कृषि कानूनों की वापसी kisan-kanun-wapsi भी पीएम मोदी की महानता - अरविन्द सिसौदिया
कृषि कानूनों की वापसी भी पीएम मोदी की महानता - अरविन्द सिसोदिया
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ा हृदय रखते हुए कृषि कानूनों की वापसी की है । यह वापसी कल्पना से परे है। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि कृषि कानून वापस हो जायेंगें। क्यों कि यदि कोई कानून वापस होता है तो फिर एक सिलसिला चल पडता है। विपक्ष ना जरूरी मांगों के द्वारा सरकार को दबाव में लेने लगता है।
इस आंदोलन में पंजाब , कुछ हरियाणा और कुछ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ही लोग सम्मिलित थे। वे मूलतः किसान कम और समाज विशेष के लोग ज्यादा थे। कांग्रेस सहित कुछ दल विशेष उसमें आग लगाने में पूरी ताकत लगाये हुये थे किन्तु आन्दोलन से अन्य प्रदेश जुड ही नहीं पा रहे थे। यह आन्दोलन भी पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के चुनावों के लिये खडा किया गया था। जब पंजाब की राजनीति में कांग्रेस ने नवजोत सिंह सिद्धू की ताजपोशी तब ही से यह आन्दोलन पंजाब में मरने लगा था। क्यों कि आन्दोलन को ताकत देनें वाली ताकतें दो भागों में बंट गईं थीं। उत्तरप्रदेश में कांग्रेस से सपा ने गठबंधन करने से मना कर दिया तब से यह आन्दोलन यूपी में भी कमजोर हो गया था। किन्तु इसके बाद भी कृषि कानूनों की वापसी इसलिये हुई कि विदेशी ताकतें और देश विरोधी ताकतें इस आन्दोलन का बेजा फायदा उठा रहे थे। वे देश में अराजकता फैलाना चाहते थे। प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा की किसान हित प्रतिबद्धता को सर्वोच्च रखते हुये । बउे दिल का परिचय देते हुए किसान कानून वापस लेकर महानता का परिचय दिया है। वे सच्चे देश हित चिन्तक है।
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लेख लम्बा है पर सबकी आंखें खोल दे ऐसा है- -(साभार)
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मोदी के फैसले से बुरी तरह हिला कृषि कानूनों पर राजनीति चमकाने की तैयारी कर रहा विपक्ष -
कथित जिद के भरोसे उम्मीद से थे 'आंदोलनजीवी'-
विपक्ष निश्चिंत था कि मोदी यू-टर्न ले ही नहीं सकते- मोदी अहंकारी हैं, तानाशाह हैं, ऐसा मानने वाले 'आंदोलनजीवी' मोदी की कथित जिद के भरोसे उम्मीद से थे- आंदोलन को राजनीति से दूर रखने, मंच से नेताओं को उतारने वाला राकेश टिकैत उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को हराने की जैसे सौगंध खा चुका था- इसलिये आंदोलन में किसानों की मौत पर राजनीति चमकाने की तैयारी कर रहा, विपक्ष नरेंद्र मोदी के फैसले से बुरी तरह हिल चुका है-
पर जश्न की जलेबी में चाशनी किसकी-?
कल तक देश में तानाशाही की बात करने वाले अब थूंक चाटने में भी शर्म नहीं कर रहे,अब किसान कानूनों की वापसी को अब लोकशाही की जीत बताने लगे,
पर जीत क्या संयुक्त किसान मोर्चा की हुयी है-?
लोकतांत्रिक व्यवस्था की इस जीत का जश्न अगर टीकरी और गाजीपुर बॉर्डर में जलेबी बांट कर मनाया जा रहा है, तो इसे याद रखना होगा कि इसकी चाशनी देश के लोकतांत्रिक प्रधान सेवक ने ही तैयार की है- नरेंद्र मोदी राष्ट्रहित में निडर फैसले लेते आये हैं- किसान कानून निरस्त कर उन्होंने इसी सूची को आगे बढ़ाया है- 358 दिनों तक किसान कानूनों का समर्थन कर रहे भाजपा नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थक किसानों को पीएम के फैसले ने असहज भले कर दिया हो, मोदी चाहते तो एक ट्वीट से या कृषि मंत्री को आगे बढ़ा यह ऐलान कर सकते थे, लेकिन उन्होंने यह जिम्मेदारी खुद निभाई- सरकार की नीयत को दिल खोलकर सामने रखा-
"मैं आज देशवासियों से क्षमा मांगते हुये सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि- शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रही होगी जिसके कारण दीये के प्रकाश जैसा सत्य कुछ किसान भाइयों को हम समझा नहीं पाये- आज गुरु नानक देव जी का पवित्र प्रकाश पर्व है- यह समय किसी को भी दोष देने का नहीं है- आज मैं आपको, पूरे देश को यह बताने आया हूं कि- हमने तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया है- इस महीने के अंत में शुरू होने जा रहे संसद सत्र में हम तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की संवैधानिक प्रक्रिया पूरी करेंगे-" मोदी चाहते तो कानून को लेकर पांच एकड़ से ज्यादा जोत वाले किसानों के मन की आशंकाओं को दूर करने के लिये कोई और बड़ा फैसला कर सकते थे, लेकिन उन्होंने किसान कानून पर राजनीति की गुंजाइश ही खत्म कर दी-
किसका टूटा अभिमान, हमेशा जीता किसान-
आखिर कौन सी सरकार खेती पर जी रहे 65 प्रतिशत आबादी का अहित कर सत्ता पर काबिज रह सकती है-?
