जातिगत जनगणना की मांग, देश की एकता के विखण्डन का नया षड्यंत्र - अरविन्द सिसौदिया

 

 




जातिगत जनगणना,देश की एकता के विखण्डन का नया  षड्यंत्र  - अरविन्द सिसौदिया

 जिन जातियों ने परिवार नियोजन अपना लिया उनके साथ अन्याय ही है

जातिगत आरक्षण और जातिगत जनगणना दोनों में आपस में उतना ही तालमेल है जितना कि एक सिक्के के दो पहलू में होता है । जातिगत जनगणना का अब विरोध किया जाना चाहिए, क्यों कि 75 वर्ष की आजादी में भारत ने जातिगत भेद भाव पूरी तरह समाप्त हो चुका है। राजनैतिक क्षैत्र जातिगत , पंथ व धर्म पर आधारित मसले राजनैतिक लाभ के लिये उठाते है। देशहित के लिये नहीं।समाज में एकता का , समरसता का भाव आना चाहिये, जिसका हमेशा वोट बैंक की राजनिति ने नुकसान पहुंचाया और समाज को बांट कर, डरा कर स्वंय कर हित साधा। जो कि निंदनीय है।

1- भारत में 1857 के स्वंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों की नीति ही यह रही कि समाज को बांटो और राज करो, इसी के तहत हिन्दू से मुस्लमान को लडाया गया। राजभक्त मुसलमान के नाम पर ब्रिटिश सरकार ने न केबल हिन्दू - मुसलमान को आपस में लडवाया बल्कि मुसलमानों को भडकाया व हिन्दूओं पर हिंसक आक्रामकता को समर्थन प्रदान किया, जो दंगों और मुस्लिम लीग की सीधी कार्यवाहियों के रूप में हमने इतिहास में पढा हैं।
उसी नीति में आरणक्ष एवं जातीय जनगणना भी सम्मिलित थी। आरक्षण की व्यवस्था अंग्रेजों ने बनाई थी आपस में विभाजित करने के लिये एवं वे ही जातीय जनगणना करवा कर समाज को बांटते थे। 1931 तक भारत में जातीय जनगणना होती थी। उसे प्रकाशित भी किया जाता था। द्वितीय विश्व युद्ध की छांव में 1941 की जनगणना भी जातीय आधार पर ही हुई किन्तु कांग्रेस के प्रबल विरोध के बाद जातीय आंकडों को प्रकाशित नहीं किया गया।
2- स्वतंत्र भारत में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने शत प्रतिशत ब्रिटिश कानूनों को ही अपनाया, कुछ अपवादों को छोड कर, यहां तक कि भारत शासन अधिनियम को ही संविधान के रूप में पिरो लिया गया,75 प्रतिशत अनुच्छेद ब्रिटिश सरकार के भारत शासन अधिनियम के थे। किन्तु प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जाति आधरित जनगणना को पूरी तरह निरस्त कर दिया तथा सामान्य जनगणना को प्रारम्भ किया जो 1951 से लेकर 2011 तक यथावत जारी है।
3- जातिगत जनगणना के पीछे अन्य पिछडा वर्ग के नाम पर गठित सैडयूल मुख्य कारक तत्व है। मंडल आयोग की सिफारिसों के बाद प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के समय में पूरे देश ने  समाज को आपस में सडकों पर भिड़ते हुये देखा था । क्यों कि यह सैडयूल समाज में विभाजन अधिककर्ता है , लोक कल्याण नहीं करता ।
4- सबसे बडा प्रश्न यह है कि जिन राज्यों ने / जातियों ने परिवार नियोजन को अपना लिया है उनके साथ जनसंख्या घनत्व के आधार पर भेद भाव होगा।
 क - यथा यह विरोध मूलतः कांग्रेस पार्टी के द्वारा किया जाना चाहिए क्योंकि 1975 में जब आपातकाल लगा और 1975 से 77 तक जो आपातकाल रहा उसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बीस सूत्री कार्यक्रम बना कर के जनसंख्या नियंत्रण हेतु परिवार नियोजन को प्रोत्साहन दिया था और उस जनसंख्या नियंत्रण के प्रोत्साहन को अपनाकर अनेकों जातियों ने परिवार नियोजन को अपनाया ।  उनके परिवारों मैं सिर्फ एक दो या अधिकतम तीन की संख्या तक इस नियंत्रण रहा है वहीं दूसरी जातियों ने जिन्होंने इस जनसंख्या नियंत्रण को नहीं माना उन्होंने पांच से और कई कई तो 10-11 तक का भी रेश्यो रहा है और स्वयं लालू प्रसाद यादव इसका उदाहरण है कि उनकी 9 संतान है । इसलिए अगर अब 2021-22 में जातीय  जनगणना होती है तो वह परिवार नियोजन अपनाने वाली जातियों  के साथ पूरी तरह अन्यायकारी होगा ।
 ख - कांग्रेस पार्टी के द्वारा ही जातिगत जनगणना का विरोध इसलिये भी करना चाहिये कि उनके प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इन्दिरा गांधी से लेकर मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाली यूपीय सरकार तक ने जातिगत जनगणना को रिजेक्ट किया है। 

