प्रजा-पालक रामराज्य के मूल भूत सिद्धांत
प्रजा-पालक रामराज्य
भ्रष्टाचार, हिंसा, असुरक्षा से जूझ रहे भारत की प्रेरणा और प्रकाश स्तंभ हैप्रजा-पालक रामराज्यदैहिक दैविक भौतिक तापा।रामराज काहुहिं नहिं व्यापा।।सब नर करंहि परस्पर प्रीति।चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।(उत्तरकांड 20:1)
इस प्रकार मध्य युग में घोर अत्याचारी और निरंकुश विधर्मी/विदेशी
शासकों की दासता में पिस रही भारत की जनता को संत कवि तुलसीदास ने रामराज्य
और श्रीराम के जीवन का परिचय देकर प्रजा सुख के लिए सत्ता सुख का त्याग और
आतताई शक्तियों के संगठित प्रतिकार का पाठ पढ़ाया। रामभक्ति की इस लहर में
से छत्रपति शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह जैसे राष्ट्रभक्त योद्धा उत्पन्न
हुए। वास्तव में त्रेतायुग में अवतरित हुए श्रीराम द्वारा स्थापित रामराज्य
की आदर्श व्यवस्था प्रत्येक युग में शासकों और प्रजा के लिए मार्गदर्शक
रही है।
युगानुकूल राज्यव्यवस्था
आज के संदर्भ में देखा जाए तो अपने देश की सरकार और प्रजा दोनों के
लिए रामराज्य की अवधारणा प्रकाश स्तंभ का काम कर सकती है। भ्रष्ट और सत्ता
केन्द्रित शासकों का अंत, आतंकियों/नक्सलियों जैसे राक्षसों का संहार और
संपूर्ण समाज को निरंकुश शासन के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा देने की
समयोचित क्षमता रामराज्य के सूत्रों में विद्यमान है। श्रीराम का अवतरण उस
युग अथवा कालखंड में हुआ था जब मानवजाति हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई इत्यादि
वर्गों में विभाजित नहीं थी। अत: रामराज्य की अत्यंत व्यावहारिक व्यवस्था
किसी भी पंथ, भाषा, क्षेत्र और जन की प्रतिनिधि न होकर सम्पूर्ण मानवजाति
के आदर्श का प्रतिनिधित्व है। वर्तमान भारत के संदर्भ में प्रखर सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद का स्थापित पर्याय है रामराज्य।
वोट बैंक की संकीर्ण राजनीति, चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला,
घपले/घोटालों में व्यस्त मंत्री, विदेश प्रेरित आतंकवाद, मजहबी तुष्टीकरण,
जाति आधारित राजनीति, सामाजिक वैमनस्य और सत्ता लोलुपता की पराकाष्ठा में
देशभक्ति सेवा, समर्पण, त्याग, सौहार्द और निरंकुशता के विरुद्ध संघर्ष का
संदेश है राम राज्य। एक दिन असत्य पर सत्य की विजय निश्चित है, अधर्म के
घोर अंधकार को चीरकर प्रकाश का आविर्भाव होगा ही। सारे समाज जीवन को नष्ट
करने वाली भ्रष्ट व्यवस्थाओं का भी अंत होगा, यही संदेश है श्रीराम,
रामराज्य और दीपावली का।
ध्येय पथ पर अडिग श्रीराम
श्रीराम के जीवन और उनके द्वारा स्थापित राज्य व्यवस्था अर्थात
रामराज्य से भारत की वर्तमान दिशा भ्रमित राजनीति को रचनात्मक दिशा मिल
सकती है। राष्ट्रीय कर्तव्य की बलिवेदी पर राजसत्ता के समस्त सुखों को ठोकर
मार देने का आदर्श वर्तमान सत्ता केन्द्रित राजनीति को समाप्त कर सकता है।
