मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार: उत्साहवर्द्धन की क्षमता वाले व्यक्तित्व को समर्पित

 भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तोक्यो ओलंपिक में भारतीय महिला हाकी टीम के शनदार प्रदर्शन के बाद राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार का नामकरण मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार के नाम पर किया जो कि स्वागत योग्य है। क्सों कि पुरस्कार का नया नामकरण खेल क्षैत्र में खिलाडियों में उत्साहवर्द्धन की क्षमता रखने वाले व्यक्तित्व को समर्पित है।

वर्तमान में सरकारी योजनाओं भवनों एवं पुरस्कारों के नामकरण मात्र नेहरू - गांधी के नाम पर नामकरण की प्रवृति के इर्द गिर्द सिमटे दिखते है। इनके अलावा देश में कोई योग्यजन उत्पन्न ही नहीं हुआ। नामकरण के माध्यम से दलिय महत्वांकांक्षा की थोपा थोपी के बजाये पर कोई विशिष्टि नियमावली होनी चाहिये थी, पर कभी गंभीरता से विचार ही नहीं हुआ । किसी न्यायालय का ध्यान भी इस ओर नहीं गया । जबकि कांग्रेस बहुत ही सुनियोजित तरीके से देश की संस्कृति,सभ्यता और मूल स्वरूप की महानता और उसकी श्रैष्ठ संतानों के शौर्य को समाप्त कर , सभी जगह मात्र नेहरू के वंशजों को स्थापित करने की भूमिका निभाई।

 pm narendra modi announces khel ratna award in name of major dhyan chand replacing rajeev gandhi

  पीएम मोदी ने राजीव गांधी खेलरत्न पुरस्कार का नाम मेजर ध्यानचंद के नाम पर किया


खेल के क्षेत्र में दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार अब बदल गया है. इस पुरस्कार को तीन बार ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के सदस्य मेजर ध्यान चंद के नाम पर रखा गया है.

पीएम मोदी ने कहा कि खेल के सबसे बड़े पुरस्कार को अब मेजर ध्यान चंद खेल रत्न के नाम से जाना जाएगा.

Khel Ratna Award: खेल के क्षेत्र में दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार अब बदल गया है. केंद्र सरकार ने आज Rajeev Gandhi Khel Ratna का नाम बदलकर Major Dhyan Chand Khel Ratna Award कर दिया है. इस पुरस्कार को तीन बार ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के सदस्य मेजर ध्यान चंद के नाम पर रखा गया है. प्रधानमंत्री मोदी ने इसकी घोषणा करते हुए कहा कि उन्हें देश के कई नागरिकों से खेल रत्न सम्मान को मेजर ध्यान चंद के नाम पर करने के अनुरोध प्राप्त हो रहे थे. पीएम मोदी ने कहा कि लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए खेल के सबसे बड़े पुरस्कार को अब मेजर ध्यान चंद खेल रत्न के नाम से जाना जाएगा.

 

 फिट इंडिया मूवमेंट
29 अगस्त 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के  इंदिरा गांधी स्टेडियम में 'फिट इंडिया अभियान' की शुरुआत की। खेल दिवस के अवसर पर इसे लॉन्च किया गया है। अभियान की शुरुआत करने के बाद कार्यक्रम में पीएम मोदी ने कहा कि आज के दिन हमें मेजर ध्यानचंद के रूप में महान खिलाड़ी मिले थे। आज देश उनको नमन कर रहा है।इस अभियान के जरिए देश ने हेल्दी इंडिया की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बढ़ा दिया है। उन्होंने अपनी फिटनेस, सहनशक्ति और हॉकी स्टिक से दुनिया को चकित कर दिया। इस दौरान उन्होंने कहा कि नए भारत के हर नागरिक को स्वस्थ बनाने की जरूरत है।
 

 

 

 

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  मेजर ध्यानचन्द
ध्यान चंद (फ़ील्ड हॉकी प्लेयर)
सामान्य विवरण

