छदम चहरे से आएगा : नव वामपंथ
छदम चहरे से आएगा : नव वामपंथ
किसी भी राष्ट्र की मौलिक संप्रभुता के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक वामपंथ ही होता है ! इसी लिए ये सफल होने के बाद भी दुनिया भर में विफल हो चूका है ! मगर इनका शासन सेना के बल पर अभी भी बहुत बड़े क्षेत्र हुआ है । अब नए स्वरूप में ये फिर से पूरी दुनिया पर काबू पाना चाहता है । जनहित के नाम पर पूरी दुनिया में फैले विविध आंदोलनों के असली मकसदों को समझना होगा । इस लेख को पढ़ कर इनकी योजना को समझनें की कोशिश करना चाहिए ।
----------नया वाम आयेगा
By अचिन वनाइक 30/09/2013http://visfot.com/index.php/current-affairs/10144
पिछले 30-35 सालों में दुनिया भर में राजनीति का ध्रुवीकरण दक्षिणपंथ की ओर हुआ है। नव-उदारवादी लोकतंत्र और नव-उदारवादी पूंजीवाद शब्द इसी क्रम में उपजे हैं। विकसित देशों में भी दक्षिणपंथी ताकतें आगे बढ़ी हैं। वहां जिन्हें सेंटर-लेफ्ट ताकतें कहा जाता था (जो कि पूंजीवाद में सुधार की बात करती थी) उनका भी दक्षिणपंथी शिफ्ट हुआ है। सोवियत संघ का विघटन एक दक्षिणपंथी बदलाव ही है। पूर्वी यूरोप में दक्षिणपंथी भी बदलाव हुआ। चीन में तो अविश्वसनीय रूप से जबरदस्त दक्षिणपंथी परिविर्तन हुआ। उसने पूरी तरह पूंजीवाद अपना लिया। वो कहता रहा कि ये ‘चीनी विशेषताओं के साथ समाजवाद’ है, लेकिन पिछले दस सालों में असल में ये ‘चीनी विशेषताओं के साथ पूजीवाद’ साबित हुआ है।
इस तरह पूरी दुनिया में ऐसे दक्षिणपंथी शिफ्ट के चलते सारी वामपंथी ताकतें रक्षात्मक मुद्रा में आ गई हैं। सिर्फ लेटिन अमेरिका में कुछ हद तक वामपंथ रक्षात्मक होने के बजाय आक्रामक मुद्रा में है। इसकी वजह है कि वहां नवउदारवादी आर्थिक नीतियां सबसे पहले आई हैं। दूसरी बात है कि वहां पर एक नए किस्म का वाम उभरा है। जो ना स्टालिनवादी है और ना ही माओवादी। तीसरी बात है कि उन्होंने एक सबक सीखा है कि जिन देशों में सोशल- डेमोक्रेटिक-पूजीवादी चुनावी प्रणाली है उन देशों में माओवादियों का हथियारबंद संघर्ष नहीं चलेगा। उसकी ठोस वजहें हैं।
एक वजह तो ये है कि इस दौर में राज्य ने भी यह बखूबी समझ लिया है कि सशस्त्र संघर्षों से कैसे निपटना है। इसमें बाकी देश भी इकट्ठे हो कर एक-दूसरे को सहयोग कर रहे हैं। जैसे कि हमारे सामने सबसे मजबूत बगावती आंदोलन लिट्टे का उदाहरण है। जिसके पास अपना एयरफोर्स था, अपनी नेवी थी। लेकिन श्रीलंका जैसे छोटे राज्य से वे हार गए। इसमें भारत ने श्रीलंका की मदद की। राज्य ने इस तरीके को भी समझा है कि चाहे 20-25 साल तक भी इस तरीके के आंदोलनों को पूरी तरह हराना उसके लिए मुश्किल हो लेकिन अगर गतिरोध भी कायम रखा जा सका तो लंबे समय में इन आंदोलनों में भारी अवसान होता जाता है। इनका ही जनाआधार थकता चला जाता है। एक दूसरा उदाहरण हम नागा आंदोलन