आन बान और शान का पर्व भुजरिया
भुजरिया पर्व
मध्यप्रदेश,छतीसगढ़ एवं उत्तरप्रदेश में लोकपर्व भुजरिया जिसे कजलिया भी कहा जाता है। रक्षा बंधन के दूसरे दिन धूम धाम से मानाया जाता है।
अच्छी बारिश और फसल के लिए मनाया जाता है भुजरिया पर्व
अच्छी बारिश, फसल एवं सुख-समृद्धि की कामना के लिए रक्षाबंधन के दूसरे दिन भुजरिया पर्व मनाया जाता है। इस दिन जल स्त्रोतों में गेहूं के पौधों का विसर्जन किया जाता है। सावन के महीने की अष्टमी और नवमीं को छोटी - छोटी बांस की टोकरियों में मिट्टी की तह बिछाकर गेहूं या जौं के दाने बोए जाते हैं। इसके बाद इन्हें रोजाना पानी दिया जाता है। सावन के महीने में इन भुजरियों को झूला देने का रिवाज भी है। तकरीबन एक सप्ताह में ये अन्ना उग आता है, जिन्हें भुजरियां कहा जाता है। इन भुजरियों की पूजा अर्चना की जाती है एवं कामना की जाती है, कि इस साल बारिश बेहतर हो जिससे अच्छी फसल मिल सकें। श्रावण मास की पूर्णिमा तक ये भुजरिया चार से छह इंच की हो जाती हैं। रक्षाबंधन के दूसरे दिन इन्हें एक-दूसरे को देकर शुभकामनाएं एवं आशीर्वाद देते हैं। बुजुर्गों के मुताबिक ये भुजरिया नई फसल का प्रतीक है। रक्षाबंधन के दूसरे दिन महिलाएं इन टोकरियों को सिर पर रखकर जल स्त्रोतों में विसर्जन के लिए ले जाती हैं।कजलियों (भुजरियां) पर गाजे-बाजे और पारंपरिक गीत गाते हुए महिलाएं नदीयों तट या सरोवरों में कजलियां खोंटने के लिए जाती हैं। हरियाली की खुशियां मनाने के साथ लोग एक - दूसरे से मिलते हैं और बड़े बुजुर्ग कजलियां देकर धन - धान्य से पूरित कहने का आशीर्वाद देते हैं।
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भुजरिया मूलतः गौंडवाने का त्यौहार था जो कालांतर में आधे के लगभग उत्तरभारत में मनाया जाता है। पूर्वकाल में गौंड समाज में कन्या के विवाह योग्य होनें एवं मात्त्व की शिक्षा देनें के लिये भुजरिया त्यौहार मनाया जाता था। यह मूलरूप से महिलाओं का त्यौहार है। बीज के बोने से लेकर उसको 9 दिन तक बढनें के बाद उत्पन्न होने और आर्शीबाद लेने का यह पर्व बहुत पुरातन है। विवाह योग्य बालिकाओं को दाई मां एक प्रकार से ट्रेनिंग देती थी कि गर्भावस्था में किस तरह से गर्भ को संभालते हुये, सफलता पूर्वक संतान को जन्म देना हे। संतान स्वरूपी भुजरिया होती है। अर्थात गेंहू के बीजों को बोना और 9 दिन तक उन्हे पालना पोसना और फिर धो कर आर्शीवाद हेतु बडे बुजुर्गो को देना । इस संदर्भ में भोजली दाई ( देवी ) की कथा प्रसिद्ध है। यह शोध का विषय भी है क्यों कि यह त्यौहार अनादिकाल से मनाया जाता आ रहा है। इस त्यौहार में नया मोड तब आ जाता है जब सम्राट पृथ्वीराज पुत्र हेतु महोबा की राजकुमारी चन्दा का अपहरण करवाने की कोशिस करता है । तब से यह पर्व वीरता और पराक्रम की ओर मुड गया ।
भोजली देवी : भुजरियाँ
