महावीर हनुमान जी की कथा story of mahavir hanuman ji

महावीर हनुमान जी की कथा


हनुमान जी की कथा

अमलकमलवर्णं प्रज्ज्वलत्पावकाक्षं सरसिजनिभवक्त्रं सर्वदा सुप्रसन्नम्।
पटुतरघनगात्रं कुण्डलालङ्कृताङ्गं रणजयकरवालं वानरेशं नमामि॥
यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम्।
बाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम्॥

हनुमान जी महाराज चिरंजीवी, अजर, अमर हैं....... भगवान् श्री राम के वरदान से, जब तक पृथ्वी लोक में उनका नाम स्मरण किया जायेगा, तब तक हनुमान जी महाराज यहाँ भक्तों का भला करते रहेंगे........ जहाँ-जहाँ राम कथा होगी वहाँ-वहाँ  हनुमान जी महाराज मौजूद रहेंगे........... यदि भगवान् राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं तो हनुमान जी की भक्ति अद्वितीय है।

नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी । एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥
----------->  मोहिनी अवतार के समय भगवान् शिव का वीर्य स्खलित हो गया था, जिसे ऋषियों ने अग्निहोत्र के माध्यम से सुरक्षित रखा हुआ था। इसके दो जन्म पूर्व माता अञ्जनी ने भगवान शिव की आराधना कर एक अद्वितीय पुत्र प्राप्ति का वरदान पाया था। उस वीर्य को पवन देव ने माता अञ्जनी के गर्भ में स्थापित कर दिया। इस जन्म के पीछे नारद जी का भगवान् विष्णु का श्राप भी था, जिसमें नारद जी ने भगवान् विष्णु को रामावतार में वानरों की सहायता लेने के लिए कहा था। 


-----> भगवान् सूर्य के वर से सुवर्ण के बने हुए सुमेरु में वानर राज केसरी का राज्य था। पूर्व जन्म में एक साथ भगवान् शिव की आराधना करने से वर्तमान जन्म में वे दोनों पति-पत्नी हुए। संतान सुख से वंचित माता अंजना मतंग ऋषि के पास गईं। मंतग ऋषि ने पुत्र सुख की प्राप्ति हेतु उनसे पप्पा सरोवर के पूर्व में एक नरसिंहा आश्रम और दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ में जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करने के लिए कहा। अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति वानर राज केसरी की अनुमति से  तप किया वे बारह वर्ष तक केवल वायु का ही भक्षण करके तप करती रहीं। पवन देव ने भगवान् शिव के वरदान की पूर्ति हेतु माता अंजना को शुचिस्नान के समय उनके कर्ण रन्ध्र में प्रवेश कर तपस्या के वक्त आश्वासन दिया कि उनके यहाँ सूर्य, अग्नि एवं सुवर्ण के समान तेजस्वी, वेद-वेदांगों का मर्मज्ञ, विश्वन्द्य महाबली पुत्र होगा। जिसके परिणामस्वरूप माता अंजना को पुत्र की प्राप्ति हुई। वायु के द्वारा उत्पन्न इस पुत्र को ऋषियों ने वायु पुत्र नाम दिया।

----->  सूर्योदय होते ही हनुमान जी को भूख लगी । माता अञ्जनी फल लाने गई हुई थीं । इधर लाल वर्ण के सूर्य को फल मानकर हनुमानजी उसको लेने के लिए आकाश में चले गए अमावस्या होने से सूर्य को ग्रसने के लिए राहु आया था, किंतु हनुमानजी को देखकर वह डर गया। तब सूर्य की रक्षा हेतु देवराज इन्द्र ने हनुमानजी पर वज्र-प्रहार किया, जिससे  उनकी ठोड़ी-हनु टेढ़ी हो गई और वे हनुमान कहलाए।
 राम भक्त, भगवान् शिव के अंशावतार हनुमान जी को पवन सुत, केसरी नंदन, वातात्मज, अञ्जनेय आदि नामों से भी पुकारा जाता है।