मेजर ध्यान चंद जी भारतीय हॉकी के अभूतपूर्व खिलाड़ी एवं अभूतपूव कप्तान थे। भारत एवं विश्व हॉकी के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में उनकी गिनती होती है उनका जन्म एक राजपूत परिवार में हुआ था। वे तीन बार ओलम्पिक के स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के सदस्य रहे ( जिनमें 1928 का एम्सटर्डम ओलम्पिक , 1932 का लॉस एंजेल्स ओलम्पिक एवं 1936 का बर्लिन ओलम्पिक)। उनकी जन्मतिथि को भारत में “राष्ट्रीय खेल दिवस“ के रूप में मनाया जाता है।

उन्हें हॉकी का जादूगर ही कहा जाता है। उन्होंने अपने खेल जीवन में 1000 से अधिक गोल दागे। जब वो मैदान में खेलने को उतरते थे तो गेंद मानों उनकी हॉकी स्टिक से चिपक सी जाती थी। उन्हें 1956 में भारत के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा बहुत से संगठन और प्रसिद्ध लोग समय-समय पर उन्हे ’भारतरत्न’ से सम्मानित करने की माँग करते रहे हैं। 

1938 में उन्हें 'वायसराय का कमीशन' मिला और वे सूबेदार बन गए। उसके बाद एक के बाद एक दूसरे सूबेदार, लेफ्टीनेंट और कैप्टन बनते चले गए। बाद में उन्हें मेजर बना दिया गया। वियना में ध्यानचंद की चार हाथ में चार हॉकी स्टिक लिए एक मूर्ति लगाई और दिखाया कि ध्यानचंद कितने जबर्दस्त खिलाड़ी थे।

जब ये ब्राह्मण रेजीमेंट में थे उस समय मेजर बले तिवारी से, जो हाकी के शौकीन थे, हाकी का प्रथम पाठ सीखा। सन्‌ 1922 ई. से सन्‌ 1926 ई. तक सेना की ही प्रतियोगिताओं में हॉकी खेला करते थे। दिल्ली में हुई वार्षिक प्रतियोगिता में जब इन्हें सराहा गया तो इनका हौसला बढ़ा। 13 मई सन्‌ 1926 ई. को न्यूजीलैंड में पहला मैच खेला था। न्यूजीलैंड में 21 मैच खेले जिनमें 3 टेस्ट मैच भी थे। इन 21 मैचों में से 18 जीते, 2 मैच अनिर्णीत रहे और और एक में हारे। पूरे मैचों में इन्होंने 192 गोल बनाए। उनपर कुल 24 गोल ही हुए। 27 मई सन्‌ 1932 ई. को श्रीलंका में दो मैच खेले। ए मैच में 21-0 तथा दूसरे में 10-0 से विजयी रहे। सन्‌ 1935 ई. में भारतीय हाकी दल के न्यूजीलैंड के दौरे पर इनके दल ने 49 मैच खेले। जिसमें 48 मैच जीते और एक वर्षा होने के कारण स्थगित हो गया। अंतर्राष्ट्रीय मैचों में उन्होंने 400 से अधिक गोल किए। अप्रैल, 1949 ई. को प्रथम कोटि की हाकी से संन्यास ले लिया।

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ध्यानचंद सिंह जीवनी - Biography of Dhyan Chand in Hindi Jivani
Published By : Jivani.org
    
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        मेजर ध्यानचंद सिंह भारतीय फील्ड हॉकी के भूतपूर्व खिलाडी एवं कप्तान थे। उन्हें भारत एवं विश्व हॉकी के क्षेत्र में सबसे बेहतरीन खिलाडियों में शुमार किया जाता है। वे तीन बार ओलम्पिक के स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के सदस्य रहे हैं जिनमें १९२८ का एम्सटर्डम ओलोम्पिक, १९३२ का लॉस एंजेल्स ओलोम्पिक एवं १९३६ का बर्लिन ओलम्पिक शामिल है। उनकी जन्म तिथि को भारत में "राष्ट्रीय खेल दिवस" के तौर पर मनाया जाता है |

प्रारंभिक जीवन :

