नि:स्वार्थ संघर्ष से ही पूरा होगा अखंड भारत का लक्ष्य : सुखदेव वशिष्ठ

 

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सुखदेव वशिष्ठ

  August 10, 2021
पृथ्वी पर जिस भू-भाग अर्थात् राष्ट्र के हम निवासी हैं, उस भू-भाग का वर्णन अग्नि, वायु एवं विष्णु पुराण में लगभग समानार्थी श्लोक के रूप में है :-
उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रश्चैव दक्षिणम्.
वर्ष तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति..

अर्थात् हिन्द महासागर के उत्तर में तथा हिमालय पर्वत के दक्षिण में जो भू-भाग है, उसे भारत कहते हैं और वहां के समाज को भारती या भारतीय के नाम से पहचानते हैं.
पूरी पृथ्वी का जल और थल तत्वों में वर्गीकरण करने पर सात द्वीप एवं सात महासमुद्र माने जाते हैं. हम इसमें से प्राचीन नाम जम्बूद्वीप, जिसे आज एशिया द्वीप कहते हैं तथा इन्दू सरोवरम्, जिसे आज हिन्द महासागर कहते हैं, के निवासी हैं. जम्बूद्वीप (एशिया) के लगभग मध्य में हिमालय पर्वत स्थित है. जिसमें विश्व की सर्वाधिक ऊँची चोटी सागरमाथा, गौरीशंकर है, जिसे 1835 में अंग्रेज शासकों ने एवरेस्ट नाम देकर समृद्ध संस्कृति से भटकाने का प्रयास किया.
अखंड भारत और हमारी निष्ठा
12 सदियों तक विदेशी सत्ताओं से भारतीयों ने संघर्ष वर्तमान भारत के लिये नहीं किया था. 1947 का विभाजन पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है. अंग्रेजों द्वारा 1857 से 1947 तक भारत को 7 बार विभाजित किया गया. अफगानिस्तान के लोग शैव व प्रकृति पूजक थे, मत से बौद्ध मतावलंबी थे. लेकिन मई 1876 को रूसी व ब्रिटिश शासकों (भारत) ने इसे बफर स्टेट के रूप में दोनों ताकतों के बीच स्थापित किया. अंग्रेजों ने 1904 में वर्तमान बिहार के सुगौली नामक स्थान पर उस समय के पहाड़ी राज्य के नरेश पृथ्वी नारायण शाह के साथ संधि कर नेपाल को आजाद देश का दर्जा दे दिया. इसी प्रकार भूटान, तिब्बत, को अलग करने का षडयंत्र किया गया. 1935 में श्रीलंका और 1937 में म्यांमार को राजनीतिक रूप से अलग देश का दर्जा प्रदान किया गया. 1947 में भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ. फिर 1971 में भारत के सहयोग से बांग्लादेश अस्तित्व में आया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार कभी भी आधी-अधूरी स्वाधीनता के पक्ष में नहीं रहे. वह तो सनातन भारत वर्ष (अखंड भारत) की सर्वांग स्वतंत्रता के लिये पूरा जीवन संघर्षरत रहे.
भारत की वर्तमान स्थिति
