भाई बहन का अनूठा मंदिर : जगन्नाथपुरी धाम

Unique temple of brother and sister: Jagannathpuri Dham





भाई बहन का अनूठा मंदिर : जगन्नाथपुरी धाम  

पुरी में जगन्नाथ मंदिर के 8 अजूबे इस प्रकार है।


1.मन्दिर के ऊपर झंडा हमेशा हवा के विपरीत दिशा में लहराते हुए।

2.पुरी में किसी भी जगह से आप मन्दिर के ऊपर लगे सुदर्शन चक्र को देखेगे तो वह आपको सामने ही लगा दिखेगा।

3.सामान्य दिन के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है, और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पूरी में इसका उल्टा होता है.
4.पक्षी या विमानों मंदिर के ऊपर उड़ते हुए नहीं पायेगें।

5.मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य है.

6.मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी यह व्यर्थ नहीं जाएगी, चाहे कुछ हजार लोगों से 20 लाख लोगों को खिला सकते हैं.

7. मंदिर में रसोई (प्रसाद)पकाने के लिए 7 बर्तन एक दूसरे पर रखा जाता है और लकड़ी पर पकाया जाता है. इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकते जाती है।

8.मन्दिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि नहीं सुन सकते. आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें जब आप इसे सुन सकते हैं. इसे शाम को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

साथ में यह भी जाने:-
मन्दिर का रसोई घर दुनिया का सबसे बड़ा रसोइ घर है।

प्रति दिन सांयकाल मन्दिर के ऊपर लगी ध्वजा को मानव द्वारा उल्टा चढ़ कर बदला जाता है।

मन्दिर का क्षेत्रफल चार लाख वर्ग फिट में है।
मन्दिर की ऊंचाई 214 फिट है।

विशाल रसोई घर में भगवान जगन्नाथ को चढ़ाने वाले महाप्रसाद को बनाने 500 रसोईये एवं 300 उनके सहयोगी काम करते है।
” जय जगन्नाथ
जय जय जगन्नाथ “

जगन्नाथ धाम चार बड़े धामों में से एक29 Jun 2012


पुरी का जगन्नाथ धाम चार बड़े धामों में से एक है. भगवान जगन्नाथ और उनका रथ महोत्सव मिलन, एकता और अखंडता का प्रतीक है.
उड़ीसा में समुद्र तट पर स्थित पुरी में भगवान जगन्नाथ हिंदुओं के प्रमुख देवता हैं. यहां दर्शन के लिए केवल देश ही नहीं विदेशों से भी काफी संख्या में श्रद्धालु आते हैं. रथयात्रा आषाढ़ महीने के द्वितीया से शुरू होती है जो नौ दिनों तक चलती है. पुरी का जगन्नाथ धाम चार बड़े धामों में से एक है. रथयात्रा का शाब्दिक अर्थ होता है, रथ में बैठकर घूमना. यह रथयात्रा पूरे देश में खूब उत्साह और उमंग के साथ मनायी जाती है. भगवान जगन्नाथ और उनका रथ महोत्सव मिलन, एकता और अखंडता का प्रतीक है.

धार्मिक विशेषता

इस रथ को सजाने के लिए एक महीने से लोग कड़ी मेहनत करते हैं. पुरी के इस उत्सव की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इस रथ को सभी जातियों के लोग खींचते हैं. पुरी के राजा गजपति सोने के झाड़ू से रथ के मार्ग को साफ करते हैं. पूजा और अन्य धार्मिक विधियां समाप्त होने के बाद सुबह-सुबह यह रथ धीरे-धीरे आगे बढ़ता है.

रथ को विभिन्न रंगों और कपड़ों से सजाया जाता है. उनके अलग-अलग नाम भी रखे जाते हैं. भगवान जगन्नाथ के रथ का नाम है ‘नंदी घोष’, जो 45.6 फीट ऊंचा होता है. बलराम के रथ का नाम ‘ताल ध्वज’, जो 45 फीट ऊंचा होता है और सुभद्राजी के रथ का नाम ‘दर्प दलन’ है. वह 44.6 फीट ऊंचा होता है.

