आचार्य रघुवीर : संस्कृति के उन्नायक
आचार्य रघुवीर : संस्कृति के उन्नायक
जन्म-30 दिसम्बर, 1902 ई., निधन- 14 मई, 1963 ई.भारतीय संस्कृति, प्राचीन धरोहर तथा शब्द सम्पदा के उन्नयन के लिए जिन मनीषियों ने पूर्ण समर्पण भाव से कार्य किया उनमें आचार्य रघुवीर का नाम अग्रणी है।
आचार्य रघुवीर का जन्म 30 दिसम्बर, 1902 को पश्चिमी पंजाब के रावलपिण्डी नगर में एक प्रतिष्ठित अग्रवाल परिवार में हुआ था। उनके पिता लाला मुंशीराम एक आदर्श शिक्षक थे। उन्हीं के संस्कारों से प्रेरित श्री रघुवीर ने युवावस्था में ही हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी तथा बंगला आदि का अध्ययन किया और अपना लक्ष्य भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार निर्धारित कर लिया था। पंजाब वि·श्वविद्यालय से पी.एच.डी. करने के बाद उन्होंने प्रचलित अंग्रेजी तथा उर्दू-फारसी के शब्दों की जगह हिन्दी शब्दों के निर्माण का संकल्प लिया।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जब हिन्दी में पारिभाषिक शब्दों के निर्माण का प्रश्न आया तो आचार्य रघुवीर ने इस चुनौती को स्वीकार किया। उन्होंने कहा "हिन्दी का मूल संस्कृत में है और संस्कृत इतनी समृद्ध भाषा है कि उसकी धातुओं और उपसर्गों के सहयोग से अनन्त शब्दों का निर्माण हो सकता है।' आचार्य रघुवीर ने सन् 1955 में "ए काम्प्रहेसिव- इंगलिश-हिन्दी डिक्शनरी' का निर्माण किया। उन्होंने चार लाख शब्दों का निर्माण कर हिन्दी भाषा को समृद्ध किया। इससे संस्कृत और हिन्दी भाषा की क्षमता का पूरे संसार में दबदबा स्थापित हो सका। हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाएं भी इस शब्दावली से समृद्ध हुईं।
आचार्य रघुवीर ने दिल्ली में "अन्तरराष्ट्रीय सांस्कृतिक अकादमी' की स्थापना की। भारतीय संस्कृति के स्रोतों का अन्वेषण करने के उद्देश्य से उन्होंने इण्डोनेशिया, बाली, सुमात्रा, जावा, लाओस, वियतनाम, चीन, जापान, मंगोलिया आदि देशों की सांस्कृतिक यात्रा कर ऐसी प्रचुर सामग्री प्राप्त की जिनसे यह सिद्ध किया जा सका कि भारतीय संस्कृति का वि·श्व-व्यापी प्रभाव रहा है। वे इन देशों से दुर्लभ ग्रंथ, प्राचीन मूर्तियां तथा दस्तावेज लाए। आज भी नई दिल्ली (हौज खास) स्थित "सरस्वती विहार' के संग्रहालय में यह दुर्लभ सामग्री संग्रहीत है।
आचार्य रघुवीर द्वारा जकार्ता तथा अन्य देशों से प्राप्त असंख्य ग्रंथ तथा जावा, सुमात्रा, इण्डोनेशिया आदि के नागरी लिपि के शिलालेखों के छायाचित्र धरोहर के रूप में विद्यमान हैं। आचार्य रघुवीर द्वारा स्थापित "सरस्वती विहार' के भवन का सन् 1956 में शिलान्यास करते हुए राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था "पूर्व की प्राचीन विचाराधारा तथा ज्ञान भण्डार की खोज कर आचार्य रघुवीर ने भारतीय संस्कृति की महान सेवा की है।'
उन्होंने संविधान सभा के सदस्य के रूप में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का गौरव दिलाने के लिए सतत् प्रयास किया। उन्होंने कहा था, हिन्दी का प्रश्न राष्ट्रीयता का प्रश्न है, उसे राष्ट्रभाषा का पद देकर ही हमारा राष्ट्र प्रगति कर सकता है।
आचार्य रघुवीर सन् 1963 में भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे, किन्तु इसी वर्ष 14 मई को एक सड़क दुर्घटना में उनका निधन हो गया। दशिवकुमार गोयल तलपट
तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग (ओ.एन.जी.सी.) ने अपने 15 बड़े क्षेत्रों का पता लगाया है जहां लगभग 80 प्रतिशत भण्डार हैं। पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री ने मुम्बई (उत्तरी) उच्च क्षेत्र के पुनर्विकास के लिए जनवरी,2001 में 2900 करोड़ रुपए की योजना की शुरुआत भी की थी। इसके अलावा मुम्बई (दक्षिणी) उच्च क्षेत्र की पुनर्विकास योजना को भी अंतिम रूप दे दिया गया है, जिस पर लगभग 5,200 करोड़ रुपए निवेश के रूप में लगाने की योजना है।
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आचार्य रघुवीर (३०, दिसम्बर १९०२ - १४ मई, १९६३) महान भाषाविद, प्रख्यात विद्वान् , राजनीतिक नेता तथा भारतीय धरोहर के मनीषी थे। आप महान् कोशकार, शब्दशास्त्री तथा भारतीय संस्कृति के उन्नायक थे। एक ओर आपने कोशों की रचना कर राष्ट्रभाषा हिंदी का शब्दभांडार संपन्न किया, तो दूसरी ओर विश्व में विशेषतः एशिया में फैली हुई भारतीय संस्कृति की खोज कर उसका संग्रह एवं संरक्षण किया। राजनीतिक नेता के रूप में आपकी दूरदर्शिता, निर्भीकता और स्पष्टवादिता कभी विस्मृत नहीं की जा सकती।
वे भारतीय संविधान सभा के सदस्य थे। दो बार (१९५२ व १९५८) राज्य सभा के लिये चुने गये। नेहरू की आत्मघाती चीन-नीति से खिन्न होकर जन संघ के साथ चले गये। भारतीय संस्कृति को जगत्गुरू के पद पर आसीन करने के लिये उन्होने विश्व के अनेक देशों का भ्रमण किया तथा अनेक प्राचीन ग्रन्थों का एकत्रित किया। उन्होने ४ लाख शब्दों वाला अंग्रेजी-हिन्दी तकनीकी शब्दकोश के निर्माण का महान कार्य भी किया।
भारतीय साहित्य, संस्कृति और राजनीति के क्षेत्र में आपकी देन विशिष्ट एवं उल्लेख्य हैं। भारत के आर्थिक विकास के संबंध में भी आपने पुस्तकें लिखी हैं और उनमें यह मत प्रतिपादित किया है कि वस्तु को केंद्र मानकर कार्य आरंभ किया जाना चाहिए।
जीवन वृत्त
आचार्य रघुवीर का जन्म ३० दिसम्बर १९०२ को रावलपिण्डी (पश्चिमी पंजाब) में हुआ था। पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से एमए करने के उपरान्त उन्होने लन्दन से पी-एचडी किया तथा हालैण्ड से डी लिट किया। सन् १९३१ में आपने डच भाषा में उपनिवेशवाद के विरुद्ध क्रांतिसमर्थक ग्रंथ लिखा, जिससे हिंदेशिया के स्वतंत्रता आंदोलन को विशेष प्रेरणा एवं शक्ति मिली।
इसके बाद उनके आरम्भिक कार्य का केन्द्र लाहौर ही रहा जहाँ वे सनातन धर्म कालेज में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष थे। वे अपने आप में एक संस्था थे। उन्होने सन १९३२ में लाहौर के निकट इछरा (Ichhra) में इन्टरनेशनल एकेडमी आफ इण्डियन कल्चर कीस्थापना कर भारतीय संस्कृति के अनुसंधान का कार्य आरंभ किया। इस कार्य के लिए आपने योरोप, सोवियत संघ, चीन तथा दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों की अनेक बार यात्राएँ कीं। इन यात्राओं में आपने भारतीय संस्कृति विषयक अपन विशेष दृष्टि तो रखी ही, साथ ही उन देशों की राजनीतिक विचारधारा तथा भारत पर पड़नेवाले संभावित प्रभावों को भी ध्यान में रखा। अपने तीन यूरोप प्रवासों के समय व उसके बाद वे वहाँ के अधिकांश भारतविदों के सम्पर्क में रहे। १९४६ में वे इसे नागपुर ले आये। फिर १९५६ में उनका यह सरस्वती विहार (International academy of Indian culture) दिल्ली आ गया।
