सर्वोपरी है राष्ट्र की संस्कृति - पण्डित दीनदयाल उपाध्याय

 भारतीय संसद का मानसून सत्र 2021 को कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दलों ने बहुत ही वीभत्स तरीके से अराजकता उत्पन्न करते हुये दोनो सदनों को नहीं चलने दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता एवं कल्याणकारी सरकार के विरूद्ध कोई भी ठोस मुद्दा था ही नहीं । वे बनावटी बातों के आधार पर हुडदंग तो मचा सकते थे ,मगर बहस नहीं की सकते थे । बहस करते तो उनकी मजाक बनती ।  किन्तु उनका यह आचारण उनकी राष्ट्र के प्रति शून्यता को प्रमाणित करता है। वहीं देश ने वंशवादी इन दलों के नवसामंतवादी आक्रमण को देखा है। इनके द्वारा लोकतंत्र औश्र संविधान की गरिमा को तार तार करते देखा है। झूठ बोलना और उल्टा बोलने का नया ड्रामा देखा है। भ्रामकमा उज्पन्न कर देश को धोखा देने का नया प्रयोग देखा है। इन परिस्थितियों में भारतीय जनसंघ के संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रचारक एवं प्रख्यात पत्रकार एवं एकात्ममानववाद के प्रणेता रहे पंण्डित दीनदयाल उपाध्याय के कुछ विचारों का संकल्न प्रस्तुत है। जो एक जिम्मेवार राजनैतिक दल में होना चाहिये। - अरविन्द सिसौदिया

 

 पुण्यतिथि पर विशेष : पंडित दीनदयाल उपाध्याय के बारे में जानिए 11 खास बातें

 
दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि में; संस्कृति , राष्ट्र और राज्य
- अरविन्द सिसौदिया
        
                
                स्वतंत्रता और संस्कृति रक्षा..................
    देश की ”सांस्कृतिक स्वतंत्रता“ अत्यंत महत्वपूर्ण होती है , क्योंकि संस्कृति ही राष्ट्र के सम्पूर्ण शरीर में प्राणों के समान संचार करती है। संस्कृति कभी गतिहीन नहीं होती अपितु हमेशा गतिशील रहती है , उसका अपना अस्तित्व है..... जिस तरह नदी गतिशील रहते हुए भी अपनी निजी विशेषतायें रखती है ,उसी तरह संस्कृति दृष्टिकोणों को निर्धारित कर , समाज के संस्कारों में , निहित; क्रिया कलापों में निरंतर अभिव्यक्त होती है । परतंत्रता के कारण में इन सब पर प्रभाव पड़ा , स्वाभाविक प्रवाह अवरूद्ध हुआ , आज स्वतंत्र होने पर आवश्यक है कि हमारे प्रवाह पथ की सभी बाधाऐं दूर हों......; हम अपनी प्रतिभा के अनुरूप राष्ट्र के सम्पूर्ण क्षैत्रों में विकास करें........!

    राष्ट्र भक्ति की भावना को पुर्न निर्माण करने और साकार स्वरूप देने का श्रेय भी राष्ट्र की संस्कृति को ही है तथा वहीं राष्ट्र की संकुचित सीमाओं को तोड़कर मानव की एकात्मकता का अनुभव कराती है । अतः संस्कृति की स्वतंत्रता परमावश्यक है बिना उसके राष्ट्र की स्वत्रंता निरर्थक ही नहीं , टिकाऊ भी नहीं रह सकेगी !

    हम स्वंत्रता के इन मूल्यों को समझे , स्वतंत्रता को कुछ व्यक्ति समूह की स्वार्थ सिद्वि का साधन बनाना , स्वतंत्रता को उसके महान आसन से गिराकर धूल में मिलाना ही होगा । इस प्रकार के (स्वार्थ सिद्वी.....) दृष्टिकोण से कार्य करने पर न तो स्वतंत्रता की हमें अनुभूति ही कर पायेंगे और न हम विश्व की ही कुछ सेवा कर पायेंगे । अपितु इस प्रकार का स्वार्थी और अंहकारी भाव लेकर कार्य करने पर हम उसी इतिहास की पुर्नरावृति करेंगे जो कि एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र पर प्रभाव जमाने में निमार्ण करता है । यहां पात्र मिल होंगें , वे एक ही राष्ट्र के घटक होंगे , पास-पास रहने वाले पड़ौसी होंगे और इसलिए उनके कृत्य और भी भयंकर हो जाते है तथा उसका परिणाम भी सर्वव्यापी विनाश हो सकता है ।