‘नंदी घोष’ का रंग लाल और पीला, ‘ताल ध्वज’ का रंग लाल और हरा तथा ‘दर्प दलन’ का रंग लाल और नीला रखा जाता है. पुरी में देवी सुभद्रा की पूजा होने पर भी उन्हें हिंदू पुराणों में देवी नहीं माना गया है. भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण या जगन्नाथ और श्रीराम की प्रतिमा को रथ में रखा जाता है. इस रथ को बहुत ही भक्तिभाव से श्रद्धालु खींचते हैं. उसे लक्ष्मीजी, राधिकाजी और सीताजी के मंदिर ले जाया जाता है.

रथ पर जगन्नाथ, बलराम और बहन सुभद्रा

इस दिन भगवान जगन्नाथ, अपने भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ तीन अलग-अलग रथों पर सवार होकर पुरी के मार्ग पर नगर यात्रा करने निकलते हैं. अंत में उन्हें जगन्नाथ पुरी के गुड़िया मंदिर ले जाया जाता है. ये तीनों आठ दिनों तक यहां आराम करते हैं और नौवें दिन सुबह पूजा करने के बाद वापस मंदिर में आते हैं. रथयात्रा के पहले दिन सभी रथों को मुख्य मार्ग की तरफ उचित क्रम में रखा जाता है.

उल्टारथ वापस लौटने की यात्रा को उड़िया भाषा में ‘बहुदा यात्रा’ या ‘उल्टा रथ’ कहा जाता है, जो सुबह शुरू होकर जगन्नाथ मंदिर के सामने पूरी होती है. श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा, तीनों को उनके रथ में स्थापित किया जाता है और एकादशी तक उनकी पूजा होती है. उसके बाद उन्हें अपने-अपने स्थान पर मंदिर में विराजमान किया जाता है.

कला-शिल्प का अद्वितीय नमूना

शिल्पकला जगन्नाथ मंदिर, कला और शिल्प जगत में अद्वितीय नमूना है. यह मंदिर 294 फुट ऊंचा है. यहां हर साल नया रथ बनता है, परंतु भगवान की प्रतिमाएं वही रहती हैं. हर साल तीनों रथ लकड़ियों से बनाए जाते हैं, जिसमें लोहे का बिल्कुल प्रयोग नहीं किया जाता है.

बसंत पंचमी के दिन लकड़ियां इकट्ठा की जाती है और तीज के दिन रथ बनाना शुरू होता है. रथ यात्रा के थोड़े दिन पहले ही उसका निर्माण कार्य पूरा होता है. यहां प्रति वर्ष नया रथ बनता है परंतु 9 से 19 वर्ष में आषाढ़ माह आने पर तीनों मूर्तियां नई बनाई जाती हैं. इस प्रक्रिया को ‘नव कलेवर’ या ‘नया शरीर’ भी कहा जाता है.

पुरानी प्रतिमाओं को मंदिर के अंदर स्थित कोयली वैकुंठ नामक स्थान में जमीन में दबा दिया जाता है. इस वर्ष रथयात्रा 29 जून को संपन्न होगी. इस समय किया गया कोई भी शुभ कार्य अत्यंत फलदायक माना जाता है.
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जगन्नाथ मंदिर पुरी

उड़ीसा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी शहर में जगन्नाथ मंदिर स्थित है। यह मंदिर भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है। जगन्नाथ मंदिर एक हिन्दू मंदिर है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। पुरी के महान मन्दिर में तीन मूर्तियाँ हैं -
भगवान जगन्नाथ,बलभद्र व उनकी बहन सुभद्रा की। ये सभी मूर्तियाँ काष्ठ की बनी हुई हैं।

पौराणिक कथा : -

पौराणिक कथा के अनुसार, इन मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा राजा इन्द्रद्युम्न ने मंत्रोच्चारण व विधि - विधान से की थी। महाराज इन्द्रद्युम्न मालवा की राजधानी अवन्ति से अपना राज–पाट चलाते थे। भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास में शुक्ल द्वितीया को होती है। यह एक विस्तृत समारोह है। जिसमें भारत के विभिन्न भागों से आए लोग सहभागी होते हैं। दस दिन तक यह पर्व मनाया जाता है। इस यात्रा को 'गुण्डीय यात्रा' भी कहा जाता है। गुण्डीच का मन्दिर भी है।