        मेजर ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त सन्‌ 1905 ई. को इलाहाबाद में हुआ था। उनके बाल्य-जीवन में खिलाड़ीपन के कोई विशेष लक्षण दिखाई नहीं देते थे। इसलिए कहा जा सकता है कि हॉकी के खेल की प्रतिभा जन्मजात नहीं थी, बल्कि उन्होंने सतत साधना, अभ्यास, लगन, संघर्ष और संकल्प के सहारे यह प्रतिष्ठा अर्जित की थी। साधारण शिक्षा प्राप्त करने के बाद 16 वर्ष की अवस्था में 1922 ई. में दिल्ली में प्रथम ब्राह्मण रेजीमेंट में सेना में एक साधारण सिपाही की हैसियत से भरती हो गए।

        जब 'फर्स्ट ब्राह्मण रेजीमेंट' में भरती हुए उस समय तक उनके मन में हॉकी के प्रति कोई विशेष दिलचस्पी या रूचि नहीं थी। ध्यानचंद को हॉकी खेलने के लिए प्रेरित करने का श्रेय रेजीमेंट के एक सूबेदार मेजर तिवारी को है। मेजर तिवारी स्वंय भी प्रेमी और खिलाड़ी थे। उनकी देख-रेख में ध्यानचंद हॉकी खेलने लगे देखते ही देखते वह दुनिया के एक महान खिलाड़ी बन गए। सन्‌ 1927 ई. में लांस नायक बना दिए गए। सन्‌ 1932 ई. में लॉस ऐंजल्स जाने पर नायक नियुक्त हुए। सन्‌ 1937 ई. में जब भारतीय हाकी दल के कप्तान थे तो उन्हें सूबेदार बना दिया गया।

        ध्यानचंद को फुटबॉल में पेले और क्रिकेट में ब्रैडमैन के समतुल्य माना जाता है। गेंद इस कदर उनकी स्टिक से चिपकी रहती कि प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को अक्सर आशंका होती कि वह जादुई स्टिक से खेल रहे हैं। यहाँ तक हॉलैंड में उनकी हॉकी स्टिक में चुंबक होने की आशंका में उनकी स्टिक तोड़ कर देखी गई। जापान में ध्यानचंद की हॉकी स्टिक से जिस तरह गेंद चिपकी रहती थी उसे देख कर उनकी हॉकी स्टिक में गोंद लगे होने की बात कही गई।

        ध्यानचंद की हॉकी की कलाकारी के जितने किस्से हैं उतने शायद ही दुनिया के किसी अन्य खिलाड़ी के बाबत सुने गए हों। उनकी हॉकी की कलाकारी देखकर हॉकी के मुरीद तो वाह-वाह कह ही उठते थे बल्कि प्रतिद्वंद्वी टीम के खिलाड़ी भी अपनी सुधबुध खोकर उनकी कलाकारी को देखने में मशगूल हो जाते थे। उनकी कलाकारी से मोहित होकर ही जर्मनी के रुडोल्फ हिटलर सरीखे जिद्दी सम्राट ने उन्हें जर्मनी के लिए खेलने की पेशकश कर दी थी। लेकिन ध्यानचंद ने हमेशा भारत के लिए खेलना ही सबसे बड़ा गौरव समझा।

        1936 के बर्लिन ओलंपिक में उनके साथ खेले और बाद में पाकिस्तान के कप्तान बने आईएनएस दारा ने वर्ल्ड हॉकी मैगज़ीन के एक अंक में लिखा था, "ध्यान के पास कभी भी तेज़ गति नहीं थी बल्कि वो धीमा ही दौड़ते थे. लेकिन उनके पास गैप को पहचानने की गज़ब की क्षमता थी. बाएं फ्लैंक में उनके भाई रूप सिंह और दाएं फ़्लैंक में मुझे उनके बॉल डिस्ट्रीब्यूशन का बहुत फ़ायदा मिला. डी में घुसने के बाद वो इतनी तेज़ी और ताकत से शॉट लगाते थे कि दुनिया के बेहतरीन से बेहतरीन गोलकीपर के लिए भी कोई मौका नहीं रहता था." दो बार के ओलंपिक चैंपियन केशव दत्त ने हमें बताया कि बहुत से लोग उनकी मज़बूत कलाईयों ओर ड्रिब्लिंग के कायल थे.

