सुरक्षा हेतु संकल्पबद्ध होना ही रक्षा बंधन

 

 

राष्ट्र से लेकर सम्बंधों तक एवं पर्यावरण तक की सुरक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है। इसी कर्त्तव्य को संकल्पबद्ध करने एवं हमें निरंतर इस हेतु संकल्पबद्ध रखने प्रतिवर्ष रक्षा बंधन का पर्व आता हे। सर्व प्रथम ब्राहम्ण रक्षा सूत्र बांधते हैं और हम उन्हे रक्षा का वचन देते है। वृक्षों के रक्षा सूत्र बांध कर पर्यावरण की रक्षा एवं शस्त्रों को रक्षा सूत्र बांध कर राष्ट्र रक्षा का व्रत हम लेते है। संकल्पबद्ध होते है। कालांतर में विशेष कर विदेशी आक्रमण काल में यह पर्व मुख्य तौर पर बहन की रक्षा / महिलाओं की रक्षा पर केन्द्रीत हो गया ।  

 रक्षासूत्र का इतिहास

जबलपुर के तिलहरी गाँव में अपनी माँ को रक्षासूत्र बाँधती एक लड़की
प्राचीनकाल में रक्षाबंधन मुख्यतः हिन्दुओ का त्यौहार है। प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन ब्राह्मण अपने यजमानों के दाहिने हाथ पर एक सूत्र बांधते थे, जिसे रक्षासूत्र कहा जाता था। इसे ही आगे चलकर राखी जाने लगा। यह भी कहा जाता है कि यज्ञ में जो यज्ञसूत्र बांधा जाता था उसे आगे चलकर रक्षासूत्र कहा जाने लगा। रक्षाबंधन की सामाजिक लोकप्रियता कब प्रारंभ हुई, यह कहना कठिन है। अर्थात अनदिकाल से ही यह रक्षा सूत्र बांधने का विधान है। इसके पीछे मनुष्य के मन में छुपी विराट शक्ति को विजय हेतु जाग्रत करना एवं रक्षा हेतु संकल्पबद्ध करना है।

 

 मंगलकार्य में बांधी जाने वाली मौली या रक्षासूत्र क्या है? इसे रक्षासूत्र क्यों कहते हैं? किसने सबसे पहले बांधी, किसकी रक्षा की थी? मौली या रक्षासूत्र या कलावा से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बात.

  देवताओं के गुरू बृहस्पति के द्वारा दिया था “ रक्षासूत्र”

 हिंदुओं के कलाई की शान है कलावा. पुरुष हो या स्त्री सबके हाथ में बंधी दिखती है तीन रंगों की मौली या रक्षासूत्र. कलावा मौली या रक्षासूत्र को ही कहते हैं. कलाई पर बांधने के कारण इसका नाम कलावा हो जाता है. मौली या रक्षासूत्र सिर्फ कलाई पर नहीं बांधे जाते, कमर और पैरों में भी बांधे जाते हैं. यह परंपरा आदि काल से चली आ रही है.

इस पोस्ट में क्या-क्या जानने को मिलेगा?

कलावा मौली या रक्षासूत्र राखी क्या है?
रक्षासूत्र को रक्षाबंधन के अतिरिक्त किस दिन बांधा जाता है?
रक्षासूत्र राखी बांधने का मंत्र क्या है?
किन-किन अंगों पर बांधा जा सकता है रक्षासूत्र?
बहनों द्वारा बांधा गया रक्षासूत्र साधारण नहीं है. इसने तो देवों का उद्धार किया था. बहनें ये कथा रक्षाबंधन को भाइयों को जरूर सुनाएं.
श्रीकृष्ण द्वारा सुनाई पौराणिक कथा- सर्वप्रथम रक्षासूत्र किसने बनाया, किसे बांधा. कैसे रक्षासूत्र के कारण हारी लड़ाई जीते देवता?
रक्षाबंधन को यह पोस्ट हर बहन-भाई के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगी. साथ ही कलावा जिसे वर्ष में कभी भी बांधा जाता है उसके बारे में सारी जानकारी मिलेगी. छोटी-छोटी असावधानी हम कर देते हैं कलावा बांधने में. पोस्ट पढ़ने के बाद आप इससे बच सकेंगे.