इंद्र की इस धृष्टता से रुष्ट होकर पवन देव ने संचार बंद कर दिया। तभी देवताओं की विनती पर ब्रह्मा जी समस्त देवगणों के साथ बाल  हनुमान के समक्ष प्रकट हुए और सभी ने अपने अपने आयुद्ध और अपने शक्तियाँ प्रदान कीं। ब्रह्मा जी  ने अमितायु का, इन्द्र ने वज्र से हत न होने का, सूर्य ने अपने शतांश तेज से युक्त और संपूर्ण शास्त्रों के विशेषज्ञ होने का, वरुण ने पाश और जल से अभय रहने का, यम ने यमदंड से अवध्य और पाश से नाश न होने का, कुबेर ने शत्रु मर्दिनी गदा से निःशंख रहने का, शंकर ने प्रमत्त और अजेय योद्धाओं से जय प्राप्त करने का और विश्वकर्मा ने मय के बनाए हुए सभी प्रकार के दुर्बोध्य और असह्य, अस्त्र, शस्त्र तथा यंत्रादि से कुछ भी क्षति न होने का वर दिया।

-----> माता सीता का हरण रावण के द्वारा किये जाने पर भगवान् राम वन-वन भटकते हुए ॠषिमुख पर्वत के समीप पहुँचे, जहाँ सुग्रीव अपने अनुयाईयों के साथ, अपने ज्येष्ठ भ्राता बाली से छिपकर रहते थे। सूर्य पुत्र किष्किन्धा नरेश वानर राज बाली ने इन्द्र के पुत्र और अपने छोटे भाई सुग्रीव को एक गम्भीर मिथ्याबोध के चलते अपने साम्राज्य से बाहर निकाल दिया था और वो किसी भी तरह से सुग्रीव के तर्क को सुनने के लिये तैयार नहीं था।उसने सुग्रीव की पत्नी को भी अपने पास रख लिया। तभी सुग्रीव ने माता सीता को खोजते हुए भगवान् श्री राम और लक्ष्मण जी को देखा और हनुमान जी को उनके विषय में जानकारी प्राप्त करने को भेजा, क्योकि वे बाली से छुप कर रह रहे थे और उन्हें डर था कि कहीं साधुवेश धारी भगवान् श्री राम और लक्ष्मण जी बाली के गुप्तचर न हों। भगवान् सूर्य के शिष्य हनुमान जी की सुग्रीव के साथ मित्रता थी। हनुमान जी देवताओं द्वारा प्रदत्त अपनी समस्त शक्तियों को श्राप वश भूल चुके थे।

हनुमान् एक ब्राह्मण के वेश में अपने आराध्य भगवान् श्री राम के सम्मुख गये। हनुमान के मुख़ से प्रारम्भिक संवाद को सुनकर भगवान् श्री राम ने शेषनाग अवतार लक्ष्मण जी  से कहा कि कोई भी बिना वेद-पुराण को जाने ऐसा नहीं बोल सकता, ब्राह्मण वेष धारी हनुमान जी ने बोला। राम जी को उस ब्राह्मण के मुख, नेत्र, माथा, भौंह या अन्य किसी भी शारीरिक संरचना से कुछ भी मिथ्या प्रतीत नहीं हुआ। रामजी ने लछ्मण से कहा कि इस ब्राह्मण के मन्त्र मुग्ध उच्चारण को सुनके तो शत्रु भी अस्त्र त्याग देगा। उन्होंने ब्राह्मण की और प्रशंसा करते हुए कहा कि वो नरेश  निश्चित ही सफ़ल होगा जिसके पास ऐसा गुप्तचर होगा। श्री राम के मुख़ से इन सब बातों को सुनकर हनुमानजी ने अपना वास्तविक रूप धारण किया और श्री राम के चरणों में नत मस्तक हो गये। श्री राम ने उन्हें अपने ह्रदय से लगा लिया। भक्त और भगवान का हनुमान जी और प्रभु राम के रूप मे अटूट और अनश्वर मिलन हुआ। हनुमान जी ने श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता करवाई।  श्री राम ने बाली को मारकर सुग्रीव को उनका सम्मान और गौरव वापस दिलाया।

