'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' - आडवाणी
http://www.lkadvani.in/hin/content/view/378/329/
माननीय लालकृष्ण आडवाणी जी
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की अवधारणा में भारत के विभिन्न धर्म अनुयायियों को यह आदेश दिया गया है कि विविधताओं को कायम रखते हुए प्राचीन देश की साझा संस्कृति का आदर करो, गर्व महसूस करो। अन्य राष्ट्र के प्रति निष्ठा न रखी जाए, न ही अन्य धर्मों को झूठा या हीन समझें, बल्कि यह सीखें कि प्रत्येक धर्म की अपनी विशेषताएँ हैं। छल-कपट से, धर्मांतरण के माध्यम से अपने धर्मानुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग न करें। अलगाववाद के प्रचार के प्रयोजन के लिए या धर्मतंत्र की स्थापना के लिए राजनीतिक वर्चस्व प्राप्त करने की कोशिश न करें। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का अर्थ इससे न ज्यादा है, न इससे कम।'
सैमुअल हंटिग्टन की पुस्तक ''हू आर वी?'' का मैंने यह सुझाव देने के लिए उल्लेख किया है कि सभी भारतीयों को स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए, 'हम कौन हैं?' अमेरिका से भिन्न हमारा राष्ट्र प्राचीन है। इसका इतिहास मानव सभ्यता के प्रादुर्भाव से प्रारंभ होता है। अमेरिका के विपरीत, हमारी अधिकांश जनसंख्या सदियों से भारत में ही रहतh आ रहh है। जनसंख्या के किसी वर्ग की धार्मिक पहचान बदलने से राष्ट्र की पहचान नहीं बदल सकती। भारत के इतिहास में कभी यहाँ के किसी वर्ग का सामूहिक संहार नहीं किया गया, जैसा अमेरिका में वहाँ के मूल निवासियों के संदर्भ में हुआ। इसलिए यदि चार सौ वर्षों में अमेरिका की भावना वहाँ के लोगों को एकसूत्र में बाँध सकती है तो निश्चित रूप में अधिक संतुलित, दृढ़ तथा अंतर्भूत मानवतावादी 'भारतीयता' की भावना भी हजारों वर्षों से रह रहे विभिन्न धार्मिक, जातीय, भाषायी तथा नस्लीय समूहों को एकता के सूत्र में बाँध सकती है। चूँकि 'इंडियन' शब्द हाल ही की नई विचारधारा पर आधारित है, इसलिए एकीकरण का सिध्दांत 'हिंदुत्व' ही है। उदार विचारों से परिपूर्ण, सहनशील, बहुवादी तथा व्यापक भारतीय परंपरा का यह पर्यायी नाम है। यदि भारत को अ-हिंदु किया गया तो भारत का कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा।
(इस विषय पर पूरा उध्दरण श्री आडवाणी की आत्मकथा से पढ़ें)
हिंदुत्व : 'हम कौन हैं' प्रश्न के लिए भारत का उत्तर
'हिंदुत्व' संकल्पना की व्याख्या के बिना अल्पसंख्यकवाद तथा छद्म पंथनिरपेक्षता पर बहस पूर्ण व कारगर नहीं हो सकती। यह किसी विशिष्ट राजनीतिक पार्टी की विचारधारा नहीं है। चूँकि भाजपा ऐसी एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है, जो कभी भी इसके समर्थन में पीछे नहीं हटी, इसलिए 'हिंदुत्व' को केवल भाजपा की विचाधारा के रूप में देखना सही नहीं है।
अपने पूरे राजनीतिक जीवन में मैंने इस पर बल दिया है कि 'हिंदुत्व' का अर्थ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। इससे धार्मिक या मजहब आधारित राष्ट्रवाद ध्वनित नहीं होता। 'हिंदुत्व' में 'हिंदू' शब्द सांस्कृतिक अर्थों से जुड़ा है, न कि धार्मिक संदर्भ से। यह संकीर्ण रूप में केवल हिंदुओं के लिए भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा नहीं है। इसकी जड़ें सांस्कृतिक एकता से ही प्रस्फुटित हुई हैं। हम में से कुछ इस राष्ट्रीयता को 'हिंदुत्व' कहते हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय इसे 'भारतीयता' कहते थे, कुछ अन्य लोग इसे 'इंडियननेस' कहते हैं। मैं इन तीनों शब्दों में कोई अंतर नहीं देखता। ये परस्पर स्थान पर प्रयुक्त किए जा सकते हैं। इसलिए उस समय मुझे दु:ख पहुँचा, जब 'हिंदुत्व' की गलत ढंग से व्याख्या की गई तथा सबसे ज्यादा मार्क्सवादियों ने यह टिप्पणी दी कि स्वयं को हिंदू कहलवाने में उन्हें शर्म आती है।
तथापि, जब सर्वोच्च न्यायालय ने 11 दिसंबर, 1995 को अपने अभूतपूर्व निर्णय में निम्नलिखित टिप्पणी दी, तब इस शब्द के बारे में फैला भ्रम दूर हो गया