आम समाज के विचार मंथन को शिरोधार्य करते हुए लोकशक्ति अर्थात जनता
जनार्दन (जन ईश्वर) का सम्मान करने के मार्ग में उनके प्राणों से भी प्यारे
भ्राता लक्ष्मण का त्याग भी कम नहीं रहा। श्रीराम को अपने राष्ट्रीय
कर्तव्य से पत्नी, भाई, पुत्र किसी का भी मोह विमुख नहीं कर सका। इस तरह
श्रीराम अपने ध्येय पथ से कभी विचलित नहीं हुए।
धर्म की स्थापना, दुष्टों के संहार और संत-महात्माओं की रक्षा को अपनी
जीवन यात्रा का ध्येय मानकर श्रीराम ने किशोरावस्था में जिस कठोर वज्र
संकल्प को धारण किया था, वह वर्तमान भारतीय समाज के उन युवकों के लिए
प्रेरणा स्रोत हो सकता है जो प्रत्येक प्रकार के व्यसनों, प्रलोभनों और
मृगमरीचिकाओं में फंसकर भारत राष्ट्र की महान संस्कृति से दूर हटते जा रहे
हैं। आज की भौतिकवादी चकाचौंध में अपनी उज्ज्वल परंपराओं से कटते जा रहे
भारतीय युवकों को यदि रामराज्य की मानवी संस्कृति की शिक्षा दी जाए तो
निश्चित रूप से भारत के भविष्य को महान बनाया जा सकता है।
निरहंकारी राजा, निष्काम कर्मयोगी
चौदह वर्ष तक निरंतर संघर्षरत रहने वाले संन्यासी राम को जब राजा के
रूप में राजसत्ता प्राप्त हुई तो उन्होंने अपनी प्रजा और देश विदेश से आए
समस्त राजाओं-महाराजाओं के समक्ष रामराज्य के अद्वितीय आदर्शों को ही अपने
शेष जीवन का एकमात्र उद्देश्य घोषित किया 'मेरा कुछ भी नहीं, जो कुछ भी है
वह तो समाज रूपी परमेश्वर का है। मैं तो उसकी धाती की रक्षा एवं संवर्धन के
लिए नियुक्त एक न्यासी मात्र हूं।' राज्याभिषेक के समय उनके मुखमंडल पर
लेशमात्र भी अभिमान का कोई चिह्न न था। एक निरहंकारी राजा और एक निष्काम
कर्मयोगी की तरह उन्होंने अपनी समस्त सफलताओं का श्रेय अपने साथियों एवं
सहयोगियों में बांट दिया। श्रीराम ने कभी स्वयं को एकमात्र नेता के रूप में
महिमा मंडित नहीं किया। यही उनका आदर्श नेतृत्व कौशल था।
अपने देश में इन दिनों प्रचलित व्यक्ति विशेष पर केन्द्रित दलगत
राजनीति से छुटकारा पाने के लिए श्रीराम का आदर्श राजनीतिक व्यवहार का दिशा
सूचक हो सकता है। आज की राज्यव्यवस्था और दलीय प्रणाली को यदि श्रीराम की
समाज केन्द्रित राजनीति की ओर मोड़ा जाए तो राष्ट्रीय राजनीति में
निस्वार्थ और समर्पण का प्रादुर्भाव आसानी से हो सकता है। यह तभी संभव होगा
जब श्रीराम को जाति, पंथ और क्षेत्र की सीमाओं में न बांधकर एक राष्ट्रीय
महापुरुष के रूप में समझा जाएगा। अन्यथा रामराज्य की विशालता और समन्वय की
अवधारणा भी साम्प्रदायिकता के आरोपों का शिकार हो जाएगी। आज इसी संकीर्ण
राजनीति का प्रचलन है।
प्रजा समर्पित रामराज्य
मनीषी साहित्यकार श्री जैनेन्द्र कुमार ने अपने एक लेख 'राजा राम' में
श्रीराम की राजनीतिक मर्यादा का बड़ा सुंदर विवेचन किया है 'मर्यादा
पुरुषोत्तम श्रीराम की आदर्श पुरुषोत्तमता परिवार की सीमा तक ही नहीं रहती।
यह सार्वजनिक और राजनीतिक मर्यादा के उत्कर्ष को भी अंकित करती है। यही