-----> भगवान् राम ने सुग्रीव का किष्किन्धा के राज्य सिंहासन पर अभिषेक किया। चार माह समाप्त होते ही वानर सेना ने दक्षिण की और प्रस्थान किया। माता की खोज में वानरों का एक दल दक्षिण समुद्र तट पर पहुँचा। इतने विशाल सागर को लाँघने की शक्ति और सामर्थ किसी में नहीं थी। ब्रह्मा जी के पुत्र जाम्बवन्त ने हनुमान जी को उनकी अदभुत शक्तियों का स्मरण कराया। गृद्ध जटायु के बड़े भाई और ब्रह्मा जी पुत्र सम्पाति ने ऊँची उड़ान भरी और उन्होंने माता सीता को रावण की लँका में अशोक वाटिका में बैठा पाया। इसके सुचना उन्होंने तत्काल जाम्बवन्त जी को दी। अपनी शक्तियों का स्मरण होते ही हनुमान ने अपना रूप विस्तार किया और पवन-वेग से सागर को उड़ कर पार करने लगे। रास्ते में उन्हें एक पर्वत मिला और उसने हनुमान से आग्रह किया  कि वे थोड़ा विश्राम कर लें। हनुमान जी ने किन्चित मात्र भी समय व्यर्थ ना करते हुए पर्वतराज को धन्यवाद किया और आगे बढ़ चले। आगे चलकर उन्हें माँ सुरसा मिलीं,  जिन्होंने हनुमान जी को कहा कि अगर आगे जाना है तो उन्हें माँ सुरसा के मुख में प्रवेश करना होगा। हनुमान ने उस  चुनौती को स्वीकार किया और बड़ी ही चतुराई से अति लघुरूप धारण करके सुरसा  के मुख में प्रवेश करके बाहर आ गये। माता सुरसा ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि  उन्हें अपने कार्य में सफलता हासिल हो। हनुमान जी ने बुद्धिमता की परीक्षा में निपुणता सिद्ध कर दी थी।

-----> हनुमान जी सागर पार करके लंका पँहुचे । गृद्धराज सम्पाती के बताये गये स्थल पर उन्होंने अशोक-वाटिका में माता सीता को देखा। उन्होंने राम नाम का उच्चारण किया और माँ के समक्ष प्रस्तुत हुए और भगवान् राम के अनुचर के रूप में अपना परिचय दिया। उन्होंने माता को विश्वास दिलाने के लिये चूड़ामणि माँ को दी जो कि प्रस्थान के समय प्रभु राम ने उन्हीं सौंपी थी। उन्होंने माता सीता को सांत्वना दी और साथ ही वापस प्रभु श्रीराम के पास साथ चलने का आग्रह भी किया। मगर माता सीता ने ये कहकर अस्वीकार कर दिया कि ऐसा होने पर श्रीराम के पुरुषार्थ को ठेस पँहुचेगी। हनुमान ने माता सीता को प्रभु श्री राम के सन्देश का वर्णन किया।

माता सीता से मिलने के पश्चात, हनुमान अशोक वाटिका में जाकर अपनी सुधा शान्त करने लगे। इसी बीच रावण के सैनिकों से युद्ध हुआ । उनको बंदी बनाने के लिये रावण पुत्र मेघनाद (-इन्द्रजीत) ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। ब्रह्मा जी का सम्मान करते हुए हनुमान ने स्वयं को ब्रह्मास्त्र  के बन्धन में बंधने दिया। उन्होंने विचार किया कि इस अवसर का लाभ उठाकर वो लंका के विख्यात रावण से मिल भी लेंगे और उसकी शक्ति का अनुमान भी लगा लेंगे। इन्हीं सब बातों को सोचकर हनुमान जी ने स्वयं को रावण के समक्ष बंदी बनकर उपस्थित होने दिया। जब उन्हें  रावण के समक्ष लाया गया तो उन्होंने रावण को प्रभु श्रीराम का चेतावनी भरा सन्देश सुनाया और साथ ही यह  भी कहा कि यदि रावण माता सीता को आदर-पूर्वक प्रभु श्रीराम को लौटा देगा तो प्रभु उसे क्षमा कर देंगे। क्रोध मे आकर रावण ने हनुमान जी को मृत्यु दंड देने का आदेश दिया; मगर रावण के छोटे भाई विभीषण ने ये कहकर बीच-बचाव किया कि एक दूत को मारना आचार संहिता व कूट नीति के विरुद्ध है। रावण ने कहा कि वानर को अपनी पूँछ बहुत प्रिय होती है। अतः उसने हनुमान जी की पूँछ में आग लगाने का आदेश दे दिया। रावण के सैनिक जब हनुमान जी की  पूँछ में कपड़ा लपेट रहे थे तभी हनुमान जी ने अपनी पूँछ को बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया और सैनिकों को कुछ समय तक परेशान करने के पश्चात पूँछ में आग लगाने का अवसर दे दिया। पूँछ  में आग लगते ही हनुमान ने बन्धन मुक्त होकर  लँका को जलाना शुरु कर दिया और अंत में  पूँछ में लगी आग को समुद्र में जाकर बुझाया और प्रभु श्री राम के पास लौटकर उन्होंने सारा वृतान्त सुनाया।

