करगिल विजय के 15 साल : शहीदों को याद



नई दिल्ली: करगिल विजय के 15 साल पूरे होने पर द्रास में शहीदों को याद किया गया। इस दौरान सेना प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह ने द्रास में बने वार मेमोरियल में शहीदों को श्रद्धांजलि दी।

भारतीय सेना के जवानों ने 26 जुलाई 1999 को करगिल लड़ाई में जीत हासिल की थी। सेना ने करगिल में घुस आई पाकिस्तानी सेना और घुसपैठियों को मार भगाया था। द्रास के वार मेमोरियल में शहीदों की याद में दिए जलाए जाएंगे।

26 जुलाई यानी शनिवार को करगिल विजय दिवस के मौके पर नई दिल्ली के इंडिया गेट पर सुबह करीब 9 बजे रक्षा मंत्री तीनों सेनाओं के प्रमुखों के साथ करगिल के शहीदों को श्रद्धांजलि देंगे। वहीं द्रास सेक्टर में वार मेमोरियल में भी शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाएगी, लेकिन शनिवार के कार्यक्रम में सेना प्रमुख वहां मौजूद नहीं होंगे।

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करगिल युद्ध: सचमुच भारत ने जंग जीती थी?
--सुरेश एस डुग्गर--शुक्रवार, 25 जुलाई 2014
कारगिल में मिली सफलता आखिर विजय कैसी? अपनी ही धरती पर लड़े गए युद्ध में अपने ही इलाके को खाली करवाने में पाई गई कामयाबी को क्या फतह या विजय के नामों से पुकारा जाना चाहिए था? आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि पाकिस्तान बार-बार भारत को अपनी ही धरती पर दुश्मन से मुकाबला करने के लिए मजबूर कर रहा है? कारगिल संकट इस प्रश्न को भी उठाता है कि कहां गए वे बयान और वे चेतावनियां जिनमें अक्सर कहा जाता था कि अगला युद्ध शत्रु की भूमि पर होगा? इन सब सवालों का जवाब शायद मिल भी जाए लेकिन राजनयिक मोर्चों पर मिलने वाली कामयाबी (?) क्या उन परिवारों के दिलों पर लगे जख्मों को भर पाएगी जिनके प्रियजनों को कारगिल की लड़ाई लील गई थी।

वैसे भी 15 साल पहले कारगिल में लगी आग अभी बुझी नहीं है। यह अभी भी सुलग रही है। यह कब तक ठंडी पड़ेगी कोई सुनिश्चित तौर पर कहने की स्थिति में नहीं। इस आग में अभी और कितने घर, कितने परिवार जलेंगे, कोई नहीं जानता। तीन महीने चली जंग का सामना भारतीय सरकार और भारतीय जनता ने पहली बार किया था। हालांकि अभी तक अपने दुश्मन पड़ोसी के साथ जितने भी युद्ध हुए, वे मात्र कुछ दिनों में समाप्त हो गए और वे सभी दुश्मन की धरती पर लड़े गए थे। यह पहला ऐसा युद्ध था, जो उसकी दीर्घकालिक नीति का परिणाम था तो भारत के लिए अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर खोला गया एक नया मोर्चा।

तीन महीनों के युद्ध के उपरांत कारगिल जंग का आकलन करने के बाद सबसे बड़ा प्रश्न सामने आया था कि क्या खोया और क्या पाया? उत्तर में राजनीति की बिसात पर गोटियों के स्थान पर इंसानों को खेलने वालों का कहना था कि अंतरराष्ट्रीय समर्थन पाया तो उन परिवारों के मासूम चेहरे आज भी चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि उनका क्या कसूर था जिनके प्रियजनों को छीन लिया गया। राजनयिक स्तर पर मिली जीत उन परिवारों के घावों को आज 15 सालों के बाद भी नहीं भर पाई है जिनके एक से ज्यादा युवा सदस्य इस जंग में कुर्बान कर दिए गए। सवाल यह है कि इन परिवारों तथा एक आम आदमी के लिए राजनयिक स्तर पर मिलने वाली कामयाबी कितना महत्व रखती है? जबकि अब यह स्पष्ट हो चुका है कि पूर्व में की गई गलतियों का परिणाम ही कारगिल की जंग थी, जो इतनी आसानी से बुझने वाली आग नहीं है जितनी कि उम्मीद की जा रही है।