        "लेकिन उनकी असली प्रतिभा उनके दिमाग़ में थी. वो उस ढ़ंग से हॉकी के मैदान को देख सकते थे जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है. उनको बिना देखे ही पता होता था कि मैदान के किस हिस्से में उनकी टीम के खिलाड़ी और प्रतिद्वंदी मूव कर रहे हैं." 1947 के पूर्वी अफ़्रीका के दौरे के दौरान उन्होंने केडी सिंह बाबू को गेंद पास करने के बाद अपने ही गोल की तरफ़ अपना मुंह मोड़ लिया और बाबू की तरफ़ देखा तक नहीं. जब उनसे बाद में उनकी इस अजीब सी हरकत का कारण पूछा गया तो उनका जवाब था, "अगर उस पास पर भी बाबू गोल नहीं मार पाते तो उन्हें मेरी टीम में रहने का कोई हक़ नहीं था."

        मेजर ध्यानचंद को तेजी से गोल करने और 3 बार Olympic से Gold Medal लाने के लिए जाना जाता हैं. ध्यानचंद का असली नाम ध्यान सिंह था लेकिन वह रात को चन्द्रमा की रोशनी में प्रैक्टिस करते थे इसलिए इनके साथियों इनके नाम का पीछे चंद लगा दिया. ध्यानचंद 16 साल की उम्र में “फर्स्ट ब्राह्मण रेजिमेंट” में एक साधारण सिपाही के रूप में भर्ती हुए थे. लेकिन वे भारतीय सेना में मेजर के पद तक गए. एक बार कुछ ऐसा हुआ कि नीदरलैंड में एक मैच के दौरान उनकी हॉकी स्टिक तोड़कर देखी गई, इस शक के साथ कहीं स्टिक में कोई चुम्बक तो नहीं लगी. लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा क्योंकि जादू हॉकी स्टिक में नहीं ध्यानचंद के हाथों में था.

        एक बार मेजर साहब ने शाॅट मारा तो वह पोल पर जाकर लगा तो उन्होनें रेफरी से कहा की गोल पोस्ट की चौड़ाई कम है. जब गोलपोस्ट की चौड़ाई मापी गई तो सभी हैरान रह गए वह वाकई कम थी. ऑस्ट्रेलिया के महान क्रिकेटर सर डोनाल्ड ब्रैडमैन ने 1935 में एडिलेड में एक हॉकी मैच देखने के बाद कहा था, “ध्यानचंद ऐसे गोल करते हैं जैसे क्रिकेट में रन बनता है।” ब्रैडमैन हॉकी के जादूगर से उम्र में तीन साल छोटे थे। अपने-अपने खेल में माहिर ये दोनों हस्तियां केवल एक बार एक-दूसरे से मिलें. 1936 में जर्मन के गोलकीपर ने ध्यानचंद को जानबूझ कर गिरा दिया था. इससे मेजर का एक दाँत टूट गया था.

        1933 में एक बार वह रावलपिण्डी में मैच खेलने गए। इस घटना का उल्लेख यहाँ इसलिए किया जा रहा है कि आज हॉकी के खेल में खिलाड़ियों में अनुशासनहीनता की भावना बढ़ती जा रही है और खेल के मैदान में खिलाड़ियों के बीच काफ़ी तेज़ी आ जाती है। 14 पंजाब रेजिमेंट (जिसमें ध्यानचंद भी सम्मिलित थे) और सैपर्स एण्ड माइनर्स टीम के बीच मैच खेला जा रहा था। ध्यानचंद उस समय ख्याति की चरम सीमा पर पहुँच चुके थे। उन्होंने अपने शानदार खेल से विरोधियों की रक्षापंक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया और दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया।