उनके एक पुत्र (डा लोकेश चन्द्र) तथा दो पुत्रियाँ हैं। अपनी मृत्यु के पूर्व ही उन्होने अपने इस महान कार्य में अपने पुत्र, पुत्र-बधु, पुत्रियों एवं दामाद को लगा दिया था ।
मंगोलिया यात्रा
अपने जीवन के अन्तिम दशक में आचार्य रघुवीर मंगोलिया देश की यात्रा पर गए। उस समय उनके अनुसंधान का विषय था- मंगोलिया की भाषा, साहित्य, संस्कृति और धर्म। वह इतिहास जिसमें छठी शताब्दी के उन भारतीय आचार्यों का वर्णन है जो धर्म की ज्योति लिए मंगोल देश में गये, और 6000 संस्कृत ग्रन्थों का मंगोल भाषा में भाषान्तर किया, जिनके द्वारा निर्मित दास लाख मूर्तियां, सात सौ पचास विहारों में सुरक्षित थीं, जिनके द्वारा लिखी अथवा लिखवायी गयीं बत्तीस लाख पाण्डुलिपियां 1940 तक विहारों में सुरक्षित थीं, लाखों प्रभापट थे। आचार्य जी इन सब का अवलोकन करना चाहते थे। मंगोल भाषा में लिखा गया विक्रमादित्य, राजा भोज और कृष्ण की कथाएं वे अपने साथ लाए।
बीसवीं शताब्दी में भारत से मंगोलिया जाने वाले वे पहले आचार्य थे। 1956 में जब वे वहां गए तो वहां की जनता के लिए मानो एक युगप्रवर्तक घटना घटी हो। प्रधानमंत्री से लेकर विद्वान, पत्रकार, जनता-जनार्दन का अपार स्नेह उन्हें मिला। जिस-जिस तम्बू में वे गए, माताओं ने अपने बच्चों को उनकी गोद में बिठा दिया, सब उनका आशीर्वाद पाने को आतुर थे।
इस यात्रा से वे अपने साथ तीन लाख पृष्ठों के अणु चित्र लाये, पाण्डुलिपियां और प्रभापट लाये। पहली बार कोई भारतीय मंगोलिया से भारत-अनुप्राणित साहित्य और कला-निधियां लेकर आया था।
आचार्य जी स्वतंत्रता का उदय होते ही सर्वप्रथम अवसर की खोज में रहे कि भारत के सांस्कृतिक सखा देशों से पुन: सम्बंध स्थापित कर सकें। आचार्य जी का मंगोलों में जाना क्या था, वे तो आनन्द-विभोर हो उठे कि कई शदियों के उपरान्त भारत के आचार्य के चरण उनकी भूमि पावन कर रहे हैं।
जनवरी 1956 में आचार्य जी सोवियत संघ, साइबेरिया (शिबिर देश) और मंगोल गणराज्य की यात्रा पर गये तो वहां शरीर को जमा देने वाली ठण्ड थी। मास्को में चलने के लिए दो व्यक्तियों का सहारा लेना पड़ता था। गरम बनियान, ऊनी कमीज, कोट, ओवरकोट और उसके ऊपर रुई से भरा चमड़े का कोट पहन कर भी सदीÇ से शरीर की रक्षा नहीं हो पाती थी। वहां उन्होंने चंगेज खां के वंशज़ों के अति दिव्य मन्दिर देखे जो गणेशजी की मूर्तियों से सुशोभित थे। मन्दिरों में भिक्षु उपासना के साथ ढोल और अन्य वाद्य बजा रहे थे। मन्दिरों के बाहर लटकी छोटी-छोटी घÎण्टयां मधुर स्वर गुंजा रही थीं। मन्दिरों के भीतर बोधिवृक्ष को शिशु की भांति पाला-पोसा जाता था। अगुरु और चन्दन से बनी महाघण्टी थी, श्रीवत्स से अंकित वस्त्र से ढके पटल (मेज) थे, मन्दिर के बाहर पीले नेजाबुत्का फूल थे। नेजाबुत्का का अर्थ है: मुझे भूल न जाना। चारों ओर हिम का धवल साम्राज्य था।
यहां से आचार्य जी मंगोल भाषा में अनूदित अनेक ग्रन्थ लाये जिनमें कालिदास का मेघदूत, पाणिनि का व्याकरण, अमरकोश, दण्डी का काव्यादर्श आदि सम्मिलित हैं। इनमें से एक, "गिसन खां" अर्थात् राजाकृष्ण की कथाओं का उनकी सुपुत्री डा. सुषमा लोहिया ने अनुवाद किया है। वे भारतीयों को भारतीयता के गौरव की अनुभूति करवाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने मंगोल-संस्कृत और संस्कृत-मंगोल कोश भी लिख डाले। उन्होंने मंगोल भाषा का व्याकरण भी लिखा ताकि भावी पीढ़ियां उसका अध्ययन कर सकें।