'...हिंदू, हिंदुत्व और हिंदू धर्म का सटीक निश्चित अर्थ नहीं बताया जा सकता। भारतीय संस्कृति और विरासत के अंश को छोड़कर इसके अमूर्त अर्थ को धर्म की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। यह भी बताया जाता है कि 'हिंदुत्व' शब्द इस उपमहाद्वीप के लोगों के जीवन जीने के तरीके से अधिक जुड़ा है।
यह ऑंकना कठिन है कि इन निर्णयों (पूर्ववर्ती सर्वोच्च न्यायालय) के बावजूद 'हिंदू धर्म' या 'हिंदुत्व' शब्दों को अमूर्त रूप में संकीर्ण हिंदू कट्टरवाद के अर्थ में स्वीकारा जाए या उसके बराबर रखा जाए।'
सन् 2004 में मैंने विख्यात अमेरिकी विद्वान् सैमुअल हंटिंग्टन की नई पुस्तक 'हू आर वी?' पढ़ी, जिसमें अमेरिका में व्यापक स्तर पर आप्रवास की पृष्ठभूमि के संबंध में संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय पहचान के महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार किया गया है। इस पुस्तक का मूल प्रश्न यह है कि सिकुड़ते विश्व में, भूमंडलीकरण के युग में जहाँ अंतरराष्ट्रीय सीमाओं का अर्थ कम, और कम होता जा रहा है, अमेरिका की पहचान क्या है? उन्होंने इस प्रश्न का जवाब दिया है कि इस देश की पहचान शक्तिशाली 'राष्ट्रीय चेतना' ही है। उनका मानना है कि अमेरिका की सफलता या विफलता में इस चेतना का बहुत ज्यादा महत्त्व है। वस्तुत: भविष्य में एक राष्ट्र के रूप में बने रहने की दृष्टि से भी इस चेतना का अत्यधिक महत्त्व है।
हंटिंग्टन का आग्रह है कि, क्योंकि समूचे विश्व के आप्रवासी यहाँ आ रहे हैं, अमेरिका की सार्वदेशिकता (युनिवर्सलिज्म) इसकी विशिष्ट राष्ट्रीय पहचान को भुलाने का बहाना न हो। उनके अनुसार, अमेरिका की विशिष्टता उसकी 'संस्कृति' पर आधारित है, जिसे उन्होंने 'अमेरिकी धर्म', 'एंग्लोसेंट्रिक, प्रोटेस्टेंट-प्रभावित विचारधारा' के रूप में परिभाषित किया है। यह संस्कृतिस्वतंत्रता, समुदाय की भावना, व्यक्ति का सम्मान, उद्यमिता, कार्य संबंधी आचार तथा सफलता के उपदेश (गोस्पैल) जैसे अमेरिका के मौलिक मूल्यों की रक्षा करती है। इसलिए हंटिंग्टन के तर्कानुसार, यह आशा करना युक्तिसंगत भी है तथा न्यायोचित भी कि हाल ही में यहाँ आकर बसे अप्रवासी लोग अपनी-अपनी पहचानों को सँजोए रखते हुए 'अमेरिका' की विचारधारा में रच-बस जाए और 'अमेरिकनैज' हो जाए।
मुझे संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय पहचान के बारे में हंटिंग्टन का पूर्णत: समर्थन नहीं करना है। इस पुस्तक का उल्लेख इसलिए किया गया है कि सभी भारतीयों को स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए, 'हम कौन हैं?' अमेरिका से भिन्न हमारा राष्ट्र प्राचीन है। इसका इतिहास मानव सभ्यता के प्रादुर्भाव से प्रारंभ होता है। पुन: अमेरिका से अलग, हमारी जनसंख्या का बहुमत सदियों से भारत में ही रहता आ रहा है। जनसंख्या के किसी वर्ग की धार्मिक पहचान बदलने से राष्ट्र की पहचान नहीं बदल सकती। भारत के इतिहास में कभी यहाँ के किसी वर्ग का सामूहिक संहार नहीं किया गया, जैसा अमेरिका में वहाँ के मूल निवासियों के संदर्भ में हुआ। इसलिए यदि चार सौ वर्षों में अमेरिका की भावना वहाँ के लोगों को एकसूत्र में बाँध सकती है तो निश्चित रूप में अधिक संतुलित, दृढ़ तथा अंतर्भूत मानवतावादी 'भारतीयता' की भावना भी हजारों वर्षों से रह रहे विभिन्न धार्मिक, जातीय, भाषायी तथा नस्लीय समूहों को एकता के सूत्र में बाँध सकती है। चूँकि 'इंडियन' शब्द हाल ही की नई विचारधारा पर आधारित है, इसलिए एकीकरण का सिध्दांत 'हिंदुत्व' ही है। उदार विचारों से परिपूर्ण, सहनशील, बहुवादी तथा व्यापक भारतीय परंपरा का यह पर्यायी नाम है। यदि भारत को अ-हिंदु किया गया तो भारत का कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा।