देवताओं पर एक आपदा आई थी. देवगुरू बृहस्पति के सुझाव पर देवराज इंद्र की पत्नी शचि ने इस रक्षासूत्र के दम पर सारा खेल पलट दिया था. इस रक्षासूत्र से बारह वर्षों की लड़ाई में जीत रहे असुर अचानक हार गए. असुरगुरू शुक्राचार्य भी रक्षासूत्र की काट न निकाल पाए. सुंदर पौराणिक कथा है. श्रीकृष्ण ने आपदा में पड़े युधिष्ठिर को सुनाई थी. कथा जानने से पहले मौली से जुड़ी आवश्यक बातें जान लें.

मौली या रक्षासूत्र है क्याः
कच्चे सूत से बनता है रक्षासूत्र या मौली.

मूलतः तीन रंगों के धागे से बनती है मौली- लाल, पीला और हरा. यह त्रिदेवों का प्रतीक है. कभी-कभी यह पांच धागों की भी बनती है जिसमें नीला और सफेद भी होता है. पांच धागों से बनी मौली पंचदेव का प्रतीक है. इसमें गणेश और सूर्य भी शामिल हो जाते हैं.
मोली या रक्षासूत्र कलावा-रक्षाबंधन के धागे
मौली या रक्षासूत्र बांधने के विधान:
पुरुषों व अविवाहित कन्याओं को दाएं हाथ में कलावा बांधना चाहिए. विवाहित स्त्रियों को बाएं हाथ में मौली या रक्षासूत्र या कलावा बांधने का विधान है.

जिस हाथ पर कलावा बांधा जा रहा हो उसकी मुट्ठी बंधी होनी चाहिए और दूसरा हाथ सिर पर होना चाहिए.

मौली या रक्षासूत्र को सिर्फ तीन बार ही लपेटना चाहिए. मौली या रक्षासूत्र को आप कलाई पर बांधे, कमर में या पैर में, तीन बार ही लपेटना चाहिए. मौली या रक्षासूत्र बांधने में वैदिक विधि का पालन व मंत्रोच्चार करना चाहिए.


मौली या रक्षासूत्र कब बांधें?
पर्व-त्योहार पर मौली या रक्षासूत्र बांधना चाहिए. इसके अलावा किसी अन्य दिन बांधना हो तो लिए मंगलवार और शनिवार विशेष शुभ कहे गए हैं. हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली उतारकर नई मौली बांधना विशेष शुभ माना गया है. उतारी हुई पुरानी मौली या रक्षासूत्र पीपलवृक्ष के पास रख दें या जल में बहा दें.

प्रतिवर्ष की संक्रांति को, यज्ञ की शुरुआत में, मंगलकार्य के प्रारंभ में, हिन्दू संस्कारों के दौरान मौली या रक्षासूत्र अवश्य बांधा जाए.

मौली या रक्षासूत्र बांधने का मंत्र:

‘येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।’

मौली या रक्षासूत्र के बारे में विशेष बात:
मौली या रक्षासूत्र कलाई में बांधने पर कलावा कहलाएगी. हाथ के मूल में होती है तीन रेखाएं- ये मणिबंध कहलाती हैं. भाग्यरेखा व जीवनरेखा का उद्गम मणिबंध से होता है. इन मणिबंधों के नाम शिव, विष्णु व ब्रह्मा है. यहां महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती का भी वास माना जाता है.

मंत्रोच्चार के साथ बांधे गए कलावे के सूत्र त्रिदेवों व त्रिशक्तियों को समर्पित हो जाते हैं. संकल्पपूर्वक कलावा या रक्षासूत्र बांधने से भूत-प्रेत, जाटू, टोना मारण, मोहन, उच्चाटन आदि से रक्षा होती है.