वहां "आलि-कालि-बीजहारम्" नामक, संस्कृत पढ़ाने की एक पुस्तक आचार्य जी को उपलब्ध हुई। इसमें लाञ्छा और वतुÇल दो लिपियों का प्रयोग किया गया है। भारत में ये लिपियां खो चुकी हैं। मंगोलिया में बौद्ध भिक्षु संस्कृत की धारणियों को लिखने और पढ़ने के लिए इस पुस्तक का अध्ययन किया करते थे। इसमें संस्कृत अक्षरों का तिब्बती और मंगोल लिपियों में लिप्यन्तर कर उन्हीं भाषाओं में वर्णन प्रस्तुत किए गए हैं। और भी आश्चर्य की बात है कि इसकी छपाई चीन में हुई थी। यह पुस्तक मात्र भारत के चीन, मंगोलिया और तिब्बत के साथ सांस्कृतिक सम्बंधों की गाथा ही नहीं सुनाती अपितु नेवारी, देवनागरी तथा बंगाली लिपियों का विकास जानने में भी सहायक है।
भाषाविद् , हिन्दीसेवी एवं कोशकार
आप महान् कोशकार तथा भाषाविद् थे। डॉ रघुवीर जीवनपर्यन्त अंग्रेजी के एकाधिकार के विरुद्ध सभी भारतीय भाषाओं के संयुक्त मोर्चे के निर्माण की दिशा में कार्यरत रहे। वह केवल हिन्दी भाषा में ही पारंगत नहीं थे वरन संस्कृत, फारसी, अरबी, उर्दू, बांग्ला, मराठी, तमिल, तेलगु, पंजाबी पर भी उनका अधिकार था। इतना ही नहीं, यूरोप की अधिकांश भाषाओं (जिनमें अंग्रेजी भी शामिल है) पर भी उनका अच्छी पकड़ थी।
आपने प्रायः छह लाख शब्दों की रचना की है। आपकी शब्दनिर्माण की पद्धति वैज्ञानिक है। आपने विज्ञान की प्रत्येक शाखा के शब्दों की कोश-रचना की है। सन् १९४३ ई. में आपने आंग्ल-हिंदी पारिभाषिक शब्दकोश का प्रणयन और प्रकाशन किया। सन् १९४६ में मध्यप्रदेश सरकार ने आपको हिंदी और मराठी के वैज्ञानिक ग्रंथों की रचना का कार्य सौपा, जिसे आपने पूर्ण दृढ़ता तथा योग्यता से पूरा किया।
अपने राष्ट्रभाषा हिंदी को प्रतिष्ठित करने का आंदोलन ही नहीं किया अपितु उसके आधार को भी पुष्ट और प्रशस्त किया। संविधान की शब्दावली के कारण आपका यश सारे देश में फैल गया था। आप अनेक वर्षों तक संसदीय हिंदी परिषद् के मंत्री थे।
डॉ. रघुवीर के कोशकार्य की एक ओर अत्यधिक प्रशंसा हुई, दूसरी ओर अत्यधिक आलोचना। वस्तुत: यह प्रशंसनीय कार्य था, जिसको अत्यधिक श्रम से वैज्ञानिक आधार पर प्रस्तुत किया गया। संपूर्णत: संस्कृत पर आधारित होने के कारण इसकी व्यावहारिकता पर संदेह किया जाने लगा। उन्होंने सर्वप्रथम भाषा-निर्माण में यांत्रिकता तथा वैज्ञानिकता को स्थान दिया। उपसर्ग तथा प्रत्ययों के धातुओँ के योग से लाखों शब्द सहज ही बनाये जा सकते हैं:
उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते। प्रहार-आहार-संहार-विहार-परिहार वत् ।।
इस प्रक्रिया को कोश की भूमिका में समझाया। यदि मात्र दो संभावित योग लें, मूलांश ४०० और तीन प्रत्यय लें तो ८००० रूप बन सकते हैं, जबकि अभी तक मात्र ३४० योगों का उपयोग किया गया है। यहाँ शब्द-निर्माण की अद्भुत क्षमता उद्घाटित होती है। उन्होंने विस्तार से उदाहरण देकर समझाया कि किस प्रकार 'गम्' धातु मात्र से १८० शब्द सहज ही बन जाते हैं-
प्रगति, परागति, परिगति, प्रतिगति, अनुमति, अधिगति, अपगति, अतिगति, आगति, अवगति, उपगति,
