गुरू पूर्णिमा का आध्यात्मिक महत्व
भारत में अनादिकाल से समाज की रक्षा करनें के लिये राजा की व्यवस्था रही है तो समाज को दिशा देनें के लिये आध्यात्मिक साधु , संतो ,ऋषियों , मुनियों की एक सतत परम्परा भी रही है। जो शासन से भी अधिक समाज में आदरणीय हुआ करती थी और गलत बात पर राजा को भी टोकनें का साहस रखा करती थी ! वह शासन का अंग होकर भी शासन से दूर आत्म चिन्तन के द्वारा निरंतर लोक कल्याण में अपना जीवन खपा देती थी। उसी परम्परा से आज भी लाखों लोग समाज का मार्गदर्शन कर रहे है। जिसका मूल आध्यात्मिक जीवन है। इस तरह से गुरूजनों के अभिवादन , अभिनंदन का पर्व अषाढ़ की गुरूपूर्णिमा है।
Spiritual significance of Guru Purnima
Since time immemorial, India has had the system of kings to protect the society and there has also been a continuous tradition of sadhus, saints, Rishi and munis to give direction to the society. They used to be more respected in the society than the government and had the courage to rebuke the king even when he did something wrong! Even though they were a part of the government, they used to spend their lives in public welfare by introspection, away from the government. Even today, lakhs of people of the same tradition are guiding the society. The basis of which is spiritual life. Guru Purnima of Ashadh is the festival of greeting and felicitating such Gurus.
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
हिंदू सनातन शास्त्र के अनुसार, इस तिथि पर परमेश्वर शिव ने दक्षिणामूर्ति का रूप धारण किया और ब्रह्मा के चार मानसपुत्रों को वेदों का अंतिम ज्ञान प्रदान किया। यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को “ व्यास पूर्णिमा ” नाम से भी जाना जाता है।
The full moon of the month of Ashadh is called Guru Purnima. Guru Puja is prescribed on this day. Guru Purnima comes at the beginning of the rainy season. From this day onwards, for four months, the wandering sages and saints stay at one place and spread the Ganga of knowledge. These four months are also the best in terms of weather. Neither too hot nor too cold. Therefore, they are considered suitable for study. Just as the land heated by the heat of the sun gets coolness and the power to produce crops from rain, similarly the seekers present at the feet of the Guru get the power to acquire knowledge, peace, devotion and yogic power.
According to Hindu Sanatan scriptures, on this date, Lord Shiva took the form of Dakshinamurthy and imparted the final knowledge of the Vedas to the four Manasputras of Brahma. This day is also the birthday of Krishna Dwaipayan Vyas, the author of Mahabharata. He was a great scholar of Sanskrit. One of his names is also Ved Vyas. He is called Adiguru and in his honor Guru Purnima is also known as “Vyas Purnima”.
गुरु पूर्णिमा पर्व : आध्यात्मिक व्यक्तित्व के देवत्व का अभिवादन है - अरविन्द सिसोदिया