रवींद्रनाथ टैगोर के निबंध 'नेशनलिज्म' (राष्ट्रीयतावाद) में भारत की विविधता में एकता की सुबोध व्याख्या देखने को मिली। उन्होंने लिखा है'मैं आपका ध्यान भारत की कठिनाइयों तथा उनपर काबू पाने में इसके संघर्ष की ओर दिलाना चाहता हूँ। उसकी समस्या लघु रूप में पूरे विश्व की समस्या है। भारत का बहुत विशाल क्षेत्र है तथा यहाँ अनेक विविधतापूर्ण जातियाँ हैं। ऐसा लगता है, एक ही भौगोलिक पात्र में अनेक देश समाए हैं। यह यूरोप के एकदम विपरीत है, जहाँ एक देश से अनेक देश बने हैं। इस प्रकार से संस्कृति और वृध्दि की दृष्टि से यूरोप में 'अनेक' की शक्ति है, साथ ही 'एक' की शक्ति भी। इसके विपरीत भारत हमेशा अपनी 'अनेकता' की शिथिलता से तथा 'एकता' की दुर्बलता से ग्रस्त रहा है। सच्ची एकता गोल ग्लोब की तरह होती है। यह ग्लोब घूमता है, लेकिन अपना भार आसानी से सँभालकर रखता है। लेकिन विविधता में कई कोने होते हैं, जिन्हें खींचना पड़ता है तथा पूरी शक्ति से धकेलना पड़ता है। परंतु भारत के पक्ष में यह कहना आवश्यक है कि विविधता उसकी स्वयं की रचना नहीं थी। इतिहास के प्रारंभ से ही उसे विविधता को स्वीकार करना पड़ा। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में यूरोप ने वहाँ के मूल निवासियों को निर्मूल करके अपनी समस्या हल कर ली; लेकिन भारत ने पहले से ही विभिन्न जातियोंनस्लों के प्रति सहिष्णुता बरती तथा समूचे इतिहास में सहिष्णुता की भावना के साथ कार्य किया। भारत सामाजिक एकता के विकास में हमेशा ऐसे एक प्रयोग करता रहा है, जिसके भीतर अलग-अलग लोग एक होकर रहे; साथ ही, अलग पहचान बनाए रखने की स्वतंत्रता का उपभोग भी करें। यह बंधन यथासंभव ढीला रहा है परंतु परिस्थितियों के अनुसार घनिष्ठ भी। इस बंधन ने यहाँ सामाजिक संघ के रूप में संयुक्त राज्य (युनाइटेड स्टेट्स ऑफ एसोशियल फेडरेशन) को जन्म दिया, जिसका नाम है हिंदुत्व या हिंदुइज्म।
जनसंघ के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण के बावजूद पं. जवाहरलाल नेहरू भी अपने जीवन के अंतिम दौर में 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की मूलभूत विशेषताओं का समर्थन करने लगे थे। मदुरै में अक्तूबर 1961 में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अधिवेशन में उन्होंने अनूठा भाषण दिया था। उन्होंने सहस्राब्दियों से भारत को एकता के सूत्र में पिरोनेवाला मुख्य कारक पहचाना। उनके शब्दों में, 'भारत युगों-युगों से तीर्थयात्राओं, तीर्थस्थानों का देश रहा। समूचे देश में आपको प्राचीन स्थान मिलेंगे। हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों पर बदरीनाथ, केदारनाथ तथा अमरनाथ से दक्षिण में कन्याकुमारी तक आपको तीर्थस्थल मिल जाएँगे। दक्षिण से उत्तर तक तथा उत्तर से दक्षिण तक कौन सी प्रेरणा-शक्ति लोगों को इन महान् तीर्थस्थलों की ओर आकर्षित करती आ रही है? यह एक राष्ट्र की भावना तथा एक संस्कृति की भावना है और इस भावना से हम परस्पर बँधे हुए हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि भारतभूमि उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक फैली है। सदियों से भारत की यह संकल्पना चली आ रही है तथा इसने हमें परस्पर बाँध रखा है। इस महान् धारणा से प्रभावित होकर लोगों ने इसे 'पुण्यभूमि' माना है। जबकि हमारे यहाँ अनेक साम्राज्य हुए है तथा यहाँ हमारी विभिन्न भाषाएँ प्रचलित रही हैं। यह कोमल बंधन ही हमें अनेक तरीकों से बाँधे रखता है।'
नेहरू ने 'हिंदू' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था। लेकिन मदुरै भाषण में उन्होंने भारत की प्राचीन और अनवरत रूप में स्वयं को नवीकृत करनेवाली संस्कृति को 'कोमल बंधन' के रूप में बताया है, जिसने असीम विविधता को भी 'एक राष्ट्र' तथा 'एक संस्कृति' के रूप में समाविष्ट किया है। वास्तव में मैं यह जानकर विस्मित हूँ कि अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं के बावजूद देश के अधिकांश देशभक्त विचारकों ने 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' पर एक जैसे विचार व्यक्त किए हैं।