उद्गति, सुगति, संगति, निगति, निर्गति, विगति, दुर्गति, अवगति, अभिगति, गति, गन्तव्य, गम्य, गमनीय, : गमक, जंगम, गम्यमान, गत्वर, गमनिका
आदि कुछ उदाहरण हैं। मात्र 'इ' धातु के साथ विभिन्न एक अथवा दो उपसर्ग जोड़कर १०७ शब्दों का निर्माण संभव है। उन्होंने स्पष्ट किया कि ५२० धातुओं के साथ २० उपसर्गों तथा ८० प्रत्ययों के योग से लाखों शब्दों का निर्माण किया जा सकता है। अगर धातुओं की संख्या बढ़ा ली जाए तो १७०० धातुओं से २३८०० मौलिक तथा ८४,९६,२४००० शब्दों को व्युत्पन्न किया जा सकता है।
इस प्रकार संस्कृत में शब्द निर्माण की अद्भुत क्षमता है, जिसका अभी नाममात्र का ही उपयोग किया जा सका है। अतिवादी दृष्टि से बचकर भी लाखों ऐसे सरल शब्दों को प्रयोग में लाया जा सकता है, जो हिन्दी की प्रवृत्ति के अनुकूल हैं।
राजनीति में
असाधारण विद्वत्ता तथा बहुमुखी प्रतिभा के कारण आप सन् ५२ और ५६ में राज्यसभा के सदस्य चुने गए। इसके पूर्व राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के करण सन् १९४१ में अपको कारावास का दंड मिला। राष्ट्र की स्वाधीनता के पश्चात् उसके निर्माण में आपका सदैव सक्रिय सहयोग रहा। राजनीतिक दृष्टि से राष्ट्र के गौरव को बनाए रखने के लिए आपने समय-समय पर कांग्रेस की दलगत नीति की कटु आलोचना की। सरकर की प्रतिरक्षा, चीन, कश्मीर तथा भाषानीति आदि के संबंध में कांग्रेस से आपका मतभेद हो गया और आप कांग्रेस दल से पृथक् हो गए। भारतीय कांग्रेस से अलग हो आप जनसंघ में सम्मिलित हुए और इसके अध्यक्ष चुने गए। सन १९६२ में आपने लोकसभा का चुनाव लड़ा था किंतु पराजित हो गए। भारतीय जनसंघ को आपके नेतृत्व में नवीन शक्ति, प्रेरणा तथा मान प्राप्त हुआ। प्रबल राष्ट्रप्रेम, प्रगाढ़ राष्ट्रभाषा प्रेम तथा भारतीय संस्कृति के पुनरुद्धारक के रूप में डा. रघुवीर सदा सर्वदा श्रद्धापूर्वक स्मरण किए जाएँगे।
आचार्य रघुवीर (३०, दिसम्बर १९०२ - १४ मई, १९६३) महान भाषाविद, प्रख्यात विद्वान् , राजनीतिक नेता तथा भारतीय धरोहर के मनीषी थे। आप महान् कोशकार, शब्दशास्त्री तथा भारतीय संस्कृति के उन्नायक थे। एक ओर आपने कोशों की रचना कर राष्ट्रभाषा हिंदी का शब्दभांडार संपन्न किया, तो दूसरी ओर विश्व में विशेषतः एशिया में फैली हुई भारतीय संस्कृति की खोज कर उसका संग्रह एवं संरक्षण किया। राजनीतिक नेता के रूप में आपकी दूरदर्शिता, निर्भीकता और स्पष्टवादिता कभी विस्मृत नहीं की जा सकती।
वे भारतीय संविधान सभा के सदस्य थे। दो बार (१९५२ व १९५८) राज्य सभा के लिये चुने गये। नेहरू की आत्मघाती चीन-नीति से खिन्न होकर जन संघ के साथ चले गये। भारतीय संस्कृति को जगत्गुरू के पद पर आसीन करने के लिये उन्होने विश्व के अनेक देशों का भ्रमण किया तथा अनेक प्राचीन ग्रन्थों का एकत्रित किया। उन्होने ४ लाख शब्दों वाला अंग्रेजी-हिन्दी तकनीकी शब्दकोश के निर्माण का महान कार्य भी किया।
भारतीय साहित्य, संस्कृति और राजनीति के क्षेत्र में आपकी देन विशिष्ट एवं उल्लेख्य हैं। भारत के आर्थिक विकास के संबंध में भी आपने पुस्तकें लिखी हैं और उनमें यह मत प्रतिपादित किया है कि वस्तु को केंद्र मानकर कार्य आरंभ किया जाना चाहिए।
जीवन वृत्त
