विरासत समान हों और जो एक जैसा भविष्य पसंद करते हैं।’
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी ने राष्ट्र-जन के विभिन्न घटकों का उल्लेख किया है: समान इतिहास, समान पंरपरा, शत्रु-मित्रता का भाव समान, भविष्य की आकांक्षा समान ऐसी भूमि का पुत्र संबंध समाज राष्ट्र कहलाता है।फ्रांसीसी लेखक अर्नेस्ट रेनन(1882) के अनुसार ‘आधुनिक राष्ट्र केंद्राभिमुख घटकों की ऐतिहासिक परिणति है।’ एक जैसा अतीत गौरव, वर्तमान की एकसमान इच्छा तथा एक साथ महान कार्य के निष्पादन व उसे बेहतर करने की इच्छा, ये सभी घटक ‘जन’ बनने की आवश्यक शर्त है और ऐसे ‘जन’ की आत्मा राष्ट्र है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी ने राष्ट्र-जन के विभिन्न घटकों का उल्लेख किया है: समान इतिहास, समान पंरपरा, शत्रु-मित्रता का भाव समान, भविष्य की आकांक्षा समान ऐसी भूमि का पुत्र संबंध समाज राष्ट्र कहलाता है।
हालांकि, जब हम विश्व के इतिहास पर नजर डालते हैं, तो बहुत कुछ यह राजवंशों व साम्राज्य का इतिहास मिलता है। हम स्वतंत्र संप्रभु राजनैतिक इकाई के रूप से राष्ट्र नहीं पाते। हालांकि राष्ट्र, सांस्कृतिक अस्तित्व में रूप नहीं रहा, लेकिन पिछले पांच सौ सालों के दौरान इसका अस्तित्व स्वीकार किया जाने लगा। यूरोप पवित्र रोमन साम्राज्य के अधीन था। रोमन साम्राज्य के अधीन स्वतंत्र इकाई के रूप में फ्रांस की स्वीकृति की शुरूआत 1648 की वेस्टफेलिया संधि से मानी जाती है। इस संधि के तहत फ्रांस के राजा को पवित्र सामाज्य से धर्म की स्वतंत्रता और अपनी भाषा इस्तेमाल करने की छूट मिली। 19वीं और 20वीं शताब्दी में आधुनिक यूरोप व राज्य केंद्रित विश्व के लिए ‘वेस्टफेलियन’ एक विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। ऐसा माना जाता है कि 1648 की वेस्टफेलिया की संधि ने आधुनिक अंतर-प्रादेशीय व्यवस्था की आधारशिला रखी। यहां तक कि जब राष्ट्र-राज्य के रूप में ब्रिटेन का उदय नहीं हुआ था और इंग्लैंड में केवल राज्यतंत्र था, पिट द् यंगर ने अपील की, ‘our existence as a nation………. our very name as Englishmen.’ 1775 के अपने शब्दकोश में जॉनसन ने राष्ट्र को इस तरह परिभाषित किया है, ‘लोग जो अपनी भाषा, उत्पत्ति या सरकार के मामले में दूसरे लोगों से अलग हैं।’
प्रवासी राज्य – आस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, सिंगापुरगौरतलब है कि राष्ट्र का अस्तित्व तब भी था, जब संप्रभु राज्य नहीं थे (जैसा कि हम इस समय समझते हैं)। सरकार की अनुपस्थिति में भी राष्ट्रीय समाज का निर्माण करने वाली एक सामान्य जन संस्कृति और भाइचारे की भावना थी। ये राष्ट्रीय समुदाय सिर्फ ऐसे समुदाय नहीं थे, जिनके वंश एक समान थे, बल्कि उनकी सामान्यजन संस्कृति भी समान थी, जो उनके सामाजिक नियमों व आदर्शों को परिभाषित करती थी।
देशी राज्य - इंडोनेशिया, मलेशिया
प्राचीन स्थापित राज्य और आधुनिक राष्ट्र – फ्रांस और ब्रिटेन
प्राचीन राज्य और आधुनिक राष्ट्र – जापान, चीन और भारत
राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र विनाश – रूस और यूगोस्लाविया