यहाँ मैं अन्य महत्त्वपूर्ण टिप्पणी उध्दृत करना चाहूँगा। भारत के प्रमुख संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संकल्पना के समर्थन में यह टिप्पणी दी थी। वर्ष 1956 में बड़ी संख्या में अपने समर्थकों के साथ उन्होंने बौध्द धर्म की दीक्षा ली थी। उन्होंने कुछ बुराइयों के विरोध में, सबसे ज्यादा तो हिंदू समाज में व्याप्त अस्पृश्यता के विरोध में, बौध्द धर्म अपनाया। उस समय उन्हें अनेकों ने इस्लाम या ईसाई मत में धर्मांतरण के लिए आकर्षित करने का प्रयास किया था। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से केवल मना ही नहीं किया, बल्कि बौध्द धर्म अपनाने के संबंध में कारण भी स्पष्ट किया, 'इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने का अर्थ था भारत की सांस्कृतिक मिट्टी से दूर होना। मैं ऐसा कदापि नहीं चाहता।'
उपर्युक्त उध्दरण से भारत में इस्लाम और ईसाई धर्म के स्थान के बारे में गलत अर्थ भी निकल सकता है। मैं यहाँ दोहराना चाहूँगा कि मैं इस तथ्य को मानता हूँ और उसपर गर्व महसूस करता हूँ कि भारत बहु-धर्मवाला देश है, जिसमें हमारा संविधान तथा सदियों पुरानी संस्कृति धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करती। मुसलमानों तथा ईसाइयों को अन्य लोगों की तरह समान अधिकार, उत्तरदायित्व तथा अवसर हैं। मैं राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न पक्षों को समृध्द बनाने में उनके द्वारा दिए गए महत्त्वपूर्ण योगदान की प्रशंसा करता हूँ। मैं सभी धर्मों का आदर करता हूँ। मैं यहाँ एक उदाहरण देना चाहूँगा। मैं वर्ष 2006 में भारत सुरक्षा यात्रा के दौरान राजस्थान, अजमेर, गया था। मेरी पार्टी के सहयोगियों ने सलाह दी कि मुझे पवित्र हिंदू तीर्थ पुष्कर अवश्य जाना चाहिए। इसके बारे में माना जाता है कि पुष्कर में स्वयं ब्रह्माजी ने झील का सृजन किया था। मैंने झट से 'हाँ' कह दी। लेकिन मैंने उन्हें कहा कि मैं अजमेर में पूजनीय सूफी संत हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह शरीफ** पर भी जाऊँगा। यद्यपि उनमें से कुछ की भौंहें तन गई थीं, लेकिन मैं दोनों तीर्थस्थलों पर गया।
* वर्ष 2000 में अजमेर दरगाह पर मेरी तीर्थयात्रा के बारे में रिपोर्ट दी गई है'गृहमंत्री एल.के. आडवाणी ने रविवार को हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर प्रार्थना की। स्थानीय मुसलमान इतने भावातिरेक में थे कि उन्हें देखने के लिए बहुत बड़ी भीड़ दरगाह में एकत्र हो गई। भीड़ ने बार-बार अनुरोध किया था कि थोड़ा सा कुछ कहें। आडवाणी मान गए और उन्होंने कहा, 'भारत एक बहु-धर्मवाला देश है तथा सभी धर्मों के लोग अच्छे इनसान बनने की कोशिश करते हैं। इसीलिए प्रत्येक समुदाय इस दरगाह पर आता है। पहले हम नेक इनसान बनें। इसका कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका आराध्य ईश्वर है या अल्लाह है।' उन्होंने कहा कि 'हालाँकि बीसवीं शताब्दी पश्चिमी जगत् की रही, लेकिन यदि सभी समुदाय एकजुट होकर मिलकर कार्य करेंगे तो निश्चित रूप से इक्कीसवीं शताब्दी भारत की होगी।' इस पर भीड़ ने जवाब दिया, 'आमीन!' (आश्चर्य! आडवाणी ने अजमेर दरगाह पर प्रार्थना की, द टाइम्स ऑफ इंडिया, 4 दिसंबर, 2000)। बाद में जब एक पत्रकार ने मुझसे पूछा कि क्या दरगाह में मेरी यात्रा अपनी छवि को बदलने का प्रयास है, तो मैंने जवाब दिया, 'मेरा दृष्टिकोण हमेशा स्पष्ट रहा है। मैंने पच्चीस वर्ष पहले जो कहा था, आज भी, अब भी मैं वही सब कह रहा हूँ।'
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की अवधारणा में भारत के विभिन्न धर्म अनुयायियों को यह आदेश दिया गया है कि विविधताओं को कायम रखते हुए प्राचीन देश की साझा संस्कृति का आदर करो, गर्व महसूस करो। अन्य राष्ट्र के प्रति निष्ठा न रखी जाए, न ही अन्य धर्मों को झूठा या हीन समझें, बल्कि यह सीखें कि प्रत्येक धर्म की अपनी विशेषताएँ हैं। छल-कपट से, धर्मांतरण के माध्यम से अपने धर्मानुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग न करें। अलगाववाद के प्रचार के प्रयोजन के लिए या धर्मतंत्र की स्थापना के लिए राजनीतिक वर्चस्व प्राप्त करने की कोशिश न करें। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का अर्थ इससे न ज्यादा है, न इससे कम।