-----> लँका युद्ध में जब लक्ष्मण जी मूर्छित हो गये तो, वैद्य सुषेण ने संजीवनी बूटी लाने को कहा। हनुमान जी संजीवनी बूटी को पहचान नहीं पाये अतः पूरा  द्रोणागिरी पर्वत ही रण-भूमि में उठा लाये जिससे लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा हो सकी। भावुक होकर श्रीराम ने हनुमान को ह्रदय से लगा लिया और बोले कि हनुमान तुम मुझे भ्राता भरत की भांति ही प्रिय हो।

-----> अहिरावण तंत्र का ज्ञाता और मायावी था। उसने राम और लछमण का सोते समय हरण कर लिया और उन्हें पाताल-लोक में ले गया। उनकी खोज में हनुमान भी पाताल लोक पहुँच गये। मुख्यद्वार पर उन्हें मकरध्वज पहरा देता मिला उसका आधा शरीर मछली का और आधा शरीर वानर का था। लँका  दहन के पश्चात जब हनुमान पूँछ में लगी आग को बुझाने समुद्र में गये तो उनके पसीने की बूँद समुद्र में गिर गई। उस बूँद को एक मछली ने निगल लिया और वो गर्भवती हो गई। जब उस मछली को पकड़कर अहिरावण की रसोई में लाया तो उसके पेट में से जीवित बचे उस विचित्र प्राणी को निकाला गया। अहिरावण ने उसे पाल-पोस कर बड़ा किया और उसे पातालपुरी के द्वार का रक्षक बना दिया। हनुमान महाराज इन सभी बातों से अनिभिज्ञ थे। यद्यपि मकरध्वज को पता था कि हनुमान जी महाराज उसके पिता हैं, फिर भी वो उन्हें पहचान नहीं पाया क्योंकि उसने पहले कभी उन्हें देखा नहीं था।

जब हनुमान ने अपना परिचय दिया तो वो जान गया कि ये मेरे पिता हैं मगर फिर भी उसने हनुमान के साथ युद्ध करने का निश्चय किया क्योंकि पातालपुरि के द्वार की रक्षा करना उसका प्रथम कर्तव्य था। हनुमान जी ने बड़ी आसानी से उसे अपने आधीन कर लिया और पातालपुरी के मुख्यद्वार पर बाँध दिया।

पातालपुरी में प्रवेश करने के पश्चात हनुमान ने पता लगा लिया कि अहिरावण का वध करने के लिये उन्हे पाँच दीपकों को एक साथ बुझाना पड़ेगा। अतः उन्होंने पन्चमुखी रूप  (श्री वराह, श्री नरसिम्हा, श्री गरुड़, श्री हयग्रिव और स्वयं) ग्रहण किया किया उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की तरफ हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख।  इस रूप को धरकर उन्होंने वे पांचों दीप बुझाए तथा अहिरावण का वध कर राम,लक्ष्मण को उस से मुक्त किया।

इसी प्रसंग में हमें एक दूसरी कथा भी मिलती है कि जब मरियल नाम का दानव भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र चुराता है और यह बात जब हनुमान को पता लगती है तो वह संकल्प लेते हैं कि वे चक्र पुनः प्राप्त कर भगवान विष्णु को सौप देंगे।

