भारतीय संस्कृति संपूर्ण विश्व के लिये अनुकरणीय है - अरविन्द सिसोदिया sanatan snskriti hindu dharm
सनातन संस्कृति विश्वास, व्यस्तता, अर्थ चक्र और आत्मिक उन्नति का समन्वित स्वरूप है। जो सकारात्मक समाज का निर्माण करता है, इसी कारण भारतीय संस्कृति में मानवीय भावनायें और वसुदेव कुटुंबकम की भावनायें भरी हुई है। यह एक ऐसी सभ्यता, संस्कृति है,जो हमें जीवन के उन्नत विभिन्न पहलुओं में संतुलन और सामंजस्य बनाए रखने की प्रेरणा देती है और सर्वाधिक अनुशासित समाज व्यवस्था बनाती है, जो संतुष्टी, समन्वय और संस्कारों से युक्त है।
विश्वास : - सनातन संस्कृति में विश्वास एक महत्वपूर्ण तत्व है। यह हमें अपने ईश्वर, देव, धर्म, श्रेष्ठ परंपराओं और जीवन मूल्यों पर दृढ़ रहने की प्रेरणा देता है। ईश्वर में विश्वास स्वयं को अनुशासित और संयमी बनाता है।
व्यस्तता: - सनातन संस्कृति में तीज त्योहारों पर्व आदि की व्यस्तता और निरंतरता है जो जीवन को बहुत से अवसादों से बचती है, ध्यान में सोच में विविधता लाती है। विभिन्न पहलुओं में सक्रिय रहना एक रसता को तोड़ कर विविधता को भरता है । यह हमें अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए प्रेरित करता है। जीवन को मनोरंजक और विविधता से भरता है। जैसे कि गणेश चतुर्थी को गणेशजी का आगमन, जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण जी का जन्मोत्सव, डोल ग्यारस पर ठाकुरजी की सवारी निकलना, अनंतचतुर्दासी पर गणेश जी का प्रस्थान, पितृ पक्ष से 16 दिन तक़ पुरखों का आगमन, फिर नव दुर्गा से नो दिन तक़ देवीय उपासना, दशहरा रावण वध, फिर दीपावली श्रीराम जी का आगमन... इसी तरह सातों दिन सात देवों का स्मरण, पंद्रह तिथियों में भी किसी न किसी देव का स्मरण, इस तरह सनातन संस्कृति व्यस्तता की संस्कृति है, जिसमें मनुष्य को भटकाव के अवसर ही नहीं मिलते।
अर्थ चक्र:- सनातन संस्कृति में अर्थ चक्र का अर्थ है समाज में व्यावसायिक गतिविधियां। जैसे गणेश उत्सव आया तो भारत में 44 हजार करोड़ का व्यापार विविध प्रकार से हुआ। जिसमे गणेश जी की प्रतिमाओं का निर्माण, पूजा सामग्री, साजसज्जा, आवागमन वाहन, मिठाई आदि की खरीद फरोख्त। इस चक्र को समझना चाहिए कि भारतीय पर्व सिर्फ आस्था तक़ सीमित नहीं होते बल्कि ये रोजगार और व्यापार के अवसर उत्पन्न करते हैँ। यह हमें जीवन के विभिन्न चरणों में आगे बढ़ने और नए अवसरों का लाभ उठाने के लिए प्रेरित करता है। यह पूरे वर्ष चलने वाला चक्र जो समाज की अर्थ व्यवस्था के पहिये को घूमता रहता है।
आत्मिक उन्नति:- ईश्वर को मानना, देवी देवताओं को मानना, अपनी आत्मा को समझना, कर्म विधान को समझना आदि से सनातन संस्कृति में आत्मिक उन्नति एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है। पाप पुण्य का ज्ञान, यह हमें अपने आंतरिक स्व को विकसित करने और अपने जीवन को सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है।
इस प्रकार, सनातन संस्कृति विश्वास, व्यस्तता, अर्थ चक्र और आत्मिक उन्नति का समन्वित स्वरूप है, जो हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं में अनुशासित, संतुलन, संतुष्ट और सामंजस्य बनाए रखने की प्रेरणा देती है। यह जीवन पद्धति संपूर्ण विश्व के लिये अनुकरणीय है।
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सनातन संस्कृति का समन्वित स्वरूप
