गाजा की गरज किसे लगती है गलत ? - पाञ्चजन्य




सामयिक- 

गाजा की गरज किसे लगती है गलत?

तारीख: 28 Jul 2014

दोेस्तों ये कैसी चिंतन-धारा है, कैसी मानवता है जो हिंसक के सामने मौन रहती है और आततायी के सामने समर्पित रहती है। ये कैसा हृदय है जो आक्रामक की दुष्टताओं की अवहेलना करता है और प्रत्युत्तर देने वाले की निंदा करता है।
आजकल गाजा पर इजरायल के प्रहारों को लेकर बहुत हाय-हाय की जा रही है. जमीन खो चुके तमाम कांग्रेसी, वामपंथी वाग्वीर कोलाहल मचाये हुए हैं इसलिए आवश्यक हो जाता है कि इस समस्या पर प्रारंभ से विचार किया जाये। संसार की प्राचीनतम किताबों में से एक ओल्ड टेस्टामेंट में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि मोजेज या मूसा फिरओन के अत्याचारों से बचाने के लिये अपने लोगों अर्थात यहूदियों को लेकर मिस्र जो उस काल में इस पूरे क्षेत्र में फैला था, से निकल गये। इसी ग्रंथ में उनके इसी पैगंबर का वादा है कि एक दिन तुम अपनी धरती पर वापस लौटोगे। इसी कारण यहूदी इसे प्रतिश्रुत भूमि या प्रॉमिस्ड लैंड कहते हैं। हजारों वषोंर् तक यहूदी संसार भर में बिखरे रहे। एक अपवाद भारत वर्ष को छोड़कर तमाम ईसाई, मुस्लिम देशों में उनके साथ भयानक अत्याचार हुए। यहां तक कि कम्युनिस्ट रूस में भी लेनिन, स्टालिन के काल में लाखों यहूदी यातना दे-दे कर मार डाले गये। यहूदी स्वभाव से ही शांतिप्रिय हैं। ये व्यवसायी जाति है। उन पर सदियों तक अत्याचार हुए। दूसरे विश्व युद्घ में जर्मनी की नात्सी सरकार के हाथों करोड़ों यहूदी मार डाले गये। इसके उपरांत विश्व समुदाय के नेता विवश हो गये कि यहूदियों को उनका देश दिया जाए। कटी-फटी अवस्था में उनका देश इजरायल उन्हें दिया गया। ऐसा नहीं है कि 1948 में इजरायल बनाने के बाद ही यहूदी वहां बसने शुरू हुए। वो सदियों से उस क्षेत्र में इस आशा में रह रहे थे कि एक दिन ये उन्हें मिलेगा। सदियों तक संसार भर में एक यहूदी जब दूसरे यहूदी से विदा लेता था तो जैसे मुसलमान आपस में विदा लेते समय खुदा हाफिज कहते हैं, 'अगले वर्ष येरुशलम में' कहता था। अपनी खोयी हुई मातृभूमि के लिये ऐसी ललक विश्व समुदायों में दुर्लभ है। 1948 में विश्व के नेताओं ने यहूदियों को उनका देश दिया और इजरायल का निर्माण होते ही उस पर मिस्र, जार्डन, सीरिया, इराक, लेबनान ने आक्रमण कर दिया। नवनिर्मित देश के पास न तो नियमित सेना थी, न अस्त्र-शस्त्र थे। वो वीर लोग रसोई के चाकुओं, गैंतियों, कुदालों, हथौड़ों से लड़े। लड़ाई समाप्त होने के अंत में इजरायल का क्षेत्रफल प्राप्त हुए देश से बढ़ चुका था। हमलावरों के न केवल दांत खट्टे हुए बल्कि हाथ-पैर तोड़ डाले गये। मूलत: व्यापारी जाति के लोगों को सदियों के उत्पीड़न और अपने निजी देश की अंतिम आशा ने प्रबल योद्घा बना दिया।