गुरु पूर्णिमा यह शब्द बहुत सामान्य है और सभी को समझ में आने वाला है । लेकिन इस शब्द के पीछे जो सार है, जो मंतव्य है, जो मूल उद्देश्य है, जो गरिमा है। उसको उसी गंभीरता से देखना और समझना चाहिये हैं। जो गुरु पूर्णिमा के प्रति अभिप्रेत है। क्यों कि यह शब्द मूलतः बहुत ही गंभीर और ज्ञान से परिपूर्ण, नर को नारायण से जोड़ने वाले महात्माओं के आदर का, अभिनंदन का है । इस महान पर्व को उसी रूप में लेना चाहिये ।
प्रतिवर्ष यह पर्व महर्षी वेदव्यास जी की जयंती को निमित्त बना कर सभी गुरुजनों के सम्मान में आयोजित किया जाता है । भारतीय संस्कृति, सनातन सभ्यता मैं महर्षि वेदव्यास एक ऐसा नाम है जिन्होंने चारो वेदो , अठारह पुराणों , उपनिषदों और महाभारत का संपादन,संकलन और लेखन किया है । जिन गुरुओं के ज्ञानसे हमारी समाज व्यवस्था पुष्पित पल्लवित विकसित और संरक्षित हो रही है। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनें का पर्व है।
भारत में संत महंत , ऋषि , महर्षि ,साधु, योगी, महायोगी, त्रिकालदर्शी की परम्परा का इतिहास अनादिकाल से हे। स्वंय भगवान शंकर को समाधी लगाते है। समाधी लगा कर, साधना करके, गुरूमंत्र प्राप्त करके, अपने मतिष्क की क्षमता को अत्याधिक विकसित कर साधारण मनुष्य को देवत्व से जोड कर, उसके माध्यम से जगत के कल्याण की सनातन परम्परा के अभिनंदन का दिवस ही गुरू पूर्णिमा हे।
वास्तविक तौर पर गुरु पूर्णिमा पर्व, आध्यात्मिक गुरु के परिपेक्ष में है, जो गुरु अपने ज्ञान से एक नर को नारायण से जोड़ता हो , भगवान स्वरूप नारायण के प्रति विश्वास पैदा करता हो, उनकी व्यवस्था की जानकारी देता हो , उनके विविधस्वरूपों से अवगत करवाता हो और संपर्क में आनें वाले व्यक्तियों को ईश्वर के प्रति आसक्ति के आनंद से ओतप्रोत कर देता है। ईष्वर को प्राप्त करने के मर्ग को बताता हो । वह गुरु ही मूल रूप से गुरु पूर्णिमा के दिन पूजनीय होता है ।
गुरु पूर्णिमा को देवत्व स्वरूप में पूजा जाता है। क्योंकि नर रूपी सामान्य मनुष्य और ईश्वर रूपी नारायण अर्थात श्रीहरि के बीच में जो व्यवस्थायें हैं, उसका कार्य संचालन है, उन व्यवस्थाओं को पूर्ण करना, उनके निमित्त कार्यों को पूर्ण करना, यह सब कार्य देवताओं के कार्य हैं और इसी तरह के एक देवतारूप में देवतापूर्ण कार्य गुरु अपने ज्ञान से नर को नारायण से जोड़ कर के करता है । अर्थार्त इस तरह का गुरु तत्व जिस व्यक्ति को प्राप्त हो जाता है, जिस मस्तिष्क को प्राप्त हो जाता है, वह एक बहुत ही उच्च स्तरीय कंप्यूटर की तरह, सुपर कंप्यूटर की तरह विशिष्ठ हो जाता है। वह सामान्य मनुष्य नहीं होता बल्कि एक विशेष व्यक्तित्व होता है। एक सुपर व्यक्तित्व होता है और उसकी क्षमताएं भी उतनी ही अद्भुत अलौकिक और अनंत होते हैं। उनके आशीर्वाद से बहुत कुछ यूं संपन्न हो जाता है,जैसे कि ईश्वर ने ही उसे संपन्न किया हो और ऐसे ही महान तत्व के ज्ञानी और क्षमताओं के प्राप्त व्यक्ति को ही गुरु कहा जाता है । इसी प्रकार के आध्यात्मिक गुरु का पूजन ही आज के दिन मूलतः होता है ।
