सुनों कांग्रेसियों प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सम्मानपूर्वक संघ को राष्ट्रीय परेड में सम्मिलित किया था

 सुनों कांग्रेसियों प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सम्मानपूर्वक संघ को राष्ट्रीय परेड में सम्मिलित किया था


 प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा गणतंत्र दिवस परेड में संघ को सम्मिलित किया जाना
  जब गणतंत्र दिवस परेड में नेहरू जी ने ‘संघ’ को निमंत्रित किया


संघ की उपस्थिति भारतीय समाज के हर क्षेत्र में महसूस की जा सकती है जिसकी शुरुआत सन 1925 से होती है। उदाहरण के तौर पर सन 1962 के भारत-चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने संघ को सन 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया। केवल दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में वहाँ उपस्थित हो गये और शानदार परेड का हिस्सा बनें। स्मरण रहे कि संघ के स्वयंसेवकों को राष्ट्रीय परेड में एक मात्र प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सम्मिलित कर महान सम्मान दिया था।

वैसे तो भारत का हर गणतंत्र दिवस अपने आप में एक विशेष महानता लिए हुए होता है और इस दिन नई दिल्ली राजपथ पर होने वाला समारोह राष्ट्र गौरव और देश की शक्ति, उसकी प्रतिभा तथा उपलब्धियों का एक अनुपम प्रदर्शन होता है,
 
वह ऐतिहासिक गणतंत्र दिवस 1963 का था जब भारत के जन गण को एक ऐसी अद्वितीय विराट शक्ति का साक्षात्कार हुआ जिसकी चमत्कारी आभा और आकार ने सभी को चकित कर दिया। इस लेखके साथ छपा यह चित्र उन्हीं अविस्मरणीय क्षणों का है।
 
‘‘भारत माता की जय’’
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 3500 कार्यकर्त्ता पूर्ण गणवेश में सज-धज कर गणतंत्र दिवस की परेड में भाग लेने के लिए जब राजपथ पर उतरे तो हजारों की संख्या में उपस्थित दर्शकों ने जोरदार तालियों और ‘भारत माता की जय’ के गगनभेदी नारों से उनका स्वागत किया। स्वयंसेवकों का यह जत्था ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता गया करतल ध्वनि और नारों का स्वर उतना ही तेज होता गया। दर्शकों के लिए यह एक अत्यंत रोमांचक दृश्य था।
 
परेड में शामिल तीनों सेनाओं की हर टुकड़ी और विभिन्न प्रदेशों की सांस्कृतिक झांकियों की अपनी अलग शान थी। राजपथ के दोनों ओर उमड़े हजारों के जनसमूह ने उन सबका स्वागत पूरे उत्साह और उमंग के साथ किया लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की आन-बान-शान कुछ निराली ही थी। जिन्होंने संघ के उस रूप को देखा तथा उसकी भव्य छवि को आज तक भूल नहीं पाए उनमें मेरे बड़े भाई श्री प्रयागराज भाटिया भी थे। उन्होंने बताया कि उस दृश्य को याद करके मन आज भी आनंदित हो उठता है।
 
हर्षित और प्रभावित देशवासी
यूं तो प्रतिवर्ष विजयदशमी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्त्ता पूर्ण गणवेश में देशभर के बड़े-बड़े नगरों में मार्च करते हैं लेकिन यह पहला अवसर था कि गणतंत्र दिवस की परेड में राष्ट्रीय स्तर पर उनके इस मार्च से जहां अधिकांश देशवासी हर्षित और प्रभावित हुए वहीं एक वर्ग ऐसा भी था जिसने इसकी आलोचना की। उन्हें शायद मालूम नहीं था कि संघ को निमंत्रित करने का फैसला किसका था।

उस समय देश में निराशा का वातावरण था। 1962 के भारत-चीन युद्ध के पश्चात राष्ट्र के मनोबल में कमी आ चुकी थी। देशवासी यह अनुभव कर रहे थे कि युद्ध के परिणाम निराशाजनक रहे हैं। भारत की सेनाओं का बहुत बड़ा भाग अभी भी सीमाओं की रक्षा पर तैनात था। गणतंत्र दिवस की परेड में सम्मिलित होने के लिए उन्हें सीमाओं से हटाना देश की रक्षा के हित में नहीं था। युद्ध में केवल सेना ही नहीं बल्कि देशवासियों के हर वर्ग ने अपने-अपने ढंग से बढ़-चढ़ कर योगदान दिया था जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सबसे अग्रणीय था। न केवल सीमा पर सेनानियों की अनथक सेवा करने में, बल्कि संकटकालीन स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने जो भी कार्य शुरू कर रखे थे उन्हें पूर्णतया सफल बनाने में भी स्वयंसेवक दिन-रात जुटे हुए थे।
 