कारण था कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के परम नायक महात्मा गांधी ने भी
स्वराज्य की परिभाषा देने के लिए रामराज्य को ही आधार बनाया।' अत: देश में
व्याप्त जातिवाद, भाषावाद और क्षेत्रवाद को मिटाकर सभी भारतवासियों को यदि
किसी एक सूत्र में बांधा जा सकता है तो वह है श्रीराम का आदर्श जीवन
चरित्र।
संसदीय प्रजातंत्र एवं दूसरे प्रकार की राज्य व्यवस्थाओं को देश और
समाज के हित में संचालित करने के लिए भी श्रीराम द्वारा स्थापित मर्यादाओं
का अनुसरण करना ही होगा। श्रीराम के लिए राज्य सत्ता व्यक्तिगत तथा
पारिवारिक भोग का साधन न होकर समाज सेवा के लिए की जाने वाली तपस्या थी।
राजा और सत्ता सेवा के साधन थे, न कि अथाह धन बटोरने का अवसर। रामराज्य की
अवधारणा के अंतर्गत राजपद (वर्तमान भाषा में मंत्रालय) प्रजा की ओर से राजा
को सौंपी गई थाती है। इसलिए इस पद का उपयोग समाज के लाभ के लिए होना चाहिए
न कि घोटालों ओर घपलों के माध्यम से अपनी तिजोरियां भरने के लिए। यही
व्यक्तिनिष्ठ राजनीति भ्रष्टाचार को जन्म देती है जिसका आज सर्वत्र बोलबाला
है।
सत्तालोलुपता विहीन राज्य व्यवस्था
भारत के राष्ट्रजीवन पर मंडराने वाले संकटों में सबसे बड़ा संकट उसी
राजनीति का है जो शासक को उत्तरदायित्व और कर्तव्यनिष्ठा की भावना से दूर
हटाकर मात्र अधिकारों के साथ जोड़ रही है। बहुमत आधारित लोकतंत्र की सबसे
बड़ी त्रासदी यही है कि निर्वाचित नेता जनता का प्रतिनिधि न बनकर स्वामी बन
जाता है। सभी प्रकार के अधिकारों का स्वामी शासक और कर्तव्यों के पालन का
काम जनता का। इसी में से समाज का उत्पीड़न करके अपने पद को बचाने के लिए
'कुछ भी करो' जैसी मनोवृत्ति का जन्म होता है। वर्तमान लोकतंत्र की इससे
बड़ी घातक विडम्बना और क्या होगी कि पूरी सरकार अथवा सरकार का मुखिया
भ्रष्ट मंत्रियों को बचाने के काम को ही अपना कर्तव्य समझता है। रामराज्य
एक आदर्श लोकतंत्र है।
श्रीराम द्वारा प्रदत्त राजनीतिक मर्यादा में सत्ता के दुरुपयोग की
कहीं कोई संभावना नहीं। शासक के अधिकारों और कर्तव्य की परिभाषा को
रामराज्य में स्थापित की गई शासकीय मर्यादाओं के प्रकाश में समझा जा सकता
है। रामराज्य की राजनीतिक व्यवस्था में संघर्ष, स्वार्थ, अहंकार और
सत्तालोलुपता के लिए कोई स्थान नहीं। श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और सीता के
व्यवहार में सहयोग, सहजीवन, सहचिंतन और सर्वोदय जैसे मानवीय मूल्यों का ही
वर्चस्व है। श्रीराम ने रामराज्य की व्यवस्था के सभी आदर्शों को अपने
व्यवहार में उतारकर विश्व के समक्ष रखा। उन्होंने अवतारी पुरुष होते हुए भी
मनुष्य के नाते व्यवहार किया और आदर्श राजा के नाते शासन के सूत्र संभाले।
भारतीयता की सशक्त अभिव्यक्ति
किशोरावस्था में ही महर्षि विश्वामित्र के साथ जंगलों में जाकर भारत
के मानबिन्दुओं को देखना, समझना और उनकी रक्षा करते हुए भारत की ऋषि परंपरा