माननीय लालकृष्ण आडवाणी जी
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की अवधारणा में भारत के विभिन्न धर्म अनुयायियों को यह आदेश दिया गया है कि विविधताओं को कायम रखते हुए प्राचीन देश की साझा संस्कृति का आदर करो, गर्व महसूस करो। अन्य राष्ट्र के प्रति निष्ठा न रखी जाए, न ही अन्य धर्मों को झूठा या हीन समझें, बल्कि यह सीखें कि प्रत्येक धर्म की अपनी विशेषताएँ हैं। छल-कपट से, धर्मांतरण के माध्यम से अपने धर्मानुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग न करें। अलगाववाद के प्रचार के प्रयोजन के लिए या धर्मतंत्र की स्थापना के लिए राजनीतिक वर्चस्व प्राप्त करने की कोशिश न करें। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का अर्थ इससे न ज्यादा है, न इससे कम।'
सैमुअल हंटिग्टन की पुस्तक ''हू आर वी?'' का मैंने यह सुझाव देने के लिए उल्लेख किया है कि सभी भारतीयों को स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए, 'हम कौन हैं?' अमेरिका से भिन्न हमारा राष्ट्र प्राचीन है। इसका इतिहास मानव सभ्यता के प्रादुर्भाव से प्रारंभ होता है। अमेरिका के विपरीत, हमारी अधिकांश जनसंख्या सदियों से भारत में ही रहतh आ रहh है। जनसंख्या के किसी वर्ग की धार्मिक पहचान बदलने से राष्ट्र की पहचान नहीं बदल सकती। भारत के इतिहास में कभी यहाँ के किसी वर्ग का सामूहिक संहार नहीं किया गया, जैसा अमेरिका में वहाँ के मूल निवासियों के संदर्भ में हुआ। इसलिए यदि चार सौ वर्षों में अमेरिका की भावना वहाँ के लोगों को एकसूत्र में बाँध सकती है तो निश्चित रूप में अधिक संतुलित, दृढ़ तथा अंतर्भूत मानवतावादी 'भारतीयता' की भावना भी हजारों वर्षों से रह रहे विभिन्न धार्मिक, जातीय, भाषायी तथा नस्लीय समूहों को एकता के सूत्र में बाँध सकती है। चूँकि 'इंडियन' शब्द हाल ही की नई विचारधारा पर आधारित है, इसलिए एकीकरण का सिध्दांत 'हिंदुत्व' ही है। उदार विचारों से परिपूर्ण, सहनशील, बहुवादी तथा व्यापक भारतीय परंपरा का यह पर्यायी नाम है। यदि भारत को अ-हिंदु किया गया तो भारत का कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा।
(इस विषय पर पूरा उध्दरण श्री आडवाणी की आत्मकथा से पढ़ें)
हिंदुत्व : 'हम कौन हैं' प्रश्न के लिए भारत का उत्तर
'हिंदुत्व' संकल्पना की व्याख्या के बिना अल्पसंख्यकवाद तथा छद्म पंथनिरपेक्षता पर बहस पूर्ण व कारगर नहीं हो सकती। यह किसी विशिष्ट राजनीतिक पार्टी की विचारधारा नहीं है। चूँकि भाजपा ऐसी एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है, जो कभी भी इसके समर्थन में पीछे नहीं हटी, इसलिए 'हिंदुत्व' को केवल भाजपा की विचाधारा के रूप में देखना सही नहीं है।
अपने पूरे राजनीतिक जीवन में मैंने इस पर बल दिया है कि 'हिंदुत्व' का अर्थ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। इससे धार्मिक या मजहब आधारित राष्ट्रवाद ध्वनित नहीं होता। 'हिंदुत्व' में 'हिंदू' शब्द सांस्कृतिक अर्थों से जुड़ा है, न कि धार्मिक संदर्भ से। यह संकीर्ण रूप में केवल हिंदुओं के लिए भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा नहीं है। इसकी जड़ें सांस्कृतिक एकता से ही प्रस्फुटित हुई हैं। हम में से कुछ इस राष्ट्रीयता को 'हिंदुत्व' कहते हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय इसे 'भारतीयता' कहते थे, कुछ अन्य लोग इसे 'इंडियननेस' कहते हैं। मैं इन तीनों शब्दों में कोई अंतर नहीं देखता। ये परस्पर स्थान पर प्रयुक्त किए जा सकते हैं। इसलिए उस समय मुझे दु:ख पहुँचा, जब 'हिंदुत्व' की गलत ढंग से व्याख्या की गई तथा सबसे ज्यादा मार्क्सवादियों ने यह टिप्पणी दी कि स्वयं को हिंदू कहलवाने में उन्हें शर्म आती है।
तथापि, जब सर्वोच्च न्यायालय ने 11 दिसंबर, 1995 को अपने अभूतपूर्व निर्णय में निम्नलिखित टिप्पणी दी, तब इस शब्द के बारे में फैला भ्रम दूर हो गया