सन् 1947 के पश्चात् फ्रांस के कब्जे से पाण्डिचेरी, पुर्तगीज के कब्जे से गोवा, दमन-दीव, को मुक्त करवाया है. आज पाकिस्तान में पख्तून, बलूच, सिंधी, बाल्टिस्थान (गिलगित मिलाकर), कश्मीरी मुजफ्फरावादी व मुहाजिर नाम से इस्लामाबाद (लाहौर) से आजादी के आन्दोलन चल रहे हैं. पाकिस्तान की 60 प्रतिशत से अधिक जमीन तथा 30 प्रतिशत से अधिक जनता पाकिस्तान से ही आजादी चाहती है. बांग्लादेश में बढ़ती जनसंख्या का विस्फोट, चटग्राम आजादी आन्दोलन उसे जर्जर कर रहा है. शिया-सुन्नी फसाद, अहमदिया व वोहरा (खोजा-मल्कि) पर होते जुल्म मजहबी टकराव को बोल रहे हैं. इन देशों में अल्पसंख्यकों विशेषकर हिन्दुओं की सुरक्षा तो खतरे में ही है. विश्व का एक भी मुस्लिम देश इन दोनों देशों के मुसलमानों से थोड़ी भी सहानुभूति नहीं रखता. फलस्वरूप इन देशों के 3 करोड़ से अधिक मुस्लिम (विशेष रूप से बांग्लादेशी) दर-दर भटकते हैं. इन घुसपैठियों के कारण भारतीय मुसलमान अधिकाधिक गरीब व पिछड़ता जा रहा है क्योंकि इनके विकास की योजनाओं पर खर्च होने वाले धन व नौकरियों पर ही तो घुसपैठियों का कब्जा होता जा रहा है. मानवतावादी वेष धारण कराने वाले देशों में से भी कोई आगे नहीं आया.
विभाजन स्थापित सत्य नहीं…
यहूदियों द्वारा 1800 वर्ष संघर्ष कर 1948 में अपना देश इजराईल पुनः प्राप्त करना, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अलग हुए पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का पुनः एक होना, 1857 के संग्राम के बाद असम्भव लगने वाली आजादी का 1947 को प्राप्त करना जैसे उदाहरणों से भारत को पुनः अखंड करने हेतु संघर्ष की प्रेरणा ली जा सकती है. इस समय आवश्यकता है कि वर्तमान भारत व पड़ोसी देशों को एकजुट होकर शक्तिशाली बन, खुशहाली अर्थात विकास के मार्ग में चलने की. इसलिए अंग्रेज अर्थात् ईसाईयत द्वारा रचे गए षड्यन्त्र को ये सभी देश (राज्य) समझें और साझा व्यापार और मुद्रा कर इस क्षेत्र के नए युग का सूत्रपात करें. इन देशों का समूह बनाने से प्रत्येक देश में भय का वातावरण समाप्त हो जाएगा तथा प्रत्येक देश का प्रतिवर्ष के सैंकड़ों-हजारों-करोड़ों रुपये रक्षा व्यय के रूप में बचेंगे जो विकास पर खर्च किए जा सकेंगे.
भारतीय अंतर्मन के सशक्त हस्ताक्षर गांधी जी भी अंत तक यही प्रयास करते रहे कि रामराज्य एवं हिंद स्वराज्य जैसी भारतीय परंपराओं एवं भारत की अमर-अजर संस्कृति के आधार पर ही भारत के संविधान, शिक्षा प्रणाली-आर्थिक रचना का ताना-बाना बुना जाए.
लक्ष्य की और बढ़ते कदम…
अपने राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाना ही संघ का उद्देश्य है. विजयादशमी 2 अक्तूबर, 2025 को संघ स्थापना के 100 वर्ष पूरे होंगे. स्वयंसेवक तन-मन-धन से इसी साधना में लगे हैं और देश में सर्वांग विकास हेतु ठोस व्यवस्था परिवर्तन में लगे हैं. सरसंघचालक मोहन भागवत जी के शब्दों में “वर्तमान में ऐसा उज्ज्वल दौर शुरू हो चुका है, जिसमें भारत पहले से भी अधिक शक्तिशाली होकर उभरेगा.”
इस वर्ष अखंड भारत संकल्प दिवस के अवसर पर अखंड भारत के अपने संकल्प को हिमालय की तरह सुदृढ़ करें और पूरी ऊर्जा के साथ अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ें. आशा है कि सभी का निःस्वार्थ संघर्ष शीघ्र ही फलीभूत होगा और अखंड भारत का लक्ष्य निकट भविष्य में पूरा होगा.

