गुरुपूर्णिमा और संघ : भगवा ध्वज है हमारा गुरु


संघ में अत्यंत महत्वपूर्ण है "गुरू दक्षिणा उत्सव"



संघ शाखा प्रारम्भ होने के बाद प्रारंभिक दो वर्षों तक तो धन की कोई आवश्यकता महसूस नहीं हुई। कार्यक्रम भी सामान्य और छोटे स्वरूप के होते थे, इसलिए खर्चा भी विशेष नहीं होता था। जो कुछ थोड़ा बहुत खर्च होता उसकी पूर्ति डॉक्टरजी ( संघ संस्थापक एवं प्रथम सरसंघचालक परमपूज्य डॉ0 केशव बलीराम हेडगेवार )  का मित्र-परिवार करता। उनके मित्रों को यह पूरा विश्वास था कि डॉक्टरजी निरपेक्ष देश सेवा का कार्य कर रहे हैं। इसलिए वर्ष भर में एक या दो बार वे बड़ी खुशी से संघ कार्य के लिए आर्थिक मदद देते थे। 1927 तक संघ के जिम्मेदार स्वयंसेवक डॉक्टरजी के इन विश्वासपात्र मित्रों के यहां जाकर धन ले आते थे। द्रुत गति से बढ़ने वाले संघ कार्य के लिए, कार्यक्रमों तथा प्रवास हेतु जब अधिक खर्च करना अपरिहार्य हो गया तब डॉक्टरजी ने इस संबंध में स्वयंसेवकों के साथ विचार-विमर्श प्रारंभ किया। आज तक तो धनराशि एकत्रित होती उसका पाई - पाई का हिसाब डॉक्टरजी स्वयं रखते थे और यही आदत उन्होंने स्वयंसेवकों में भी डाली। परिणाम  स्वरूप स्वयंसेवकों को अपने सारे कार्यक्रम सादगीपूर्ण ढंग से, कम खर्च में करने की आदत हो गई। शाखाएं तेजी से खुलने लगीं थी। नागपुर के पड़ोसी वर्धा और भंडारा जिलों में नयी शाखाएं खुलीं। इस कारण आवश्यक खर्च भी बढ़ने लगा। कुछ दिनों तक मित्रों से उधार लेने का क्रम चला। मित्र भी बड़ी आस्था से रकम उधार देते और वापसी की कोई जल्दबाजी नहीं की जाती, फिर भी उधार ली गई रकम आखिर कभी न कभी वापस करनी है - यह चिंता उन्हें अवश्य होती। फिर इस तरह उधार लेकर काम करने का क्रम आखिर कब तक चलेगा, यह चिंता स्वयंसेवकों के मन में भी उत्पन्न होने लगी और इसका कोई निदान ढूंढा जाने लगा।

एक स्वयंसेवक ने कहा, संघ कार्य हिन्दूसमाज का कार्य है। इसलिए जो आर्थिक मदद दे सकते हैं, ऐसे संघ से सहानुभूति रखने वाले लोगों से धन एकत्रित किया जाए। अन्य स्वयंसेवक ने भी इस सुझाव का समर्थन करते हुए कहा कि समाज जीवन की उन्नति हेतु चलने वाले सभी प्रकार के कार्य आखिर लोगों द्वारा दिए गए दान, अनुदान और चंदे की रकम से ही चलते हैं- अत: हमें भी इसी तरीके से धन जुटाना चाहिए। एक और स्वयंसेवक ने इस पर आपत्ति उठाते हुए कहा कि हमारा कार्य सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय कार्य है इसका लोगों का बोध कराना होगा, किंतु इसके लिए उनसे आर्थिक मदद मांगना उचित नहीं होगा। इसी बात को आगे  बढ़ाते हुए अन्य स्वयंसेवक ने कहा कि यदि हम इसे अपना ही कार्य कहते हैं तो संघ जैसे उदात्ता कार्य हेतु हम स्वयं ही अपना धन लगाकर खर्च की व्यवस्था क्यों न करें? डॉक्टरजी ने उसे अपना विचार अधिक स्पष्ट रूप से कहने का आग्रह किया। तब उस स्वयंसेवक ने कहा, अपने घर में कोई धार्मिक कार्य अथवा  विवाह आदि कार्य होते हैं। कोई अपनी लड़की के विवाह के लिए चंदा एकत्रित कर धन नहीं जुटाता। इसी प्रकार संघ कार्य पर होने वाला खर्च भी, जैसे भी संभव हो, हम सभी मिलकर वहन करें।

स्वयंसेवक खुले मन से अपने विचार व्यक्त करने लगे। एक ने शंका आशंका उपस्थित करते हुए कहा, यह धन राशि संघ के कार्य हेतु एकत्र होगी- क्या इसे हम कार्य हेतु अपना आर्थिक सहयोग माने? दान, अनुदान, चंदा आर्थिक सहयोग आदि में पूर्णतया निरपेक्ष भाव से देने का भाव प्रकट नहीं होता। अपनी घर-गृहस्थी ठीक तरह से चलाते हुए, हमें जो संभव होता है, वही हम दान, अनुदान चंदा आदि के रूप में देते हैं। किन्तु  हमारा संघ कार्य तो जीवन में सर्वश्रेष्ठ वरण करने योग्य कार्य है। वह अपना ही कार्य है, इसलिए हमें अपने व्यक्तिगत खर्चों में कटौती कर संघ कार्य हेतु जितना अधिक दे सकें, उतना हमें देना चाहिए- यह भावना स्वयंसेवकों में निर्माण होनी चाहिए। अपने व्यक्तिगत जीवन में भी धन-सम्पत्ति की ओर देखने का योग्य दृष्टिकोण हमें स्वीकार करना चाहिए। मुक्त चिंतन के चलते स्वयंसेवक अपने - अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। डॉक्टरजी ने सबके विचारों को सुनने के बाद कहा, कृतज्ञता और निरपेक्षता की भावना से गुरुदक्षिणा समर्पण की पध्दति भारत में प्राचीनकाल में प्रचलित थी। संघ कार्य करते समय धन संबंधी हमें अपेक्षित भावना गुरुदक्षिणा की इस संकल्पना में प्रकट होती है- हमें भी वही पध्दति स्वीकार करनी चाहिए। डॉक्टरजी के इस कथन से सभी स्वयंसेवकों के विचार को एक नयी दिशा मिली और  विशुद्ध  भावना से 'गुरुदक्षिणा' समर्पण का विचार सभी स्वयंसेवकों के हृदय में बस गया।