महानता की तुलना नहीं की जाती सभी कार्य अपने अपने क्षेत्र और आवश्यकता से महत्वपूर्ण होते है। शास्त्रों में प्रथम गुरू मां को ही कहा गया है। द्वितीय स्थान पिता अथवा पालक का है और तृतीय स्थान गुरूजन का है। किन्तु आध्यात्म का क्षेत्र अत्यंत विलक्षण है। वह अनंत की यात्रा से सरोकार रखता है, वह विराट समाज की व्यवस्था से सरोकार रखता है। धर्म की स्थापना और उसका संरक्षण तथा रक्षण के लिये प्रणप्र्राण से जुटना भी गुरूजन के ध्येय में रहा है। सबकी अपनी अपनी उपयोगिता है। दिन में व्यर्थ प्रतीत होनें वाला दीपक रात्री सब कुछ दिखाने वाला हो जाता हे। इसलिये धर्म, निति,ज्ञान,माता,पिता,मित्र,शिक्षक,समाज,संस्कृति,सभ्यता सहित जहां से भी हमने कुछ प्राप्त किया है,वे हमारे गुरू ही हे। भगवान दत्रात्रेय से जब पूछा तो उन्होने 24 गुरूओं की गणना की थी।
सामान्य सामाजिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में दिन रात का फर्क होता है और इसलिए गुरु पूर्णिमा उत्सव को सामान्य रूप से नहीं लेना चाहिए बल्कि इसे उसी गंभीरता, उसी पवित्रता, उसी परिपक्वता के साथ आयोजित करना चाहिए। गुरूजन का पूजन करना चाहिए, स्मरण करना चाहिए और कुछ भी नहीं भी हो तो उनकी मानसिक पूजा करनी ही चाहिये। मानसिक रूप से गुरुजन को अवश्य स्मरण कर उनके चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करना चाहिए
भगवान दत्रात्रेय ने कहा मेरे चौबीस गुरुओं के नाम है :-
१) पृथ्वी
२) जल
३) वायु
४) अग्नि
५) आकाश
६) सूर्य
७) चन्द्रमा
८) समुद्र
९) अजगर
१०) कपोत
११) पतंगा
१२) मछली
१३) हिरण
१४) हाथी
१५) मधुमक्खी
१६) शहद निकालने वाला
१७) कुरर पक्षी
१८) कुमारी कन्या
१९) सर्प
२०) बालक
२१) पिंगला वैश्या
२२) बाण बनाने वाला
२३) मकड़ी
२४) भृंगी कीट
------
बचपन से आप सुनते आये होंगे कि जब-जब धरती पर अत्याचार बढ़ा, तब-तब भगवान ने किसी ना किसी रूप में जन्म लिया और बुराइयों का अंत किया. ठीक इसी तरह कई संत महात्माओं ने भी समय-समय पर जन्म लिया और अपने चमत्कार से समाज को सही मार्ग दिखाया है. फिर चाहे वह संत एकनाथ रहे हों, या फिर संत तुकाराम. तो आइये चर्चा करते हैं कुछ ऐसे ही संतों की, जिन्होंने अपने चमत्कारों और उससे ज्यादा अपने ज्ञान और परमारथ से लोगों का कल्याण किया :-
संत एकनाथ -
संत एकनाथ महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संतो में से एक माने जाते हैं. महाराष्ट्र में इनके भक्तों की संख्या बहुत अधिक है. भक्तों में नामदेव के बाद एकनाथ का ही नाम लिया जाता है. ब्राह्मण जाति के होने के बावजूद इन्होंने जाति प्रथा के खिलाफ अपनी आवाज तेज की. समाज के लिए उनकी सक्रियता ने उन्हें उस वक्त के सन्यासियों का आदर्श बना दिया था. दूर-दूर से लोग उनसे लोग मिलने आया करते थे. उनसे जुड़े एक चमत्कार की बात करें तो…
एक बार एकनाथ जी को मानने वाले एक सन्यासी को रास्ते में एक मरा हुआ गथा मिलता है, जिसे देखकर वह उसे दण्डवत् प्रणाम करते हैं और कहते हैं ‘तू परमात्मा है’. उनके इतना कहने से वह गधा जीवित हो जाता है.
इस घटना की खबर जब लोगों में फैलती है, तो वह उस संत को चमत्कारी समझकर परेशान करने लगते हैं. ऐसे में सन्यासी संत एक नाथ जी के पास पहुंचता है और सारी बात बताता है. इस पर संत एकनाथ उत्तर देते हुए कहते हैं, जब आप परमात्मा में लीन हो जाते है तब ऐसा ही कुछ होता है. माना जाता है कि इस चमत्कार के पीछे संत एकनाथ ही थे.