        इस पर विरोधी टीम का सेंटर-हाफ अपना संतुलन खो बैठा और असावधानी में उसके हाथों ध्यानचंद की नाक पर चोट लग गई। खेल तुरंत रोक दिया गया। प्राथमिक चिकित्सा के बाद ध्यानचंद अपनी नाक पर पट्टी बंधवाकर मैदान में लौटे। उन्होंने चोट मारने वाले प्रतिद्वंदी की पीठ थपथपाई और मुस्कराकर कहा-"सावधानी से खेलो ताकि मुझे दोबारा चोट न लगे।" उसके बाद ध्यानचंद प्रतिशोध पर उतर आए। उनका प्रतिशोध कितना आर्दश है, इसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। उन्होंने एक साथ 6 गोल कर दिए। ये सचमुच एक महान खिलाड़ी का गुण है। इससे खेल-खिलाड़ी का स्तर और प्रतिष्ठा ऊँची होती है।

स्वर्ण पदक :

        ध्यानचंद ने तीन ओलिम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया तथा तीनों बार देश को स्वर्ण पदक दिलाया। भारत ने 1932 में 37 मैच में 338 गोल किए, जिसमें 133 गोल ध्यानचंद ने किए थे। दूसरे विश्व युद्ध से पहले ध्यानचंद ने 1928 (एम्सटर्डम), 1932 (लॉस एंजिल्स) और 1936 (बर्लिन) में लगातार तीन ओलिंपिक में भारत को हॉकी में गोल्ड मेडल दिलाए।

रोचक तथ्य :

• ध्यान चंद ने 16 साल की उम्र में भारतीय सेना जॉइन की। भर्ती होने के बाद उन्होंने हॉकी खेलना शुरू किया। ध्यान चंद को काफी प्रैक्टिस किया करते थे। रात को उनके प्रैक्टिस सेशन को चांद निकलने से जोड़कर देखा जाता। इसलिए उनके साथी खिलाड़ियों ने उन्हें 'चांद' नाम दे दिया।
• 1928 में एम्सटर्डम में हुए ओलिंपिक खेलों में वह भारत की ओर से सबसे ज्यादा गोल करने वाले खिलाड़ी रहे। उस टूर्नमेंट में ध्यानचंद ने 14 गोल किए। एक स्थानीय समाचार पत्र में लिखा था, 'यह हॉकी नहीं बल्कि जादू था। और ध्यान चंद हॉकी के जादूगर हैं।'
• हालांकि ध्यानचंद ने कई यादगार मैच खेले, लेकिन क्या आप जानते हैं कि व्यक्तिगत रूप से कौन सा मैच उन्हें सबसे ज्यादा पसंद था। ध्यान चंद ने बताया कि 1933 में कलकत्ता कस्टम्स और झांसी हीरोज के बीच खेला गया बिगटन क्लब फाइनल उनका सबसे ज्यादा पसंदीदा मुकाबला था।
• 1932 के ओलिंपिक फाइनल में भारत ने संयुक्त राज्य अमेरिका को 24-1 से हराया था। उस मैच में ध्यानचंद ने 8 गोल किए थे। उनके भाई रूप सिंह ने 10 गोल किए थे। उस टूर्नमेंट में भारत की ओर से किए गए 35 गोलों में से 25 ध्यानचंद और उनके भाई ने किए थे।
• हिटलर ने स्वयं ध्यानचंद को जर्मन सेना में शामिल कर एक बड़ा पद देने की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने भारत में ही रहना पसंद किया।
• अपनी आत्मकथा 'गोल' में उन्होंने लिखा था, आपको मालूम होना चाहिए कि मैं बहुत साधारण आदमी हूं।
• एक मुकाबले में ध्यानचंद गोल नहीं कर पा रहे थे तो उन्होंने मैच रेफरी से गोल पोस्ट के आकार के बारे में शिकायत की। हैरानी की बात है कि पोस्ट की चौड़ाई अंतरराष्ट्रीय मापदंडों के अनुपात में कम थी।

मृत्यु :

        हॉकी के क्षेत्र में प्रतिष्ठित सेंटर-फॉरवर्ड खिलाड़ी ध्यानचंद ने 42 वर्ष की आयु तक हॉकी खेलने के बाद वर्ष 1948 में हॉकी से संन्यास ग्रहण कर लिया. कैंसर जैसी लंबी बीमारी को झेलते हुए वर्ष 1979 में मेजर ध्यान चंद का देहांत हो गया |


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सरकारी योजनाओं भवनों एवं पुरस्कारों नेहरू गांधी के नाम पर