के आगे नतमस्तक होना उनके जीवन की शुरुआत थी। यहीं पर उन्होंने भारत
राष्ट्र की सांस्कृतिक अखंडता को राक्षसी शक्तियों से पूर्णतया सुरक्षित
करने का महाव्रत लिया था। फिर अपनी सूर्यवंशी क्षत्रिय परंपरा का परिचय
सारे संसार के राजाओं के समक्ष देकर सीता का वरण किया। भारत के धर्मगुरु
संतों की योजनानुसार पिता के संकल्प की पूर्ति हेतु और अपने जीवनोपद्देश्य
के लिए सत्ता सुख को भी त्याग दिया।
श्रीराम ने वनों में जाकर वनवासियों एवं पिछड़ी जातियों को संगठित
करके उनका उद्धार करते हुए उनको क्षत्रिय के रूप में सैनिक बाना पहनाकर
राष्ट्र रक्षा हेतु तैयार किया। पिछड़ी जाति के निषाद राज केवट को गले
लगाकर भाई कहा। पक्षीराज जटायू का स्वयं अपने हाथों से संस्कार करके उसे
पिता का सम्मान दिया। भील जाति की एक वृद्धा शबरी के चरण छूकर उसे माता
कौशल्या कहकर पुकारा। इसी प्रकार पतिता कहलाई अहिल्या को पापमुक्त करके
समाज में प्रतिष्ठा दिलाई। इस तरह भारतीय राष्ट्र जीवन के सभी मापदंडों और
सिद्धांतों की अभिव्यक्ति है श्रीराम और उनका रामराज्य।
पिछड़े वर्गों का उद्धार
आज अपने देश के कई राजनीतिक दल और नेता कथित दलित वर्ग के नाम पर अपनी
सत्ता केन्द्रित राजनीति चला रहे हैं। इनके थोक वोट प्राप्त करने के लिए
कई पिछड़े वर्गों के प्रति घृणा भरी गई थी। पहले ऊंचे वर्गों के मन में
पिछड़े वर्गों के प्रति घृणा भरी गई थी और अब इन पिछड़े लोगों के मन में
ऊंचे वर्गों के प्रति घोर नफरत भरी जा रही है। पिछड़े बंधुओं को हिन्दुत्व
की विशाल राष्ट्रीय धारा से तोड़कर वोट बैंक पक्का करने वाले कथित समाज
सुधारकों, समाजवादियों और सत्ता के लोभी राजनीतिज्ञों को यह बात समझ में
आनी चाहिए कि इन कमजोर वर्गों का उद्धार इन्हें श्रीराम की राष्ट्रीय धारा
से तोड़कर नहीं, जोड़कर ही किया जा सकता है।
श्रीराम का समस्त जीवन कमजोर वर्गों के उत्थान हेतु समर्पित था।
पिछड़े बंधुओं का उत्थान ही श्रीराम की विस्तृत कर्मभूमि थी। यही वर्ग
श्रीराम की समस्त लीलाओं का आधार रहे हैं। इन पिछड़ी जातियों यथा-वंचितों,
गरीबों, वनवासियों और गिरिवासियों के बिना रामराज्य की समग्रता और पहचान
अधूरी है। यदि श्रीराम हमारे राष्ट्र जीवन की चेतना हैं तो यह राष्ट्र जीवन
भी इस वर्ग के बंधुओं के बिना अधूरा है। श्रीराम के जीवनादर्श समाज के सभी
वर्गों में समरसता भरने का सामर्थ्य रखते हैं। आज वनवासी क्षेत्रों में
विदेशों से आए ईसाई पादरी सेवा के बहाने मतान्तरण कर रहे हैं। नागालैंड,
मिजोरम की समस्याएं इसी का सीधा दुष्परिणाम है। इसका समाधान श्रीराम ने
बताया है। उन्होंने चौदह वर्ष तक इन्हीं लोगों में रहकर अपनत्व का नाता
जोड़ा। आज कल्याण आश्रम जैसी संस्थाएं इस काम को सफलतापूर्वक कर रही हैं।
श्रीराम का घोषित उद्देश्य
आज अपने देश में चीन और पाकिस्तान की योजनानुसार हिंसक नक्सलवाद और
जिहादी आतंकवाद जैसी आसुरी शक्तियां सिर उठा रही हैं। चरम सीमा लांघ रहे इस