'...हिंदू, हिंदुत्व और हिंदू धर्म का सटीक निश्चित अर्थ नहीं बताया जा सकता। भारतीय संस्कृति और विरासत के अंश को छोड़कर इसके अमूर्त अर्थ को धर्म की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। यह भी बताया जाता है कि 'हिंदुत्व' शब्द इस उपमहाद्वीप के लोगों के जीवन जीने के तरीके से अधिक जुड़ा है।
यह ऑंकना कठिन है कि इन निर्णयों (पूर्ववर्ती सर्वोच्च न्यायालय) के बावजूद 'हिंदू धर्म' या 'हिंदुत्व' शब्दों को अमूर्त रूप में संकीर्ण हिंदू कट्टरवाद के अर्थ में स्वीकारा जाए या उसके बराबर रखा जाए।'
सन् 2004 में मैंने विख्यात अमेरिकी विद्वान् सैमुअल हंटिंग्टन की नई पुस्तक 'हू आर वी?' पढ़ी, जिसमें अमेरिका में व्यापक स्तर पर आप्रवास की पृष्ठभूमि के संबंध में संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय पहचान के महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार किया गया है। इस पुस्तक का मूल प्रश्न यह है कि सिकुड़ते विश्व में, भूमंडलीकरण के युग में जहाँ अंतरराष्ट्रीय सीमाओं का अर्थ कम, और कम होता जा रहा है, अमेरिका की पहचान क्या है? उन्होंने इस प्रश्न का जवाब दिया है कि इस देश की पहचान शक्तिशाली 'राष्ट्रीय चेतना' ही है। उनका मानना है कि अमेरिका की सफलता या विफलता में इस चेतना का बहुत ज्यादा महत्त्व है। वस्तुत: भविष्य में एक राष्ट्र के रूप में बने रहने की दृष्टि से भी इस चेतना का अत्यधिक महत्त्व है।
हंटिंग्टन का आग्रह है कि, क्योंकि समूचे विश्व के आप्रवासी यहाँ आ रहे हैं, अमेरिका की सार्वदेशिकता (युनिवर्सलिज्म) इसकी विशिष्ट राष्ट्रीय पहचान को भुलाने का बहाना न हो। उनके अनुसार, अमेरिका की विशिष्टता उसकी 'संस्कृति' पर आधारित है, जिसे उन्होंने 'अमेरिकी धर्म', 'एंग्लोसेंट्रिक, प्रोटेस्टेंट-प्रभावित विचारधारा' के रूप में परिभाषित किया है। यह संस्कृतिस्वतंत्रता, समुदाय की भावना, व्यक्ति का सम्मान, उद्यमिता, कार्य संबंधी आचार तथा सफलता के उपदेश (गोस्पैल) जैसे अमेरिका के मौलिक मूल्यों की रक्षा करती है। इसलिए हंटिंग्टन के तर्कानुसार, यह आशा करना युक्तिसंगत भी है तथा न्यायोचित भी कि हाल ही में यहाँ आकर बसे अप्रवासी लोग अपनी-अपनी पहचानों को सँजोए रखते हुए 'अमेरिका' की विचारधारा में रच-बस जाए और 'अमेरिकनैज' हो जाए।
मुझे संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय पहचान के बारे में हंटिंग्टन का पूर्णत: समर्थन नहीं करना है। इस पुस्तक का उल्लेख इसलिए किया गया है कि सभी भारतीयों को स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए, 'हम कौन हैं?' अमेरिका से भिन्न हमारा राष्ट्र प्राचीन है। इसका इतिहास मानव सभ्यता के प्रादुर्भाव से प्रारंभ होता है। पुन: अमेरिका से अलग, हमारी जनसंख्या का बहुमत सदियों से भारत में ही रहता आ रहा है। जनसंख्या के किसी वर्ग की धार्मिक पहचान बदलने से राष्ट्र की पहचान नहीं बदल सकती। भारत के इतिहास में कभी यहाँ के किसी वर्ग का सामूहिक संहार नहीं किया गया, जैसा अमेरिका में वहाँ के मूल निवासियों के संदर्भ में हुआ। इसलिए यदि चार सौ वर्षों में अमेरिका की भावना वहाँ के लोगों को एकसूत्र में बाँध सकती है तो निश्चित रूप में अधिक संतुलित, दृढ़ तथा अंतर्भूत मानवतावादी 'भारतीयता' की भावना भी हजारों वर्षों से रह रहे विभिन्न धार्मिक, जातीय, भाषायी तथा नस्लीय समूहों को एकता के सूत्र में बाँध सकती है। चूँकि 'इंडियन' शब्द हाल ही की नई विचारधारा पर आधारित है, इसलिए एकीकरण का सिध्दांत 'हिंदुत्व' ही है। उदार विचारों से परिपूर्ण, सहनशील, बहुवादी तथा व्यापक भारतीय परंपरा का यह पर्यायी नाम है। यदि भारत को अ-हिंदु किया गया तो भारत का कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा।