ग- हाल ही में मद्रास हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा है कि “ जनसंख्या नियंत्रण में नाकाम रहने वाले राज्यों का संसद में प्रतिनिधित्व ज्यादा क्यों है? मद्रास हाई कोर्ट ने यह सवाल हाल ही में एक आदेश में केंद्र सरकार से पूछा है। कोर्ट ने कहा कि तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों ने सफलतापूर्वक जनसंख्या पर नियंत्रण किया। इसके बावजूद इन राज्यों में सांसदों की संख्या कम कर दी गई। वहीं उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे राज्य जनसंख्या नियंत्रण में नाकाम हैं, फिर भी यहां पर सांसदों की संख्या ज्यादा है।” अर्थात यह प्रश्न उन जातियों की तरफ से भी बनेगा कि जनसंख्या नियंत्रण करने वाली जातियों का दोष क्या है।

राजनीतिक दल राजनीतिक स्वार्थ के अलावा कुछ नहीं सोचते उन्हें अपनी कुर्सी चाहिए अपना एक जो राजा है उसको कुर्सी पर बैठाना चाहिए वंशवाद की लपेट में अधिकांश राजनीतिक दल सिर्फ नवसामंतवादी हो गए हैं भारत एक ऐसा देश है जिसने कभी 1000-800 सामंतों को देखा है और इनकी फूट के द्वारा देश को सैकड़ों - सैकड़ों वर्षों तक गुलाम होते हुए भी देखा है । इसलिए इन स्वहित की सामंतवादी सोचो के राजनीतिक दलों की कोई भी परवाह नहीं की जानी चाहिए। इस पर संवैधानिक दृष्टिकोण अपनाना जाना चाहिए। इसलिए फिर जातिगत जनगणना का विषय कहां से आ गया ।

जहां तक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का सवाल है वह एक पलटू राजनीति के महापुरुष है। वे देखते हैं कि ऊंट किस करवट बैठ रहा है, उसी करबट की राजनीति में कूद पडते है। वोट किस तरफ जाने से ज्यादा मिल सकते हैं उनको फायदा किस चीज से ज्यादा हो सकता है और वह उधर ही अपने जोड-तोड़़ करते रहते हैं उन्होंने ज्यादातर मौके पर धोखा देने और साथ छोड़ कर भागने का काम ही किया है । इस समय स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि वे बिहार में अपनी पार्टी को नंबर दो होने व भाजपा को बडी पार्टी होने के कारण परेशान हैं और किसी भी समय वे भाजपा का साथ छोड सकते है। 

भारत का संविधान समता,एकता और अखण्डता को बल देता है, तो जाति व्यवस्था के नासूर को लगातार बल देने का क्या मतलब । कई जगह जाति का कालम भरना पड़ता है। कई सरकारी फार्मों में भी अपनी जाति भरनी पड़ती है। यह कैसा विरोधाभास है। रोज रोज जातिगत विषमता पर समाचार पत्रों में खबरें पढ़ने को मिल जाती हैं। मानव निर्मित भेदों का कोई स्थान नहीं है। इसे समाप्त करने के प्रयास होने चाहिये । जातिय विभेद व्यवस्था को बल देना तो देश को तोडने जैसा है।


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परिचर्चा
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परिचर्चा : क्या जाति आधारित जनगणना होनी चाहिए?
11 years ago संजीव कुमार सिन्‍हा