मरियल दानव इच्छानुसार रूप बदलने में माहिर था अत: विष्णु भगवान ने हनुमानजी को आशीर्वाद दिया, साथ ही इच्छानुसार वायुगमन की शक्ति के साथ गरुड़-मुख, भय उत्पन्न करने वाला नरसिंह-मुख, हयग्रीव मुख ज्ञान प्राप्त करने के लिए तथा वराह मुख सुख व समृद्धि के लिए था। पार्वती जी ने उन्हें कमल पुष्प एवं यम-धर्मराज ने उन्हें पाश नामक अस्त्र प्रदान किया। आशीर्वाद एवं इन सबकी शक्तियों के साथ हनुमान जी मरियल पर विजय प्राप्त करने में सफल रहे। तभी से उनके पंचमुखी स्वरूप को भी मान्यता प्राप्त हुई।  

पूर्वंतु वानरं वक्त्रं कोटिसूर्यसमप्रभम्‌ ।
दंष्ट्राकरालवदनं भृकुटीकुटिलेक्षणम्‌ ॥
अस्यैव दक्षिणं वक्त्रं नारसिंहं महाद्भुतम्‌ ।
अत्युग्रतेजोवपुषं भीषणं भयनाशनम्‌ ॥
पश्चिमं गारुडं वक्त्रं वक्रतुंडं महाबलम्‌॥
सर्वनागप्रशमनं विषभूतादिकृन्तनम्‌ ॥
उत्तरं सौकरं वक्त्रं कृष्णं दीप्तं नभोपमम्‌ ।
पातालसिंहवेतालज्वररोगादिकृन्तनम्‌ ॥
ऊर्ध्वं हयाननं घोरं दानवांतकरं परम ।
येन वक्त्रेण विप्रेंद्र तारकाख्यं महासुरम्‌ ॥
जघान शरणं तत्स्यात्सर्वशत्रुहरं परम्‌ ।
ध्यात्वा पंचमुखं रुद्रं हनुमन्तं दयानिधिम्‌ ॥

अयोध्या में राज्याभिषेक होने के बाद प्रभु श्रीराम ने उन सभी को सम्मानित करने किया , जिन्होंने लँका युद्ध में रावण को पराजित करने में उनकी सहायता की थी। उनकी सभा में एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया जिसमें पूरी वानर सेना को उपहार देकर सम्मानित किया गया। हनुमान को भी उपहार लेने के लिये बुलाया गया, हनुमान मंच पर गये मगर उन्हें उपहार की कोई जिज्ञासा नहीं थी। हनुमान को ऊपर आता देखकर भावना से अभिप्लुत श्रीराम ने उन्हें गले लगा लिया और कहा कि हनुमान ने अपनी निश्छल सेवा और पराक्रम से जो योगदान दिया है, उसके बदले में ऐसा कोई उपहार नहीं है जो उनको दिया जा सके। मगर अनुराग स्वरूप माता सीता ने अपना एक मोतियों का हार उन्हें भेंट किया। उपहार लेने के उपरांत हनुमान माला के एक-एक मोती को तोड़कर देखने लगे।  यह देखकर सभा में उपस्थित सदस्यों ने उनसे इसका कारण पूछा तो हनुमान ने कहा कि वो ये देख रहे हैं मोतियों के अन्दर उनके प्रभु श्री राम और माता सीता हैं कि नहीं, क्योंकि यदि वो इनमें नहीं हैं, तो इस हार का उनके लिये कोई मूल्य नहीं है। यह सुनकर कुछ लोगों ने कहा कि हनुमान के ह्रदय में भी प्रभु श्री राम और माता सीता है ?  हनुमान जी ने तुरंत अपनी छाती चीर के लोगों को दिखाई और ह्रदय में प्रभु श्री राम और माता सीता की अलौकिक छवि विद्यमान थी................... राम

परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥
देहु भगति रघुपति अति पावनि।
त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि॥
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु।
होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥
---> अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥

----------->   श्रीराम ह्रदयम् - श्रीमहादेव उवाच
 ततो रामः स्वयं प्राह हनूमंत मुपस्थितम्।
श्रृणु तत्त्वं प्रवक्ष्यामि ह्यात्मानात्मपरात्मनाम्॥

श्री महादेव कहते हैं: तब श्री राम ने अपने पास खड़े हुए श्री हनुमान से स्वयं कहा, मैं तुम्हें आत्मा, अनात्मा और  परमात्मा का तत्त्व बताता हूँ, तुम ध्यान से सुनो।