 

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 पाथेय कण

 

 अखंड भारत की सर्वांग स्वतंत्रता
नरेंद्र सहगल

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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग की पूर्ण सहमति के बाद विश्व के सबसे प्राचीन राष्ट्र के टुकड़े कर के अंग्रेज अपने घर चले गए। इस दुर्भाग्यशाली अवसर पर अखंड भारत की सर्वांग स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने वाले लाखों स्वतंत्रता सेनानियों की आत्मा कितना रोई होगी, कितना तड़पी होगी, इसका अंदाजा वह कांग्रेसी नहीं लगा सकते जो हाथ में कटोरा लेकर अंग्रेजों से आजादी की भीख मांगते रहे।

उल्लेखनीय है कि 1200 वर्षों के विदेशी आधिपत्य को भारत के राष्ट्रीय समाज ने एक दिन भी स्वीकार नहीं किया। प्रत्येक पीढ़ी आजादी की जंग को लड़ते हुए आने वाली पीढ़ी के हाथ में संघर्ष की बागडोर सौंपती चली गई। जब यह बागडोर इंडियन नेशनल कांग्रेस के हाथों में पहुंची तो याचक की तरह आजादी मांगने की कायर मनोवृत्ति प्रारम्भ हो गई। फलस्वरूप सदियों पुराने राष्ट्र को तोड़कर पाकिस्तान का निर्माण कर दिया गया  दुनिया के नक्शे पर उभरकर आया यह पाकिस्तान भारत पर हुए विदेशी आक्रमणकारियों का विजयस्तम्भ है। यही विजयस्तम्भ अर्थात् पाकिस्तान आज दुनियाभर में मानवता को समाप्त करने के लिए आतंकवाद की फैक्ट्रियां चला रहा है  भारत के विभाजन का इससे बड़ा दुखद पहलू और क्या हो सकता है।

स्वतंत्रता सेनानियों के साथ विश्वासघात

1945 में हुए दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के तुरन्त पश्चात ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद के झंडाबरदार अंग्रेज शासक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि अब भारत में उनका रहना और शासन करना सम्भव नहीं होगा। उन्हें अब भारत छोड़ना ही होगा  दुनिया के अधिकांश देशों पर अपना अधिपत्य जमाए रखने की उनकी शक्ति और संसाधन पूर्णतः समाप्त हो गए थे  नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज ने जो स्वाधीनता संग्राम छेड़ा, उसने तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विनाश का बिगुल बजा दिया था। सुभाष चंद्र बोस ने स्वतंत्रता की गगनभेदी रणभेरी बजाकर जैसे ही ‘दिल्ली चलो’ का उद्घोष किया, भारतीय सेना में विद्रोह की आग लग गई।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वीर सावरकर और सुभाष चंद्र बोस के साथ पूर्व में बनी एक गुप्त योजना के अनुसार सेना में भर्ती हुए नौजवानों ने सरकार के खिलाफ कमर कस ली।

ये जवान सैनिक प्रशिक्षण लेकर अंग्रेजों के ही खिलाफ युद्ध करेंगे, इसी उद्देश्य के साथ सेना में भर्ती हुए थे। इतिहासकार देवेन्द्र स्वरूप के अनुसार राष्ट्रीय अभिलेखागार में मौजूद गुप्तचर विभाग की रिपोर्टों में कहा गया है – ’20 सितम्बर 1943 को नागपुर में हुई संघ की एक गुप्त बैठक में जापान की सहायता से आजाद हिंद फौज के भारत की ओर होने वाले कूच के समय संघ की सम्भावित योजना के बारे में विचार हुआ था’।

लिहाजा अंग्रेजों ने भारत छोड़ने के अपने मंतव्य की घोषणा कर दी और उसके लिए जून 1948 के अंत की समय सीमा भी तय कर दी। अब यह लगभग स्पष्ट हो गया था कि सदियों पुराना स्वतंत्रता संग्राम अपने अंतिम चरण में पहुंच गया है। देश के तत्कालीन राष्ट्रवादी नेताओं और राष्ट्रवादी संस्थाओं के सामने राजनीतिक स्वाधीनता नहीं, अपितु भारत की एकता और अखंडता की रक्षा करना सबसे बड़ी चुनौती थी। परन्तु राष्ट्र का यह दुर्भाग्य है कि जिस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हाथ में 1200 वर्षों के स्वतंत्रता संग्राम की अंतिम निर्णायक बागडोर थी, वह इस चुनौती के सामने टिक न सकी।

बूढ़े हो रहे कांग्रेसी नेताओं ने संग्राम की बागडोर अगली पीढ़ी के हाथों में सौंपने के बजाए देश का विभाजन स्वीकार कर लिया और सत्ता पर आसीन हो गए। पंडित जवाहर लाल नेहरू के ही शब्दों में ‘हम थक चुके थे, बूढ़े हो चुके थे, स्वतंत्रता संग्राम को आगे चलाते रहने का अर्थ था कि फिर से सत्याग्रह करना और जेलों में जाना, इसलिए हमारे सामने भारत के विभाजन को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था’। राजनीतिक पंडितों के अनुसार यदि कांग्रेस के नेता मात्र एक वर्ष और रुक जाते तो अखंड भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का ध्येय साकार हो जाता। परन्तु कांग्रेस ने अंग्रेजों के जाल में फंसकर तुष्टीकरण पर आधारित अलगाववाद के आगे दंडवत प्रणाम किया और पृथकतावाद/साम्प्रदायवाद पर संविधानिक मोहर लगाकर राष्ट्रवाद की बलि चढ़ा दी।