देश में ‘2011 की जनगणना’ का कार्य चल रहा है। पिछले दिनों विपक्ष सहित सत्तारूढ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के कई घटक दलों ने जनगणना में जाति को आधार बनाने की मांग की। केंद्र सरकार ने दवाब में आकर उनकी मांग को स्वीकार कर लिया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लोकसभा में घोषणा की कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल इस मामले में सदन की भावना को ध्यान में रखते हुए जल्दी ही सकारात्मक फ़ैसला करेगी।

इस जातीय जनगणना को लेकर देश में उबाल है। इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क प्रस्‍तुत किए जा रहे हैं।

गौरतलब है कि 1857 की क्रांति से भारत में राष्‍ट्रवाद की जो लहर चली थी, उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने जातीय जनगणना का सहारा लिया और इसकी शुरुआत 1871 में हुई। कांग्रेस के विरोध के कारण 1931 के बाद से जाति के आधार पर गिनती नहीं की गई। इसके पीछे कारण था कि इससे देश में जाति विभेद बढेगा।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में अब तक सात बार दस-दस वर्षो के कालखंड में जनगणना कार्य संपन्‍न हो चुका है।

सर्वोच्‍च न्‍यायालय

सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने इस मुद्दे पर सरकार को कोई निर्देश देने से इनकार कर दिया है कि वह जनगणना जाति के आधार पर कराए या नहीं कराए। न्‍यायालय ने कहा कि यह नीति संबंधी मामला है। इस पर सरकार ही कोई फैसला कर सकती है।

यूपीए

जहां एक ओर ज़्यादातर दल जाति आधारित जनगणना के पक्ष में हैं, वहीं दूसरी ओर यूपीए में इस मसले पर मतभेद हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में कई वरिष्ठ मंत्रियों की राय अलग-अलग होने के चलते कोई फ़ैसला नहीं हो पाया।

केंद्रीय कानून मंत्री एम वीरप्पा मोइली ने जाति आधारित जनगणना की वकालत की वहीं कांग्रेस के युवा सांसद एवं केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्री अजय माकन ने आम जनगणना में जाति को शामिल करने के खिलाफ अलख जगाते हुए इसे विकास के एजेंडे के रास्ते का रोड़ा बताया है। श्री माकन ने सभी युवा सांसदों को इस संबंध में एक खुला पत्र लिख कर भविष्य की राजनीति का एजेंडा क्या होना चाहिए, इस पर विचार करने को कहा है। उन्होंने कहा कि देश बड़ी मुश्किल से जाति और धर्म की राजनीति से बाहर निकला है और लोगों ने विकास को सबसे ऊपर रखा है। अगर जाति और धर्म की राजनीति फिर से हावी हुई तो देश एक बार फिर 20-25 साल पीछे चला जाएगा।

भाजपा

इस मुद्दे पर भाजपा नेताओं के सुर अलग-अलग सुनाई दे रहे हैं। संसद में जनगणना पर हुई चर्चा के दौरान लोकसभा में भाजपा के उपनेता श्री गोपीनाथ मुंडे ने जाति आधारित जनगणना की जोरदार वकालत करते हुए कहा कि जाति के आधार पर ओबीसी की जनगणना कराने पर ही उनके प्रति सामाजिक न्याय संभव हो सकेगा। अगर ओबीसी की जनगणना नहीं होगी तो उन्हें सामाजिक न्याय नहीं मिलेगा। वहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने जातीय जनगणना का विरोध करते हुए आशंका जताई है कि इससे भारतीय समाज का बंटवारा हो जाएगा।

जदयू

जनता दल (युनाइटेड) के अध्यक्ष श्री शरद यादव ने जनगणना के दौरान अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के साथ ही हर जाति की गिनती किए जाने की मांग की है। यादव ने कहा है कि जब तक देश में प्रत्येक जाति की स्थिति के बारे में जानकारी नहीं होगी, तब तक समाज के कमजोर तबके के लिए नीति नहीं बनाई जा सकेगी। श्री यादव ने कहा कि वह ओबीसी ही नहीं, जनगणना में हर जाति की गिनती किए जाने की मांग कर रहे हैं, ताकि समाज के कमजोर तबकों के लिए समुचित नीतियां बनाई जा सकें।

इसके साथ ही राजद प्रमुख श्री लालू प्रसाद यादव, सपा प्रमुख श्री मुलायम सिंह यादव और बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती ने जाति के आधार पर जनगणना की जोरदार वकालत की है।