लेकिन इन कानूनों पर गुमराह की खेती कर रहे नेताओं ने मोदी सरकार के खिलाफ इसी तरह का माहौल बनाने की कोशिश की, पर राजनीति के उस्ताद ने इस पर पानी फेर दिया- अब जरा कुछ आंकड़ों पर गौर फरमाएयें।
- 1960 के दशक में देश की जीडीपी में कृषि का हिस्सा 45 प्रतिशत होता था, धीरे-धीरे यह घटता चला गया, प्रक्रिया स्वाभाविक थी क्योंकि शहरीकरण, मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर पर फोकस के बाद यह होना ही था, जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी 2003-2004 के बाद 17 से 19 प्रतिशत के बीच रह गयी, पिछले 17 साल में पहली बार देश की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत हुई है- यह 2020-21 का आंकड़ा है- यह किसने किया-?
पीएम किसान सम्मान निधि देने वाली इसी सरकार ने ही ना-इस सुधार के लागू ना होने से- हो सकता है अगले साल तक आमदनी दोगुनी ना हो, लेकिन लक्ष्य की तरफ मोदी सरकार ने कदम जरूर बढ़ाये हैं-किसान हित की 20 के करीब योजनायें आज चल रही हैं-इसलिये असल में विपक्ष व डकैत का टूटा है अभिमान - इसलिये मोदी का टूट गया अभिमान,जीत गया किसान.. जैसे नारों से विपक्ष को कोई फायदा मिलने की गुंजाइश कम है- मेहनतकश अन्नदाता न कभी हारा है, न हारेगा-
मोदी ने क्षमा मांग कर अपना व देश का सीना और चौड़ा कर लिया है-
मोदी ने क्षमा मांगी है-
उस फैसले के लिये जिसका विरोध हो रहा था, इससे सीने की चौड़ाई घटती नहीं है-बढती है , चौकीदार चोर है.. बोल कर बिना शर्त माफी मांगने पर मजबूर हुये राहुल गांधी को यह समझना चाहिये जिनकी पार्टी लगभग 70 साल तक सत्ता में रही, इस दौरान किसानों ने अकाल भी झेला और इमरजेंसी भी- इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस ने कुछ किया नहीं- हरित क्रांति भी हुई और दूध की गंगा भी बही- पर भविष्य के लिये क्या कार्यक्रम था-? मनमोहन सिंह भी कानूनों के विरोध के अलावा क्या योजना दे पाये, प्रधान विपक्षी पार्टी के नेता के पास कोई वैकल्पिक कार्यक्रम नहीं है- मनमोहन सिंह दो बार पीएम रहे-तब भी किसान और पिछड़ते रहे- अटल बिहारी वाजपेयी ने किसान क्रेडिट कार्ड और एग्री मार्केटिंग में जो सुधार किया उसे आगे बढ़ाने का काम मोदी ही कर रहे हैं, जिस स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र बार-बार होता है वह भी दरअसल वाजपेयी की ही देन है- 2004 में ही सोमपाल शास्त्री की अगुआई में किसान आयोग का गठन हुआ था- पार्टी हार गयी और यूपीए ने स्वामीनाथन को यह काम सौंप दिया था-
कब दबाई आवाज, हर बार सुनी बात-
किसान आंदोलन के सहारे नरेंद्र मोदी की छवि ऐसे बेरुखे नेता के तौर पर पेश की गयी जो किसानों की नहीं सुनता हो, विपक्ष ने नरेंद्र मोदी के मजबूत व्यक्तित्व को ही कमजोरी साबित करने की कोशिश की, अलबत्ता यह भुलाकर कि किसान कानूनों पर 10 दौर की बातचीत हुई थी, कानूनों को सस्पेंड करने तक का फैसला किया गया- और यह पहला मौका नहीं है जब मोदी ने रिफॉर्म की राह पर ब्रेक लगाकर किसानों की आवाज सुनी है- भूमि अधिग्रहण कानून के साथ भी यही हुआ था, 2013 में कांग्रेस के बनाये इस कानून में मोदी सरकार ने नौ बदलाव किये और 2015 में अध्यादेश जारी कर दिया- जमीन अधिग्रहण में किसानों की सहमति वाले बिंदु पर जबर्दस्त विरोध हुआ- मामला संसद की संयुक्त समिति के पास पहुंचा, हालांकि प्रधानमंत्री ने किसानों के हित में अध्यादेश को लैप्स होने दिया-