का भी ले सकते हैं जो कि कई दशकों से मजबूती से संघर्षरत है। जो अपनी आजादी की मांग करता रहा है। आजकल इसका नेतृत्व, ग्रेटर नागालैंड अटॉनमी की मांग करने लगा है। और इस शर्त पर भारत के साथ रहने को तैयार हो गया है। लेटिन अमेरिका में 1970 के बाद वहां उदारवादी लोकतंत्र आ गया। वहां का नया वाम सशस्त्र संघर्ष को छोड़कर चुनावी प्रणाली में आया। लेकिन चुनावी लोकतंत्र में आकर उसने वामपंथ को आगे बढ़ाने का अपना नया तरीका इजाद किया है।
लेटिन अमेरिका में ’नया वाम’ (न्यू लैफ्ट) चुनावी प्रणाली में है लेकिन वामपंथी सरोकरों को बचाए हुए है। वहां इसके उभार का प्रमुख कारण लेटिन अमेरिकी देशों की सांस्कृतिक एकरूपता और उसकी मजबूती है। किसी एक जगह पर उभार पाया वामपंथ पूरे लेटिन अमेरिका में फैल जाता है। ऐेसी एकता का उदाहरण अरब देश भी हैं। जहां इस्लामी और अरबी सांस्कृतिक एकता है। लेकिन वहां वामपंथी आंदोलन अभी वैसा प्रसार नहीं पा सका है।
कुछ जगहों में जैसे कि वेनेजुएला आदि में क्रांतिकारी बदलाव ऊपर से आया था। सेना के रेडिकलाइजेशन से। यह भी एक परंपरा रही है लेकिन सीमित है। इतिहास में इसके कुछ उदाहरण रहे हैं जैसे कि पुर्तगाल में 1970 के दशक में जो पुर्तगाली सेना दक्षिण अफ्रीका में वहां के स्वाधीनता संग्राम को दबाने गई थी वो वहां से खुद विद्रोही होकर लौटी और उसने पुर्तगाल से तानाशाही को उखाड़ फैंका था। लेटिन अमेरिका में कुछ हिस्सों में सेना के रेडिकलाइजेशन का एक इतिहास रहा है। जिसका उदाहरण वेनेजुएला रहा है। लेकिन इसके अलावा ब्राजील, बोलिबिया और एक्वाडोर आदि में नए स्वतःस्फूर्त सामाजिक आंदोलन उभरे। इन्होंने एक नया पक्ष उभारा। ‘न्यू लैफ्ट’। जो कि मूलतः क्रांतिकारी था। ये चुनावों में भागीदारी करता था और काफी हद तक सत्ता में पहुंचा भी।
भारत में ऐसा नहीं हुआ है। यहां सामाजिक आंदोलन अलग रहे हैं और वाम आंदोलन तकरीबन अलग। दूसरी बात ये है कि भारत के अलावा कोई भी ऐसा देश नहीं है जो सांस्कृतिक, भाषाई, जातीय और सांप्रदायिक दृष्टि से इतना विविधता भरा हो। ये बात राज्य/सरकारों के लिए बड़ी फायदेमंद रही है और क्रांतिकारी आंदोलनों के आपस में जुड़ने और क्रांतिकारी विचारों के प्रसार के लिए हमेशा बाधक रही है। राज्य इन जगहों से उठते प्रतिरोधों के बिखरा होने के कारण आसानी से इन्हें आसानी निभा लेता है। मुझे लगता है कि निकट भविष्य में भारत के बजाय चीन में क्रांतिकारी बदलावों की ज्यादा संभावनाऐं हैं। क्योंकि केंद्रीयकृत अधिनायकवादी ढांचे में जनता के पास स्पष्ट और एक ही दुश्मन होता है जिससे उसे लड़ना है। लेकिन उदारवादी लोकतंत्र में अलग-अलग वजहों से बिखरी हुई जनता के पास उसका दुश्मन ना ही स्पष्ट होता है ना ही एक।