माकपा

माकपा नेता सीताराम येचुरी का कहना है, ‘’हम जाति आधारित जनगणना के पक्षधर नहीं हैं लेकिन देश के लिए यह जानना जरूरी है कि अन्य पिछडे वर्ग के लोगों की वास्तविक संख्या क्या है। उनकी वास्तविक संख्या पता चलने पर आरक्षण के कई फायदे उन्हें मिल सकेंगे।‘’

शिव सेना

शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने यह कहते हुए जाति आधारित जनगणना का विरोध किया है कि ऐसा किया जाना देश के लिए नुकसानदेह होगा और इससे देश में दरार पड़ेगी।’

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महासचिव भैयाजी जोशी ने कहा कि जनगणना में संघ अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की श्रेणियों के जिक्र के खिलाफ नहीं है पर वैयक्तिक जातियों के जिक्र के खिलाफ है क्योंकि यह संविधान की भावना और राष्ट्रीय एकता के खिलाफ है।

श्री जोशी के अनुसार संघ का मानना है कि जनगणना में जाति पर जोर देना सीधे जातपात मुक्त समाज के खिलाफ होगा, जिसकी कल्पना संविधान रचयिता डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने की थी। श्री जोशी के अनुसार संघ अपने जन्म से ही जाति विभाजन से परे राष्ट्रीय एकता की दिशा में काम कर रहा है।


 
वहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हिन्दुओं को दिए अपने संदेश में कहा है कि वह जाति व्यवस्था की दीवारों को ढहा दें। इसके लिए किसी और की ओर न देखकर स्वयं कदम आगे बढ़ा दें। उन्होंने जनगणना में जाति के कालम की व्यवस्था पर सवाल उठाया।

श्री भागवत ने कहा कि संविधान में जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात कही गयी है लेकिन जब जनगणना होती है तो जाति का कालम भरना पड़ता है। इसी तरह कई सरकारी फार्मों में भी अपनी जाति भरनी पड़ती है। यह कैसा विरोधाभास है। उन्होंने कहा कि रोज जातिगत विषमता पर समाचार पत्रों में खबरें पढ़ने को मिल जाती हैं। मानव निर्मित भेदों का कोई स्थान नहीं है।

जातीय जनगणना के पक्ष में दलील

भारत में जातिगत आधार पर आरक्षण की व्‍यवस्‍था है। सही आंकड़े के अभाव में सरकार कैसे न्‍यायसंगत जाति आधारित आरक्षण नीति लागू कर सकेगी? इसके लिए वास्‍तविक आंकड़ों की नितांत जरूरत है। जातीय जनगणना से सभी जातियों की सही संख्या का पता चल जाएगा। इससे भारत की असली तस्वीर सामने आएगी और पिछड़ी जातियों के लिए अलग-अलग तरह से कल्याणकारी योजनाएं बनाई जा सकेंगी।

प्रवक्‍ता डॉट कॉम का मानना है

जातिवाद का जहर सामाजिक एकता की राह में सबसे बडी बाधा है।

अजीब विडंबना है कि जातीय जनगणना के प्रबल पैरोकार समाजवादी हैं, जो अपने को ‘लोहिया के लोग’ मानते हैं। जबकि लोहिया कहते थे, जाति तोड़ो। सवाल यह है कि जातीय जनगणना से जाति टूटेगी या जातिवाद बढेगा?


 
जाति आधारित जनगणना से लोगों के मन में जातिगत भावना काफ़ी तेजी से बढ़ेगी। इससे देश जातीयता के बादल में फंस जाएगा और देश में एक बार फिर नब्‍बे के दशक की तरह जाति के आधार पर वोट की राजनीति को हवा दी जाएगी।

जातीय जनगणना से देश में जातियों की घट-बढ रही जनसंख्‍या का पता लगना शुरू हो जाएगा, जिसके चलते सामाजिक संरचना को खतरा उत्‍पन्‍न होगा।

जनगणना में जाति के बजाय आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करनी चाहिए, जिससे देश व समाज का वास्‍तविक विकास हो सके।

लेखक के विषय में
संजीव कुमार सिन्‍हा
2 जनवरी, 1978 को पुपरी, बिहार में जन्म। दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक कला और गुरू जंभेश्वर विश्वविद्यालय से जनसंचार में स्नातकोत्तर की डिग्रियां हासिल कीं। दर्जन भर पुस्तकों का संपादन। राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर नियमित लेखन। पेंटिंग का शौक। छात्र आंदोलन में एक दशक तक सक्रिय। जनांदोलनों में बराबर भागीदारी। मोबाइल न. 9868964804
संप्रति: संपादक, प्रवक्‍ता डॉट कॉम