आचार्य रघुवीर का जन्म ३० दिसम्बर १९०२ को रावलपिण्डी (पश्चिमी पंजाब) में हुआ था। पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से एमए करने के उपरान्त उन्होने लन्दन से पी-एचडी किया तथा हालैण्ड से डी लिट किया। सन् १९३१ में आपने डच भाषा में उपनिवेशवाद के विरुद्ध क्रांतिसमर्थक ग्रंथ लिखा, जिससे हिंदेशिया के स्वतंत्रता आंदोलन को विशेष प्रेरणा एवं शक्ति मिली।
इसके बाद उनके आरम्भिक कार्य का केन्द्र लाहौर ही रहा जहाँ वे सनातन धर्म कालेज में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष थे। वे अपने आप में एक संस्था थे। उन्होने सन १९३२ में लाहौर के निकट इछरा (Ichhra) में इन्टरनेशनल एकेडमी आफ इण्डियन कल्चर कीस्थापना कर भारतीय संस्कृति के अनुसंधान का कार्य आरंभ किया। इस कार्य के लिए आपने योरोप, सोवियत संघ, चीन तथा दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों की अनेक बार यात्राएँ कीं। इन यात्राओं में आपने भारतीय संस्कृति विषयक अपन विशेष दृष्टि तो रखी ही, साथ ही उन देशों की राजनीतिक विचारधारा तथा भारत पर पड़नेवाले संभावित प्रभावों को भी ध्यान में रखा। अपने तीन यूरोप प्रवासों के समय व उसके बाद वे वहाँ के अधिकांश भारतविदों के सम्पर्क में रहे। १९४६ में वे इसे नागपुर ले आये। फिर १९५६ में उनका यह सरस्वती विहार (International academy of Indian culture) दिल्ली आ गया।
उनके एक पुत्र (डा लोकेश चन्द्र) तथा दो पुत्रियाँ हैं। अपनी मृत्यु के पूर्व ही उन्होने अपने इस महान कार्य में अपने पुत्र, पुत्र-बधु, पुत्रियों एवं दामाद को लगा दिया था ।
मंगोलिया यात्रा
अपने जीवन के अन्तिम दशक में आचार्य रघुवीर मंगोलिया देश की यात्रा पर गए। उस समय उनके अनुसंधान का विषय था- मंगोलिया की भाषा, साहित्य, संस्कृति और धर्म। वह इतिहास जिसमें छठी शताब्दी के उन भारतीय आचार्यों का वर्णन है जो धर्म की ज्योति लिए मंगोल देश में गये, और 6000 संस्कृत ग्रन्थों का मंगोल भाषा में भाषान्तर किया, जिनके द्वारा निर्मित दास लाख मूर्तियां, सात सौ पचास विहारों में सुरक्षित थीं, जिनके द्वारा लिखी अथवा लिखवायी गयीं बत्तीस लाख पाण्डुलिपियां 1940 तक विहारों में सुरक्षित थीं, लाखों प्रभापट थे। आचार्य जी इन सब का अवलोकन करना चाहते थे। मंगोल भाषा में लिखा गया विक्रमादित्य, राजा भोज और कृष्ण की कथाएं वे अपने साथ लाए।
बीसवीं शताब्दी में भारत से मंगोलिया जाने वाले वे पहले आचार्य थे। 1956 में जब वे वहां गए तो वहां की जनता के लिए मानो एक युगप्रवर्तक घटना घटी हो। प्रधानमंत्री से लेकर विद्वान, पत्रकार, जनता-जनार्दन का अपार स्नेह उन्हें मिला। जिस-जिस तम्बू में वे गए, माताओं ने अपने बच्चों को उनकी गोद में बिठा दिया, सब उनका आशीर्वाद पाने को आतुर थे।
इस यात्रा से वे अपने साथ तीन लाख पृष्ठों के अणु चित्र लाये, पाण्डुलिपियां और प्रभापट लाये। पहली बार कोई भारतीय मंगोलिया से भारत-अनुप्राणित साहित्य और कला-निधियां लेकर आया था।
आचार्य जी स्वतंत्रता का उदय होते ही सर्वप्रथम अवसर की खोज में रहे कि भारत के सांस्कृतिक सखा देशों से पुन: सम्बंध स्थापित कर सकें। आचार्य जी का मंगोलों में जाना क्या था, वे तो आनन्द-विभोर हो उठे कि कई शदियों के उपरान्त भारत के आचार्य के चरण उनकी भूमि पावन कर रहे हैं।