रवींद्रनाथ टैगोर के निबंध 'नेशनलिज्म' (राष्ट्रीयतावाद) में भारत की विविधता में एकता की सुबोध व्याख्या देखने को मिली। उन्होंने लिखा है'मैं आपका ध्यान भारत की कठिनाइयों तथा उनपर काबू पाने में इसके संघर्ष की ओर दिलाना चाहता हूँ। उसकी समस्या लघु रूप में पूरे विश्व की समस्या है। भारत का बहुत विशाल क्षेत्र है तथा यहाँ अनेक विविधतापूर्ण जातियाँ हैं। ऐसा लगता है, एक ही भौगोलिक पात्र में अनेक देश समाए हैं। यह यूरोप के एकदम विपरीत है, जहाँ एक देश से अनेक देश बने हैं। इस प्रकार से संस्कृति और वृध्दि की दृष्टि से यूरोप में 'अनेक' की शक्ति है, साथ ही 'एक' की शक्ति भी। इसके विपरीत भारत हमेशा अपनी 'अनेकता' की शिथिलता से तथा 'एकता' की दुर्बलता से ग्रस्त रहा है। सच्ची एकता गोल ग्लोब की तरह होती है। यह ग्लोब घूमता है, लेकिन अपना भार आसानी से सँभालकर रखता है। लेकिन विविधता में कई कोने होते हैं, जिन्हें खींचना पड़ता है तथा पूरी शक्ति से धकेलना पड़ता है। परंतु भारत के पक्ष में यह कहना आवश्यक है कि विविधता उसकी स्वयं की रचना नहीं थी। इतिहास के प्रारंभ से ही उसे विविधता को स्वीकार करना पड़ा। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में यूरोप ने वहाँ के मूल निवासियों को निर्मूल करके अपनी समस्या हल कर ली; लेकिन भारत ने पहले से ही विभिन्न जातियोंनस्लों के प्रति सहिष्णुता बरती तथा समूचे इतिहास में सहिष्णुता की भावना के साथ कार्य किया। भारत सामाजिक एकता के विकास में हमेशा ऐसे एक प्रयोग करता रहा है, जिसके भीतर अलग-अलग लोग एक होकर रहे; साथ ही, अलग पहचान बनाए रखने की स्वतंत्रता का उपभोग भी करें। यह बंधन यथासंभव ढीला रहा है परंतु परिस्थितियों के अनुसार घनिष्ठ भी। इस बंधन ने यहाँ सामाजिक संघ के रूप में संयुक्त राज्य (युनाइटेड स्टेट्स ऑफ एसोशियल फेडरेशन) को जन्म दिया, जिसका नाम है हिंदुत्व या हिंदुइज्म।
जनसंघ के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण के बावजूद पं. जवाहरलाल नेहरू भी अपने जीवन के अंतिम दौर में 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की मूलभूत विशेषताओं का समर्थन करने लगे थे। मदुरै में अक्तूबर 1961 में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अधिवेशन में उन्होंने अनूठा भाषण दिया था। उन्होंने सहस्राब्दियों से भारत को एकता के सूत्र में पिरोनेवाला मुख्य कारक पहचाना। उनके शब्दों में, 'भारत युगों-युगों से तीर्थयात्राओं, तीर्थस्थानों का देश रहा। समूचे देश में आपको प्राचीन स्थान मिलेंगे। हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों पर बदरीनाथ, केदारनाथ तथा अमरनाथ से दक्षिण में कन्याकुमारी तक आपको तीर्थस्थल मिल जाएँगे। दक्षिण से उत्तर तक तथा उत्तर से दक्षिण तक कौन सी प्रेरणा-शक्ति लोगों को इन महान् तीर्थस्थलों की ओर आकर्षित करती आ रही है? यह एक राष्ट्र की भावना तथा एक संस्कृति की भावना है और इस भावना से हम परस्पर बँधे हुए हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि भारतभूमि उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक फैली है। सदियों से भारत की यह संकल्पना चली आ रही है तथा इसने हमें परस्पर बाँध रखा है। इस महान् धारणा से प्रभावित होकर लोगों ने इसे 'पुण्यभूमि' माना है। जबकि हमारे यहाँ अनेक साम्राज्य हुए है तथा यहाँ हमारी विभिन्न भाषाएँ प्रचलित रही हैं। यह कोमल बंधन ही हमें अनेक तरीकों से बाँधे रखता है।'
नेहरू ने 'हिंदू' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था। लेकिन मदुरै भाषण में उन्होंने भारत की प्राचीन और अनवरत रूप में स्वयं को नवीकृत करनेवाली संस्कृति को 'कोमल बंधन' के रूप में बताया है, जिसने असीम विविधता को भी 'एक राष्ट्र' तथा 'एक संस्कृति' के रूप में समाविष्ट किया है। वास्तव में मैं यह जानकर विस्मित हूँ कि अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं के बावजूद देश के अधिकांश देशभक्त विचारकों ने 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' पर एक जैसे विचार व्यक्त किए हैं।