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मोदी सरकार जातिगत जनगणना क्यों नहीं कराना चाहती?
सरोज सिंह
बीबीसी संवाददाता, 2 अगस्त 2021
अपडेटेड 3 अगस्त 2021

बिहार की राजनीति में पिछले कुछ वर्षों में ऐसी तस्वीर देखने को नहीं मिली, जहाँ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव दोनों किसी एक मुद्दे पर एकमत हो. ये मुद्दा है जातिगत जनगणना का है. दोनों नेता आपसी मतभेद को भुलाकर केंद्र सरकार से जातिगत जनगणना कराने के लिए गुहार लगाते नज़र आए.दोनों ने जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में अपने-अपने तर्क भी दिए. लेकिन केंद्र सरकार जातिगत जनगणना के लिए पहले ही मना कर चुकी है.

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केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने पिछले ही महीने 20 जुलाई 2021 को लोकसभा में दिए जवाब में कहा कि फ़िलहाल केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा किसी और जाति की गिनती का कोई आदेश नहीं दिया है. पिछली बार की तरह ही इस बार भी एससी और एसटी को ही जनगणना में शामिल किया गया है.
लेकिन जो मोदी सरकार मंत्रिमंडल विस्तार के बाद ख़ुद को ओबीसी मंत्रियों की सरकार कहते नहीं थक रही थी, जो सरकार नीट परीक्षा के ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी आरक्षण देने पर ख़ुद अपनी पीठ थपथपाती रही है, आख़िर वही मोदी सरकार जातिगत जनगणना से क्यों डर रही है?

ये सवाल विपक्ष लगातार सत्ता पक्ष से पूछ रहा है. उनका साथ एनडीए के कुछ सहयोगी दल भी दे रहे हैं.

जातिगत जनगणना की ज़रूरत क्यों है?
इसका जवाब जानने से पहले ये जान लेना ज़रूरी है कि साल 1931 तक भारत में जातिगत जनगणना होती थी.
साल 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया ज़रूर गया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया.
साल 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं.
इसी बीच साल 1990 में केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे आमतौर पर मंडल आयोग के रूप में जाना जाता है, की एक सिफ़ारिश को लागू किया था.
ये सिफारिश अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण देने की थी. इस फ़ैसले ने भारत, खासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया.
जानकारों का मानना है कि भारत में ओबीसी आबादी कितनी प्रतिशत है, इसका कोई ठोस प्रमाण फ़िलहाल नहीं है.
मंडल कमीशन के आँकड़ों के आधार पर कहा जाता है कि भारत में ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है. हालाँकि मंडल कमीशन ने साल 1931 की जनगणना को ही आधार माना था. इसके अलावा अलग-अलग राजनीतिक पार्टियाँ अपने चुनावी सर्वे और अनुमान के आधार पर इस आँकड़े को कभी थोड़ा कम कभी थोड़ा ज़्यादा करके आँकती आई है.
लेकिन केंद्र सरकार जाति के आधार पर कई नीतियाँ तैयार करती है. ताज़ा उदाहरण नीट परीक्षा का ही है, जिसके ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने की बात मोदी सरकार ने कही है.

सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के प्रोफ़ेसर और राजनीतिक विश्लेषक संजय कुमार का मानना है, "जनगणना में आदिवासी और दलितों के बारे में पूछा जाता है, बस ग़ैर दलित और ग़ैर आदिवासियों की जाति नहीं पूछी जाती है. इस वजह से आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के हिसाब से जिन लोगों के लिए सरकार नीतियाँ बनाती है, उससे पहले सरकार को ये पता होना चाहिए कि आख़िर उनकी जनसंख्या कितनी है. जातिगत जनगणना के अभाव में ये पता लगाना मुश्किल है कि सरकार की नीति और योजनाओं का लाभ सही जाति तक ठीक से पहुँच भी रहा है या नहीं."