भारत के अनेक प्रांतों में सावन महीने की सप्तमी को छोटी॑-छोटी टोकरियों में मिट्टी डालकर उनमें अन्न के दाने बोए जाते हैं। ये दाने धान, गेहूँ, जौ के हो सकते हैं। ब्रज और उसके निकटवर्ती प्रान्तों में इसे 'भुजरियाँ` कहते हैं। इन्हें अलग-अलग प्रदेशों में इन्हें 'फुलरिया`, 'धुधिया`, 'धैंगा` और 'जवारा`(मालवा) या भोजली भी कहते हैं। तीज या रक्षाबंधन के अवसर पर फसल की प्राण प्रतिष्ठा के रूप में इन्हें छोटी टोकरी या गमले में उगाया जाता हैं। जिस टोकरी या गमले में ये दाने बोए जाते हैं उसे घर के किसी पवित्र स्थान में छायादार जगह में स्थापित किया जाता है। उनमें रोज़ पानी दिया जाता है और देखभाल की जाती है। दाने धीरे-धीरे पौधे बनकर बढ़ते हैं, महिलायें उसकी पूजा करती हैं एवं जिस प्रकार देवी के सम्मान में देवी-गीतों को गाकर जवांरा– जस – सेवा गीत गाया जाता है वैसे ही भोजली दाई (देवी) के सम्मान में भोजली सेवा गीत गाये जाते हैं। सामूहिक स्वर में गाये जाने वाले भोजली गीत छत्तीसगढ की शान हैं। खेतों में इस समय धान की बुआई व प्रारंभिक निराई गुडाई का काम समापन की ओर होता है। किसानों की लड़कियाँ अच्छी वर्षा एवं भरपूर भंडार देने वाली फसल की कामना करते हुए फसल के प्रतीकात्मक रूप से भोजली का आयोजन करती हैं।
सावन की पूर्णिमा तक इनमें ४ से ६ इंच तक के पौधे निकल आते हैं। रक्षाबंधन की पूजा में इसको भी पूजा जाता है और धान के कुछ हरे पौधे भाई को दिए जाते हैं या उसके कान में लगाए जाते हैं। भोजली नई फ़सल की प्रतीक होती है। और इसे रक्षाबंधन के दूसरे दिन विसर्जित कर दिया जाता है। नदी, तालाब और सागर में भोजली को विसर्जित करते हुए अच्छी फ़सल की कामना की जाती है।
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आल्हा की बहन चंदा से जुड़ी है कथाः भुजरिया को धूमधाम से मनाया । कजलियां पर्व प्रकृति प्रेम और खुशहाली से जुड़ा है । इसका प्रचलन राजा आल्हा ऊदल के समय से है। आल्हा की बहन चंदा श्रावण माह से ससुराल से मायके आई तो सारे नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था। महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरता आज भी उनके वीर रस से परिपूर्ण गाथाएं बुंदेलखंड की धरती पर बड़े चाव से सुनी व समझी जाती है।
बताया जाता है कि महोबे के राजा परमाल की बिटिया राजकुमारी चन्द्रावलि का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबे पै चढ़ाई कर दी थी । राजकुमारी उस समय तालाब में कजली सिराने अपनी सखी - सहेलियन के साथ गई थी। राजकुमारी को पृथ्वीराज हाथ न लगाने पाए इसके लिए राज्य के बीर-बांकुर (महोबा) के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरतापूर्ण पराक्रम दिखलाया था। इन दो वीरों के साथ में चन्द्रावलि का ममेरा भाई अभई भी उरई से जा पहुंचे। कीरत सागर ताल के पास में होने वाली ये लड़ाई में अभई वीरगति को प्यारा हुआ, राजा परमाल को एक बेटा रंजीत शहीद हुआ। बाद में आल्हा, ऊदल, लाखन, ताल्हन, सैयद राजा परमाल का लड़का ब्रह्मा, जैसें वीर ने पृथ्वीराज की सेना को वहां से हरा के भगा दिया। महोबे की जीत के बाद से राजकुमारी चन्द्रवलि और सभी लोगों अपनी-अपनी कजिलयन को खोंटने लगी। इस घटना के बाद सें महोबे के साथ पूरे बुन्देलखण्ड में कजलियां का त्यौहार विजयोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा है।
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कजली मेले का इतिहास है 900 साल पुराना,
