लालच के टुकड़े पर, नीतीश की बन्दर कूद - अरविन्द सिसोदिया

लालच के टुकड़े पर, नीतीश की बन्दर कूद - अरविन्द सिसोदिया

आखिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार नें भाजपा गठबंधन से अलग हो गए हैं , उन्होंने  मूलरूप से लालूप्रसाद यादव की पार्टी से गठबंधन कर लिया है।
 
"...उत्तर है अगला प्रधानमंत्री बनानें का लालचरूपी टुकड़ा, नीतीश के सामनें फेंका हुआ था। इसमें तो सन्देह है कि यह संयुक्त विपक्ष के सर्वमान्य होंगे , क्योंकि विपक्ष में राहुल गांधी ,अखिलेश यादव,तेजस्वी यादव बेहद स्वतन्त्र युवराज गण हैं । ममता बनर्जी और अरविन्द केजरीवाल की महत्वाकांक्षाओं का क्या होगा। फिर दक्षिण भारत के दलों की च्वाइस क्या होगी ।"

लगभग पिछले 6 महीने से नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव मैं खिचड़ी पक रही थी, हो सकता है यह और भी पहले से चल रहा हो । क्यों कि 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी के नंबर 3 पर पहुँचते ही वे परेशान थे और उन्हें भाजपा से खतरा लगने लगा था।

वहीं जिस प्रकार से लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार ने राजनैतिक सत्ता से अरबों रुपए की संपत्तियां खड़ी की हो और स्वयं लालूप्रसाद  घोषित रूप से भ्रष्टाचार और घोटाले के कारण जेल में हों । उन्हें सत्ता की कीमत पता है और किसी भी कीमत पर वे सत्ता पाना चाहते भी थे।

वहीं नीतीश कुमार भी लगातार बिहार की राजनीति में अपने आप को बनाए हुए हैं, उन्होनें तमाम मैनेजमेंट के भी अपनी छवि स्वच्छ रखी हुई है। किन्तु आजकल राजनीति में चुनाव मैनेजमेंट पर कितना खर्च होता है , यह सभी जानते हैं और यह ईमानदारी से संभव है भी नहीं । संभवतः इस काम पर जो लोग लगे थे, हाल ही में अलग किये गए सिंह उसी में से एक थे । क्यों कि आय से अधिक संपत्ति अर्जित करनें का आरोप एवं नोटिस नीतीश की पार्टी नें ही दिया है।

सुशासन बाबू के नाम से अपने आप कितनी भी थाती रही हो, मगर उनका दूसरा  चेहरा तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले व्यक्ति के रूप में ही माना जाता है । जब से वो नरेंद्र मोदी सरकार के अंग बने तब से अपने आपको वह फंसा हुआ महसूस कर रहे थे । क्योंकि नीतीश कुमार की राजनीति तुष्टीकरण के उसी तौर-तरीके पर चलती है जिस पर कांग्रेस की राजनीति चलती है । वो मोदी योगी युग में अपने आप को अनकंफरटेबल महसूस कर रहे थे, किंतु समस्या दूसरी यह थी कि  लालू प्रसाद यादव के पुत्र आपस में लड़ रहे थे और लड़ने के साथ - साथ वे बेहद बदतमीजी का व्यवहार करते  थे ।

नीतीश को डर था कि यदि लालू यादव के साथ दोबारा से गठबंधन किया जाए तो, उसकी सरकार में तेजस्वी यादव की गुंडागर्दी निरंतर सहन करनी पड़ेगी और इसी कारण होच पोच और अनिर्णय की स्थिति में उन्होंने लगभग 6 महीने गुजार दिये ।

हालांकि  पैदल चल कर पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के निवास तक पहुंचकर , भाजपा को यह संकेत दे दिया था अब उनके रिश्ते टूटने वाले हैं । दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी भी यह नहीं चाहती थी कि संबंध तोड़ने का कलंक उनके माथे आए और इसीलिए यह वेट एंड वाच का खेल चल रहा था ।

नीतीश एक तरफ आरसीपी सिंह को भ्रष्ट बता कर नोटिस देते हैं और दूसरी तरफ शुद्ध सजायाफ्ता भ्रष्टाचारी से गठबंधन करते हैं । तो वे अपने आपको न तो नीट एंड क्लीन कह सकते और न ही वे ईमानदारी की घोषणा कर सकते ।

प्रश्न यही है कि नीतीश तीन पाटों के बीच फँसनें क्योँ पहुचे । लालूप्रसाद की पार्टी के पास 77 विधायक हैं, नीतीश से लगभग दो गुणे से कुछ कम । पावर लालूप्रसाद यादव के पास ही रहेगी । कांग्रेस और वामपंथियों के पास भी अलग अलग विधायक अच्छी संख्या में हैं । कुल मिलाकर नीतीश तीन पाटों के बीच में रहनें वाले हैं।

उत्तर है अगला प्रधानमंत्री बनानें का लालचरूपी टुकड़ा, नीतीश के सामनें फेंका हुआ था। इसमें तो सन्देह है कि यह संयुक्त विपक्ष के सर्वमान्य होंगे , क्योंकि विपक्ष में राहुल गांधी ,अखिलेश यादव,तेजस्वी यादव बेहद स्वतन्त्र युवराज गण हैं । ममता बनर्जी और अरविन्द केजरीवाल की महत्वाकांक्षाओं का क्या होगा। फिर दक्षिण भारत के दलों की च्वाइस क्या होगी ।

कुल मिला कर डर यह है कि लालच के टुकड़े में फंसे नीतीश की अंतिम समय में पारी हिट विकेट न हो जाये।

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