पवित्र अवस्था में ही मौली या रक्षासूत्र बांधना चाहिए. यदि किसी संकल्प को लेकर मौली बांधी गई और उसका उल्लंघन कर रहे हैं तो आप त्रिदेवों को अप्रसन्न करते हैं. त्रिदेवों की अप्रसन्नता से सभी देवता रूष्ट हो जाएंगे और आपकी रक्षा न होगी. ऐसे में विपत्तियां टूट पड़ेगी. इसका उल्लंघन संकटकारी सिद्ध हो सकता है.


बच्चों को अक्सर कमर में काले रंग की मौली या रक्षासूत्र बांधा जाता है. इससे बुरी आत्मा का शरीर पर प्रभाव नहीं होता. पेट की बीमारियों से बचाव भी होता है.

कलाई, पैर, कमर और गले में मौली या रक्षासूत्र बांधने के ‍चिकित्सीय फायदे भी हैं. इससे त्रिदोष अर्थात वात, पित्त और कफ का संतुलन बना रहता है. ब्लड प्रेशर, हार्टअटैक, डायबिटीज और लकवा जैसे रोगों से बचाव होता है.  शरीर के कई प्रमुख अंगों तक पहुंचने वाली नसें कलाई से होकर गुजरती हैं. शरीर विज्ञान के इसी सूत्र पर आधारित है कलावा बांधना. इससे नसों की क्रिया नियंत्रित रहती है.


एक बार भगवान श्रीकृष्ण और महाराज युधिष्ठिर में वार्ता चल रही थी. युधिष्ठिर भगवान से अपनी शंकाओं के निवारण के लिए प्रश्न पूछ रहे थे. उन्होंने युद्ध और नीति कौशल से जुड़े प्रश्नों के साथ-साथ व्यक्तिगत तथा समाज हित के प्रश्न पूछे.

युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा- भगवन! शौर्य और बल के अतिरिक्त क्या कोई ऐसा उपाय भी है जो मनुष्य की रक्षा के लिए विशेष रूप से फलदायी हो?

श्रीकृष्ण बोले– महाराज! रक्षासूत्र एक ऐसा उपाय है जिससे भी विजय, आरोग्य और सुख प्राप्ति संभव है. क्या आपने इस संदर्भ में शची और इंद्र की कथा नहीं सुनी?


युधिष्ठिर के अनुरोध पर भगवान ने उन्हें रक्षासूत्र बनाने और उसे धारण करने के बारे में बताकर शची और इंद्र के संदर्भ के साथ रक्षासूत्र का महत्व स्थापित करने वाली कहानी सुनानी शुरू की.

भगवन बोले- देवताओं और असुरों में आए दिन संग्राम होते रहते थे. कई बार असुर भी इस संग्राम में विजयी हुए हैं. एक बार ऐसा ही होने वाला था, असुर देवताओं पर भारी पड़ रहे थे. प्रतीत होता था कि वे संग्राम में विजयी हो जाएंगे.

अनवरत बारह साल तक चले युद्ध के अंतिम चरण में देवताओं ने युद्ध को जीत लिया. दैत्यों, असुरों का दांव नहीं चला. वे जीतते-जीतते भी देवताओं से पराजित हो गए.

दु:खी होकर सभी असुर नायक सेनापति दैत्यराज बलि की अगुआई में गुरु शुक्राचार्य जी के पास गए. अपनी पराजय का पूरा वृतांत बतलाया.

असुरों ने शुक्राचार्य से कहा- हम युद्ध जीत रहे थे परंतु अचानक न जाने क्या हुआ. युद्ध का पक्ष ही बगल गया. हमारी जीत हार में बदल गई. पता नहीं कैसे देवता जीत गए. हमको इसका बहुत दुख है.

शुक्राचार्य ने समझाया-आप सब वीरता से लड़े. आपका दुख अकारण है. महान योद्धाओं को दुख नहीं करना चाहिए. काल की गति से जय-पराजय तो होती ही रहती है. जय पराजय की चिंता छोड़ भविष्य की रणनीति पर कार्य करे. पराजय से मिली सीख की भी बड़ी भूमिका होती है.

