राम राज्य जैसे सुशासन की अपेक्षा सभी जमीनी स्तर पर है - अरविंद सिसोदियाgood-governance
राम राज्य जैसे सुशासन की अपेक्षा सभी जमीनी स्तरों पर है - अरविंद सिसोदिया
हम हजारों सालों से अपने राम राज्य के लिए प्रयत्नशील रहे है। देश को 1947 में वास्तविक स्वतंत्रता मिली ही नहीं बल्कि एक सशर्त सत्ता हस्तांतरण हुआ था । जिसका लाभ मुस्लिम लीग को पाकिस्तान के रूप में हुआ। भारत को ब्रिटिश हितों से आबद्ध किया गया था। जवाहरलाल और जिन्ना ब्रिटिश हुकूमत की पशंद थे। उन्हे सत्ता किसी आन्दोलन से नहीं बल्कि ब्रिटिश हुकूमत की कृपा से मिली थी।
कथित स्वतंत्रता के बाद लम्बे समय तक कांग्रेस ही सत्ता में रही जिसने जनता को मात्र वोट देने वाले रिमोट की तरह इस्तेमाल किया। कांग्रेस की श्रीमती इन्दिरा गांधी एवं उनकी सरकार ने आपातकाल के दौरान जानवरों जैसा सलूक भारत की जनता से नहीं किया होता तो कांग्रेस तो जमी ही रहती।
अगर किसी केन्द्र सरकार के द्वारा जनता के हितों के लिए जमीनी स्तर पर काफी प्रयास करना प्रारम्भ हुआ तो वह अटल बिहारी वाजपेई जी की सरकार से प्रारम्भ हुआ और उन्हाने देश को सभी मोर्चों पर वास्तविक स्वतंत्रता दी और विकास का कमाल कर दिखाया और इसी कारण वर्तमान सरकार अर्थात नरेंद्र मोदी सरकार उनके जन्मदिन को सुशासन दिवस घोषित किया एवं प्रतिवर्ष सुशासन दिवस के रूप में रूप में मनाते हैं ।
यह तो ठीक है कि सुशासन दिवस के रूप में यह दिन मनाया जाना प्रारंभ हो गया लेकिन दूसरी तरफ यह आवश्यकता राज्य स्तर पर, निकाय स्तर पर, ग्रामीण स्तर, पर कुल मिलाकर जमीनी स्तर पर सुशासन के रूप में देखने को मिलनी चाहिये।
राजस्थान की वर्तमान सरकार का जो चेहरा सामने आ रहा है जो निरंतर आपराधिक घटनाएं सामने आ रहीं हैं और जिस तरह से भ्रष्टाचार में लोग पकड़े जा रहे हैं, इससे कहीं दूर दूर तक भी सुशासन दिख नहीं रहा है सवाल यह नहीं है यह सरकार कांग्रेस की है या आने वाली सरकार बीजेपी की या गई सरकार बीजेपी की या उससे पहले की सरकार का क्या था..... असली सवाल यह है कि सरकारें बदलती रहें , यह एक संवैधानिक व्यवस्था है । लेकिन प्रशासन तंत्र बदलता नहीं है वही रहता है । उसमें लीड करने वाले लोग आईएएस आईपीएस और आरएएस जैसे बड़े बड़े अधिकारी होते हैं । सवाल यह है कितने अधिकारी कर्मचारियों की रीढ़ की हड्डी होती है। यह क्यों नहीं होती !! ये लोग कानून और व्यवस्था के लिए जवाबदेह है। इन्हे तनखाह और नियुक्ति इसी बात के लिये है। फिर ये वर्ग खरा क्यों नहीं उतरता ?