‘बाप का माल’ में ही नेहरू-गांधी के नाम!
- शंकर शरण


लेखक शंकर शरण के विषय में:-
शंकर शरण- मूलत: जमालपुर, बिहार के रहनेवाले। डॉक्टरेट तक की शिक्षा। राष्‍ट्रीय समाचार पत्रों में समसामयिक मुद्दों पर अग्रलेख प्रकाशित होते रहते हैं। ‘मार्क्सवाद और भारतीय इतिहास लेखन’ जैसी गंभीर पुस्‍तक लिखकर बौद्धिक जगत में हलचल मचाने वाले शंकर जी की लगभग दर्जन भर पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।



    अभिनेता ऋषि कपूर ने देश में महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थानों को नेहरू परिवार के नाम से बाँधने के अन्याय पर ऊँगली उठाई है। सारी जगहों को नेहरू, इंदिरा, राजीव, आदि मय कर देने पर उन का सवाल हैः इस देश को ‘बाप का माल समझ रखा था?’ देश की स्मृति पर ऐसे पारिवारिक कब्जे पर पहले भी आवाज उठी है।

   कार्टूनिस्ट लक्ष्मण का एक कार्टून था, जिस में राहगीर किसी से रास्ता पूछता है। उत्तर मिलाः ‘सामने राजीव भवन से दाएं राजीव मार्ग पर चले जाओ। थोड़ा बढ़ने पर राजीव चौराहा आएगा, वहाँ से बाएं राजीव अस्पताल है, उसके बगल वाली सड़क से कुछ दूर जाने पर राजीव स्टेडियम के साथ वह ऑफिस …’ । यहाँ जोड़ने की जरूरत नहीं कि राजीव गाँधी का नाम हर जगह स्थापित करने की प्रवृत्ति नेहरू परिवार के कई लोगों के लिए यथावत रही है। मगर, देश के सर्वोच्च न्यायाधीश इस दलीय जबरदस्ती और शर्मनाक अन्याय की अनदेखी क्या सोच कर करते रहे? इस पर न्यायपालिका की चुप्पी विशेष दुःखद है, जो मामूली मुद्दों पर भी खुद सक्रिय होती रहती है। लेकिन उसे इस एकाधिकारी नामकरण, दलीय जबरदस्ती और इससे हुई राष्ट्रीय हानियों की कोई समझ नहीं।

    कांग्रेसी शासन में कोई महीना नहीं बीतता, जब किसी न किसी सड़क, पुल, संगठन, भवन या कार्यक्रम को नेहरू-गाँधी नाम से कब्जाया न जाता हो। एक आकलन के अनुसार, केवल 1991 से 2013 के बीच, यानी मात्र बीस वर्षों में 450 से अधिक केंद्रीय और प्रांतीय योजनाओं, कार्यक्रमों, सड़कों, पुलों, भवनों, रंगशालाओं, संस्थानों, हवाई अड्डों, बस टर्मिनलों, आदि के नाम केवल इंदिरा, राजीव, नेहरू पर रखे गए। यदि इसमें महात्मा गाँधी, संजय और सोनिया के नाम भी जोड़ लें, तथा पिछले साठ वर्ष का हिसाब जोड़ें – तो यह संख्या हजार पार कर सकती है। उन की पूरी सूची बनाना एक असंभव-सा कार्य है। यह क्या और किस सिद्धांत पर होता रहा है?

    केवल दिल्ली में एक नेहरू के नाम पर भवन, सड़क, चौराहा, पार्क, पुरस्कार, अवार्ड, अकादमी, विश्वविद्यालय, कॉलेज, पुस्तकालय, सभागार, स्टेडियम, उद्यान, कॉलोनी, उत्सव, परियोजनाएं, आदि की संख्या 100 को पार कर सकती है। एक ही नगर में कई ‘नेहरू भवन’ हैं।

यह राष्ट्रीय स्मृति बनाने का कौन सा मॉडल है? भारतीय तो यह कदापि नहीं। यहाँ देवी-देवताओं के सिवा किसी को पूजनीय, स्मरणीय, आख्यनीय, चित्रणीय या रचनीय कभी नहीं माना गया। मुगलों से पहले भारत में कभी किसी के पोर्ट्रेट तक नहीं बनते थे। यहाँ चक्रवर्ती सम्राटों या महानतम मनीषियों तक की कोई आकृति या आख्यान कहीं नहीं सहेजे गए। कोणार्क, अजंता, मदुराई जैसी महान कलाकृतियाँ गढ़ने वाले कलाकारों अथवा उन्हें बनवाने वालों के विवरण तक नहीं मिलते। उन की विरुदावली गाना तो दूर रहा!