आधुनिक राष्ट्रवाद फ्रांस की क्रांति के बाद विकसित हुआ, जहां राजनैतिक इकाई के रूप में फ्रांस राष्ट्र-राज्य का उदय स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे स्पष्ट राजनीतिक सिध्दांतों पर हुआ। राष्ट्रवाद पर संपूर्ण चिंतन राष्ट्र का एक राजनैतिक इकाई के रूप में मानने लगा। यह दृष्टिकोण, राष्ट्र/राष्ट्र राज्य को आधुनिक इतिहास का उत्पाद कहने लगा। राष्ट्र राज्य के उदय से पहले राष्ट्रों के अस्तित्व को केवल जातीय ग्रुपों के रूप में माना गया। इस पर भी जोर दिया गया कि विश्व के अधिकांश राष्ट्र बहु-जातीय राष्ट्र हैं और इन्हें सोशल नेशंस के रूप में माना गया। Leo Suryadinata द्वारा संकलित पुस्तक ‘Nationalism and Globalization East and west’ में एक अमेरिकी विद्वान की टिप्पणी है कि ‘चीन वास्तव में एक ‘सिविलाइजेशन’ है, जो राष्ट्र होने का बहाना करता है।
इन परिस्थितियों में नागरिकता को राष्ट्रीयता के बराबर माना जाता है, लेकिन यहां मूलभूत अंतर है। जब कोई राष्ट्रीय समुदाय के अंग के रूप अपनी राष्ट्रीयता प्राप्त करता है, तो वह इसे जन्मजात प्राप्त करता है। यह एक सामाजिक-राजनैतिक दर्जा है। वहीं दूसरी तरफ नागरिकता कानूनी प्रक्रिया के तहत सरकार के जरिए हासिल की जाती है। जन्मजात नागरिकता मुल्क के कानूनी प्रावधानों से ही संभव है। इस प्रकार यह राजनैतिक-विधिक दर्जा है। लेकिन आज के राष्ट्र-राज्य के दौर में दोनों ‘शब्द’ एक ही अर्थ में प्रयुक्त किए जाते हैं।
संपूर्ण आधुनिक चिंतन इस दिशा में है कि केवल राष्ट्र-राज्य ही राष्ट्र हैं। संयुक्त राष्ट्र, 1945 का चार्टर सरकारों के समझौतों पर आधारित दस्तावेज है। बाद के सभी चार्टर या परिपाटी सदस्य राज्यों या सहमत सरकारों द्वारा स्वीकार किए गए। इस दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में राज्यों का हम एक रोचक वर्गीकरण एडीटर Leo Suryadinata द्वारा पुस्तक ‘Nationalism and Globalization East and west’ में पाते हैं:
चीन, भारत और जापान को प्राचीन राज्य व आधुनिक राष्ट्र के रूप में वर्गीकृत करते समय वर्गीकरण का दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है, जबकि वास्तविक वर्गीकरण इस प्रकार है, ये सभी प्राचीन राष्ट्र व नए राज्य हैं।
पूर्ववर्ती दृष्टिकोण, भारतीय इतिहास की अज्ञानता तथा वर्तमान भारत की अस्पष्ट समझ के कारण राष्ट्र के रूप में भारत की मान्यता हमेशा प्रभावित रही है। ब्रिटिश राज के दौरान हमें यह बताया गया कि उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश राज की स्थापना के कारण ‘भारत’ राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में है। साम्यवादी हमेशा यह कहते रहे कि भारत बहुत से राष्ट्रों का समुच्च है। यह बहुधा कहा गया कि भारत की कोई सामान्य संस्कृति नहीं है, बल्कि तमाम संस्कृतियों का मिलन है, जो अपनी-अपनी पहचान को बरकरार रखे हुए है। इसलिए यह कहा गया कि भारत एक समान धरोहर पर आधारित राष्ट्र नहीं है, बल्कि यह ‘सामाजिक व नागरिक’ राज्य है।