जनवरी 1956 में आचार्य जी सोवियत संघ, साइबेरिया (शिबिर देश) और मंगोल गणराज्य की यात्रा पर गये तो वहां शरीर को जमा देने वाली ठण्ड थी। मास्को में चलने के लिए दो व्यक्तियों का सहारा लेना पड़ता था। गरम बनियान, ऊनी कमीज, कोट, ओवरकोट और उसके ऊपर रुई से भरा चमड़े का कोट पहन कर भी सदीÇ से शरीर की रक्षा नहीं हो पाती थी। वहां उन्होंने चंगेज खां के वंशज़ों के अति दिव्य मन्दिर देखे जो गणेशजी की मूर्तियों से सुशोभित थे। मन्दिरों में भिक्षु उपासना के साथ ढोल और अन्य वाद्य बजा रहे थे। मन्दिरों के बाहर लटकी छोटी-छोटी घÎण्टयां मधुर स्वर गुंजा रही थीं। मन्दिरों के भीतर बोधिवृक्ष को शिशु की भांति पाला-पोसा जाता था। अगुरु और चन्दन से बनी महाघण्टी थी, श्रीवत्स से अंकित वस्त्र से ढके पटल (मेज) थे, मन्दिर के बाहर पीले नेजाबुत्का फूल थे। नेजाबुत्का का अर्थ है: मुझे भूल न जाना। चारों ओर हिम का धवल साम्राज्य था।
यहां से आचार्य जी मंगोल भाषा में अनूदित अनेक ग्रन्थ लाये जिनमें कालिदास का मेघदूत, पाणिनि का व्याकरण, अमरकोश, दण्डी का काव्यादर्श आदि सम्मिलित हैं। इनमें से एक, "गिसन खां" अर्थात् राजाकृष्ण की कथाओं का उनकी सुपुत्री डा. सुषमा लोहिया ने अनुवाद किया है। वे भारतीयों को भारतीयता के गौरव की अनुभूति करवाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने मंगोल-संस्कृत और संस्कृत-मंगोल कोश भी लिख डाले। उन्होंने मंगोल भाषा का व्याकरण भी लिखा ताकि भावी पीढ़ियां उसका अध्ययन कर सकें।
वहां "आलि-कालि-बीजहारम्" नामक, संस्कृत पढ़ाने की एक पुस्तक आचार्य जी को उपलब्ध हुई। इसमें लाञ्छा और वतुÇल दो लिपियों का प्रयोग किया गया है। भारत में ये लिपियां खो चुकी हैं। मंगोलिया में बौद्ध भिक्षु संस्कृत की धारणियों को लिखने और पढ़ने के लिए इस पुस्तक का अध्ययन किया करते थे। इसमें संस्कृत अक्षरों का तिब्बती और मंगोल लिपियों में लिप्यन्तर कर उन्हीं भाषाओं में वर्णन प्रस्तुत किए गए हैं। और भी आश्चर्य की बात है कि इसकी छपाई चीन में हुई थी। यह पुस्तक मात्र भारत के चीन, मंगोलिया और तिब्बत के साथ सांस्कृतिक सम्बंधों की गाथा ही नहीं सुनाती अपितु नेवारी, देवनागरी तथा बंगाली लिपियों का विकास जानने में भी सहायक है।
भाषाविद् , हिन्दीसेवी एवं कोशकार
आप महान् कोशकार तथा भाषाविद् थे। डॉ रघुवीर जीवनपर्यन्त अंग्रेजी के एकाधिकार के विरुद्ध सभी भारतीय भाषाओं के संयुक्त मोर्चे के निर्माण की दिशा में कार्यरत रहे। वह केवल हिन्दी भाषा में ही पारंगत नहीं थे वरन संस्कृत, फारसी, अरबी, उर्दू, बांग्ला, मराठी, तमिल, तेलगु, पंजाबी पर भी उनका अधिकार था। इतना ही नहीं, यूरोप की अधिकांश भाषाओं (जिनमें अंग्रेजी भी शामिल है) पर भी उनका अच्छी पकड़ थी।
आपने प्रायः छह लाख शब्दों की रचना की है। आपकी शब्दनिर्माण की पद्धति वैज्ञानिक है। आपने विज्ञान की प्रत्येक शाखा के शब्दों की कोश-रचना की है। सन् १९४३ ई. में आपने आंग्ल-हिंदी पारिभाषिक शब्दकोश का प्रणयन और प्रकाशन किया। सन् १९४६ में मध्यप्रदेश सरकार ने आपको हिंदी और मराठी के वैज्ञानिक ग्रंथों की रचना का कार्य सौपा, जिसे आपने पूर्ण दृढ़ता तथा योग्यता से पूरा किया।