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क्यों नहीं है, भगवान जगन्नाथ के हाथ-पैर ?
Friday, June 22, 2012

अपने ही वरदान से हाथ-पांव गंवा बैठे भगवान जगन्नाथ ! भगवान जगन्नाथ तीनों लोकों के स्वामी हैं, इनकी भक्ति से लोगों की मनोकामना पूरी होती है ! लेकिन खुद इनके हाथ-पांव नहीं हैं !!

जगन्नाथ पुरी में जगन्नाथ जी के साथ बलदेव और बहन सुभद्रा की भी प्रतिमाएं है ! जगन्नाथ जी की तरह इनके भी हाथ-पांव नहीं हैं ! तीनों प्रतिमाओं का समान रूप से हाथ-पांव नहीं होना अपने आप में एक अद्भुत घटना का प्रमाण है !!
जगन्नाथ जी के अद्भुत रूप के विषय में यह कथा है कि मालवा के राजा इंद्रद्युम्न को भगवान विष्णु ने स्वप्न में कहा, “समुद्र तट पर जाओ वहां तुम्हें एक लकड़ी का लट्ठा मिलेगा उससे मेरी प्रतिमा बनाकर स्थापित करो ! राजा ने ऐसा ही किया और उनको वहां पर लकड़ी का एक लट्ठा मिला !!
इसी बीच देव शिल्पी विश्वकर्मा एक बुजुर्ग मूर्तिकार के रूप में राजा के सामने आये और एक महीने में मूर्ति बनाने का समय मांगा ! विश्वकर्मा ने यह शर्त रखी कि जब तक वह खुद आकर राजा को मूर्तियां नहीं सौप दे तब तक वह एक कमरे में रहेगा और वहां कोई नहीं आएगा !!
राजा ने शर्त मान ली, लेकिन एक महीना पूरा होने से कुछ दिनों पहले मूर्तिकार के कमरे से आवाजें आनी बंद हो गयी ! तब राजा को चिंता होने लगी कि बुजुर्ग मूर्तिकार को कुछ हो तो नहीं गया ! इसी आशंका के कारण उसने मूर्तिकार के कमरे का दरवाजा खुलावाकर देखा ! कमरे में कोई नहीं था, सिवाय अर्धनिर्मित मूर्तियों के, जिनके हाथ पांव नहीं थे !!
राजा अपनी भूल पर पछताने लगा तभी आकाशवाणी हुई कि यह सब भगवान की इच्छा से हुआ है ! इन्हीं मूर्तियों को ले जाकर मंदिर में स्थापित करो ! राजा ने ऐसा ही किया और तब से जगन्नाथ जी इसी रूप में पूजे जाने लगे !!
विश्वकर्मा चाहते तो एक मूर्ति पूरी होने के बाद दूसरी मूर्ति का निर्माण करते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और सभी मूर्तियों को अधूरा बनाकर छोड़ दिया ! इसके पीछे भी एक कथा है, बताते हैं कि एक बार देवकी रूक्मणी और कृष्ण की अन्य रानियों को राधा और कृष्ण की कथा सुना रही थी !!
उस समय छिपकर यह कथा सुन रहे कृष्ण, बलराम और सुभद्रा इतने विभोर हो गये कि मूर्तिवत वहीं पर खड़े रह गए ! वहां से गुजर रहे नारद को उनका अनोखा रूप दिखा ! उन्हें ऐसा लगा जैसे इन तीनों के हाथ-पांव ही न हों !!
बाद में नारद ने श्री कृष्ण से कहा कि आपका जो रूप अभी मैंने देखा है, मैं चाहता हूं कि वह भक्तों को भी दिखे ! कृष्ण ने नारद को वरदान दिया कि वे इस रूप में भी पूजे जाएंगे ! इसी कारण जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा के हाथ-पांव नहीं हैं !!

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