संत तुकाराम -
भगवान की भक्ति में लीन रहने वाले संत तुकाराम का जीवन कठिनाइयों भरा रहा. माना जाता है कि उच्च वर्ग के लोगों ने हमेशा उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की. एक बार एक ब्राहाण ने उनको उनकी सभी पोथियों को नदी में बहाने के लिए कहा तो उन्होंंने बिना सोचे सारी पोथियां नदी में डाल दी थी. बाद में उन्हें अपनी इस करनी पर पश्चाताप हुआ तो वह विट्ठल मंदिर के पास जाकर रोने लगे.
वह लगातार तेरह दिन बिना कुछ खाये पिये वहीं पड़े रहे. उनके इस तप को देखकर चौदहवें दिन भगवान को खुद प्रकट होना पड़ा. भगवान ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए उनकी पोथियां उन्हें सौपी.
आगे चलकर यही तुकाराम संत तुकाराम से प्रसिद्ध हुए और समाज के कल्याण में लग गये.
सन्त ज्ञानेश्वर -
संत ज्ञानेश्वर कि गिनती महाराष्ट्र के उन धार्मिक संतो में होती हैं, जिन्होंने समस्त मानव जाति को ईर्ष्या द्वेष और प्रतिरोध से दूर रहने का शिक्षा दी थी. संत ज्ञानेश्वर ने 15 वर्ष की छोटी सी आयु में ही गीता की मराठी में ज्ञानेश्वरी नामक भाष्य की रचना कर दी थी. इन्होंने पूरे महाराष्ट्र में घूम घूम कर लोगों को भक्ति का ज्ञान दिया था. उनके बारे में कहा जाता है कि उनका
इस धरती पर जन्म लेना किसी चमत्कार से कम नहीं था. उनके पिता उनकी मां रुक्मिणी को छोड़कर सन्यासी बन गए थे. ऐसे में एक दिन रामानन्द नाम के सन्त उनके आलंदी गांव आये और उन्होंने रुक्मिणी को पुत्रवती भव का आशीर्वाद दे दिया.
जिसके बाद ही इनके पिता ने गुरु के कहने पर गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया और संत ज्ञानेश्वर का जन्म हुआ.
संत नामदेव -
संत नामदेव एक प्रसिद्ध संत थे. उन्होंने मराठी के साथ हिन्दी में भी अनेक रचनाएं की. उन्होंने लोगों के बीच ईश्वर भक्ति का ज्ञान बांटा. उनका एक किस्सा बहुत चर्चित है.
एक बार वह संत ज्ञानेश्वर के साथ तीर्थयात्रा पर नागनाथ पहुंचे थे, जहां उन्होंने भजन-कीर्तन का मन बनाया तो उनके विरोधियों ने उन्हेंं कीर्तन करने से रोक दिया. विरोधियों ने नामदेव से कहा अगर तुम्हें भजन-कीर्तन करना है तो मंदिर के पीछे जाकर करो.
इस पर नामदेव मंदिर के पीछे चले गये. माना जाता है कि उनके कीर्तनों की आवाज सुनकर भगवान शिव शंकर ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन देने आ गये थे. इसके बाद से नामदेव के चमत्कारी संत के रुप में ख्याति मिली.
समर्थ स्वामी -
समर्थ स्वामी जी का जन्म गोदातट के निकट जालना जिले के ग्राम जांब में हुआ था. अल्पायु में ही उनके पिता गुजर गए और तब से उनके दिमाग में वैऱाग्य घूमने लगा था. हालांकि, मां की जिद के कारण उन्हें शादी के लिए तैयार होना पड़ा था. पर, मौके पर वह मंडप तक नहीं पहुंचे और वैराग्य ले लिया.
समर्थ स्वामी के बारे में कहा जाता है कि एक शव यात्रा के दौरान जब एक विधवा रोती-रोती उनके चरणो में गिर गई थी, तो उन्होंंने ध्यान मग्न होने के कारण उसे पुत्रवती भव का आशीर्वाद दे दिया था. इतना सुनकर विधवा और फूट-फूट कर रोने लगी.
रोते हुए वह बोली- मैं विधवा हो गई हूं और मेरे पति की अर्थी जा रही है. स्वामी इस पर कुछ नहीं बोले और कुछ देर बाद जैसे ही उसके पति की लाश को आगे लाया गया, उसमें जान आ गई. यह देख सबकी आंखे खुली की खुली रह गई. सभी इसे समर्थ स्वामी का चमत्कार बता रहे थे.