भारतीय मार्क्सवादी आंदोलन को लेटिन अमेरिका से कुछ सबक सीखने की जरूरत है। पहला सबक है कि देश के अलग-अलग जनपक्षीय संघर्षों को कैसे आपस में जोड़ा जा सके। दूसरा कि आपको चुनावी राजनीति में उतरना अनिवार्य है लेकिन इस खतरे से पर्याप्त सावधान रहते हुए कि आप उसी में न समा जाएं। ये कैसे संभव होगा? यह तभी संभव है जब वामपंथी धाराएं सामाजिक गोलबंदी की रणनीति अपनाएं। उदारवादी लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक पार्टी को, चाहे वो वामपंथी हो या दक्षिणपंथी, संसदीय/चुनावी राजनीति के इतर, सामाजिक गोलबंदी को ही ज्यादा प्राथमिकता देनी चाहिए। यह तयशुदा तौर पर उसकी समूची राजनीति को फायदा पहुंचाती है। बाबरी मस्जिद अभियान के बाद बीजेपी को हुए फायदे को हम उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं। सामान्यतः बुर्जुआ पार्टियां चुनावी राजनीति में लोगों को आकर्षित करने के लिए अपने कार्यक्रम को लोकलुभावन बनाती हैं। लेकिन आप ऐसा नहीं कर सकते। पर इसका मतलब ये भी नहीं है कि जनता को लामबंद करने के लिए अन्य तरीके नहीं हैं। लेफ्ट को इन तरीकों को प्राथमिकता देनी होगी। क्योंकि यही वो रास्ता है जिससे उसे चुनावी राजनीति में भी फायदा मिलेगा। आज की सीपीएम और साठ-सत्तर के दशक के सीपीएम में भारी अंतर है। उनका तब के कैडर की चेतना, उनका चरित्र, उनकी आशाऐं और गोलबंदी की क्षमताऐं जबरदस्त थीं। उन्हीं की इन क्षमताओं के बल पर सीपीएम पश्चिम बंगाल में सत्ता में आ पाई। लेकिन पिछले तीस सालों में अब ये सब बिखर गया है। ट्रेड यूनियनों में ब्रेड एंड बटर के सवाल के अलावा सीपीएम कहां किसी भी तरह की जन-गोलबंदी कर पाई है। जब बाबरी मस्जिद पर दक्षिणपंथी ताकतें अपनी गोलबंदी कर रही थी वामपंथी, धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर इसके समानान्तर गोलबंदी क्यों नहीं कर पाए। जब्कि दो राज्यों में इनकी सरकार हुआ करती थी। वह ऐसा कर ही नहीं सकती थी। उनके कैडर को खुद पर ऐसा कर पाने का यकीन नहीं था। वेतन बढ़ाने के सवाल पर आसान ट्रेड यूनियनबाजी करने के इतर यह असल क्रांतिकारी चेतना के प्रसार का एक जटिल सवाल था। यह भारतीय वाम राजनीति की सबसे चिंताजनक जगहें हैं।
भारत में सिर्फ तीन प्रतिशत यूनियनाइज्ड कार्यक्षेत्र है, और आर्गनाइज्ड कार्यक्षेत्र महज सात प्रतिशत है। ऐसे में अन्य देशों की तुलना में यहां सामाजिक आंदोलन बहुत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन ये सामाजिक आंदोलन विशिष्ट मुद्दे पर या विशिष्ट क्षेत्र के होते हैं और बिखरे हुए हैं। कहीं बांधों के सवाल पर आंदोलन है, कहीं महिला अधिकारों के आंदोलन, कहीं दलित आंदोलन है, ऐसे ही बहुत सारे आंदोलन हैं। वामपंथी राजनीति को इन्हें जोड़ने की जरूरत है। स्टालिनवादी वाम का मानना है कि जब तक हम इसे कंट्रोल ना करने लगें इसमें शामिल होने में खतरा है। ऐसे में दोनों पक्षों में असमंजस बना रहता है। वहीं सीपीआई माओवादी हर