  दीनदयाल जी इन सभी आशंकाओं को व्यक्त करते हुए भी विश्वास किया था ”........ किन्तु हमारा विश्वास है कि राष्ट्र की जीवनदायनी शक्ति अपने सच्चे स्वरूप और कार्य पर अग्रसर होती हुई भारत की कोटि - कोटि (पिंउत जी ने 50 कोटि लिखा था / तत्कालीन समयानुसार ) संताने अपने परम लक्ष्य पर ब्रह्म की प्राप्ति तथा विश्वात्मा की अनुभूति करायेंगी।

    राष्ट्र की अक्षुण्ता संस्कृति से...........
 ”राष्ट्र“ एक जीवमान इकाई है , वर्षा शताब्दियों लम्बें कालखंड में इसका विकास होता है , किसी निश्चित भू-भाग में निवास करने वाला मानव समुदाय जब उस भूमि के साथ तादात्म्य का अनुभव करने लगता है , जीवन के विशिष्टि गुणों को आचरित करता हुआ समान परम्परा और महत्वाकांक्षाओं से युक्त होता है , सुख-दुःख की समान स्मृतिया और शत्रु-मित्र की समान अनुभूतियाँ प्राप्त कर परस्पर हित  सम्बन्धों में ग्रंथित (गुथ जाना) होता है , संगठित होकर अपने श्रेष्ठ जीवन मूल्यों की स्थापना के लिए सचेष्ट होता है और उसे अधिकाधिक तेजस्वी बनाने के लिए महान तप , त्याग परिश्रम करने वाले महापुरूषों की श्रृंखला निर्माण होती है, तब पृथ्वी के अन्य मानव समुदायों से मिल एक संस्कृति जीवन प्रगट होता है। इस भावात्मक स्वरूप से ही राष्ट्र जीवित रहता है । इसके क्षीण होने से राष्ट्र क्षीण होता है और नष्ट होने से राष्ट्र नष्ट हो जाता है।
    ”...........अर्थात ”एक स्थायी सत्य है , राष्ट्र की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए ,(एक नेतृत्वकर्ता व्यवस्थापिका शक्ति का निर्माण होता है उसे ”राज्य “ कहा जाता है ।)“राज्य“ पैदा हुआ । राष्ट्र तो सम्पूर्ण है राज्यमात्र व्यवस्थापिका शक्ति है ! राज्य बदलते रहते हैं राष्ट्र नहीं बदला जाता है । राष्ट्र का अस्तित्व बहुमत , अल्पमत पर आधारित नहीं रहता । राष्ट्र की एक स्वंय भू सत्ता है वह स्वयं पृकट होती है और अपनी आवश्कताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक सभी क्षैत्रों में विभिन्न इकाईयों की स्थापना करती है । जिनमें राज्य भी एक है आपस में परस्पर अनुकूल होकर कार्य करें और राष्ट्रशक्ति को मजबूत करने के लिए अथक प्रयत्नशील हो इसके लिए आवश्यक होता है राष्ट्र को सदेव जागृत रखा जाये ।
जागृत राष्ट ही परम वैभव को प्राप्त करता है.......
    राष्ट्र के सुप्त होने से ही सब प्रकार की खराबियां घर करती है , राष्ट्र सुप्त होने से उसकी विभिन्न इकाइयों का प्रतिनिधित्व करने वाली सत्ताऐं जैसे राज्य , पंचायत, परिवार आदि सभी अनियन्त्रित और उच्छृखंल हो जाती हैं । राज्य भ्रष्ट हो सकता है।
    ”प्रभुता पाय काहि मद नहीं“ वाली चौपाई सही उतरती है । किन्तु यदि राष्ट्र जागृत ओर दक्ष हो तो राज्य की प्रभुता मर्यादित रहती है , राज्य तो राष्ट्र का वकील है कई बार वकील अपने मुवक्किल की ओर से पैरवी करते समय ऐसी भाषा में बातचीत करता है मानों वह प्रार्थी है । ऐसा करना जरूरी होता है , वकालत नामा