इसे भंलीभांति समझ लेना चाहिए कि यह सर्वव्यापक रूप से स्वीकार किया जा चुका है कि ‘भारत की संस्कृति चिरंतन है, जो 5000 वर्षों से भी अधिक पहले विकसित हुई। इसने आने वाली भारतीय पीढ़ियों के मानसिक क्षितिज, मूल्य व्यवस्था और जीवन शैली को विकसित किया, जो आज भी अनेक विदेशी आक्रांताओं व विपुल जनसंख्या विस्तार के बाद आश्चर्यजनक रूप से बरकरार है। यह आज भी भारतीयों व भारत के मूल लोगों को एक अलग व्यक्तित्व प्रदान करती है, जैसा कि पहले देती आई है।’
‘कल्चर एंड डेमोक्रेसी इन इंडिया- आर. सी. अग्रवाल’
सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ. प्रदीप जैन के मामले में इस वास्तविकता की पहचान की है, जब न्या. पी. एन. भगवती ने टिप्पणी की, ‘इतिहास का यह रोचक तथ्य है कि राष्ट्र के रूप में भारत का निर्माण न तो एकसमान भाषा के आधार पर हुआ और न ही इसके भू-भाग पर एक राजनैतिक सत्ता के निरंतर अस्तित्व के कारण, बल्कि इसका आधार सदियों से विकसित हुई एक समान संस्कृति के कारण हुआ। यह एक सांस्कृतिक एकता है, देश के लोगों को एकजुट रखने वाले दूसरे बंधनों से ज्यादा मजबूत व आधारभूत, जिसने इस देश का राष्ट्र में पिरोया।’ इतिहासकार सर विसेंट स्मिथ लिखते हैं, ‘बिना किसी संदेह के, भारत के पास अन्तर्निहित मूलभूत एकता है, जो राजनैतिक प्रभुता या भौगोलिक विगलन से ज्यादा शक्तिशाली है। यह एकता जाति, धर्म, वंश, रंग, भाषा व रीति-रिवाज की तमाम विभिन्नताओं को पार करती है। यह वेद काल से ही एक पवित्र घोषणा है: ‘पृथिव्यै समुद्र पर्यन्ताया: एकराट।’
यह अन्तर्निहित सांस्कृतिक एकता, हमारी राष्ट्रीय पहचान की सभ्यतामूलक आधार के साथ-साथ चरम जीवन मूल्य हैं। यह हमारे जीवन शैली की व्याख्या करते हैं और हमारी राष्ट्रीयता की आधारशिला है। अतएव राष्ट्रवाद, जिसका हम उद्धोष करते हैं, वास्तव में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है।
यहां पर सिध्दांत व विचारधारा के रूप राष्ट्रवाद के विकास का संक्षिप्त हवाला देना उचित होगा, ‘राष्ट्रवाद की विचारधारा राष्ट्र की संस्कृति से ओतप्रोत होती है- इतिहास की पुन:खोज, देशी भाषाओं का पुनरूज्जीवन, साहित्य का विकास (खास तौर पर कविता और नाटक) और संगीत, लोकनृत्य व लोकगीत के साथ-साथ देशज कला तथा शिल्प की पुन:स्थापना।’ (एंथनी डी स्मिथ)
यह राष्ट्रवाद राजनैतिक सिध्दांत के रूप विकसित हुआ, जिसने राष्ट्र को ऐसे सामाजिक संरचना के रूप में देखा, जो एक समुदाय द्वारा एकसमान कानूनों के आधार एक निश्चित भू-भाग पर निर्मित की जाती है। इसे ‘सिविक नेशन’ के तौर पर देखा गया और लोगों के राष्ट्रप्रेम की प्रकृति को राष्ट्रवाद, जो समुदाय की बंधुत्व भावना से ज्यादा शासन की व्यवस्था से प्रेरित था।
सिध्दांत के तौर पर राष्ट्रवाद का विकास दो स्थितियों पर आधारित हैं:
• राष्ट्र के प्रति निष्ठा।
• स्वशासित राष्ट्रों का समुदाय विश्व शांति का आधार है।
विश्व में हुए हाल के बदलाव, राष्ट्रों के सांस्कृतिक आधार की नई समझ को दर्शाते हैं। पिछली शताब्दी में खासतौर पर शुरूआती दशकों में पांच साम्राज्यों के ढहने के बाद नक्शों पर लकीरें खींचकर अनेक राष्ट्रों का उदय हुआ। इसके बाद कुछ राष्ट्र साम्यवादी आधिपत्य में चले गए। सोवियत संघ के विघटन के बाद कृत्रिम सीमाएं टूटी और एकसमान धरोहर, रीति-रिवाज व मूल्यों के आधार पर बनी ऐतिहासिक एकता से नए राष्ट्रों का उदय हुआ। यह सिर्फ विखंडन नहीं था, बल्कि राष्ट्रों का उदय था, जो राष्ट्र राज्यों के भीतर अव्यक्त थे।