जब प्रशासन के अधिकारी संवैधानिक कर्तव्यों को छोड कर, राजनीतिक दल गत दृष्टि से झुकते और उनकी असंवैधानिक मनोकामना पूर्ती करते है। इससे कुशासन आता है। प्रशासन तंत्र की अपनी रीढ होनी चाहिये। उनमें स्वाभिमान और कर्तव्य भाव होना चाहिये। गुलामी की प्रवृति से पूरी तरह परे होना चाहिये। जब न्यायपालिका पॉलिटिकल दबाव से मुक्त है तो प्रशासनिक तंत्र भी इस दबाव से मुक्त रह सकता है। इसके बगैहर न्याय एवं निष्पक्षता कैसे संभव है। ज्यादातर प्रशासनतंत्र से जुडे व्यक्ति राजनेताओं के आजू बाजू तलाशते है। सवाल यही है कि प्रशासन तंत्र में अगर प्रशासक की तरह खड़ा नहीं रहेगा, आगे पीछे इधर-उधर देखने वाला होगा ! तो वह कानून और व्यवस्था को व्यवस्थित कभी नहीं कर पाएगा। जब कानून व्यवस्था व्यवस्थित नहीं होगी, तो सुशासन का विषय समाप्त हो जाता है। सुशासन के लिए यह सर्वोच्च है यह दृढ़ संकल्प हो कर, नियम विरूद्धता को दृढता से दण्डित करे और राजनैतिक दबाव से मुक्त न्यायपूर्ण व्यवस्था कायम करें। राजनीति सिर्फ तबादले से ज्यादा कुछ भी नहीं कर सकती।
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राम राज्य और राजा के कर्त्तव्य
हिन्दू ग्रन्थों में रामराज्य
रामचरितमानस में तुलसीदासजी ने रामराज्य पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया, सारे भय–शोक दूर हो गए एवं दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिल गई। कोई भी अल्पमृत्यु, रोग–पीड़ा से ग्रस्त नहीं था, सभी स्वस्थ, बुद्धिमान, साक्षर, गुणज्ञ, ज्ञानी तथा कृतज्ञ थे।
राम राज बैठे त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका।।
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।
राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं।
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं।।
(रा•च•मा• 7। 20। 7–8; 21। 1¸ 5–6¸ 8; 21)
वाल्मीकि रामायण में भरत जी रामराज्य के विलक्षण प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहते हैं, "राघव! आपके राज्य पर अभिषिक्त हुए एक मास से अधिक समय हो गया। तब से सभी लोग निरोग दिखाई देते हैं। बूढ़े प्राणियों के पास भी मृत्यु नहीं फटकती है। स्त्रियां बिना कष्ट के प्रसव करती हैं। सभी मनुष्यों के शरीर हृष्ट–पुष्ट दिखाई देते हैं। राजन! पुरवासियों में बड़ा हर्ष छा रहा है। मेघ अमृत के समान जल गिराते हुए समय पर वर्षा करते हैं। हवा ऐसी चलती है कि इसका स्पर्श शीतल एवं सुखद जान पड़ता है। राजन नगर तथा जनपद के लोग इस पुरी में कहते हैं कि हमारे लिए चिरकाल तक ऐसे ही प्रभावशाली राजा रहें।"
आज, जब राष्ट्र बहुत गहरी असमानता से जूझ रहा है, हिंदू राज्य का निर्माण कर उसे राम राज्य का नाम देने से वह राम राज्य नहीं बन जाएगा। लेकिन, भगवान राम के सिद्धांतों और निष्पक्ष और न्यायपूर्ण शासन के उनके तरीकों को मानने से जरूर पूरा देश राम राज्य बन सकता है.
उनके लिए जो राम राज्य के बारे में नहीं जानते
वाल्मीकि रामायण में भगवान राम के अभिषेक के बाद युद्ध कांड में राम राज्य का वर्णन है:
न पर्यदेवन्विधवा न च व्यालकृतं भयम् |
न व्याधिजं भयन् वापि रामे राज्यं प्रशासति ||
निर्दस्युरभवल्लोको नानर्थः कन् चिदस्पृशत् |
न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते ||
सर्वं मुदितमेवासीत्सर्वो धर्मपरोअभवत् |
राममेवानुपश्यन्तो नाभ्यहिन्सन्परस्परम् ||
आसन्वर्षसहस्राणि तथा पुत्रसहस्रिणः |
निरामया विशोकाश्च रामे राज्यं प्रशासति ||
रामो रामो राम इति प्रजानामभवन् कथाः |
रामभूतं जगाभूद्रामे राज्यं प्रशासति ||
नित्यपुष्पा नित्यफलास्तरवः स्कन्धविस्तृताः |
कालवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शश्च मारुतः ||
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा लोभविवर्जिताः |
स्वकर्मसु प्रवर्तन्ते तुष्ठाः स्वैरेव कर्मभिः ||
आसन् प्रजा धर्मपरा रामे शासति नानृताः |
सर्वे लक्षणसम्पन्नाः सर्वे धर्मपरायणाः ||
दशवर्षसहस्राणि रामो राज्यमकारयत् |
अनुवाद