अंग्रेजों के षड्यंत्र में फंसी कांग्रेस

विभाजन पूर्व के सारे घटनाक्रम के प्रत्यक्षदर्शी श्रीमान दत्तोपंत ठेंगड़ी के अनुसार – ‘अंग्रेजों का भारत छोड़कर जाना अपरिहार्य ही हो गया था, परन्तु वास्तव में विभाजन अपरिहार्य नहीं था। इंडियन नेशनल कांग्रेस ने भारत की जनता को देशभक्तिपूर्ण आह्वान किया होता तो देश की अखंडता बनाए रखने हेतु सर्वोच्च त्याग करने के लिए लाखों की संख्या में लोग आगे बढ़ते’। इस तरह कांग्रेस, मुस्लिम लीग और वामपंथी संगठनों ने जब अंग्रेजों के भारत विरोधी षड्यंत्र के आगे घुटने टेक दिए तो विभाजन का विरोध करने वाली राष्ट्रवादी शक्तियां तेजी से उभरने लगीं। इन संगठित होती हुई शक्तियों को भांपकर अंग्रेजों ने सोचा कि यदि इन राष्ट्रवादी ताकतों को और भी ज्यादा संगठित होने और शक्ति अर्जित करने का अवसर दे दिया तो भारत को तोड़ने की उनकी कुटिल चाल सफल नहीं हो सकती।

संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस के अनुसार – ‘इस व्यापक विरोध से बचने के लिए ब्रिटिश सरकार ने अपने भारत छोड़ने की पूर्व घोषित तिथि जून अंत 1948 के दस महीने पहले ही भारत छोड़ दिया’। तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने भी माना था – ‘इससे पूर्व कि देश के विभाजन के विरुद्ध कोई प्रभावशाली प्रतिरोध खड़ा हो सके, हमने समस्या का निवारण कर डाला’। 15 अगस्त 1947 को हुआ भारत का यह विभाजन केवल मातृभूमि के टुकड़े का विभाजन नहीं था, चिरसनातन काल से भारतीय समाज द्वारा एक चैतन्यमयी देवी की तरह पूजित भारतमाता का खंडन, अपमान और असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों, हुतात्मा, संतो/महात्माओं के बलिदानों का महाविध्वंस था।

भारत विभाजन का शोर सुनते ही सारे देश में इसका विरोध शुरु हो गया। आजादी की लड़ाई लड़ रहे देशभक्त नेताओं, संस्थाओं और दलों ने एकजुट होकर भारत की अखंडता को बचाए रखने के लिए यथासंभव संघर्ष छेड़ दिया. वीर सावरकर ने एक जनसभा में घोषणा की – ‘भारतमाता के अंगभंग कर उसके एक भाग को पाकिस्तान बनाए जाने की मुस्लिम लीग व मियां जिन्ना की कुत्सित योजना का समर्थन कर कांग्रेस बहुत बड़ा राष्ट्रीय अपराध कर रही है। देश की बहुसंख्यक हिन्दू जनता, हिन्दू समाज के सभी अंग – सनातनधर्मी, आर्यसमाजी, सिख, जैन, बौद्ध, वैष्णव, शैव एवं लिगायत आदि अपनी मातृभूमि के टुकड़े नहीं होने देंगे’। इसी तरह 1943 में आयोजित हिन्दू महासभा के अधिवेशन में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने चेतावनी दी थी – ‘यदि कांग्रेस मुस्लिम लीग को प्रसन्न करने के लिए उसकी हर मांग को घुटने टेककर स्वीकार करती रही तो उसके दुष्परिणाम देश की अखंडता के विच्छिन्न होने के रूप में सामने आएंगे। पाकिस्तान की मांग के आधार पर मुस्लिम लीग से समझौता किया जाना राष्ट्रघातक होगा’।

पाकिस्तान की स्थापना का ऐलान होते ही देश के विभिन्न मुस्लिम इलाकों में मोहम्मद अली जिन्ना के इशारे पर हिन्दुओं पर जुल्मों का कहर प्रारम्भ हो गया। हिन्दुओं का सामूहिक नरसंहार, माताओं बहनों का सरेआम बलात्कार, आगजनी, लूटपाट और मारधाड़ आदि अपनी चरम सीमा पर पहुंच गए। 15 अगस्त से पहले और बाद में 30 लाख से ज्यादा लोगों की हत्याएं हुईं। जिस समय भारत विभाजन के पहले हस्ताक्षर और खंडित भारत के पहले मनोनीत प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू दिल्ली में यूनियन जैक उतारकर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहरा रहे थे, उसी समय पाकिस्तान से उजड़े और खून से लथपथ लाखों हिन्दू भारत की सीमा में पहुंच रहे थे। भारतीय इलाकों में पहुंचने वाली लाशों और जख्मियों से भरी गाड़ियां आजादी की कीमत अदा कर रहीं थीं।

दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढाल

इस आजादी के लिए हुए असंख्य बलिदानों, फांसी के फंदों, कत्लोगारत और माताओं बहनों के चीत्कार के बीच उस समय कलेजा कांप उठा जब हमारे कानों में नेताओं द्वारा गाए जा रहे एक गीत की ये पंक्तियां सुनाईं दीं – ‘दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढाल -दागी न कहीं तोप न बंदूक चलाई – दुश्मन के किले पर भी न की तूने चढ़ाई’ इसी गीत में यह कहकर ‘चुटकी में दुश्मनों को दिया देश से निकाल’ गीतकार ने 1200 वर्ष तक निरंतर चले स्वतंत्रता संघर्ष को नकार दिया। ऐसा लगता है, मानों हिन्दू सम्राट दाहिर, दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान, राणा सांगा, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, श्री गुरुगोविंद सिंह, वीर सावरकर, सुभाष चंद्र बोस, सरदार भगत सिंह और डॉक्टर हेडगेवार जैसे स्वतंत्रता संग्राम के हजारों नायकों, शहीदों और महापुरुषों को इस चुटकी का ही इंतजार था। सच्चाई तो यह है कि महात्मा गांधी की इच्छा के विरुद्ध कांग्रेस ने पूरे भारत की स्वतंत्रता के लिए लगातार 1200 वर्ष तक चले संघर्ष को धत्ता बताकर भारत का विभाजन स्वीकार करके स्वतंत्रता संग्राम को समाप्त कर दिया।

सदियों पुराने एवं लम्बे स्वतंत्रता संग्राम के फलस्वरूप अंततोगत्वा हमारा देश स्वाधीन हो गया। सत्ता की जिस कुर्सी पर पहले अंग्रेज काबिज थे, उस पर भारतीय बैठ गए। गोरों के स्थान पर कालों का राज बस इतना ही हुआ। अतः केवल मात्र सत्ताधारियों की अदला बदली को कदाचित भी पूर्ण स्वतंत्रता नहीं कहा जा सकता। यह केवल मात्र राजनीतिक स्वाधीनता है।

ब्रिटिश सत्ता के कालखंड में स्वतंत्रता संग्राम के सर्वोच्च सेनापति महात्मा गांधी के उन उसूलों सिद्धांतों को भुला दिया गया, जिन्हें आदर्श मानकर महात्मा जी ने स्वतंत्रता की अहिंसक लड़ाई लड़ी थी। अंग्रेजों द्वारा फेंके गए झूठे पत्ते उठाकर चाटने में ही हमारे सत्ताधारी गौरव महसूस करने लगे। परिणाम स्वरूप स्वाधीन भारत में महात्मा गांधी जी के वैचारिक आधार स्वदेश, स्वदेशी, स्वधर्म, स्वभाषा, स्वसंस्कृति, रामराज्य, ग्राम स्वराज्य इत्यादि को तिलांजलि दे दी गई। परिणाम स्वरूप भारत में मानसिक पराधीनता का बोलबाला हो गया। देश को बांटने वाली विधर्मी/विदेशी मानसिकता के फलस्वरूप देश में अलगाववाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, सामाजिक विषमता, सांप्रदायिकता और जातिवाद इत्यादि ने अपने पांव पसारने शुरु कर दिए।

अतः जब तक भारत का समस्त भूगोल, संविधान, शिक्षा प्रणाली, आर्थिक नीति, संस्कृति, समाज रचना परसत्ता एवं विदेशी विचारधारा से प्रभावित और पश्चिम के अंधानुकरण पर आधारित रहेंगे, तब तक भारत की पूर्ण स्वतंत्रता पर प्रश्चचिन्ह लगता रहेगा। खण्डित भारत की आधी अधूरी स्वाधीनता, पाकिस्तान का निर्माण और पाश्चात्य वर्चस्व को ‘स्थाई’ मान लेना वास्तव में स्वतंत्रता सेनानियों की पीठ में छुरी घोंपने के सामान है। ‘अखण्ड भारत की पूर्ण स्वतंत्रता’ के लक्ष्य को भूलना नही चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा स्तंभकार है )

 

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