दो दिन बाद ही व्यास पूर्णिमा थी। गुरुपूजन और गुरुदक्षिणा समर्पण हेतु परम्परा से चला आ रहा, यह पावन दिवस सर्व दृष्टि से उचित था। इसलिए डॉक्टरजी ने कहा कि इस दिन सुबह ही स्नान आदि विधिपूर्ण कर हम सारे स्वयंसेवक एकत्रित आयेंगे और श्री गुरुपूर्णिमा व श्री गुरुदक्षिणा का उत्सव मनायेंगे। डॉक्टरजी की यह सूचना सुनते ही घर लौटते समय स्वयंसेवकों के मन में विचार-चक्र घूमने लगा। परसों हम गुरु के नाते किसकी पूजा करेंगे? स्वयंसेवकों का गुरु कौन होगा? स्वाभाविकताः   सबके मन में यह विचार आया कि डॉक्टरजी के सिवा हमारा गुरु कौन हो सकता है? हम परसों मनाये जाने वाले गुरुपूजन उत्सव में उन्हीं का पूजन करेंगे। कुछ स्वयंसेवकों के विचार में, राष्ट्रगुरु तो समर्थ रामदास स्वामी हैं। प्रार्थना के बाद नित्य हम उनकी जय जयकार करते हैं। अत: समर्थ रामदासजी के छायाचित्र की पूजा करना उचित रहेगा। उन्हीं दिनों अण्णा सोहनी नामक एक कार्यकर्ता शाखा में उत्ताम शारीरिक शिक्षके रूप में प्रसिध्द थे- उनकी शिक्षा से हमारी शारीरिक क्षमता और विश्वास से वृध्दि होती है, अत: क्यों न उन्हें ही गुरु के रूप में पूजा जाए? अनेक प्रकार की विचार तरंगे स्वयंसेवकों के मन में उटने लगीं।

व्यास  पूर्णिमा के दिन प्रात:काल सभी स्वयंसेवक निर्धारित समय पर डॉक्टरजी के घर एकत्रित हुए। ध्वजारोहण, ध्वजप्रणाम के बाद स्वयंसेवक अपने - अपने स्थान पर बैठ गए। व्यक्तिगत गीत हुआ और उसके बाद डॉक्टरजी भाषण देने के लिए उठ खड़े हुए। अपने भाषण में उन्होंने कहा कि संघ किसी भी जीवित व्यक्ति को गुरु न मानते हुए अपने परम पवित्र भगवा ध्वज को ही अपना गुरु मानता है। व्यक्ति चाहे कितना ही श्रेष्ठ क्यो न हो, वह सदा अविचल-अडिग उसी स्थिति में रहेगा- इसकी कोई गारंटी नहीं। श्रेष्ठ व्यक्ति में भी कोई न कोई अपूर्णता या कमी रह सकती है। सिध्दांत ही नित्य अडिग बना रह सकता है। भगवा ध्वज ही संघ के सैध्दान्तिक विचारों का प्रतीक है- इस ध्वज की ओर देखते ही अपने राष्ट्र का उज्जवल इतिहास, अपनी श्रेष्ठ संस्कृति और दिव्य दर्शन हमारी आंखों के सामने खडे  हो जाता है। जिस ध्वज की ओर देखते ही अंत:करण में स्फूर्ति का संचार होने लगता है वही भगवा ध्वज अपने संघ कार्य के सिध्दांतों का प्रतीक है- इसलिए वह हमारा गुरु है। आज हम उसी का पूजन करें और उसे ही अपनी गुरुदक्षिणा समर्पित करें।

कार्यक्रम बड़े उत्साह से सम्पन्न हुआ और इसके साथ ही भगवा ध्वज को अपना गुरु और आदर्श मानने की पध्दति शुरु हुई। इस प्रथम गुरु पूजन उत्सव में कुल 84 रु. श्रीगुरुदक्षिणा के रूप में एकत्रित हुए। उसका तथा आगे संघ कार्य पर होने वाले खर्चे का पूरा हिसाब रखने की व्यवस्था की गई। श्रीगुरुदक्षिणा का उपयोग केवल संघ कार्य हेतु ही हो, अपने व्यक्तिगत कार्य के लिए उसमें से एक भी पैसा उपयोग में नहीं लाया जाए- इसकी चिंता स्वयं डॉक्टरजी किया करते। वही आदत स्वयंसेवकों में भी निर्माण हुई इस प्रकार आत्मनिर्भर होकर संघ कार्य करने की पध्दति संघ में प्रचलित हुई।

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