वो आगे कहते हैं, "अनुसूचित जाति, भारत की जनसंख्या में 15 प्रतिशत है और अनुसूचित जनजाति 7.5 फ़ीसदी हैं. इसी आधार पर उनको सरकारी नौकरियों, स्कूल, कॉलेज़ में आरक्षण इसी अनुपात में मिलता है."
"लेकिन जनसंख्या में ओबीसी की हिस्सेदारी कितनी है, इसका कोई ठोस आकलन नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के मुताबिक़ कुल मिला कर 50 फ़ीसदी से ज़्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता, इस वजह से 50 फ़ीसदी में से अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण को निकाल कर बाक़ी का आरक्षण ओबीसी के खाते में डाल दिया. लेकिन इसके अलावा ओबीसी आरक्षण का कोई आधार नहीं है."
यही वजह है कि कुछ विपक्षी पार्टियाँ जातिगत जनगणना के पक्ष में खुल कर बोल रही है. कोरोना महामारी की वजह से जनगणना का काम भी ठीक से शुरू नहीं हो पाया है.

कब-कब किस पार्टी ने उठाई माँग?

आज भले ही बीजेपी संसद में इस तरह के जातिगत जनगणना पर अपनी राय कुछ और रख रही हो, लेकिन 10 साल पहले जब बीजेपी विपक्ष में थी, तब उसके नेता ख़ुद इसकी माँग करते थे.
बीजेपी के नेता, गोपीनाथ मुंडे ने संसद में 2011 की जनगणना से ठीक पहले 2010 में संसद में कहा था, "अगर इस बार भी जनगणना में हम ओबीसी की जनगणना नहीं करेंगे, तो ओबीसी को सामाजिक न्याय देने के लिए और 10 साल लग जाएँगे. हम उन पर अन्याय करेंगे."

इतना ही नहीं, पिछली सरकार में जब राजनाथ सिंह गृह मंत्री थे, उस वक़्त 2021 की जनगणना की तैयारियों का जायजा लेते समय 2018 में एक प्रेस विज्ञप्ति में सरकार ने माना था कि ओबीसी पर डेटा नई जनगणना में एकत्रित की जाएगी.

लेकिन अब सरकार अपने पिछले वादे से संसद में ही मुकर गई है.
दूसरी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की बात करें, तो 2011 में SECC यानी सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस आधारित डेटा जुटाया था. चार हजार करोड़ से ज़्यादा रुपए ख़र्च किए गए और ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी विकास मंत्रालय को इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी गई.

साल 2016 में जाति को छोड़ कर SECC के सभी आँकड़े प्रकाशित हुए. लेकिन जातिगत आँकड़े प्रकाशित नहीं हुए. जाति का डेटा सामाजिक कल्याण मंत्रालय को सौंप दिया गया, जिसके बाद एक एक्सपर्ट ग्रुप बना, लेकिन उसके बाद आँकड़ों का क्या हुआ, इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है.
माना जाता है कि SECC 2011 में जाति आधारित डेटा जुटाने का फ़ैसला तब की यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू यादव और समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के दवाब में ही लिया था.
सीएसडीएस के प्रोफ़ेसर और राजनीतिक विश्लेषक संजय कुमार कहते हैं कि देश की ज़्यादातर क्षेत्रीय पार्टियाँ जातिगत जनगणना के समर्थन में है, ऐसा इसलिए क्योंकि उनका जनाधार ही ओबीसी पर आधारित है. इसका समर्थन करने से सामाजिक न्याय का उनका जो प्लेटफ़ॉर्म है, उस पर पार्टियों को मज़बूती दिखती है.
लेकिन राष्ट्रीय पार्टियाँ सत्ता में रहने पर कुछ और विपक्ष में रहने पर कुछ और ही कहती हैं.
विपक्ष में आने के बाद कांग्रेस ने भी 2018 में जाति आधारित डेटा प्रकाशित करने के लिए आवाज़ उठाई थी. लेकिन उन्हें सफ़लता नहीं मिली.