क्योंकि हिन्दू पंरपरा ऐसे कार्य – मरणशील मनुष्य की छवि, नाम, आदि याद रखना – निरर्थक मानती है। भारत में मनुष्यों के नाम तक सदैव देवी-देवताओं के स्मरण, प्रसाद, दास, चरण, कुमार आदि रूप में रखे जाते रहे हैं। अतः स्थानों, भवनों के नाम साधारण नेताओं के नाम पर रखकर उन्हें ‘अमर’ बनाने का धंधा भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है। चौराहों पर प्रशासकों की मूर्तियाँ लगना या उन से नामकरण, आदि कार्य ब्रिटिश काल में शुरू हुए हैं।

तब क्या सार्वजनिक नामकरण में यह गाँधी, नेहरू, इंदिरा, राजीव की सनक यूरोपीय परंपरा है? जी नहीं। यूरोप-अमेरिका में महानतम नेताओं के नाम पर भी दो-चार चीज मिल जाए तो बहुत। दरअसल, इसी में गरिमा भी है। पश्चिमी देशों में वाशिंगटन, नेपोलियन, पीटर, बिस्मार्क, गैरीबाल्डी या चर्चिल जैसे महान राजनेताओं के भी इने-गिने ही स्मारक हैं।

अतः यहाँ जो लज्जास्पद नेहरू-गाँधी पूजा है, उस के पीछे न यूरोपीय अनुकरण, न कोई कृतज्ञता-ज्ञापन है। उस का उद्देश्य हर पत्रकार या राजनीतिक कार्यकर्ता जानता है। केवल हमारे न्यायाधीश नहीं जानते! या केवल इसी को कार्यपालिका का काम समझ कर कभी हस्तक्षेप नहीं करते। दूसरी ओर, गैर-कांग्रेसी दल विरोध के बजाए इसी का अंधानुकरण करने की कोशिश में लग गए। जब और जितना मौका मिला, वे अपने नेताओं के नाम भवनों, सड़कों, विश्वविद्यालयों, आदि को देने लगते हैं।

मगर ध्यान दें, सैकड़ों बार एक ही नामकरण करना दिमागी दिवालियापन, सुरुचि का अभाव तथा आत्मसम्मान-हीनता है। ऐसी व्यक्ति-पूजा केवल कम्युनिस्ट देशों से तुलनीय है। पूर्व सोवियत संघ या लाल चीन में लेनिन, स्तालिन, माओ नाम से हजारों भवन, सड़क, चौराहे, शहर आदि नामित हुए। उसी नकल में यहाँ नेहरू, राजीव आदि के जन्म-दिन, मरण-दिन पर अखबारों में उन की तस्वीर छापने और पार्टी प्रचार करने में सरकारी करोड़ों रूपया बर्बाद किया जाता है। वही काम भाजपाई शासक अपने नेताओं के लिए करने लगे। यह सब किसी गैर-कम्युनिस्ट देश में नहीं होता। राजकीय धन से लोगों पर जबरन किसी पार्टी नेता की ‘महानता’ थोपना एक कम्युनिस्ट बीमारी है।

स्वतंत्र भारत का शासन-तंत्र ब्रिटिश अनुकरण है। पर नेहरू जी के कम्युनिज्म-मोह के कारण इस की आत्मा सोवियत तौर-तरीकों की गुलाम हो गई। उसी से हमारी शिक्षा और बौद्धिकता भी संक्रमित हुई। इस मानसिक रोग पर हमारा ध्यान नहीं गया है। आखिर जिस चश्मे से हमारी दृष्टि प्रभावित है, उसी का दोष हमें कैसे दिखे!