आंदोलन को हथियार बंद आंदोलन की ओर ही ले जाने को आमादा है। इस छद्म उदारवादी लोकतंत्र में लेफ्ट को लोगों को बताना होगा कि हमारी राजनीति समाज को जिस ओर ले जा रही है वो हर स्तर पर इससे ज्यादा लोकतांत्रिक होगा। ऐसा करने के क्रम में लेफ्ट पार्टियों के आंतरिक ढांचे को भी और अधिक लोकतांत्रिक बनाना होगा। ये भी समझना होगा कि ये पार्टियां रूस और चीन की जिन परंपराओं से आती हैं उनकी तरफ अब कोई आकर्षित नहीं होने वाला।
लेटिन अमेरिका के मार्क्सवादी आंदोलन का भारत के वामपंथी आंदोलन को तीसरी सबक यह है कि अगर आपको जनगोलबंदी की राजनीति करनी होगी तो आपको एक मजबूत कैडर बेस की जरूरत होगी। जो कि अनुशासित होना चाहिए, उत्साही होना चाहिए, ईमानदार होना चाहिए और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए। पिछले दौर में स्टालिनवादियों का दृष्टिकोण बड़े भ्रम का शिकार था। तकरीबन चार दशक तक पश्चिम बंगाल में सरकार में रही सीपीएम का कैडर भ्रष्ट होता गया। कैडर फोर्स बनाने के लिए पार्टी के आंतरिक ढांचे का स्वरूप मजबूत लोकतांत्रिक और प्रेरक होना चाहिए।
***** यहां भी लेटिन अमेरिका की तरह ही ‘नया लेफ्ट’ कई तरह से उभरकर सामने आएगा और इसमें सबसे ज्यादा संभावना स्थापित वाम पार्टियों के अंतद्र्वंद्वों से हुए विघटनों से ही है। और इसका विस्तार तमाम सामाजिक आंदोलनों के राजनीतीकरण से ही होगा। यहीं इसे अपना जनाधार मिलेगा। लेकिन ये एक लम्बी प्रक्रिया होगी।
****** पिछले 40 सालों में भारत के समाज में पूरी तरह छा जाने वाला संगठन आरएसएस ही रहा है। एक दौर में कुछ जगहों पर वामपंथी आंदोलन का भी ऐसा ही आधार था। (और अब भी देखें तो माओवादियों का तो पूरा आधार ऐसा ही है। लेकिन वे चुनावों में शामिल नहीं हैं।) आरएसएस के इस आधार का चुनावों में स्पष्टतः ही भाजपा को फायदा मिलता है। लेकिन संसदीय वामपंथ का यह पक्ष लगातार ही कमजोर होता गया है।
इसी क्रम में माओवादियों की जितनी भी आलोचना करें, लेकिन कभी भी राज्य द्वारा उनके दमन का समर्थन नहीं किया जा सकता। और यह भी है कि मैं राज्य द्वारा माओवादियों के दमन का विरोध करूंगा तो इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं है मैं उनकी रणनीति का समर्थन करूंगा। वहीं मुझे नहीं लगता कि सीपीआई, सीपीएम अपने चरित्र को बदल सकता है।
यहां वामपंथी पार्टी के ढांचे पर भी कुछ बात जरूर की जानी चाहिए। हमारे पास इतिहास के कई सबक हैं जिनमें पार्टी के भीतरी ढांचे में लोकतांत्रिक मूल्यों का अभाव दिखता है। और ये सब लोकतांत्रिक केंद्रीयकरण (डैमोक्रेटिक सेंट्रेलिजम) के नाम पर हुआ है। मैं नहीं समझता कि डैमोक्रेटिक सेंट्रेलिजम एक प्रोबलम है। जिन पार्टियों की समझ डैमोक्रेटिक सेंट्रेलिजम है वो गलत है। और जिस तरह से वो अपनाते हैं वो गलत है। ज्यादातर लोग समझते हैं कि ये एक सांगठनिक