देवरहा बाबा -
देवरहा बाबा उत्तर भारत के एक प्रसिद्ध संत थे. कहा जाता है कि हिमालय में कई वर्षों तक वे अज्ञात रूप में रहकर साधना किया करते थे. हिमालय से आने के बाद वे उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में सरयू नदी के किनारे एक मचान पर अपना डेरा डाल कर धर्म-कर्म करने लगे, जिस कारण उनका नाम देवरहा बाबा पड़ गया. उनका जन्म अज्ञात माना जाता है. कहा जाता है कि-
एक बार महावीर प्रसाद ‘बाबा’ के दर्शन करके वापस लौट रहे थे, तभी उनके साले के बेटे को सांप ने डंस लिया. चूंकि सांप जहरीला था, इसलिए देखते ही देखते विष पूरे शरीर में फ़ैल गया.
किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें, इसलिए वह उसे उठाकर देवरहा बाबा के पास ले आये. बाबा ने बालक को कांटने वाले सांप को पुकारते हुए कहा तुमने क्यों काटा इसको, तो सांप ने उत्तर देते हुए कहा इसने मेरे शरीर पर पैर रखा था. बाबा ने इस पर उसे तुरंत ही कड़े स्वर में आदेश दिया कि विष खींच ले और आश्चर्यजनक रूप से सांप ने विष खींच लिया. बाबा के इस चमत्कार की चर्चा चारों ओर फैल गई.
संत जलाराम बापा -
बापा के नाम से प्रसिद्ध जलाराम गुजरात के प्रसिद्ध संतो में से एक थे. उनका जन्म गुजरात के राजकोट जिले के वीरपुर गांव में हुआ था. जलाराम की मां एक धार्मिक महिला थीं, जो भगवान की भक्ति के साथ साथ साधु संतो का बड़ा आदर करती थी. उनके इस कार्य से प्रसन्न संत रघुदास जी उन्हें आशीर्वाद दिया कि उनका दूसरा पुत्र ईश्वर भक्ति और सेवा के लिए ही जाना जायेगा. आगे चलकर जलाराम बापा गुजरात के बहुत प्रसिद्ध संत हुए.
एक दिन बापा के भक्त काया रैयानी के पुत्र मृत्यु हो गई. पूरा परिवार शोक में डूबा था. इस बीच बापा भी वहां पहुंच गये, उनको देखकर काया रैयानी उनके पैरों में गिर गया और रोने लगा. बापा ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा तुम शांत हो जाओ. तुम्हारे बेटे को कुछ नहीं हुआ है.
उन्होंने कहा चेहरे पर से कपड़ा हटा दो. जैसे ही कपड़ा हटाया गया बापा ने कहा बेटा तुम गुमसुम सोये हुए हो, जरा आंख खोल कर मेरी ओर देखो. इसके बाद चमत्कार हो गया. क्षण भर में मृत पड़ा लड़का आंख मलते हुए उठ कर इस तरह बैठ गया, मानो गहरी नींद से जागा हो.
रामकृष्ण परमहंस -
राम कृष्ण परम हंस भारत के महान संत थे. राम कृष्ण परमहंस ने हमेशा से सभी धर्मों कि एकता पर जोर दिया था. बचपन से ही उन्हें भगवान के प्रति बड़ी श्रद्धा थी. उन्हें विश्वास था कि भगवान उन्हें एक दिन जरूर दर्शन देंगे. ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उन्होंने कठिन साधना और भक्ति का जीवन बिताया था. जिसके फलस्वररूप माता काली ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिया था.
इसके अतिरिक्त, रामकृष्ण परमहंस की कृपा से माँ काली और स्वामी विवेकानंद का साक्षात्कार होना समूचे विश्व को पता ही है.