केवल दो दिन का समय
आज भी अधिकांश देशवासियों को यह पता नहीं और उन्हें यह पढ़ कर आश्चर्य होगा कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को गणतंत्र दिवस परेड में आमंत्रित करने का फैसला स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू का था। और इसके लिए संघ को तैयारी हेतु केवल दो दिन का समय मिला था।
 
जैसा कि आज भी है, संघ का नाम सुनते ही कुछ वर्ग भिन्ना उठते हैं, उस वक्त भी स्वयं कांग्रेस पार्टी के कुछ लोगों और कुछ बाहर के लोगों द्वारा भी इस फैसले की नुक्ताचीनी की गई थी लेकिन कहा जाता है कि पंडित नेहरू संघ कार्यकर्त्ताओं की राष्ट्रभक्ति, अनुशासन और कार्यनिष्ठा से प्रभावित होकर उनका यथायोग्य सम्मान करना चाहते थे।

सरसंघ चालक गुरु गोलवलकर जी की सहमति और अनुमति के बिना यह संभव नहीं था। कहा जाता है कि इसके लिए पंडित नेहरू ने गुरु जी से सम्पर्क किया था। संघ को निमंत्रण के पीछे दो कारण और भी थे। परेड में शामिल होने के लिए सैनिक उतनी संख्या में उपलब्ध नहीं थे जितनी संख्या में प्रायरू होने चाहिएं। दूसरा यह अनुभव किया गया कि राष्ट्र संकट में सेवा करने वाली जनसंस्थाओं का आभार प्रकट करना राष्ट्रीय कर्त्तव्य है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी संगठित संस्था के शामिल होने से एक तो सैनिक संख्या के अभाव की पूर्ति होगी और दूसरा इससे राष्ट्र के मनोबल को उत्साह मिलेगा।
 
साधारण स्वयंसेवक उच्च सिंहासन पर
निमंत्रण विषय पर यदा-कदा विवाद खड़ा किया जाता है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 31 मार्च 1998 को लोकसभा में पंडित नेहरू के वे शब्द उद्धृत किए जो उन्होंने उस वक्त कहे थे जब कांग्रेस पार्टी के कुछ लोगों ने उनके फैसले की आलोचना की थी। पंडित जी ने उन्हें जवाब दिया था ‘‘मेरी पार्टी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ विचारों का मतभेद हो सकता है लेकिन जब देश संकट में हो तो हम सबको आपस में इकठ्ठे मिलकर काम करना चाहिए।’’
 
1963 समारोह की छाप इतनी गहरी है कि कुछ दिन पूर्व मीडिया में यह प्रश्र पूछा गया कि क्या इस वर्ष की परेड में भी स्वयंसेवक भाग लेंगे? उत्तर है। अपने आप को संघ का साधारण स्वयंसेवक कहने वाले भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आज के समारोह के उच्च सिंहासन पर विराजमान हैं।

* महात्मा गांधी ने १९३४ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर की यात्रा के दौरान वहाँ पूर्ण अनुशासन देखा और छुआछूत की अनुपस्थिति पायी। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से पूछताछ की और जाना कि वहाँ लोग एक साथ रह रहे हैं तथा एक साथ भोजन कर रहे हैं।

* प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी साल 1977 में आरएसएस के निमंत्रण पर स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण किया था। इंदिरा गांधी को यह निमंत्रण आरएसएस के तत्कालीन वरिष्ठ नेता एकनाथ रानाडे ने दिया था। उल्लेखनीय है कि प्रणब मुखर्जी आगामी 7 जून को आरएसएस के नागपुर मुख्यालय में आयोजित होने वाले एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने जा रहे हैं। इस दौरान पूर्व राष्ट्रपति संघ के स्वयंसेवकों को संबोधित भी करेंगे।


 

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