जातिगत जनगणना से क्यों डरती है सरकार?
ऐसे में सवाल उठता है कि सत्ता में आते ही पार्टियाँ इस तरह की जनगणना के ख़िलाफ़ क्यों हो जाती है?
संजय कुमार कहते हैं, मान लीजिए जातिगत जनगणना होती है तो अब तक की जानकारी में जो आँकड़े हैं, वो ऊपर नीचे होने की पूरी संभावना है. मान लीजिए ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत से घट कर 40 फ़ीसदी रह जाती है, तो हो सकता है कि राजनीतिक पार्टियों के ओबीसी नेता एकजुट हो कर कहें कि ये आँकड़े सही नहीं है. और मान लीजिए इनका प्रतिशत बढ़ कर 60 हो गया, तो कहा जा सकता है कि और आरक्षण चाहिए. सरकारें शायद इस बात से डरती है.
चूँकि आदिवासियों और दलितों के आकलन में फ़ेरबदल होगा नहीं, क्योंकि वो हर जनगणना में गिने जाते ही हैं, ऐसे में जातिगत जनगणना में प्रतिशत में बढ़ने घटने की गुंज़ाइश अपर कास्ट और ओबीसी के लिए ही है.
प्रोफ़ेसर संजय कुमार ये भी कहते हैं कि जिस तरह से हाल के दिनों में मोदी सरकार ओबीसी पर मुखर हुई है, केंद्र सरकार आने वाले दिनों में जातिगत जनगणना पर पहल कर भी सकती है.
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रोफ़ेसर बद्रीनारायण कहते हैं, "अंग्रेज़ों की ओर से जनगणना लागू करने के पहले, जाति व्यवस्था लचीली और गतिशील थी. लेकिन अंग्रेज़ जब जातिगत जनगणना लेकर आए, तो सब कुछ रिकॉर्ड में दर्ज हो गया, इसके बाद से जाति व्यवस्था जटिल हो गई."
"जनगणना अपने आप में बहुत ही जटिल कार्य है. जनगणना में कोई भी चीज़ जब दर्ज हो जाती है, तो उससे एक राजनीति भी जन्म लेती है, विकास के नए आयाम भी उससे निर्धारित होते हैं. इस वजह से कोई भी सरकार उस पर बहुत सोच समझ कर ही काम करती है. एक तरह से देखें तो जनगणना से ही जातिगत राजनीति की शुरुआत होती है. उसके बाद ही लोग जाति से ख़ुद को जोड़ कर देखने लगे, जाति के आधार पर पार्टियाँ और एसोसिएशन बनने लगे."
लेकिन 1931 के बाद से जातिगत जनगणना नहीं हुई बावजूद इसके भी तो जाति के नाम पर राजनीति अब भी हो रही है. तो फिर जाति के आधार पर जनगणना होने से क्या बदल जाएगा?
इस सवाल के जवाब में प्रोफ़ेसर बद्रीनारायण कहते हैं, "अभी जो राजनीति होती है, उसका ठोस आधार नहीं है, उसे चुनौती दी जा सकती है, लेकिन एक बार जनगणना में वो दर्ज हो जाएगा, तो सब कुछ ठोस रूप ले लेगा. कहा जाता है, 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी'. अगर संख्या एक बार पता चल जाए और उस हिसाब से हिस्सेदारी दी जाने लगे, तो कम संख्या वालों का क्या होगा? उनके बारे में कौन सोचेगा? इस तरह के कई सवाल भी खड़े होंगे. ओबीसी और दलितों में ही बहुत सारी छोटी जातियाँ हैं, उनका कौन ध्यान रखेगा? बड़ी संख्या वाली जातियाँ आकर माँगेंगी कि 27 प्रतिशत के अंदर हमें 5 फ़ीसदी आरक्षण दे दो, तो बाक़ियों का क्या होगा? ये जातिगत जनगणना का एक नकारात्मक पहलू है. लेकिन एक सकारात्मक पहलू ये भी है कि इससे लोगों के लिए नीतियाँ और योजनाएँ तैयार करने में मदद मिलती है."
एक दूसरा डर भी है. ओबीसी की लिस्ट केंद्र की अलग है और कुछ राज्यों में अलग लिस्ट है. कुछ जातियाँ ऐसी हैं जिनकी राज्यों में गिनती ओबीसी में होती है, लेकिन केंद्र की लिस्ट में उनकी गिनती ओबीसी में नहीं होती.
बिहार में बनिया ओबीसी हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में वो अपर कास्ट में आते हैं. वैसे ही जाटों का हाल है. हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों पर भी ओबीसी लिस्ट अलग है. ऐसे में जातिगत जनगणना हुई तो आगे और बवाल बढ़ सकता है. केंद्र की सरकारों को एक डर इसका भी है.

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भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 23: भारत के संविधान के अंतर्गत अनुसूचित जातियां, आंग्ल भारतीय समुदाय, पिछड़े वर्ग तथा अल्पसंख्यकों के लिए विशेष आरक्षण के उपबंध
Shadab Salim25 Feb 2021
 




 

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