-रानी मल्हना के कजलियों के डोले रक्षाबंधन के दिन लूटे जाने पर हुआ था भीषण युद्ध महोबा,
उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में कजली महोत्सव की ख्याति पूरे देश में है। इसका इतिहास भी नौ सौ साल पुराना है। बुन्देलखण्ड की भूमि में तीन दिवसीय कजली मेला पुरानी सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है जिसका आगाज रक्षाबंधन के पर्व पर होगा। पहले दिन बांदा, हमीरपुर, चित्रकूट, छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दतिया व ग्वालियर सहित कई इलाकों से भारी भीड़ जुटेगी। इस एतिहासिक मेले की तैयारी पूरी कर ली गयी है। जिले में तीन दिवसीय कजली मेले का आगाज रक्षाबंधन पर्व के अगले दिन भादों मास की प्रतिपदा को कीरत सागर के तट पर होगा। यह कजलियों व भुजरियों का मेला नाम से भी विख्यात है। यह मेला चंदेल शासक परमाल और इनके वीर सामंत आल्हा ऊदल से सम्बन्ध रखता है। जगननिक कत लोकप्रिय काव्य आल्हा खण्ड में भी कीरत सागर पर भुजरियों के विसर्जन के दौरान पृथ्वीराज चौहान से हुये भीषण संग्राम का अनोखा वर्णन है। महोबा के राजा परमाल ने अपने वीर योद्धा आल्हा ऊदल को राज्य से निष्कासित कर दिया था।
दोनों वीर योद्धा कन्नौज चले गये थे। एतिहासिक पन्ने पलटने पर पता चलता है कि वर्ष 1182-83 में बुन्देलखण्ड के महोबा के चंदेल राजा परमाल से दिल्ली पति पृथ्वीराज चौहान से मतभेद होने और उरई के नरेश माहिल के उकसाने के कारण पृथ्वीराज चौहान ने उस समय महोबा को चारों ओर से घेराबंदी कर हमला कर दिया था। जब रक्षाबंधन पर्व की लोग तैयारी कर रहे थे। पृथ्वीराज चौहान के युद्ध के खतरे की चिंता न करती हुयी रानी मल्हना व राजकुमारी चन्द्रावल ने कीरत सागर पर रक्षाबंधन पर्व मनाने का फैसला किया।
1800 डोलों में कजलियों के समूहों के साथ रानी मल्हना अपने महल से वीरांगना सखियों के साथ कजली खोटनें कीरत सागर तट पहुंची तभी दिल्ली पति पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुण्डायराय ने एक सैन्य टुकड़ी को लेकर कजली के तमाम डोले लूट लिये तथा वह डोले महोबा के पश्चिम छोर पचपहरा गांव में अपने शिविर ले गया। रानी के डोले लूटने की खबर पाते ही कन्नौज से वीर योद्धा आल्हा ऊदल महोबा आये और अभई, रंजित, सैय्यद व लाखन ढेबा के साथ मिलकर पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुण्डाराय को चारों ओर से घेरकर आक्रमण कर दिया था। इन वीर योद्धाओं ने कसम भी खायी थी कि जब तक रानी के लूटे गये डोले वापस नहीं लायेंगे तब तक रक्षाबंधन पर्व नहीं मनाया जायेगा। पूरे दिन पचपहरा गांव में भीषण संग्राम हुआ जिसमें वीर योद्धा आल्हा ऊदल के हाथों सेनापति चामुण्डाराय पराजित हुआ।
वीर योद्धा लूटे गये कजली के डोले वापस लाये। रक्षाबंधन पर्व के अगले दिन रानी मल्हना ने कजली के डोलों का कीरत सागर में विसर्जन कर धूमधाम से पर्व मनाया। इस एतिहासिक घटना के बाद से ही कजली खोटने के त्यौहार को रक्षाबंधन पर्व के अगले दिन मनाने की परम्परा शुरू हुई जो 900 साल बाद भी जारी है।
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