आकाशस्य यथा भेद-स्त्रिविधो दृश्यते महान्।
जलाशये महाकाशस्-तदवच्छिन्न एव हि॥

विस्तृत आकाश के तीन भेद दिखाई देते हैं : एक महाकाश, दूसरा जलाशय में जलावच्छिन्न ( जल से घिरा हुआ सा ) आकाश।

प्रतिबिंबाख्यमपरं दृश्यते त्रिविधं नभः।
बुद्ध्यवचिन्न चैतन्यमे-कं पूर्णमथापरम्॥

और तीसरा (महाकाश का जल में) प्रतिबिम्बाकाश। उसी प्रकार चेतन भी तीन प्रकार का होता है: एक बुद्ध्यवच्छिन्न चेतन (बुद्धि से परिमित हुआ सा), दूसरा जो सर्वत्र परिपूर्ण है।
 
आभासस्त्वपरं बिंबभूत-मेवं त्रिधा चितिः।
साभासबुद्धेः कर्तृत्वम-विच्छिन्नेविकारिणि॥

और तीसरा आभास चेतन जो बुद्धि में प्रतिबिंबित होता है। कर्तृत्व आभास चेतन के सहित बुद्धि में होता है अर्थात् आभास चेतन की प्रेरणा से ही बुद्धि सब कार्य करती है।

साक्षिण्यारोप्यते भ्रांत्या जीवत्वं च तथाऽबुधैः।
आभासस्तु मृषाबुद्धिः अविद्याकार्यमुच्यते॥

किन्तु भ्रान्ति के कारण अज्ञानी लोग साक्षी आत्मा में कर्तृत्व और जीवत्व का आरोप करते हैं अर्थात् उसे ही कर्ता और भोक्ता मान लेते हैं। आभास तो मिथ्या है और बुद्धि अविद्या का कार्य है।

अविच्छिन्नं तु तद् ब्रह्म विच्छेदस्तु विकल्पितः।
 विच्छिन्नस्य पूर्णेन एकत्वं प्रतिपाद्यते॥

वह ब्रह्म विच्छेद रहित है और विकल्प (-भ्रम) से ही उसके विभाजन (-विच्छेद) माने जाते हैं। इस प्रकार विच्छिन्न (-आत्मा) और पूर्ण चेतन (-परमात्मा) के एकत्व का प्रतिपादन किया गया।

तत्त्वमस्यादिवाक्यैश्‍च साभासस्याहमस्तथा।
ऐक्यज्ञानं यदोत्पन्नं महावाक्येन चात्मनोः॥

तत्त्वमसि (-तुम वह आत्मा हो) आदि वाक्यों द्वारा  अहम् रूपी आभास चेतन की आत्मा (-बुद्ध्यवच्छिन्न चेतन) के साथ एकता बताई जाती है। जब महावाक्य द्वारा एकत्व का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है।
 
तदाऽविद्या स्वकार्येश्चनश्यत्येव न संशयः।
एतद्विज्ञाय मद्भावा-योपपद्यते॥

तो अविद्या अपने कार्यों सहित नष्ट हो जाती है, इसमें संशय नहीं है। इसको जान कर मेरा भक्त, मेरे भाव (-स्वरुप) को प्राप्त हो जाता है।

मद्भक्‍तिविमुखानां हि शास्त्रगर्तेषु मुह्यताम्।
न ज्ञानं न च मोक्षः स्यात्तेषां जन्मशतैरपि॥

मेरी भक्ति से विमुख जो लोग शास्त्र रूपी गड्ढे में मोहित हुए पड़े रहते हैं, उन्हें सौ जन्मों में भी न ज्ञान प्राप्त होता है और न मुक्ति ही।

इदं रहस्यं ह्रदयं ममात्मनो मयैव साक्षात्-कथितं तवानघ।
मद्भक्तिहीनाय शठाय च त्वया दातव्यमैन्द्रादपि राज्यतोऽधिकम्॥
हे निष्पाप हनुमान! यह रहस्य मेरी आत्मा का भी हृदय है और यह साक्षात् मेरे द्वारा ही तुम्हें सुनाया गया है। यदि तुम्हें इंद्र के राज्य से भी अधिक संपत्ति मिले तो भी मेरी भक्ति से रहित किसी दुष्ट को इसे मत सुनाना।
इति श्रीमदध्यात्मरामायण-बालकांडोक्तं श्रीरामह्रदयं संपूर्णम्।

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