जब राम शासन कर रहे थे, तो दुख में डूबी कोई विधवा नहीं थी, न ही जंगली जानवरों से कोई खतरा था, न किसी का बीमारी का डर। संसार चोरी और लूट से बचा हुआ था। किसी को निरर्थकता का एहसास नहीं था और वृद्ध लोगों को युवाओं का अंतिम संस्कार नहीं करना पड़ा। हर प्राणी सुखी था। सभी सदाचार में विश्वास करते थे। सिर्फ राम को देखकर ही प्राणी हिंसक प्रवृतियां छोड़ देते थे। जब राम शासन कर रहे थे, लोग अपने हजारों वंशजों के साथ हजार सालों तक जीवित रहे, किसी को कोई बीमारी और दुख नहीं था। जब राम ने शासन किया, तो लोगों की बातचीत राम पर ही केन्द्रित थी, राम और सिर्फ राम। संसार राम का संसार हो गया था। बिना कीड़े-मकौड़ों के पेड़ों पर फूल और फल लगातार लगे रहते थे। समय पर बरसात होती थी और हवाएं मन को प्रसन्न कर देती थी। ब्राह्म्ण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर रहे थे। वे अपने काम से खुश थे और उनके मन में कोई लालच नहीं था। जब राम शासन कर रहे थे, लोग सदाचार में विश्वास करते थे और बिना झूठ बोले जी रहे थे। सारे लोगों का चरित्र बहुत अच्छा था। सभी लोग परोपकार के काम में लगे हुए थे। राम दस हजारों सालों तक राज-काज के काम में लगे रहे।
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राम राज्य केवल शब्द संकल्पना नहीं है, एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था है
राजनीति के मूल अर्थ होतें है राज्य को सुचारु और लोक कल्याण की दिशा में ले जाना और धर्म अर्थात अपने-अपने कर्त्तव्य, राज्य के प्रति कर्त्तव्य, समाज के प्रति कर्त्तव्य, प्रजा के प्रति कर्त्तव्य को धर्म की भांति धारण करना. राम ने राज्य किया तो मर्यादा में रह कर किया, और राजा बनें तो अतीव विनम्र और लोकाज्ञाकारी बनकर.
- रवि प्रकाश
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अब, जबकि पूरे विश्व के समग्र हिन्दुओं की आस्था और भावना के प्रतीक भगवान श्रीराम के मंदिर के निर्माण की प्रक्रिया अयोध्या में आरम्भ हो चुकी है, तब यह आकांक्षा उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि इसी के साथ भारत में राम राज्य की स्थापना का सूत्रपात भी होना ही चाहिए. कुछ लोगों को छोड़ दिया जाए तो देश में हर कोई राम राज्य की संकल्पना का स्वागत करेगा. इस संकल्पना को साकार करने से देश में न केवल एक नया वातावरण निर्मित होगा, वरन करोड़ों देशवासियों के मन में आत्मविश्वास का नया संचार भी होगा. आखिर कुछ तो बात होगी राम राज्य में कि महात्मा गाँधी ने भी अपनी प्रार्थना की प्रारम्भिक पंक्ति के लिए “रघुपति राघव राजा राम….” को चुना था.
भारत में राम राज्य की संकल्पना कोई नयी चीज नहीं है. सदियों से इस देश के लोग राम राज्य के सुखदाई सपने के साथ जी रहे हैं. राजनैतिक रूप से भी महात्मा गांधी ने भारत के सामाजिक ताने-बाने के लिए राम राज्य की कल्पना की थी. अलग-अलग देवी-देवताओं के प्रति आस्थावान भारतीय समाज में एक श्रीराम ही तो हैं, जो भारत के साथ-साथ विश्व के विभिन्न भागों में नाना रूपों और नाना विधियों से पूजे जाते हैं. तो यह सही समय है, जब भारत में राम राज्य की स्थापना के लिए उचित वातावरण तैयार किया जाए.
राम राज्य का तात्पर्य क्या है? राम राज्य कोई शब्द नहीं है. यह एक सामाजिक व्यवस्था है. त्याग और समर्पण के बिना राम राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है. अनेक शब्दों को मिलाकर एक शब्द राम राज्य बनता है. राम राज्य केवल शब्द नहीं, बल्कि एक व्यवस्था का रूपक है. जिसमें सत्यता, आकांक्षा, लोक भावनाएं, शांति समाहित होती है. सत्यता एवं विश्वसनीयता अर्थात् जो वायदा किया जाए, वचन दिया जाए, उसका पूर्ण रूपेण पालन करना. प्रजा की इच्छा जानना, जिसके लिए वे अपने गुप्तचरों को ही नहीं अपने सभासदों को भेजते थे ताकि वे अपनी प्रजा की इच्छाओं को जानें, या राजा के कार्यों की निंदा करते हों तो उन कारणों को समझें. लोक भावनाओं के अनुसार शासन का संचालन करना. आतंकवाद का यथा शीघ्र सफाया करना, तब आएगा राम राज्य. “दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, राम राज्य काहू नहीं व्यापा.” अर्थात राम राज्य में लोगों को दैहिक (रोग), दैविक (प्राकृतिक आपदाएं) तथा भौतिक (इच्छाओं की पूर्ति सम्बन्धी) कोई कष्ट नहीं होते थे.