कारगिल प्रकरण से यह बात भी स्पष्ट उभरकर सामने आई कि पाकिस्तान शांति नहीं चाहता। लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करना उसकी मजबूरी हो सकती थी कि वह दिखावे की राजनीति भी करना जानता है। कारगिल प्रकरण और कश्मीर में जारी आतंकवाद इसके स्पष्ट प्रमाण हैं कि पाकिस्तान ने कोई ऐसा संकेत कभी नहीं दिया जिससे यह नजर आता हो कि पाकिस्तान शांति का पक्षधर रहा हो। हितोपदेश की एक सूक्ति के अनुसार- शत्रुता और मित्रता केवल व्यवहार से होती है। यह सूक्ति पाकिस्तान पर खरी नहीं उतरती है, क्योंकि वर्तमान संदर्भों में पाकिस्तान के नजरिए में कोई मैत्रीपूर्ण परिवर्तन नजर नहीं आया।

लेकिन भारत ने हर बार गलती की है। उसने ऐसे दुश्मन पर विश्वास करने का प्रयास किया है, जो हमेशा पीठ पीछे छुरा घोंपता आया है। इससे अधिक शत्रुता की भावना क्या हो सकती है कि एक ओर पाकिस्तान शांति के प्रयासों के लिए रचे ढोंग में लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर कर रहा था तो दूसरी ओर वह कारगिल प्रकरण की योजनाओं को अंतिम रूप दे रहा था। इसमें चिंता की बात यह रही कि भारतीय शासकों ने दुश्मन की प्रत्येक ढोंगभरी दोस्ती की चाल पर विश्वास किया, जबकि उसने कभी भी पूर्व की घटनाओं से सबक सीखने का प्रयास नहीं किया कि पाकिस्तान जैसे पड़ोसी पर विश्वास कतई नहीं किया जाना चाहिए, जो हमेशा वादों और समझौतों को तोड़ता आया है। कारगिल में युद्धविराम को तोड़कर भी उसने पुनः इसका ताजा उदाहरण दिया था।

कारगिल में तीन महीने चली जंग का चौंकाने वाला पहलू यह रहा था कि यह जंग पाकिस्तान के इलाकों पर कब्जा करने के लिए नहीं बल्कि अपने ही उन क्षेत्रों को खाली करवाने के लिए हुई थी जिन पर पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया था। हालांकि 1947 के उपरांत यह दूसरी घटना थी, जब पाकिस्तान ने मित्रता की आड़ में भारत की पीठ में छुरा घोंपते हुए उसकी भूमि पर कब्जा कर लिया। कारगिल जंग का एक शोचनीय पहलू यह भी रहा था कि कारगिल की जंग पाकिस्तान की धरती पर नहीं बल्कि हिन्दुस्तान की धरती पर ही लड़ी गई थी। इस जंग ने उन चेतावनियों और बयानों को झूठा साबित कर दिया था जिसमें अक्सर भारतीय नेता कहा करते थे- ‘अगला युद्ध पाकिस्तान की धरती पर होगा।'

फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं आई है कि भारतीय सेना पाकिस्तान की धरती पर युद्ध करे। इसके लिए शर्म, अंतरराष्ट्रीय समुदाय की आलोचना भारत के रास्ते के रोड़े हैं जबकि वह कभी भी आक्रामक हमलावर के रूप में सामने नहीं आया है। इसी कारण कारगिल प्रकरण से सीमा पर बने तनाव के बावजूद उसने संयम बरता और ऐसी कोई हरकत नहीं की जिससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय की आलोचना का शिकार होना पड़ता या फिर राजनयिक मोर्चे पर मिलने वाली सफलता धूमिल पड़ जाती।

इसी स्थिति का परिणाम था कि 527 से अधिक कीमती जवानों तथा अधिकारियों को गंवाने के बावजूद भारत कारगिल के युद्ध में वह सफलता हासिल नहीं कर पाया था, जो एक युद्ध के मैदान में मिलती थी। याद रहे कि 1947, 1965 तथा 1971 के भरपूर युद्ध कुछ दिनों तक चले थे तो कारगिल का युद्ध 3 महीनों तक चल चला था।

1947 में हुए युद्ध में 1103,1965 में 2902 तथा 1971 के युद्ध में 3630 भारतीय जवान व अधिकारी हताहत हुए थे। उसके अनुपात में कारगिल का आंकड़ा बहुत अधिक था। वे भरपूर युद्ध थे, जो सारी सीमाओं पर लड़े गए थे जबकि कारगिल में लड़ा गया युद्ध एक ही सेक्टर में लड़ा गया। इसमें इतनी क्षति असहनीय थी।