यही नहीं, इस देश में 62 विधेयक वापस लिये जा चुके हैं, छह संविधान संशोधन विधेयकों को सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुका है- नेशनल ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एक्ट छोड़ दें तो बाकी पांच की कहानी कांग्रेस काल की ही है- सिलसिला तो नेहरू की जिद से ही शुरू हुआ था जब राजेंद्र प्रसाद और हिंदू संगठनों के विरोध के बावजूद हिंदू कोड बिल लाया गया- कम्युनिस्टों की हत्या और नेहरू की नीतियों के खिलाफ जब क्रॉस रोड्स और ऑर्गेनाइजर ने लेख लिखना शुरू किया तो भाषण और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार वाले अनुच्छेद 19 में ही संशोधन कर दिया गया था,वह थी तानाशाही ,आवाज दबाने की इस कोशिश पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संसद में कहा था, "हो सकता है आप अनंत काल तक पीएम रहें, अगली पीढ़ियों तक आपकी छाप रहे, अजन्मी पीढ़ियों तक आपका वजूद रहे, लेकिन अगर कोई दूसरी पार्टी सत्ता में आती है तो सोचिये.. आप उसके लिये क्या मिसाल छोड़ कर जा रहे हैं-"
यूपी के लड़कों…. हार का डर होता तो योगी सीएम नहीं होते-
कानून वापसी के ऐलान के बाद से ही यह रट सुनाई दे रही है- पांच राज्यों में चुनाव है- हार के डर से कानून वापस हुआ है- अरे भाई हार कर भी जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं- भाजपा के वरिष्ठ नेता और प्रधान सेवक दोनों की ड्यूटी मोदी बखूबी निभाते हैं, हरक्यूलस की चाल से आप नहीं चलेंगे तो विजय रथ सिर्फ नाम भर का साबित होगा- इसके बावजूद हार के डर से अगर फैसला लेना होता तो आज उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री नहीं होते- पूछेंगे कैसे-? तो 2017 के चुनाव से ठीक पहले मोदी ने नोटबंदी का ऐलान किया था- किसानों की मौत पर राजनीति करने वाले तब भी एटीएम की लाइन में हुयी कुछ लोगों की मौत से जीत का सपना देख रहे थे- क्या हुआ-? यूपी के लड़के बुरी तरह हार गये- गुजरात चुनाव से पहले वह कानून लागू हुवा जिसे राहुल गांधी गब्बर सिंह टैक्स (जीएसटी) कहता हैं- भाजपा जीत गयी, यहां तक कि किसान कानून बनने के बाद भी भाजपा ने बिहार और असम में जीत हासिल की, बंगाल में 3 से 85 का आंकड़ा टच कर लिया-
तालिबान स्टाइल मर्डर, दिल्ली की आग, खालिस्तानी झंडा .. बहुत कुछ याद रहेंगे-
कानून वापसी के बाद अगर Article 370 और CAA ट्रेंड कर रहा है तो इसका जिम्मेदार कौन है-? पीढ़ियों ने जिसका इंतज़ार किया उन ऐतिहासिक बदलावों पर किसान कानून की वापसी की आड़ में बहस छेड़ने की क्या जरूरत है-? महबूबा मुफ्ती और असदुद्दीन ओवैसी के एजेंडे को किसका समर्थन मिल रहा है- यह वही तत्व हैं जो 700 किसानों की दुखद मौत को तो याद रखना चाहते हैं, लेकिन आंदोलन की आड़ में हुयी बर्बरता और सरकार के खिलाफ साजिशों को भुला देना चाहते हैं- निहंगों ने जिस तरह सिंघू बॉर्डर पर दलित सिख के हाथ काट दिये और पुलिस के बैरिकेड से लटका दिया.. उस घटना को कितने दिन बीते हैं-? 26 जनवरी भी भूल गये क्या, जब आंदोलन की आड़ में छिपे दंगाइयों ने दिल्ली जलाने की कोशिश की- क्या हम भिंडरावाले की टी-शर्ट को न्यू नॉर्मल मानकर आगे बढ़ेंगे- मोदी ने इस पर ब्रेक लगा दिया है-
अंत में आपको दो महान व्यक्तित्व के दो ऐतिहासिक कथनों से सारिका करवाने ले चलते हैं-
ब्रिटेन के पीएम रहे बेंजामिन डिजरायली ने कहा था –
I must follow the people. Am I not their leader-?
मुझे लोगों के मुताबिक चलना चाहिये- क्या मैं उनका नेता नहीं हूं-?
अब अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन को पढ़िये –
"Leadership does not always wear the harness of compromise"
नेतृत्व कौशल हमेशा समझौते की ढाल नहीं ओढ़ता.
नरेंद्र मोदी ने बीच का रास्ता चुना है-
"जय जय मां भारती"
*साभार-एजेंसियां*
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