यहाँ मैं अन्य महत्त्वपूर्ण टिप्पणी उध्दृत करना चाहूँगा। भारत के प्रमुख संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संकल्पना के समर्थन में यह टिप्पणी दी थी। वर्ष 1956 में बड़ी संख्या में अपने समर्थकों के साथ उन्होंने बौध्द धर्म की दीक्षा ली थी। उन्होंने कुछ बुराइयों के विरोध में, सबसे ज्यादा तो हिंदू समाज में व्याप्त अस्पृश्यता के विरोध में, बौध्द धर्म अपनाया। उस समय उन्हें अनेकों ने इस्लाम या ईसाई मत में धर्मांतरण के लिए आकर्षित करने का प्रयास किया था। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से केवल मना ही नहीं किया, बल्कि बौध्द धर्म अपनाने के संबंध में कारण भी स्पष्ट किया, 'इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने का अर्थ था भारत की सांस्कृतिक मिट्टी से दूर होना। मैं ऐसा कदापि नहीं चाहता।'
उपर्युक्त उध्दरण से भारत में इस्लाम और ईसाई धर्म के स्थान के बारे में गलत अर्थ भी निकल सकता है। मैं यहाँ दोहराना चाहूँगा कि मैं इस तथ्य को मानता हूँ और उसपर गर्व महसूस करता हूँ कि भारत बहु-धर्मवाला देश है, जिसमें हमारा संविधान तथा सदियों पुरानी संस्कृति धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करती। मुसलमानों तथा ईसाइयों को अन्य लोगों की तरह समान अधिकार, उत्तरदायित्व तथा अवसर हैं। मैं राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न पक्षों को समृध्द बनाने में उनके द्वारा दिए गए महत्त्वपूर्ण योगदान की प्रशंसा करता हूँ। मैं सभी धर्मों का आदर करता हूँ। मैं यहाँ एक उदाहरण देना चाहूँगा। मैं वर्ष 2006 में भारत सुरक्षा यात्रा के दौरान राजस्थान, अजमेर, गया था। मेरी पार्टी के सहयोगियों ने सलाह दी कि मुझे पवित्र हिंदू तीर्थ पुष्कर अवश्य जाना चाहिए। इसके बारे में माना जाता है कि पुष्कर में स्वयं ब्रह्माजी ने झील का सृजन किया था। मैंने झट से 'हाँ' कह दी। लेकिन मैंने उन्हें कहा कि मैं अजमेर में पूजनीय सूफी संत हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह शरीफ** पर भी जाऊँगा। यद्यपि उनमें से कुछ की भौंहें तन गई थीं, लेकिन मैं दोनों तीर्थस्थलों पर गया।
* वर्ष 2000 में अजमेर दरगाह पर मेरी तीर्थयात्रा के बारे में रिपोर्ट दी गई है'गृहमंत्री एल.के. आडवाणी ने रविवार को हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर प्रार्थना की। स्थानीय मुसलमान इतने भावातिरेक में थे कि उन्हें देखने के लिए बहुत बड़ी भीड़ दरगाह में एकत्र हो गई। भीड़ ने बार-बार अनुरोध किया था कि थोड़ा सा कुछ कहें। आडवाणी मान गए और उन्होंने कहा, 'भारत एक बहु-धर्मवाला देश है तथा सभी धर्मों के लोग अच्छे इनसान बनने की कोशिश करते हैं। इसीलिए प्रत्येक समुदाय इस दरगाह पर आता है। पहले हम नेक इनसान बनें। इसका कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका आराध्य ईश्वर है या अल्लाह है।' उन्होंने कहा कि 'हालाँकि बीसवीं शताब्दी पश्चिमी जगत् की रही, लेकिन यदि सभी समुदाय एकजुट होकर मिलकर कार्य करेंगे तो निश्चित रूप से इक्कीसवीं शताब्दी भारत की होगी।' इस पर भीड़ ने जवाब दिया, 'आमीन!' (आश्चर्य! आडवाणी ने अजमेर दरगाह पर प्रार्थना की, द टाइम्स ऑफ इंडिया, 4 दिसंबर, 2000)। बाद में जब एक पत्रकार ने मुझसे पूछा कि क्या दरगाह में मेरी यात्रा अपनी छवि को बदलने का प्रयास है, तो मैंने जवाब दिया, 'मेरा दृष्टिकोण हमेशा स्पष्ट रहा है। मैंने पच्चीस वर्ष पहले जो कहा था, आज भी, अब भी मैं वही सब कह रहा हूँ।'
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की अवधारणा में भारत के विभिन्न धर्म अनुयायियों को यह आदेश दिया गया है कि विविधताओं को कायम रखते हुए प्राचीन देश की साझा संस्कृति का आदर करो, गर्व महसूस करो। अन्य राष्ट्र के प्रति निष्ठा न रखी जाए, न ही अन्य धर्मों को झूठा या हीन समझें, बल्कि यह सीखें कि प्रत्येक धर्म की अपनी विशेषताएँ हैं। छल-कपट से, धर्मांतरण के माध्यम से अपने धर्मानुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग न करें। अलगाववाद के प्रचार के प्रयोजन के लिए या धर्मतंत्र की स्थापना के लिए राजनीतिक वर्चस्व प्राप्त करने की कोशिश न करें। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का अर्थ इससे न ज्यादा है, न इससे कम।
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