सिद्धांत है लेकिन दरअसल ये एक राजनीतिक सिद्धांत है। जो कि कई बार सांगठनिक हो सकता है लेकिन उसमें बहुत सारे अन्य महत्वपूर्ण बिंदु हैं। अगर कोई अर्थपूर्ण लोकतांत्रिक, सांगठनिक राजनीतिक ताकत बनना है तो पार्टी के भीतर पार्टी की लाइन पर असहमतियों के लिए स्कोप होना चाहिए। पार्टी के भीतर ही पिरामिडिकल ढांचे में नेतृत्व में प्रत्येक स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व भी निर्धारित होना चाहिए। जैसे कि महिलाओं, दलितों और आदिवासियों को आरक्षण। क्योंकि इस तरह की विशिष्ट समस्याओं से भी पार्टी ने लड़ना होगा। अगर पार्टी ऐसा कर पाई तो आप जनता को आकर्षित भी कर पाएगी। यह भी समझना होगा कि दूसरे आंदोलन से कैसे जुड़ा जाय। हर जगह पार्टी नेतृत्व ही करें यह संभव नहीं है । बेहतर है कि पार्टी समझे कि आपको कहां सहयोगी भूमिका में रहना है और कहां सामने आकर नेतृत्व करना है। कैडर का उत्साह बनाए रखना भी एक महत्वपूर्ण मसला है। 30 के दशक में फासीवाद के उभार के अवसादी दौर में वामपंथियों के पास एक मजबूत उम्मीद थी कि ‘हम जानते हैं कि भविष्य हमारा है’ (सोशलिज्म इज अवर फ्यूचर)। अब वो उत्साह किसके पास है? सोवियत संघ टूट गया। चीन का कम्युनिज्म दक्षिणपंथी झुकाव का शिकार हो गया। और भी ऐसी ही कई निराशाओं का ये दौर है। यहां कैडर के भीतर वही उत्साह भरने की जरूरत है कि ‘भविष्य हमारा है’।
सोवियत संघ के विघटन के बारे में अक्सर भारतीय मार्क्सवादी चिंतन का मानना है कि स्टालिनवाद नहीं बल्कि गोर्बाच्यो था। जब्कि सोवियत संघ में आम जनता ने ही व्यवस्था को खारिज कर दिया। चीन में कितने लोग आज समाजवाद के प्रति प्रतिबद्ध हैं? ज्यादातर के लिए तो अब यह राष्ट्रवाद है। हमें इन जगहों से कुछ सबक लेने की जरूरत है। आजकल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर युवा अक्सर अराजकतावादी आंदोलनों की तरफ जा रहे हैं, जैसे आक्युपाई मूवमेंट आदि, आखिर क्यों? क्योंकि चीन और सोवियत संघ में उन्होंने जो देखा है अब उन्हें कोई भी उम्मीद साम्यवाद में नहीं दिखती है। जब्कि ऐसा है कि उनके आंदोलन में भी कई दिक्कतें हैं। पर फिर भी वे साम्यवाद के बिदके हुए हैं।
मार्क्सवादी धारा में हमेशा से ही स्टालिनवादी और माओवादी धारा के इतर कुछ धाराएं रही हैं जिन्होंने इस सबकी आलोचनाएं की हैं। ट्राटेस्की, लिबेरिटेरियन कांउसिल कम्यूनिस्ट, लक्जम्बर्ग आदि बहुत सी ऐसी माक्र्सवादी परंपराएं हैं। इन्हीं परंपराओं से मैं भी आता हूं। मुझे लगता है कि भारत में दक्षिणपंथ के बजाय वामपंथ का संकट ज्यादा गंभीर है। वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से माओवादियों का रास्ता नहीं चलेगा और वर्तमान संसदीय रास्ता भी फीका ही पड़ जाएगा। अब एक ‘न्यू लैफ्ट’ उभरकर आएगा। वो उभरेगा विघटनों और संघर्षों में से।