देशद्रोह से राष्ट्र की अखंडता को चुनौती मिल रही है। वोट की राजनीति ने
सत्ता पक्ष को इतना स्वार्थी और कमजोर बना दिया है कि इस प्रकार की आतताई
शक्तियों को सख्ती से समाप्त करने का साहस किसी में नजर नहीं आता। श्रीराम
के अवतार लेने से पूर्व इक्ष्वाकु वंश के राजाओं की राजधानी अर्थात वृहत्तर
भारत के हृदय स्थल अयोध्या के आसपास के दुर्गम पहाड़ी वनक्षेत्रों में
धर्म विरोधी राक्षसी शक्तियों का बोलबाला था। राजा, रंक, संत, स्त्रियां,
देवस्थल, आश्रम इत्यादि कुछ भी सुरक्षित नहीं था।
राष्ट्र को इस प्रकार की अशांत एवं दुखित परिस्थितियों से निकालकर
आदर्श राज्य की स्थापना का बीड़ा श्रीराम ने उठाया। प्रजा के सुख के लिए
सुचारु राज्य व्यवस्था की स्थापना का अपना निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने
के लिए श्रीराम ने सत्ता, राजमहल और अपने प्रिय निकटतम संबंधियों का भी
सहर्ष त्याग किया। आज तो अपने देश में नेता सत्ता सुख, पारिवारिक सुख और
सम्पत्ति सुख के लिए प्रजा सुख को ठुकराकर बड़े-बड़े घपले, घोटालों में
व्यस्त हैं। ऐसी घोर विकट स्थिति में शांत राज्य व्यवस्था की कल्पना भी
नहीं की जा सकती। आतंकियों और नक्सलियों जैसी विदेश प्रेरित आसुरी ताकतों
का विनाश करना ही एकमेव रास्ता है।
आसुरी शक्तियों का विनाश
इस समझौतावादी राजनीति और अवसरवादिता के विपरीत श्रीराम ने गुरुकुल
विद्यार्थी, वनवासी, संन्यासी और राजा के रूप में आसुरी शक्तियों के
विरुद्ध सैन्य कार्रवाई करने से परहेज नहीं किया। श्रीराम ने हिंसक
आतंकवादियों-मारीच, खर-दूषण, ताड़का, त्रिशरा, सुबाहु और इनके पालक राजाओं-
बाली, मेघनाद, कुंभकरण और रावण जैसे अपराजेय कहलाने वाले सेनापतियों का
स्वयं अपने बाणों से संहार करके भारत राष्ट्र में आदर्श रामराज्य का मार्ग
प्रशस्त किया। दूसरे देशों की सीमाओं, सम्पत्ति जन और संस्कृति पर खतरा बने
ऐसे विदेशी तत्वों को समाप्त करना प्रत्येक राजा का राष्ट्रधर्म होता है।
भारत सहित पूरे विश्व के विनाश की व्यूहरचना करने वाले राक्षसों के
महानायक और संचालक लंकाधिपति को उसके देश में जाकर समाप्त करने का महान
कार्य श्रीराम ने किया। श्रीराम की इस प्रहारात्मक रणनीति से भारत के उन
वर्तमान शासकों को सबक सीखना चाहिए जो सीमापार (पी.ओ.के.) में चलने वाले
आतंकी प्रशिक्षण शिविरों और अपनी ही सीमाओं में पूर्वोत्तर में स्थापित
राष्ट्रदोही अड्डों को समाप्त करने के लिए सैनिक कार्रवाई से घबरा रहे हैं।
अपने समस्त जीवनकाल में श्रीराम ने जो भी निर्णय लिए वे सभी राष्ट्र और
समाज की रक्षा और उत्थान के उद्देश्य से ही लिए। उनमें वोट बैंक की लालसा,
तुष्टीकरण और वंशवादी राजनीति का कहीं कोई स्थान नहीं था। रामराज्य का यही
सशक्त आधार था।
लोकहित और लोकमर्यादा
श्रीराम ने अपने आत्मसंयमी जीवन और अजेय सैनिक शौर्य द्वारा लंका से
उठी अधर्म की आक्रामक लहरों को भी रोका। लंका विजय के पश्चात वहां राज नहीं