दैत्यराज बलि ने कहा- गुरुवर, यदि हमें पराजय के मूल कारणों का पता लग जाए तो हम अभेद्य रणनीति तैयार कर सकते हैं. हम अभी तक नहीं जान सके कि हम पराजित क्यों हुए. कृपया आप हमारा मार्गदर्शन करें.


शुक्राचार्य ने कहा-यह हार तुम्हारे रणकौशल की कमी के कारण नहीं हुई है. युद्ध के बारहवें वर्ष में एक ऐसी बात हुई कि तुम जीती लड़ाई हार गए. मैं तुम्हें वह रहस्य विस्तार से बताता हूं.

जब युद्ध का बारहवां वर्ष चल रहा था. अंतिम चरण में देवताओं की पराजय सुनिश्चित होने लगी तो इंद्र को पराजय का भय सताने लगा. इंद्र भयभीत होकर गुरु बृहस्पति के पास पहुंचे. उन्होंने बृहस्पति से अपनी रणनीति की समीक्षा करने को कहा. इंद्र ने कहा कि सिर पर आ पहुंची पराजय से बचने का कोई उपाय तत्काल निकालिए. यदि ऐसा न हुआ तो हम असुरों के अधीन हो जाएंगे.

युद्ध ऐसी स्थिति में पहुंच चुका था कि इंद्र की सेना कुछ नहीं कर सकती थी. बृहस्पति को अपने शिष्यों की रक्षा हर हाल में करनी थी. उन्होंने चतुराई से एक उपाय किया. बृहस्पति ने इंद्र की पत्नी शची बुलवाया. शचि को विधि-विधान से व्रत करके रक्षासूत्र तैयार करने का ज्ञान देकर देवगुरू ने एक आदेश दिया.

बहस्पति ने कहा- इस रक्षासूत्र को श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन उचित मंत्रों के साथ इंद्र की दाहिनी कलाई में बांध दो. देवराज युद्ध हार ही रहे हैं, संभवतः इस रक्षासूत्र से इंद्र को लाभ हो जाए. शचि ने देवगुरू की बात का अक्षरशः पालन किया. विधि-विधान से व्रत करने के बाद न सिर्फ इंद्र अपितु सभी देवताओं को रक्षासूत्र से बांध दिया.

इतनी कथा सुनाने के बाद असुरगुरू बोले- दैत्यराज, शची ने बृहस्पति के कहे अनुसार इंद्र को रक्षासूत्र बांधकर देवताओं को अजेय बना दिया. फलस्वरुप इन्द्र सहित समस्त देवताओं की दानवों पर विजय हुई. उसी के तेज और प्रभाव से तुम सब इंद्र से परास्त हुए हो.

यह सुनकर बलि निराश हो गए. उन्होंने शुक्राचार्य से इसकी काट पूछी.

शुक्राचार्य ने समझाया- दानवेन्द्र! एक साल तक इसकी कोई काट नहीं कर सकता. कूटनीति का सहारा लो. अभी वर्षभर के लिए तुम देवराज इंद्र के साथ संधि कर लो. एक वर्ष तक प्रतीक्षा करो. उसके बाद ही कोई राह निकल सकेगी. उससे पहले किए गए सारे युद्धों का परिणाम यही होगा.

शुक्राचार्य की बात सुनकर दानव कुछ निश्चिन्त हुए. उन्हें असुरगुरू का परामर्श उचित लगा.
दानवेंद्र ने कहा- गुरुदेव में देवताओं से संधि का प्रस्ताव लेकर जा रहा हूं. वर्षभर मैं पुनः युद्ध की तैयारी करूंगा. अगले वर्ष पुनः आक्रमण करूंगा. आप हमारे लिए भी ऐसा ही कोई सूत्र तैयार कराएं. दैत्यराज ने गुरू की बात मान ली. इससे शुक्राचार्य बड़े प्रसन्न हुए और बलि को मनुष्यों द्वारा पूज्य होने का आशीर्वाद दिया.