चीन के बारे में यह कहा जाता है कि यहां पर राष्ट्रवाद (राजनैतिक अर्थ में) एक नई अवधारणा थी और इसका उभार 19वीं शताब्दी के मध्य से शुरू हुआ। बतौर राष्ट्र चीन शुरू से ही समुदायों का ढीला-ढाला बंधा था, जो एकसमान जीवन शैली से जुड़ा था न कि किसी मसीहा की अपील से। अनेक विभिन्न वर्गों के साथ वे एक लोग हैं। चीन में राष्ट्रवाद की सबसे प्रमुख विशेषता है कि यह राजनैतिक से ज्यादा सांस्कृतिक है। यूगोस्लाविया का उदाहरण सुप्त राष्ट्रीय पहचान को रेखांकित करता है। सोवियत साम्राज्य के विघटन के बाद सर्ब व क्रोएट की तमाम राष्ट्रीय पहचान सामने आई। उसके बाद की हिंसा व संघर्ष तथा अमेरिकी हस्तेक्षप की चर्चा किए बगैर जो बात गौरतलब है वह है सर्ब की चेतना।
यह सर्व चेतना कोसोवा के उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है। कुछ शताब्दी पहले सर्ब तुर्कों के हाथों 1389 में कोसोवो की निर्णायक लड़ाई में पराजित होने पर दुखी थे। उस दौरान तत्कालीन यूगोस्लाविया तुर्की साम्राज्य का हिस्सा बन गया। आज भी सर्ब उसे याद करते हैं और पराजय के दिन को राष्ट्रीय शोक के रूप में मनाते हैं। यूगोस्लाविया के विघटन के बाद तीन राज्यों का उदय दरअसल, एक अलग अध्ययन का मामला है। लेकिन उल्लेखनीय पहलू यह है कि शताब्दियों तक राष्ट्रीय पहचान जीवित रही, हालांकि कोई राज्य इसका प्रतिनिधित्व नहीं करता था।
वैश्वीकरण के शोरगुल के बावजूद राष्ट्रवाद विश्व के राष्ट्रों के लिए एक प्रधान विचारधारा है। संसार भले ही ‘सम’ हो जाए, लेकिन राष्ट्रों की व्यक्तिगत पहचान राष्ट्रवाद की आधारशिला पर सर्वशक्तिमान सत्ता के आधिपत्य से बचाए रखेगी।
फ्रांस के नए राष्ट्रपति की घोषणा इसका उदाहरण है। चुनाव के बाद अपने पहले बयान में निकोलस सारकोजी ने वादा किया कि वह फ्रांस की पहचान व स्वाधीनता को को सुरक्षित रखेंगे। (वैश्वीकरण के आवरण में अमेरिकी आधिपत्य से देष की स्वतंत्रता की रक्षा व आतंकवाद के दबाव में बढ़ते इस्लामीकरण से देष की अस्मिता की रक्षा) यह ऐतिहासिक स्थापित तथ्य है कि एक राष्ट्र का अस्तित्व भूमि, जन व संस्कृति के त्रि-आधार पर टिका होता है। यही त्रि-आधार एक जन, एक भूमि व एक संस्कृति से राष्ट्र का निर्माण होता है। भारतीय संदर्भ में विषेशकर यही सच है कई अवसरों पर अस्पष्ट सोच के कारण संस्कृति की अवधारणा तथा धर्मनिरेपक्षता के सिध्दांत पर धुंध छा जाती है।
बाहर से आए अनेक मत भारत में पले हैं और तमाम कारणों से कुछ वर्गों ने इन्हें अपनाया भी, जिसकी कारणों की व्याख्या हम यहां पर नहीं करेंगे। लोग यह भूल जाते हैं कि हजारों छोटी, बड़ी नदियों के समागम के बाद भी गंगा की मूल धारा वही रहती है। इस देश में पूर्णरूपेण आध्यात्मिक स्वतंत्रता है और रीति-रिवाजों की वैभिन्यता है, लेकिन सभी में मानवीय संबंधों को निर्धारित करने वाले जीवन-मूल्य एक ही है। इस अनोखी परंपरा का आप कुछ भी नामकरण कर सकते हैं। आप इसे हिन्दू कह सकते हैं, भारतीय कह सकते हैं या सनातन या इंडियन का नाम भी दे सकते है। लेकिन वह एक ही है यह तथ्य है।