ऐसे बहुत से वामपंथी हैं जो माओवादी और स्टालिनवादी परंपराओं से नहीं आते हैं उनका मानना है कि सोशल डैमोक्रेटिक कैपिटलिज्म विकसित किया जाना चाहिए और ऐसे पूंजीवाद को जितना संभव हो पाए मानवीय बनाया जाय। फिर इसी क्रम में समाजवाद की ओर बढेंगे। मेरा मानना है कि इस किस्म की अवधारणाएं अब निराधार हैं। इनका समय बीत गया है। मेरा ये कहना नहीं है कि आप सोशल डैमोक्रेटिक मांगों से आप शुरूवात ना करें बल्कि ये मांगें तो महत्वपूर्ण हैं। लेकिन सिर्फ इन्हीं के भरोसे नहीं बैठा जा सकता।
नई पीढ़ी और अभी की पीढ़ी में बड़ा अन्तर ये है कि हमारी पीढ़ी में हम लोग अतीत की ओर बहुत ध्यान देते थे। जो अतीत, इतिहास था जो अतीत, सबक था। इसकी ओर हम बहुत ध्यान देते थे। लेकिन अभी की पीढ़ी जो आॅक्युपाई मूवमेंट आदि में आई है या वामपंथी आंदोलनों में भी है, ये सिर्फ आज के मसलों पर ही रूचि लेती है। वो अतीत की बात नहीं करती। माक्र्सवाद की आंतरिक बहसों मसलन, ट्राटस्की, लैक्जम्बर्ग, स्टालिन आदि के रास्तों जैसे मसलों पर वो कोई बहस नहीं करती। ये एक समस्या है। क्योंकि लड़ाई सिर्फ तात्कालिक रणनीति और सफलताओं के लिए नहीं है। पूरा एक इतिहास है जिससे हम प्रेरणा भी ले सकते हैं और सबक भी।
एक बात यह समझना भी जरूरी है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अगर तमाम संघर्ष सफल होते हैं तो इसका सीधा असर भारत पर भी पड़ेगा। अगर यूएसए की अफगानिस्तान, इराक, फिलिस्तीन आदि में राजनीतिक हार होती है तो भारत के आंदोलनों पर इसका सकारात्मक असर जरूर पड़ेगा। इसके अलवा दुनिया भर में पर्यावरण की बात एक केंद्रीय मसला है। सवाल है कि क्या पूंजीवाद और पर्यावरण संरक्षण साथ चल सकते हैं। दुनियाभर में अधिकतर लोगों का मानना है कि यह संभव नहीं। लेकिन सवाल है कि विकल्प क्या है? वामपंथियों के पास इस मसले पर दुनियाभर में जनगोलबंदी की बड़ी संभावना है। यहां इन्हें नेतृत्व लेना होगा। इधर बहुत उम्मीदें हैं।
भारतीय वामपंथ के सामने सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि अलग-अलग लोकतांत्रिक संघर्षों को कैसे जोड़ा जा सके। देशभर में जनता की कुछ समस्याएं अलग-अलग हैं और कुछ साझी भी। जिनके लिए वो लगातार लड़ती भी है। इन दोनों संघर्षों को जोड़ने के क्रम में ही न्यू लेफ्ट (नया वाम) उभरेगा। और भविष्य में नई क्रांतिकारी उम्मीदें इसी ‘नए वाम’ से हैं।
(दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अचिन वनायक से पत्रकार प्रेक्सिस के लिए रोहित जोशी और विनय सुल्तान की बातचीत)
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ग्राउंड जीरो पर ग्रीनपीस
By अभिषेक श्रीवास्तव, सिंगरौली से लौटकर 07/07/2014
http://visfot.com/index.php/current-affairs/11219-greenpeace-par-ground-report.html
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