इजरायल पर 1948, 1956, 1967, 1973 में चार बार घोषित आक्रमण हुए हैं। यह देश एक ओर से समुद्र और तीन ओर से मुस्लिम देशों से घिरा हुआ है। ये देश सामान्य कुरआनी सोच से अनुप्राणित हैं यानी काफिरों को खत्म करके इस क्षेत्र को दारूल-हरब से दारूल-इस्लाम बनाना है। इजरायल को घेरे हुए मुस्लिम देशों ने तो उसे समाप्त करने के लिए जोर लगाया ही मगर अन्य मुस्लिम देशों ने भी इन देशों की हर प्रकार से सहायता की। इन चार युद्घों में इजरायल के लिए हार कोई विकल्प थी ही नहीं। हार का अर्थ सदैव के लिए विश्व इतिहास से गायब हो जाना था। व्यापारी वर्ग के लोग, सदियों से पीडि़त लोग ऐसे प्रचंड योद्घा बन गये कि गोलान पहाडि़यां जहां से इजरायल पर आसानी से तोपों से हमला हो सकता था, छीन ली गयीं। इन मुस्लिम देशों की ऐसी धुनाई की गयी कि इनमें सबसे बड़े देश मिस्र को इजरायल से सबसे पहले संधि करने पर विवश होना पड़ा।
इजरायल पर बाह्य आक्रमण ही नहीं हुए अपितु देश में बसे मुसलमानों के आतंकी समूह जैसे फिलिस्तीनी मुक्ति मोर्चा, हमास, हिजबुल्ला लगातार उत्पात करते रहते हैं। इस संघर्ष की जड़ में भी वही कुरानी विश्वास  है। 'संसार का ध्रुव सत्य इस्लाम है। इससे इतर सोचने, जीवन जीने वाले लोग काफिर हैं और काफिर वजिबुल-कत्ल अर्थात मार डाले जाने के योग्य हैं।  वर्तमान संघर्ष का कारण गाजा के नागरिक क्षेत्रों में ठिकाना बनाये बैठे हमास के लोग हैं। इन्हांेने इजरायल को निशाना बनाकर 1200 से भी अधिक राकेट दागे हैं। एक स्वतंत्र राष्ट्र के पास इन हमलों का मुंह-तोड़ जवाब देने के अतिरिक्त कौन-सा विकल्प है? अपने नागरिकों, अपनी भूमि, अपने संस्थानों, अपनी संपत्ति की रक्षा के लिए किसी राष्ट्र को आक्रमणकारियों को समूल नष्ट करने के अलावा कौन-सा उपाय अपनाना चाहिए? आखिर हर देश के नेता भारतीय नेताओं जैसे तो नहीं हो सकते कि अपनी ही धरती कश्मीर से अपने ही समुदाय को निष्कासित होता देखकर मौन रहें। सुरक्षा के प्रति मानसिक सुस्ती आज नहीं कल पराजय में बदल जाती है। एकमेव शांति की कामना हार और मानसिक दासता में परिणत हो जाती है। पराजय मलिनता लाती है और विजय जीवन को उल्लास से भर देती है। संसार में वीर जातियां भी हैं।
हमास अगर अपने मिसाइल लांचर मस्जिदों, घरों में रखता है तो जवाबी कार्यवाही में मारे जाने वाले लोगों के लिए मूलत: हमास ही जिम्मेदार है। कुछ जिम्मेदारी उन लोगों की भी है जो इन आक्रमण केन्द्रों के पास रहते हैं और इन ठिकानों का विरोध नहीं करते। क्या उन्हें पता नहीं कि जब जवाबी रॉकेट इन केन्द्रों को नष्ट करेंगे तो चपेट में वो भी आएंगे। बुरों की सोहबत के नतीजे भुगतने तो पड़ेंगे। हममें से बहुत से लोग इजरायल से सहानुभूति रखते हैं मगर चुप रहते हैं और इजरायल के पक्ष में मुखर नहीं होते। -तुफैल चतुर्वेदी
दोस्तों ये कैसा प्यार है कि मैं किसी को चाहूं और उसे प्रकट भी न करूं? ये समय इजरायल के पक्ष में खड़े होने का है। एक शत्रु के दो पीडि़तों का मित्र होना न केवल स्वाभाविक है बल्कि अपने समवेत शत्रु से निपटने के लिए आवश्यक भी है।अल-कायदा,हिज्बुल-मुजाहिद्दीन, लश्करे-तय्यबा, बोको-हराम, हिजबुल्ला, हमास सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। इन संगठनों और इनकी जननी कुरआनी विचारधारा से जूझ रहे हर व्यक्ति और देश के साथ हमारा खड़ा होना, हमारे अपने लिए मित्र ढूंढ़ने का काम है। इस पुनीत काम में लगे हर योद्घा देश की पीठ पर हमारा हाथ होना अपने देश की पीठ पर मित्र के हाथ होने की तरह है।
मुहब्बतों को छुपाते हो बुजदिलों की तरह
ये इश्तिहार तो गली में लगाना चाहिए था।
लेखक साहित्यकार है। संपर्क : 9711296239

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