श्रीकृष्ण ने यह कथा सुनकार युधिष्ठिर से कहा- रक्षासूत्र का मैंने विलक्षण प्रभाव आपको बताया. इससे विजय, सुख, पुत्र, आरोग्य और धन भी प्राप्त होता है. यह रक्षा विधान बाद में रक्षा-बंधन के रूप में आया. बहन अपने भाई से रक्षा का दायित्व लेने लगी. राजा युधिष्ठिर ने पूछा– भगवन ! आपने रक्षासूत्र के प्रभाव के बारे में जो ज्ञान दिया उसे सुनकर आनंदित हूं. पर मेरे मन में एक और जिज्ञासा उत्पन्न हुई है. आपकी अनुमति हो तो निवेदन करूं.

भगवान ने मुस्कुराते हुए युधिष्ठिर को प्रश्न की अनुमति दे दी.
युधिष्ठिर ने पूछा- देवगुरू ने यह उपाय क्यों बताया? जय प्रदान करने वाले इस रक्षासूत्र में ऐसी शक्ति कैसे आती है? यह जानने की भी इच्छा है. कृपया यह भी बताकर मेरा उपकार करें.

भगवान ने रक्षासूत्र की शक्ति के बारे में बताने को युधिष्ठिर को एक और छोटी सी कथा सुनाई.

भगवान बोले– वामन भगवान ने दैत्यराज बलि से तीन पग भूमि का दान मांगा. बलि को यह अभिमान हो गया था कि वह सबकुछ दे सकते हैं. एक छोटा से वामन तीन पग में क्या ले लेगा. यह सोचकर बलि मन में हंसे. दाता को अभियान नहीं होना चाहिए, अन्यथा दान निष्फल होता है. ऐसा दान अनिष्टकारी साबित होता है.

शुक्राचार्य तो अंतर्यामी थी. उन्होंने देख लिया कि इस दान के बाद बलि के पास कुछ शेष न होगा. उन्होंने बलि को सावधान किया कि यह वामन नहीं नारायण हैं. बलि ने जब यह जाना कि याचक के रूप में नारायण हैं तो भी वह दान को प्रस्तुत रहे. ऐसा करके बलि ने अपने पूर्व के सभी पापों का तत्काल नाश कर लिया. वह सर्वथा पवित्र हो गए.

गुरू के मना करने बलि वामन भगवान को उनकी इच्छानुसार तीन पग भूमिदान को तैयार थे. भगवान ने बलि को वचनबद्ध किया ताकि वह अपने वचन से पीछे न हटें.

महान बलि ने दो पग में ही अपना सर्वस्व गंवा दिया. फिर भी विचलित नहीं हुए. तीसरा पग रखने के लिए बलि ने मस्तक आगे कर दिया था. श्रीहरि ने प्रसन्न होकर बलि को पाताल लोक में वास दिया और एक मन्वंतर में इंद्र होने का वरदान दिया.

स्वयं भगवान बलि की पहरेदारी करने लगे. भगवान ने बलि को सूत्र में बांध तो लिया किंतु उन्हें सर्वस्व प्रदान कर दिया. इसीलिए रक्षा सूत्र ऐसा बंधन है जो अभीष्ट प्रदान करता है.

इसी कारण रक्षासूत्र को बांधते समय यह मंत्र पढा जाता है- येन बद्धोबली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। दानवेन्द्रो मा चल मा चल।।” यानी दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूँ. हे रक्षासूत्र, तुम मेरे साथ रहो चलायमान न हो. (संदर्भ: भविष्यपुराण, महाभारत उत्तर पर्व एवं अन्य पुराण)

 

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रक्षासूत्र का मंत्र और उद्देश्य
रक्षासूत्र का मंत्र है- 'येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल:।

इस मंत्र का सामान्यत: यह अर्थ लिया जाता है कि दानवीर महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे!(रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो।

धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहत अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं, यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है।

शास्त्रों में कहा गया है - इस दिन अपरान्ह में रक्षासूत्र का पूजन करे और उसके उपरांत रक्षाबंधन का विधान है। यह रक्षाबंधन राजा को पुरोहित द्वारा यजमान के ब्राह्मण द्वारा, भाई के बहिन द्वारा और पति के पत्नी द्वारा दाहिनी कलाई पर किया जाता है। संस्कृत की उक्ति के अनुसार

जनेन विधिना यस्तु रक्षाबंधनमाचरेत। स सर्वदोष रहित, सुखी संवतसरे भवेत्।।

अर्थात् इस प्रकार विधिपूर्वक जिसके रक्षाबंधन किया जाता है वह संपूर्ण दोषों से दूर रहकर संपूर्ण वर्ष सुखी रहता है। रक्षाबंधन में मूलत: दो भावनाएं काम करती रही हैं। प्रथम जिस व्यक्ति के रक्षाबंधन किया जाता है उसकी कल्याण कामना और दूसरे रक्षाबंधन करने वाले के प्रति स्नेह भावना। इस प्रकार रक्षाबंधन वास्तव में स्नेह, शांति और रक्षा का बंधन है। इसमें सबके सुख और कल्याण की भावना निहित है। सूत्र का अर्थ धागा भी होता है और सिद्धांत या मंत्र भी। पुराणों में देवताओं या ऋषियों द्वारा जिस रक्षासूत्र बांधने की बात की गई हैं वह धागे की बजाय कोई मंत्र या गुप्त सूत्र भी हो सकता है। धागा केवल उसका प्रतीक है।[6] रक्षासूत्र बाँधते समय एक श्लोक और पढ़ा जाता है जो इस प्रकार है-

ओम यदाबध्नन्दाक्षायणा हिरण्यं, शतानीकाय सुमनस्यमाना:। तन्मSआबध्नामि शतशारदाय, आयुष्मांजरदृष्टिर्यथासम्।।  

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लक्ष्मीजी ने बांधी थी राजा बलि को राखी

राजा बलि ने यज्ञ संपन्न कर स्वर्ग पर अधिकार जमाने की कोशिश की थी। बलि की तपस्या से घबराए देवराज इंद्र ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। विष्णुजी वामन ब्राम्हण का रूप रखकर राजा बलि से भिक्षा अर्चन के लिए पहुंचे। गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी बलि अपने संकल्प को नहीं छोड़ा और तीन पग भूमि दान कर दी। वामन भगवान ने तीन पग में आकाश-पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। बलि भक्ति के बल पर विष्णुजी से हर समय अपने सामने रहने का वचन ले लिया। इससे लक्ष्मीजी चिंतित हो गईं। नारद के कहने पर लक्ष्मीजी बलि के पास गई और रक्षासूत्र बांधकर उसे अपना भाई बनाया और संकल्प में बलि से विष्णुजी को अपने साथ ले आईं। उसी समय से राखी बांधने का क्रम शुरु हुआ जो आज भी अनवरत जारी है।


द्रौपती ने बांधी थी भगवान कृष्ण को राखी

राखी का एक कथानक महाभारत काल से भी प्रसिद्ध है। भगवान श्रीकृष्ण ने रक्षा सूत्र के विषय में युधिष्ठिर से कहा था कि रक्षाबंधन का त्यौहार अपनी सेना के साथ मनाओ इससे पाण्डवों एवं उनकी सेना की रक्षा होगी। श्रीकृष्ण ने यह भी कहा था कि रक्षा सूत्र में अद्भुत शक्ति होती है। शिशुपाल का वध करते समय कृष्ण की तर्जनी में चोट आ गई, तो द्रौपदी ने लहू रोकने के लिए अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर बांध दी थी। यह भी श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। भगवान ने चीरहरण के समय उनकी लाज बचाकर यह कर्ज चुकाया था। उसी समय से राखी बांधने का क्रम शुरु हुआ।




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