किया, बल्कि लक्ष्मण को सम्बोधित करके सम्पूर्ण विश्व को भारतीय उज्ज्वल
परंपराओं का संदेश दिया कि जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान होती है। अपना
उद्देश्य पूरा करने के पश्चात विजयी सैनिकों को विजित प्रदेश में सैनिक
मर्यादाओं का पालन करते हुए वापस अपनी मातृभूमि की ओर मोड़कर श्रीराम ने
भारत के राष्ट्र जीवन की श्रेष्ठतम परंपराओं का प्रस्तुतिकरण किया। अयोध्या
के सिंहासन पर बैठते समय राष्ट्रीय संस्कृति और धर्म का अंकुश स्वीकार
किया। लोकहित और लोकमर्यादा पर आधारित राजसत्ता को समाज सेवा और देश रक्षा
का साधन बनाकर रामराज्य की सर्वोत्तम आदर्श राज्य व्यवस्था का सूत्रपात
किया।
रामराज्य जैसी उच्च कोटि, परंतु अत्यंत व्यावहारिक शासन पद्धति और
श्रीराम के मर्यादायुक्त जीवन से न केवल भारतीय समाज और राष्ट्र को ही
मार्गदर्शन मिला अपितु सारे संसार ने इस अलौकिक और अभूतपूर्व प्रकाश से
अपने तमस को दूर किया। भारत को विश्वगुरु का सम्मान दिलाने में श्रीराम के
मर्यादा युक्त जीवन का अद्भुत योगदान रहा। ये सभी मर्यादाएं और आदर्श
श्रीराम के स्वयं के व्यक्तित्व से कहीं ऊपर भारतवर्ष की महान संस्कृति बन
गए। आज के सत्तालोलुप व्यक्तिनिष्ठ राजनेताओं के लिए श्रीराम की मर्यादा
पुरुषोत्तमता दिशा सूत्र बननी चाहिए।
श्रीराम की पुरुषोत्तमता
आज भी विश्व के अनेक देशों में श्रीराम और रामराज्य के मर्यादा
पुरुषोत्तम चरित्र का जो प्रभाव दिखाई दे रहा है वह भारत राष्ट्र की
मर्यादा पुरुषोत्तमता ही है। हमारे राष्ट्र की रामराज्य की कल्पना के विविध
आयाम सृष्टि के सम्पूर्ण जीवन को मर्यादित करते रहे हैं। यह आदर्श और जीवन
मूल्य राजा राम के पूर्व भी विद्यमान थे। सृष्टि के आदि में भी थे और अंत
तक रहेंगे। भारत के अवतारी पुरुषों, महर्षियों और आध्यात्मिक राष्ट्र
नेताओं ने समय समय पर इसकी व्याख्या की, इनको समयोचित बल प्रदान किया और
समाज जीवन में समाहित कर दिया। श्रीराम अपने इस राष्ट्रीय और मानवीय
कर्तव्य की पूर्ति करने के पश्चात अंत में स्वयं अपने हाथों से श्रेष्ठ
नेतृत्व को राज्य व्यवस्था सौंपकर सत्ता से हट गए। अवतारी होते हुए भी
श्रीराम ने एक मनुष्य के रूप में अपना अवतारी उद्देश्य पूरा किया।
रामराज्य की श्रेष्ठ राज्य व्यवस्था और श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन
भारतीय संस्कृति और राष्ट्रजीवन का पर्याय है। उनके आदर्शों के माध्यम से
समस्त विश्व ने भारत को जाना है और उनके इन्हीं सर्वोत्तम एवं कल्याणकारक
सत्कार्यों से विश्व फिर भारत को जानेगा। स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद
और मा.स.गोलवलकर (श्री गुरुजी) ने अपनी दिव्य दृष्टि से 21वीं सदी में
भारतमाता के जिस ज्योतिर्मय स्वरूप को विश्वगुरु के सिंहासन पर शोभायमान
देखा है, उसका आधार रामराज्य की पुरुषोत्तमता ही होगी।
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