सनातन संस्कृति केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की संपूर्ण पद्धति है। इसमें विश्वास, व्यस्तता, अर्थ चक्र और आत्मिक उन्नति – ये चार आधार स्तंभ हैं, जो मिलकर एक संतुलित, अनुशासित और उन्नत समाज की रचना करते हैं। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में “वसुधैव कुटुम्बकम्” – अर्थात् पूरा विश्व ही एक परिवार है – की भावना सहज रूप से देखने को मिलती है।
1. विश्वास : जीवन का आधार
सनातन संस्कृति में विश्वास केवल आस्था भर नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने का अनुशासन है।
ईश्वर और देवी-देवताओं में विश्वास व्यक्ति को आंतरिक शक्ति देता है।
धर्म, परंपराओं और शास्त्रों में आस्था हमें अपनी संस्कृति से जोड़कर रखती है।
विश्वास हमें यह सिखाता है कि जीवन केवल भौतिक उपलब्धियों तक सीमित नहीं है, बल्कि नैतिकता, संयम और कर्तव्य-पालन भी उतने ही आवश्यक हैं।
जब मनुष्य अपने भीतर और ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखता है तो वह हर परिस्थिति में धैर्यवान और संतुलित रहता है।
2. व्यस्तता : निरंतर कर्मशीलता
सनातन संस्कृति का एक अद्भुत पहलू इसकी व्यस्तता है।
वर्ष भर चलने वाले पर्व-त्योहार व्यक्ति और समाज को सक्रिय बनाए रखते हैं।
तीज-त्योहार केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक मेल-जोल, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और मानसिक ताजगी का माध्यम भी हैं।
यह निरंतरता जीवन में ऊब और अवसाद को स्थान नहीं देती।
सातों दिन अलग-अलग देवताओं का स्मरण और पंद्रह तिथियों पर विशेष पर्व मनाने से जीवन में विविधता और संतुलन बना रहता है।
👉 इस प्रकार व्यस्तता, “कर्मयोग” का सजीव रूप है, जो हमें आलस्य और भटकाव से दूर रखती है।
3. अर्थ चक्र : सामाजिक व आर्थिक समृद्धि
सनातन संस्कृति में अर्थ को पुरुषार्थ के चार स्तंभों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से एक माना गया है।
पर्व-त्योहार केवल आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि व्यापार और रोजगार का भी साधन हैं।
उदाहरणस्वरूप, गणेशोत्सव पर प्रतिमाओं से लेकर पूजा सामग्री, साज-सज्जा, वस्त्र, मिठाई और परिवहन तक लाखों लोगों को काम और आय का अवसर मिलता है।
यह अर्थ चक्र समाज के प्रत्येक वर्ग – कारीगर, व्यापारी, किसान, सेवा प्रदाता – को जोड़कर एक सतत अर्थव्यवस्था का निर्माण करता है।
👉 इस दृष्टि से सनातन संस्कृति केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी अत्यंत समृद्ध और व्यावहारिक है।
4. आत्मिक उन्नति : जीवन का परम लक्ष्य
सनातन संस्कृति का अंतिम और सर्वोच्च उद्देश्य है आत्मिक उन्नति।
आत्मा को शुद्ध करना, पाप-पुण्य का ज्ञान प्राप्त करना और कर्मफल को समझना इसमें मुख्य है।
साधना, ध्यान, योग और उपासना के माध्यम से व्यक्ति अपने अंतरंग स्व को पहचानता है।
आत्मिक उन्नति हमें यह सिखाती है कि जीवन का अंतिम ध्येय केवल भौतिक सफलता नहीं, बल्कि मोक्ष यानी आत्मा की परम स्वतंत्रता है।
यह व्यक्ति को लोभ, क्रोध, अहंकार जैसी नकारात्मक शक्तियों से मुक्त करके दया, करुणा और प्रेम जैसे गुणों से भर देती है।
समन्वय और संदेश
इन चार स्तंभों – विश्वास, व्यस्तता, अर्थ चक्र और आत्मिक उन्नति – का समन्वय ही सनातन संस्कृति की आत्मा है।
* विश्वास हमें दिशा देता है।
* व्यस्तता हमें सक्रिय रखती है।
* अर्थ चक्र समाज को समृद्ध करता है।
* आत्मिक उन्नति हमें परम लक्ष्य की ओर ले जाती है।
इन्हीं चार आधारों से निर्मित जीवन-पद्धति व्यक्ति को संतुलन, संतोष और सामंजस्य देती है। यही कारण है कि सनातन संस्कृति संपूर्ण विश्व के लिए अनुकरणीय और मार्गदर्शक है।
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