ऐसा नहीं है कि गांधीजी के समय में राम राज्य शब्द के प्रति भ्रांतियां नहीं थीं. कई मौकों पर खुद उन्हें इस पर स्पष्टीकरण देना पड़ा था. इसलिए विभिन्न अवसरों पर उनके रामराज्य संबंधी वक्तव्यों का पुनर्पाठ इस मायने में बहुत ही महत्वपूर्ण हो सकता है. दांडी मार्च के दौरान ही ऐसी ही भ्रांतियों के निवारण के लिए उन्हें 20 मार्च, 1930 को हिन्दी पत्रिका ‘नवजीवन’ में ‘स्वराज्य और रामराज्य’ शीर्षक से एक लेख लिखना पड़ा था. इसमें गांधीजी ने कहा था – ‘स्वराज्य के कितने ही अर्थ क्यों न किए जाएं, तो भी मेरे नजदीक तो उसका त्रिकाल सत्य एक ही अर्थ है, और वह है रामराज्य. यदि किसी को रामराज्य शब्द बुरा लगे तो मैं उसे धर्मराज्य कहूंगा. रामराज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की संपूर्ण रक्षा होगी, सब कार्य धर्मपूर्वक किए जाएंगे और लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा. …सच्चा चिंतन तो वही है, जिसमें रामराज्य के लिए योग्य साधन का ही उपयोग किया गया हो. यह याद रहे कि रामराज्य स्थापित करने के लिए हमें पाण्डित्य की कोई आवश्यकता नहीं है. जिस गुण की आवश्यकता है, वह तो सभी वर्गों के लोगों- स्त्री, पुरुष, बालक और बूढ़ों- तथा सभी धर्मों के लोगों में आज भी मौजूद है. दुःख मात्र इतना ही है कि सब कोई अभी उस हस्ती को पहचानते ही नहीं हैं. सत्य, अहिंसा, मर्यादा-पालन, वीरता, क्षमा, धैर्य आदि गुणों का हममें से हरेक व्यक्ति यदि वह चाहे तो क्या आज ही परिचय नहीं दे सकता?’
श्रीराम का अर्थ है मर्यादा. राज राज्य की स्थापना का अर्थ है मर्यादा की स्थापना. बहुत सोच-समझ कर बनाए गए हमारे संविधान में विविध प्रावधान होने पर भी, पारदेशीय संस्कृति और समाज के प्रभाव के कारण विविध प्रकार की विसंगातियां हमारे समाज में आज भी विद्यमान हैं. कर्त्तव्य विस्मृत करके केवल अधिकार की लड़ाई ने समाज में अविश्वास और घृणा का वातावरण पैदा कर दिया है. श्रीराम की मर्यादा का अर्थ है कर्त्तव्य का सर्वोपरि होना. कर्त्तव्य सर्वोपरि हो तो अधिकार, उत्तरदायित्वपूर्ण अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाता है. कर्त्तव्य की अनुभूति स्वतः अधिकार के प्रयोग की सीमा निर्धारित कर देती है. मनुष्य निष्काम कर्मयोगी बन जाता है. फिर किसी के अधिकार की रक्षा के लिए किसी शासनाधीन रक्षक की आवश्यकता नहीं रह जाती. कर्त्तव्य-बोध से संचालित अधिकार की अनुभूति और उसके साथ उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो जाने पर अपने कर्त्तव्य की पूर्ति और और सभी के अधिकार का सम्मान समाज की सहज प्रवृत्ति बन जाती है. फिर न्याय-अन्याय और उचित-अनुचित का निर्णय भी सहज हो जाता है. व्यक्ति से लेकर परिवार तक, समाज तक और सम्पूर्ण राष्ट्र तक सभी अपने-अपने कर्त्तव्य के प्रति चैतन्य हो जाते हैं.