हमारी शिक्षा एवं नीति-निर्माण में नेहरूवाद बहुत गहरे जमा हुआ है। भाजपा भी उसी ढर्रे पर चलती है। नेहरू को अटल बिहारी वाजपेई अपना आदर्श मानते थे, इस में बहुत गहरा अर्थ है। हर मामले में योग्यता को दरकिनार कर ‘अपने’ आदमी समितियों में रखना ब्रिटिश नहीं, सोवियत परंपरा है। सभी भवनों, योजनाओं के नाम पार्टी-परिवार पर रखना वही मानसिक दासता और राजनीतिक तकनीक है जो कम्युनिस्ट देशों का नियम था। वह नामकरण तक सीमित न था। जीवन का हरेक पक्ष नेताओं की अंध-भक्ति को समर्पित था। दर्शन, इतिहास, अंतरिक्ष विज्ञान अथवा खेल-कूद, सिनेमा – कहीं भी लेनिन, स्तालिन या माओ के उद्धरणों के ‘मार्गदर्शन’ बिना कोई कार्य संभव न था। वही दासता यहाँ गाँधी-नेहरू की रही है। भारतीय बुद्धिजीवियों का ‘प्रगतिवाद’ उसी का दूसरा नाम है। जो काम उधर कम्युनिस्ट कमिसार करते थे, वह यहाँ कांग्रेस नेता और उस के अनुचर अफसर, प्रोफेसर, पत्रकार करते रहे। यह परंपरा स्वयं नेहरूजी के शासन काल में आरंभ होकर पूरी ठसक से स्थापित की गई।

यहाँ मार्क्सवादी-नेहरूवादी प्रगतिवाद की विष-बेल स्वतः नहीं फली-फूली। उसे सप्रयास फैलाया और मूल भारतीय परंपरा को नष्ट किया गया। यह इतनी हालिया बात है कि प्रमाणिक देखी जा सकती है। नापसंद विद्वानों, पत्रकारों को ब्लैक-लिस्ट करना और विश्वस्त अनुचरों को बढ़ाना, पुरस्कृत करना – यह प्रवृत्ति नेहरूजी ने आरंभ की। यह सोवियत कम्युनिज्म का ही भारतीय रूप था। स्वतंत्र विचार के लेखकों, विशेषकर हिन्दू चेतना को प्रताड़ित करना; वैसे लेखन को लांछित करना, जैसे घातक कार्य तभी शुरू हुए थे।

नेहरू युग में ही सत्ता के दुरूपयोग, सेंशरशिप, प्रलोभन-प्रोत्साहन तथा अवैध-अनैतिक दमन से यहाँ कम्युनिज्म के बारे में आलोचनात्मक विमर्श को रोका गया। उदाहरण के लिए, 1950 के दशक में ही राम स्वरूप और सीताराम गोयल के ‘प्राची प्रकाशन’ (कलकत्ता) तथा उन के वैचारिक प्रयासों को सत्ता की जोर-जबरदस्ती से ध्वस्त किया गया। वैसी कुटिल तकनीकों से ही ‘प्रगतिवाद’ भारत के बौद्धिक जीवन को अपने अधीन कर सका।

नेहरूवाद केवल नामकरण की बीमारी नहीं है। बल्कि उस बीमारी का एक रूप भर है, जिस में स्वतंत्र चिंतन और भारतीय सभ्यता की विरासत को बेदखल कर दिया गया। इस के बदले बौने लोगों, क्षुद्र विचारों की पूजा चलाई गई। स्वतंत्र भारत में अनेक ऊट-पटांग, हानिकारक शैक्षिक, राजनीतिक कामों का मूल उसी बीमारी में है। इस ने हमें मानसिक रूप से कुंद बनाए रखा है। हर सार्वजनिक कार्यक्रम या स्थान के नामकरण में नेहरू, गाँधी का उपयोग सकारी धन से दलीय प्रचार तो है ही। साथ ही, यह हमारी मानसिक जड़ता और आत्मसम्मान-हीनता भी दर्शाता है।

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