अफगानस्तिन में असली “खेला“ होना बांकी है - अरविन्द सिसौदिया

 

 


 अफगानस्तिन में असली “खेला“ होना बांकी है  - अरविन्द सिसौदिया

अमरीका को अफगानिस्तान से जाना ही था, वह वियतनाम से भी वह गया ही था । अमरीकी या यूरोपियन मीडिया कुछ भी कहे, अमरीकी राष्ट्रपति जो बाईडन ने वही किया जो एक समझदार देश करता । गलती वही की गई तो भारत को आजाद करते समय लार्ड माउन्टबेटन ने की थी। इतने बडे निर्णय चरणबद्ध और कुछ वर्षों में धीरे धीरे समय बद्ध होते है। अमरीका को अफगानिस्तान में महिला नागरिकों की मजबूत सैन्य बिंग तैयार करनी चाहिये थी। क्यों कि तालिवान से अफगान महिलायें सबसे ज्यादा घ्रणा करतीं है। इजराइल अभी अजेय इसी लिये है कि वहां का हर नागरिक जांबांज सैनिक है। यही अफगानिस्तान के नागरिकों का होना चाहिये था। गलती यह हुई कि अफगान नेता भ्रष्ट थे वे अमीरीकी धन लूट रहे थे। अफगान प्रांतों में सेना कागजों पर थी, प्रशिक्षण कागजों पर था, धन जेब में था और यही कारण रहा कि अफगान की कथित सेना ताश के पत्तों की तरह ढह गई।

दूसरी बात अमरीका का सबसे बडी गलती यह थी कि उसने तालिवान से बातचीत की, उसे अफगान जनता से वर्तमान सरकार के विकल्प पूछने चाहिये थे। लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव करवाना चाहिये था । चुनाव से जन जागरण होता है। लोग अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति सचेत होते है। हिंसा को विशाल अहिंसक मानवसमूह पराजित कर देता है। क्यों कि खून की होली खेलने वाला सबसे कायर और डरपोक होने के साथ साथ अस्विकार्य होते हैं।

जिस तरह लार्ड माउन्टबेटन ने बिना पर्याप्त समय के कपडा फाडनें की तरह भारत के दो टुकडे कर दिये थे। उसी तरह जो बाईडन ने भी अचानक भेडियों को अफगानिस्तान सौंप दिया । जनता के साथ यह धोखा ही है।

सभी तरफ से समीक्षा हो रही है कि तालिवान के कारण भारत को सबसे ज्यादा खतरा होगा । यह सच भी है क्यों कि तालिवान और पाकिस्तान एक सिक्के के दो पहलू है या दोनों एक ही है। पाकिस्तान से भारत अभी तक हारा नहीं है, बल्कि उसे हराता ही रहा है। किन्तु भारत के विरूद्ध तालिवान का उपयोग पाकिस्तान ने किया था और आगे भी करेगा। परन्तु उसके विरूद्ध सत्य भी यही है कि कभी भी तालिवान को पूरी तरह समाप्त करना पडा तो वह भारत ही करेगा। क्यों कि भारत के पास सैन्य शक्ति के साथ साथ लगातार इन ताकतों से लडनें का अनुभव भी है और वह भौगोलिक दृष्टि से भी अपनी रक्षा करने में समर्थ है बदला लेने में समर्थ है। सबसे बडी बात हर देश अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये संकल्पित होता है। तो भारत भी अपनी रक्षा के लिये संकल्पित है।  किन्तु भारत सरकार को अभी वेट एण्ड वाच की कूटनीति पर ही चलना चाहिये, क्यों कि अफगान में सब कुछ स्थिर रूप से जमनें में साल - छै महीनें लगेंगे , हो सकता है वह अब हिंसा के बजाये शासन चलानें में दिलचस्पी रखे। इसलिये बहुत कुछ समय के गर्भ में हे।

कूटनीति की तराजू पर तालिवान का निष्कंट राज नहीं दिख रहा है। अभी असली खेल चालू होना है। रूस और चीन के बीच अब शीतयुद्ध अफगानिस्तान के कारण होगा। क्यों कि अफगानिस्तान बहुमूल्य खनिजों के भण्डार के साथ साथ अपना सामरिक महत्व भी रखता है। चीन हर हाल में अफगानिस्तान पर तिब्बत की तरह कब्जा जमानें की फिराक में रहेगा। रूस के सहयोग से पहले भी वामपंथी विचार वाली सरकार अफगान में रही है। वह फिर उसी तरह की सरकार लानें का यत्न करेगा। वहीं चीन को रोकनें की सबसे अधिक कोशिश ही रूस की होगी । रूस कभी नहीं चाहेगा कि अफगान में चीन के पैर जमें। अफगान में असली खेला होना बांकी है।

अमरीका और नाटो देश सैन्य रूप में अफगान छोड भले ही रहे हैं किन्तु वे पुनः नहीं आ सकते यह किसने कह दिया। जो अमरीकी लोग कल तक अमरीकी सैना को अफगानिस्तान में रखनें के विरूद्ध थे, वे तालिवान के हिंसक चेहरे को देख, यह कहने पर भी मजबूर है कि अफगान में अमरीकी सेना जरूरी थी। चीन तालिवान का उपयोग अमरीका के खिलाफ किये बिना मानेंगा नहीं, क्यों कि चीन के बडे हित अमरीका को पस्त करने में ही है। अमरीका के अस्तित्व की रक्षा के लिये सर्म्पूण इसाई देश भी एक जुट होगें। कुबैत के कारण सद्दाम हुसैन और इराक का पतन सबने देखा है। "सो सुनार की एक लुहार की " वाली बात का अस्तित्व खत्म नहीं हुआ है।  इसलिये तालिवान की वह स्थिती होने वाली है कि " दो पाटन के बीच में साबूत बचा न कोय ।"

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