श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन चरित ऐसी मर्यादाओं, कर्तव्य पालन और सभी के अधिकारों के प्रति सम्मान का पर्याय है. मानव सभ्यता के सम्पूर्ण लिखित-अलिखित इतिहास में श्रीराम जैसा व्यक्तित्व और चरित्र का दूसरा उदाहरण उपलब्ध नहीं है. श्रीराम तो शिक्षा ग्रहण करके माता सीता के साथ अयोध्या लौटे थे राज्याभिषेक के लिए. लेकिन नियति ने कुछ और ही तय कर रखा था. पिता का आदेश हुआ, वनवास पर जाना होगा. युवराज होने के नाते और धनुर्विद्या की प्रचंड शक्ति से युक्त राम का मानस अपने राज्याभिषेक के अधिकार के लिए अवज्ञापूर्ण युद्ध का निर्णय कर सकता था. किन्तु नहीं, श्रीराम के राज्य की संस्कृति थी कि पहले कर्त्तव्य का पालन, फिर अधिकार की बात. सो, वे निकल पड़े 14 वर्ष के वनवास पर. माता कैकेयी ने जिस पुत्र के लिए श्रीराम के वनवास की पृष्ठभूमि तैयार की थी, उस पुत्र भरत को अपने राज्याभिषेक का अवसर पाकर प्रसन्न होना चाहिए था. पर ऐसा नहीं हुआ. भरत के साथ भी अपने कर्त्तव्य की अनुभूति और दूसरे के अधिकार के सम्मान का भाव लगा रहा. तभी तो वे समझ पाए कि अयोध्या के राज सिंहासन पर आरूढ़ होने का प्रथम अधिकार श्रीराम का था. तभी तो भरत यह निर्णय कर पाए कि वे श्रीराम के साथ हुए व्यवहार में सहभागी नहीं बनेंगे. और श्रीराम के मन में माता कैकेयी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं. यह जो आदर्श है, यह जो मर्यादा है, कहीं और कहाँ मिलते हैं. दीन-दुखियों, उपेक्षितों-वंचितों को गले लगाना, भव्य नगरों से लेकर पहाड़ों, जंगलों में वास करने वाले सभी प्राणियों के साथ समान व्यवहार करना, स्वार्थ के वशीभूत दुष्टों-उत्पीड़कों को सही राह बताना, उद्दंड-अहंकारी दुष्टों का व्यापक मानव हित में संहार करना, समस्त लोभ से परे होकर समुचित हाथों में सत्ता सौंप देना, आदि ऐसे अद्भुत आचरण हैं, जो अन्यत्र सर्वथा दुर्लभ हैं.
सम्पूर्ण देश में बाल्यावस्था ही से यदि एक-एक व्यक्ति को श्रीराम की मर्यादा का पाठ पढ़ाया जाए, तो सोचिए कैसा समाज बनेगा! निःसंदेह देश में कर्तव्य और परस्पर सम्मान की प्रबल भावना का विकास होगा. एक सामान्य जन की बात पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करने की प्रेरणा शासन-संचालकों को मिलेगी. अहंकार दुर्बल होगा, सहयोग और सामंजस्य प्रबल होगा. एक-दूसरे के लिए त्याग की भावना जाग्रत होगी. अन्याय के विरुद्ध न्याय के पक्ष में एकजुट होकर खड़ा होने की इच्छा का विकास होगा. देश का बचपन श्रीराम के आदर्शों पर “अग्रते सकलं शास्त्रम्, पृष्ठते सशरह धनु” से युक्त होगा तो स्वभावतः देश की युवा शक्ति भी उसी आदर्शों का वाहक बनेगी. तब कोई उत्पीड़क नहीं होगा, कोई उत्पीड़ित नहीं होगा. सभी के मन में राष्ट्र के प्रति समर्पण का भाव होगा. ऐसा समाज, ऐसा राष्ट्र ही तो विश्वगुरु बन सकता है.
महात्मा गांधी के राम राज्य की संकल्पना को साकार करने के लिए आज जैसा उपयुक्त वातावरण देश में पहले कभी उपलब्ध नहीं था. आज देश का नेतृत्व ऐसे प्रधानमन्त्री के हाथों में हैं, जिनके साथ कोई अनिर्णय, कोई असमंजस, कोई दुविधा की स्थिति नहीं है. आज भारत निर्णय करने के साहस के साथ आगे बढ़ रहा है. चाहे पश्चिमी सीमा पर कार्रवाई करनी हो, या उत्तरी सीमा पर आंख में आंख मिलाकर डटे रहने की बात हो, देश के नेतृत्व के पास एक स्पष्ट दृष्टि है, दृष्टिकोण भी है. तो अभी से हम राम राज्य की संकल्पना को साकार करने की दिशा में कार्रवाई आरम्भ कर सकते हैं, ताकि श्रीराम मंदिर का निर्माण पूरा होते-होते, देश राम राज्य की अवस्था स्वीकार करने की स्थिति में आ सके और महात्मा गांधी का वचन पूरा हो सके.
लेखक भारत विकास परिषद के पश्चिमी रीजन के रीजनल सेक्रटरी हैं.
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