अपने राष्ट्रभाषा हिंदी को प्रतिष्ठित करने का आंदोलन ही नहीं किया अपितु उसके आधार को भी पुष्ट और प्रशस्त किया। संविधान की शब्दावली के कारण आपका यश सारे देश में फैल गया था। आप अनेक वर्षों तक संसदीय हिंदी परिषद् के मंत्री थे।
डॉ. रघुवीर के कोशकार्य की एक ओर अत्यधिक प्रशंसा हुई, दूसरी ओर अत्यधिक आलोचना। वस्तुत: यह प्रशंसनीय कार्य था, जिसको अत्यधिक श्रम से वैज्ञानिक आधार पर प्रस्तुत किया गया। संपूर्णत: संस्कृत पर आधारित होने के कारण इसकी व्यावहारिकता पर संदेह किया जाने लगा। उन्होंने सर्वप्रथम भाषा-निर्माण में यांत्रिकता तथा वैज्ञानिकता को स्थान दिया। उपसर्ग तथा प्रत्ययों के धातुओँ के योग से लाखों शब्द सहज ही बनाये जा सकते हैं:
उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते। प्रहार-आहार-संहार-विहार-परिहार वत् ।।
इस प्रक्रिया को कोश की भूमिका में समझाया। यदि मात्र दो संभावित योग लें, मूलांश ४०० और तीन प्रत्यय लें तो ८००० रूप बन सकते हैं, जबकि अभी तक मात्र ३४० योगों का उपयोग किया गया है। यहाँ शब्द-निर्माण की अद्भुत क्षमता उद्घाटित होती है। उन्होंने विस्तार से उदाहरण देकर समझाया कि किस प्रकार 'गम्' धातु मात्र से १८० शब्द सहज ही बन जाते हैं-
प्रगति, परागति, परिगति, प्रतिगति, अनुमति, अधिगति, अपगति, अतिगति, आगति, अवगति, उपगति,
उद्गति, सुगति, संगति, निगति, निर्गति, विगति, दुर्गति, अवगति, अभिगति, गति, गन्तव्य, गम्य, गमनीय, : गमक, जंगम, गम्यमान, गत्वर, गमनिका
आदि कुछ उदाहरण हैं। मात्र 'इ' धातु के साथ विभिन्न एक अथवा दो उपसर्ग जोड़कर १०७ शब्दों का निर्माण संभव है। उन्होंने स्पष्ट किया कि ५२० धातुओं के साथ २० उपसर्गों तथा ८० प्रत्ययों के योग से लाखों शब्दों का निर्माण किया जा सकता है। अगर धातुओं की संख्या बढ़ा ली जाए तो १७०० धातुओं से २३८०० मौलिक तथा ८४,९६,२४००० शब्दों को व्युत्पन्न किया जा सकता है।
इस प्रकार संस्कृत में शब्द निर्माण की अद्भुत क्षमता है, जिसका अभी नाममात्र का ही उपयोग किया जा सका है। अतिवादी दृष्टि से बचकर भी लाखों ऐसे सरल शब्दों को प्रयोग में लाया जा सकता है, जो हिन्दी की प्रवृत्ति के अनुकूल हैं।
राजनीति में
असाधारण विद्वत्ता तथा बहुमुखी प्रतिभा के कारण आप सन् ५२ और ५६ में राज्यसभा के सदस्य चुने गए। इसके पूर्व राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के करण सन् १९४१ में अपको कारावास का दंड मिला। राष्ट्र की स्वाधीनता के पश्चात् उसके निर्माण में आपका सदैव सक्रिय सहयोग रहा। राजनीतिक दृष्टि से राष्ट्र के गौरव को बनाए रखने के लिए आपने समय-समय पर कांग्रेस की दलगत नीति की कटु आलोचना की। सरकर की प्रतिरक्षा, चीन, कश्मीर तथा भाषानीति आदि के संबंध में कांग्रेस से आपका मतभेद हो गया और आप कांग्रेस दल से पृथक् हो गए। भारतीय कांग्रेस से अलग हो आप जनसंघ में सम्मिलित हुए और इसके अध्यक्ष चुने गए। सन १९६२ में आपने लोकसभा का चुनाव लड़ा था किंतु पराजित हो गए। भारतीय जनसंघ को आपके नेतृत्व में नवीन शक्ति, प्रेरणा तथा मान प्राप्त हुआ। प्रबल राष्ट्रप्रेम, प्रगाढ़ राष्ट्रभाषा प्रेम तथा भारतीय संस्कृति के पुनरुद्धारक के रूप में डा. रघुवीर सदा सर्वदा श्रद्धापूर्वक स्मरण किए जाएँगे।
डॉ रघुवीर रचित ज्ञानकोष किस प्रकार प्राप्त हो पाएगा , यह उपलब्ध है भी या नहीं
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