लिख दिया जाता है किन्तु यदि वकील ठीक काम न करे तो वकालतनामा बदला जा
सकता है , यही बात राज्य के साथ भी है , राज्य के समस्त अधिकार राष्ट्र द्वारा ही     प्रदान किये जाते हैं और यदि राष्ट्र जागृत न रहा तो राज्य यदि अनियंत्रित होकर राष्ट्र से समस्त सत्ताओं का अपहरण कर ले तो तानाशाही स्थापित हो जाती है और राष्ट्र पंगु हो जाता है ।
    राज्य सत्ताऐं उभरती और विलीन होती रहीं है किन्तु सर्वकाल विद्यमान रहा और इन परिवर्तनों का नियमन करता रहा है । राज्य स्थायी नहीं रहते , जैसे शरीर पर कपड़े आवश्यकतानुसार बदलते हैं और राष्ट्र की आवश्यकतानुसार उनके विविध स्वरूप हो सकते है ।

दीनदयाल उपाध्याय: जो मुसलमानों को समस्या और धर्मनिरपेक्षता को देश की आत्मा  पर हमला मानते थे
                राज्य के महत्वपूर्ण कार्य    
    इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि ”राज्य“ का महत्व कम है राज्य का महत्व विवादित है (विवादरहित) राष्ट्र की अभिवृद्धि करना , संरक्षण करना , वैभवशाली बनाना , राष्ट्र की आवश्यकतानुसार निर्णय लेकर विश्व सम्बंधों में पग उठाना आदि राज्य के कार्य है ।
    राज्य अपने राष्ट्र के घटकों के हाथ में रहने पर भी यदि आर्थिक अथवा वैदेशिक मामलों में किसी अन्य राष्ट्र का पिछलग्गू बन गया या दबाव में आने लगा  तो स्वराज्य निरर्थक हो जाता है । सुरक्षा के मामले में यदि राज्य आत्मनिर्भर नहीं , नीतियों के मामले में यदि राज्य आत्मनिर्भर नहीं है , नीतियों के मामले में स्वयं पूर्ण नहीं तो वह राष्ट्र के लिए अहितकर कार्य करने की और प्रेरित हो जाता है । ऐसा परावलम्बी राज्य विनाश का कारण बनता है ।
    राजनीति से ऊपर राष्ट्रभाव
    स्वराज्य भी तभी उपयोगी और सार्थक है जब तक स्वराष्ट्र की आवश्यकता की शर्त करता है तभी तक हो सकता है जब राष्ट्रीय समाज ”राज्य“ से बढ़कर ”राष्ट्र“ की आराधना करें । सच्चा सामर्थ्य राज्य से बढ़कर ”राष्ट्र“ में रहता है । इसलिए जो राष्ट्र के प्रेमी है व राजनीति के ऊपर राष्ट्रभाव का आराधना करते हैं । राष्ट्र ही एकमेव सत्य है इस सत्य की उपासना करना सांस्कृतिक कार्य कहलाता है । राजनीतिक कार्य भी तभी सफल सफल हो सकते हैं जब इस प्रकार के प्रखर राष्ट्रभाव से युक्त सांस्कृतिक कार्य भी शक्ति उसके पीछे सदैव विद्यमान रहें।        
    - राधा कृष्ण मंदिर रोड,डडवाड़ा, कोटा जंक्शन, राजस्थान
9414180151

टिप्पणियाँ

इन्हे भी पढे़....

हमारा देश “भारतवर्ष” : जम्बू दीपे भरत खण्डे

सेंगर राजपूतों का इतिहास एवं विकास

Veer Bal Diwas वीर बाल दिवस और बलिदानी सप्ताह

चुनाव में अराजकतावाद स्वीकार नहीं किया जा सकता Aarajktavad

‘फ्रीडम टु पब्लिश’ : सत्य पथ के बलिदानी महाशय राजपाल

महाराष्ट्र व झारखंड विधानसभा में भाजपा नेतृत्व की ही सरकार बनेगी - अरविन्द सिसोदिया

भारत को बांटने वालों को, वोट की चोट से सबक सिखाएं - अरविन्द सिसोदिया

शनि की साढ़े साती के बारे में संपूर्ण

ईश्वर की परमशक्ति पर हिंदुत्व का महाज्ञान - अरविन्द सिसोदिया Hinduism's great wisdom on divine supreme power

देव उठनी एकादशी Dev Uthani Ekadashi