इसके दृष्टिगत कारगिल में पाई जाने वाली सफलता को ‘विजय’ कहा जाना उचित होगा? युद्ध के शब्दकोश में विजय उसी स्थिति में होती है, जब दुश्मन की फौज को मार भगाया जाए और उसके इलाके पर कब्जा कर लिया जाए। प्रश्न यह भी उठता है कि अपने ही इलाकों को वापस लेने में पाई गई कामयाबी को विजय और फतह के नामों से क्यों पुकारा जाए। सही मायनों में कारगिल के पहाड़ों के मुक्ति अभियान को गलतियों को सुधारना कह सकते हैं या फिर लापरवाही की सजा भी, क्योंकि कारगिल में परिस्थितियां विपरीत थीं। न ही दुश्मन फौज भागी थी और न ही दुश्मन के इलाके पर कब्जा किया गया था।

आजादी के बाद कारगिल का युद्ध पहला ऐसा युद्ध था जिसमें भारत को पाकिस्तान की धरती पर नहीं बल्कि अपनी ही धरती पर दुश्मन से उलझना पड़ा था। ठीक इसी प्रकार की उलझन वह कश्मीर में आतंकवाद के रूप में भारत के गले 1989 से डाल चुका है। उलझन भी ऐसी कि अपने ही पहाड़ अपने जवानों के लिए मौत का ग्रास बन रहे हैं।

इस सच्चाई से इंकार नहीं कि कारगिल के पहाड़ों की परिस्थितियां कई भारतीय जवानों के लिए घातक व जानलेवा साबित हुई हैं। माना कि पाकिस्तान के 2700 से अधिक जवान व अधिकारी मारे गए, परंतु पाकिस्तान ने अभी भी दोस्ती की आड़ में भारत की पीठ में छुरा घोंपना छोड़ा नहीं है। वह भारत के संयम की परीक्षा ले रहा है। भारत के संयम बरतने की नीति व प्रवृत्ति का पाकिस्तान सच में गलत लाभ उठा रहा है। हालांकि यह उसकी पुरानी फितरत है और जिसे भारत बार-बार अवसर प्रदान कर रहा है।

सभी मानते हैं कि राजनयिक मोर्चे पर सफलता व कामयाबी मिली थी। परंतु यह कामयाबी उन जख्मों को शायद ही कभी भर पाएगी जो कारगिल में शहीद होने वाले परिवारों के सदस्यों के दिलों पर लगे थे।

तीन प्रत्यक्ष युद्धों में पराजय का मुंह देखने के उपरांत पाकिस्तान ने जिन नीतियों का निर्धारण भारत को मुसीबत में डालने के लिए किया वे आज भारत सरकार के लिए परेशानी का कारण बनी हुई हैं।

इस घटनाक्रम में ताजा नीति कारगिल में लड़ी गई लड़ाई थी जि‍सको हालांकि हमने जीत तो लिया लेकिन पाकिस्तान ने कारगिल में सारा साल अपनी फौजें तैनात करने का कार्य भारत के कांधों पर डाल नया आर्थिक मोर्चा खोल दिया।

कारगिल में सारा साल सैनिकों की तैनाती की आवश्यकता अब इसलिए हो चुकी है, क्योंकि पाकिस्तानी सेना गलत हरकतें करने से कभी भी बाज नहीं आती चाहे उसे कितनी बार पराजय का मुंह देखना पड़े। सियाचिन में भी यही हो रहा है। 14 अप्रैल 1984 को आरंभ हुआ ऑपरेशन मेघदूत अभी तक समाप्त नहीं हुआ है, जो अनुमानतः कई लाख करोड़ करोड़ रुपया डकार चुका है।

रक्षा विशलेषकों के अनुसार पाकिस्तान असल में भारत के विरुद्ध आर्थिक युद्ध भी छेड़ना चाहता है। राज्य में चल रहे तीनों ऑपरेशनों को रक्षा विशेषज्ञ आर्थिक युद्ध का ही नाम देते हैं। हालांकि वे इसे दीर्घकालिक युद्ध का नाम भी देते हैं, क्योंकि 1947, 65 तथा 71 की तरह ये तीनों युद्ध कुछ दिनों तक नहीं बल्कि महीनों और सालों से चल रहे हैं।

इन सारे सवालों के उत्तर की प्रतीक्षा हिन्दुस्तान की जनता को 15 सालों से है। उन परिवारों को है जिनके सदस्य कारगिल में शहीद हो गए। ऐसा नहीं है कि अपने प्रियजनों की शहादत पर उन्हें दुख या गिला हो। बल्कि दुख और गिला इस बात पर है कि राजनीतिक मोर्चों पर होने वाली गलतियां उनके प्रियजनों को लील गई थीं। अब वे नहीं चाहते कि और परिवारों के प्रियजनों को यह गलतियां लील लें। (भाषा)

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