श्राद्धपक्ष Hindu shradh paksh



श्राद्ध-तत्त्व-प्रश्नोत्तरी

( - श्रीराजेन्द्रकुमारजी धवन)

प्रश्न - श्राद्ध किसे कहते हैं ?

उत्तर- श्रद्धासे किया जानेवाला वह कार्य, जो पितरोंके निमित्त किया जाता है, श्राद्ध कहलाता है।

प्रश्न- कई लोग कहते हैं कि श्राद्धकर्म असत्य है और इसे ब्राह्मणोंने ही अपने लेने खानेके लिये बनाया है। इस विषयपर आपका क्या विचार है ?

उत्तर - श्राद्धकर्म पूर्णरूपेण आवश्यक कर्म है और शास्त्रसम्मत है। हाँ, वर्तमानकालमें लोगोंमें ऐसी रीति ही चल पड़ी है कि जिस बातको वे समझ जाय- वह तो उनके लिये सत्य है; परंतु जो विषय उनकी समझके बाहर हो, उसे वे गलत कहने लगते हैं।

कलिकालके लोग प्रायः स्वार्थी हैं। उन्हें दूसरेका सुखी होना सुहाता नहीं। स्वयं तो मित्रोंके बड़े-बड़े भोज- निमन्त्रण स्वीकार करते हैं, मित्रोंको अपने घर भोजनके लिये निमन्त्रित करते हैं, रात-दिन निरर्थक व्ययमें आनन्द मनाते हैं; परंतु श्राद्धकर्ममें एक ब्राह्मणको भोजन करानेमें भार अनुभव करते हैं। जिन माता-पिताकी जीवनभर सेवा करके भी ऋण नहीं चुकाया जा सकता, उनके पीछे भी उनके लिये श्राद्धकर्म करते रहना आवश्यक है।

प्रश्न - श्राद्ध करनेसे क्या लाभ होता है ?

उत्तर - मनुष्यमात्रके लिये शास्त्रोंमें देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण-ये तीन ऋण बताये गये हैं। इनमें श्राद्धके द्वारा पितृ ऋण उतारा जाता है।

विष्णुपुराणमें कहा गया है कि 'श्राद्धसे तृप्त होकर पितृगण समस्त कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं।' (३। १५।५१) इसके अतिरिक्त श्राद्धकर्तासे विश्वेदेवगण, पितृगण, मातामह तथा कुटुम्बीजन- सभी सन्तुष्ट रहते हैं। (३। १५।५४) पितृपक्ष (आश्विनका कृष्णपक्ष) में तो पितृगण स्वयं श्राद्ध ग्रहण करने आते हैं तथा श्राद्ध मिलनेपर प्रसन्न होते हैं और न मिलनेपर निराश हो शाप देकर लौट जाते हैं। विष्णुपुराणमें पितृगण कहते हैं- हमारे कुलमें क्या कोई ऐसा बुद्धिमान् धन्य पुरुष उत्पन्न होगा, जो धनके लोभको त्यागकर हमारे लिये पिण्डदान करेगा। (३।१४। २२) विष्णुपुराणमें

श्राद्धकर्मके सरल-से-सरल उपाय बतलाये गये हैं। अतः इतनी सरलतासे होनेवाले कार्यको त्यागना नहीं चाहिये।

प्रश्न- पितरोंको श्राद्ध कैसे प्राप्त होता है ?

उत्तर- यदि हम चिट्ठीपर नाम-पता लिखकर लैटर- बक्समें डाल दें तो वह अभीष्ट पुरुषको, वह जहाँ भी है, अवश्य मिल जायगी। इसी प्रकार जिनका नामोच्चारण किया गया है, उन पितरोंको, वे जिस योनिमें भी हों, श्राद्ध प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार सभी पत्र पहले बड़े डाकघरमें एकत्रित होते हैं और फिर उनका अलग-अलग विभाग होकर उन्हें अभीष्ट स्थानोंमें पहुँचाया जाता है, उसी प्रकार अर्पित पदार्थका सूक्ष्म अंश सूर्य-रश्मियोंके द्वारा सूर्यलोकमें पहुँचता है और वहाँसे बँटवारा होता है तथा अभीष्ट पितरोंको प्राप्त होता है।

पितृपक्षमें विद्वान् ब्राह्मणोंके द्वारा आवाहन किये जानेपर पितृगण स्वयं उनके शरीरमें सूक्ष्मरूपसे स्थित हो जाते हैं। अन्नका स्थूल अंश ब्राह्मण खाता है और सूक्ष्म अंशको पितर ग्रहण करते हैं।

प्रश्न- यदि पितर पशु-योनिमें हों, तो उन्हें उस योनिके योग्य आहार हमारेद्वारा कैसे प्राप्त होता है ?

उत्तर- विदेशमें हम जितने रुपये भेजें, उतने ही रुपयोंका डालर आदि (देशके अनुसार विभिन्न सिक्के) होकर अभीष्ट व्यक्तिको प्राप्त हो जाते हैं। उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक अर्पित अन्न पितृगणको, वे जैसे आहारके योग्य होते हैं, वैसा ही होकर उन्हें मिलता है।

प्रश्न- यदि पितर परमधाममें हों, जहाँ आनन्द-ही- आनन्द है, वहाँ तो उन्हें किसी वस्तुकी भी आवश्यकता नहीं है। फिर उनके लिये किया गया श्राद्ध क्या व्यर्थ चला जायगा ?

उत्तर- नहीं। जैसे, हम दूसरे शहरमें अभीष्ट व्यक्तिको कुछ रुपये भेजते हैं, परंतु रुपये वहाँ पहुँचनेपर पता चले कि अभीष्ट व्यक्ति तो मर चुका है, तब वह रुपये हमारे ही नाम होकर हमें ही मिल जायँगे।

ऐसे ही परमधामवासी पितरोंके निमित्त किया गया श्राद्ध पुण्यरूपसे हमें ही मिल जायगा। अतः हमारा लाभ तो सब प्रकारसे ही होगा। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !

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