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक भारत सर्वदा से ही एक भूमि है। वे उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत के जरिए आए हों या दक्षिणी-पश्चिम से, खैबर से आए हों या केरल के जरिए, सभी ने इसे इंडिया कहा, जिसका अर्थ भारत-भूमि है। इस भूमि की चर्चा वेदों, पुराणों और बाद के साहित्यों में हुई है। महान एकीकर्ता आदि शंकराचार्य ने इस धरती के चारों कोनों पर चार मठों की स्थापना की।इस राष्ट्र व राष्ट्र के प्रति विशुद्व प्रेम ही हमारा मूल सिध्दांत है। हम इसके लिए जीते हैं और इसके लिए मरने को सिध्द हैं। हमारी संस्कृति हमारे अस्तित्व को परिभाषित करती है, जैसा कि दीनदयाल जी ने कहा था, ‘हमारी राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक सोच का आधार हमारी संस्कृति ही है।’
हम इसका पहले ही उल्लेख कर चुके हैं कि हमारी सांस्कृतिक एकता हमारी राष्ट्रीय पहचान की सभ्यतामूलक आधारशिला है, साथ ही ये अपरिवर्तनीय जीवन मूल्य भी हैं। इस समस्त भारतीय क्षेत्र की राष्ट्रीय पहचान को हम भारतमाता के रूप में आदर देते हैं, जिसे पिछले हजारों सालों से यहां आए लोगों ने समझा।
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक भारत सर्वदा से ही एक भूमि है। वे उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत के जरिए आए हों या दक्षिणी-पश्चिम से, खैबर से आए हों या केरल के जरिए, सभी ने इसे इंडिया कहा, जिसका अर्थ भारत-भूमि है। इस भूमि की चर्चा वेदों, पुराणों और बाद के साहित्यों में हुई है। महान एकीकर्ता आदि शंकराचार्य ने इस धरती के चारों कोनों पर चार मठों की स्थापना की।
संस्कृति की आधारशिला हमारे जीवन शैली का निर्माण करती है। यह हमें मानव-मानव के बीच, मानव व राज्य के बीच, मानव व प्रकृति के बीच तथा मानव व उदात्त ईश्वर के बीच के संबंधों के बारे में निर्देशित करती है। यह मूल्यों, व्यवहारों और सामाजिक समरसता की अलिखित संहिता का उल्लेख करती है। यहां पर हमारे अस्तित्व व उद्देश्यों में अन्तर्निहित एकता है और ऐसा हमेशा महसूस होता है। यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि मानवीय व्यवहारों की यह संहिता, जो धर्म है, विश्व में शांति व प्रसन्नता की राह दिखाएगी। यह विशाल उद्धोष है, लेकिन इस देश की यही नियति है। हटिंगटन, ‘जिन्होंने ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशनस’ लिखी, का दावा है कि वर्तमान शताब्दी भी अमेरिकी शताब्दी होगी।
वे कहते हैं कि यदि पिछली शताब्दी सैनिक ताकत से अभिभूत थी, तो इस शताब्दी में अमेरिका अपनी जीवन शैली का विस्तार शक्ति से नहीं, बल्कि 1-व्यक्तिगत स्वतंत्रता, 2-लोकतंत्र, 3-मुक्त बाजार इन सिध्दांतों के जरिए करेगा। हमारा विश्वास देश की संस्कृति में है, जो विश्व को निर्देशित करेगी।
यह चार सिध्दांतों पर आधारित है:
1- विश्व के समस्त चर या अचर में जीव है, जिसमें एक ही चेतना और ऊर्जा का निवास है।
2-धर्म मानवीय व्यवहारों का दिव्य आदेश है।
3-परिवार, कुटुंब
4-सहमति।
इन मान्यताओं में हर आह्वान का समाधान है- पर्यावरण व उसकी रक्षा, नागरी कर्तव्य व सामाजिक समरसता, सामंजस्य व संघर्ष का निराकरण, कल्याण और षासन।
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