गुरु नानक देव -
गुरु नानक देव सिक्खों के आदि गुरु थे. इनके अनुयायी इन्हें गुरुनानक, बाबा नानक और नानक शाह के नामों से बुलाते हैं. कहा जाता है कि बचपन से ही वे विचित्र थे. नेत्र बंद करके आत्म चिंतन में मग्न हो जाते थे. उनके इस हाव भाव को देखकर उनके पिता बड़े चिंतित रहते थे. आगे चलकर गुरु नानक देव बहुत प्रसिद्ध संत हुए.
एक बार गुरु नानक देव जी मक्का गए थे. काफी थक जाने के बाद वह मक्का में मुस्लिमों का प्रसिद्ध पूज्य स्थान काबा में रुक गए. रात को सोते समय उनका पैर काबा के तरफ था.
यह देख वहां का एक मौलवी गुरु नानक के ऊपर गुस्सा हो गया. उसने उनके पैर को घसीट कर दूसरी तरफ कर दिये. इसके बाद जो हुआ वह हैरान कर देने वाला था. हुआ यह था कि अब जिस तरफ गुरु नानक के पैर होते, काबा उसी तरफ नजर आने लगता. इसे चमत्कार माना गया और लोग गुरु नानक जी के चरणों पर गिर पड़े.
बाबा रामदेव रुणिचा -
राम देव का जन्म पश्चिमी राजस्थान के पोकरण नाम के प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा नामक स्थान में हुआ था. इन्होंने समाज में फैले अत्याचार भेदभाव और छुआ छूत का विरोध किया था. बाबा राम देव को हिन्दू मुस्लिम एकता का भी प्रतीक माना जाता है. आज राजस्थान में इन्हें लोग भगवान से कम नहीं मानते हैं. इनसे जुड़ा हुआ एक किस्सा कुछ ऐसा है. मेवाड़ के एक गांव में एक महाजन रहता था. उसकी कोई संतान नहीं थी. वह राम देव की पूजा करने लगा और उसने मन्नत मांगी कि पुत्र होने पर मैं मंदिर बनवाऊंगा. कुछ दिन के बाद उसको पुत्र की प्राप्ति हुई.
जब वह बाबा के दर्शन करने जाने लगा तो रास्ते में उसे लुटेरे मिले और उसका सब कुछ लूट लिया. यहां तक कि सेठ की गर्दन भी काट दी. घटना की जानकारी पाकर सेठानी रोते हुए रामदेव को पुकारने लगी, इतने में वहां रामदेव जी प्रकट हो गए और उस महाजन का सर जोड़ दिए. उनका चमत्कार देख कर दोनों उनके चरणों में गिर पड़े.
संत रैदास -
संत रैदास का जन्म एक चर्मकार परिवार में हुआ था. बचपन से ही रैदास का मन ईश्वर की भक्ति को ओर हो गया था. उनका जीवन बड़ा ही संघर्षो से बीता था, पर उन्होंने ईश्वर की भक्ति को कभी नहीं छोड़ा. एक बार रैदास जी ने एक ब्रह्मण को एक ‘सुपारी’ गंगा मैया को चढ़ाने के लिए दी थी. ब्राह्मण ने अनचाहे मन से उस सुपारी को गंगा में उछाल दिया, तभी गंगा मैया प्रकट हुई और सुपारी अपने हाथ में ले ली और उसे एक सोने का कंगन देते हुए कहा- इसे ले जाकर रविदास को दे देना. ब्राह्मण ने जब यह बात बताई तो लोगों ने उपहास उड़ाया.
लोगों ने यहां तक कहा कि रविदास अगर सच्चे भक्त हैं तो दूसरा कंगन लाकर दिखाएं. इस पर रविदास द्वारा बर्तन में रखे हुए जल से गंगा मैया प्रकट हुई और दूसरा कंगन रविदास जी को भेंट किया.
इन संतों ने संसार में यह सन्देश दिया है कि जाति और धर्म से बड़ा मानवता का धर्म है. सच्चे मन से की गई सेवा ही जीवन को सफल बनाती है. इस संसार में भगवान किसी भी जाति का नहीं है. वह संसार के हर प्राणी के दिल में रहता है, इसलिए हमें बुराई द्वेष आदि को छोड़कर एक सच्चा इंसान बनाना चाहिए.
-----------------
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें