Naming political alliances as India is an attack on the Constitution - Arvind Sisodia
Naming political alliances as India is an attack on the Constitution - Arvind Sisodia
- भारत के संविधान पर हमला है
- bhaarat ke sanvidhaan par hamala hai
Loksabha election 2024 will be a continuous surprise as an unusual election, in which every decision of the opposition will be decided from somewhere, the credit will be given only to Rahul Gandhi. Rahul Gandhi will remain the indirect leader. Someone else in front should be like Manmohan Singh or Mallikarjun Kharge. By the time the elections come, some parties will run away from Rahul Gandhi's Dada Giri. Congress or Rahul Gandhi is not going to listen too much to allies because they have to lead in any situation and reach the PM's chair.
Before the UP-Punjab elections, the farmer's movement started with the toolkit, disappeared as soon as the elections were over. Even so, many of the work of companies making toolkits are done in a purposeful way. As it is now going on in elections, election slogans, strategy, words, attacks, issues are made available by some specialist companies. All this is a kind of toolkit. It also includes programs and criminalities. The goal is to win the election overall. That's why the central government has to be most alert.
There is a toolkit behind the word India, there was a toolkit behind naming the Bharat Jodo Yatra. The aim is to connect with nationalism. However, the India nomenclature is completely unconstitutional nomenclature. But even those who name it know it. But they have kept it so that there should be protest and get popularity. For example, to make a film popular, create some controversy, then incite the society, make news in newspapers for a few days. Go to court! It's all the same game. Mild use.
This nomenclature has hurt the constitutional values. This is also a legal violation. There has also been a police report. There were differences in alliances too, with Nitish Kumar reportedly questioning how this could happen. The Left parties were also uneasy, even Mamta had suggested the word New India, but no one accepted it. The aim is to gain popularity by creating a controversy. In future too, many experiments of such mild and strange mentality will be seen.
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राजनैतिक एलाइन्स का नामकरण इण्डिया करना संविधान पर हमला - अरविन्द सिसोदिया
लोकसभा 2024 का चुनाव एक असामान्य चुनाव के रूप में निरंतर चौंकानें वाला होगा, इसमें विपक्ष का प्रत्येक फैसला कहीं ओर से तय होकर आयेगा, उसका श्रेय सिर्फ राहुल गांधी को दिया जायेगा । अपरोक्ष नेता राहुल गांध ही रहेंगे । सामनें अन्य कोई मनमोहन सिंह अथवा मर्लिकाज1र्न खरगे की तरह रहे। चुनाव आते आते राहुल गांधी की दादा गिरी से कुछ दल छोड भागेंगे । किन्तु जैसा कि अब चलने लगा है कि चुनाव के नारे, रणनीति , शब्द, प्रहार, मुद्दे कुछ विशेषज्ञ कंपनियों के द्वारा उपलब्ध करवाये जाते है। ये सब एक प्रकार का टूलकिट होता है। इसमें आपराधिकतायें तक भी सम्मिलित होती है। लक्ष्य कुल मिला कर चुनाव जीतना होता है। इसलिये केन्द्र सरकार को सबसे ज्यादा सतर्क रहना होगा ।
इण्डिया शब्द के पीछे भी यही सोच है जबकि यह पूरी तरह असंवैधानिक नामकरण है। यह नामकरण करने वाले भी जानते है। मगर उन्होनें इसीलिये रखा है कि विरोध हो पापुलरटी मिले । जैसे किसी फिल्म को पापुलर बनानें के लिये काई विवाद उत्पन्न करवाओ फिर समाज को भडकाओ कुछ दिन अखबारों की न्यूज बनवाओ। न्यायालय में जाओ ! यह सब उसी तरह का खेल है। हल्के किसम का प्रयोग है । इसने संवैधानिक मूल्यों का आहत किया है। एलाइन्स में भी मतभेद थे, कहा जा रहा है कि नितिश कुमार ने प्रश्न उठाया था कि यह कैसे हो सकता है। वाम दल भी असज थे यहां तक कि ममता नें भी न्यू इण्डिया शब्द का सुझाव दिया था, मगर किसी की कोई नहीं मानी गई। आगे भी इसी तरह के अनेकों हल्के और विचित्र मानसिकता के प्रयोग देखनें को मिलेंगे।
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कांग्रेस एलाइन्स इण्डिया के नाम का विरोध
गठबंधन का नाम 'INDIA' रखने का मामला थाने पहुंचा, 26 पार्टियों के खिलाफ शिकायत, विपक्षी गठबंधन के नाम I.N.D.I.A पर हंगामा जारी है. पहले लड़ाई इंडिया बना...
INDIA vs NDA: विपक्ष भले 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के खिलाफ इकट्ठा होने की कोशिश कर रहा है. बेंगलुरु में हुई विपक्षी एकता की बैठक में 26 दल शामिल हुए थे अब इन विपक्ष के 26 दलों के गठबंधन का नाम I.N.D.I.A रखना उनके लिए मुसीबत बनता जा रहा है.
'INDIA' ने बढ़ाया विवाद, विपक्षी गठबंधन के नाम के खिलाफ शिकायत दर्ज, मामला पहुंचा थाने
INDIA vs NDA: विपक्ष भले 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के खिलाफ इकट्ठा होने की कोशिश कर रहा है. बेंगलुरु में हुई विपक्षी एकता की बैठक में 26 दल शामिल हुए थे अब इन विपक्ष के 26 दलों के गठबंधन का नाम I.N.D.I.A रखना उनके लिए मुसीबत बनता जा रहा है. दरअसल इस बैठक में शामिल 26 पार्टियों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई है.
मतलब विपक्षी गठबंधन का नाम I.N.D.I.A. रखने को लेकर मामला थाने में दर्ज कराया गया है. इसको लेकर की गई शिकायत में इसपर आपत्ति जताई गई है कि विपक्षी गठबंधन का नाम I.N.D.I.A. रखना Emblems Act का उल्लंघन है. दिल्ली के बाराखंबा थाने में इसको लेकर शिकायत दर्ज करवाई गई है.
इस शिकायत में साफ कहा गया है कि गठबंधन की तरफ से नाम INDIA रखना एंबलम एक्ट 2022 का उल्लंघन है. इस एक्ट के तहत कोई भी इंडिया नाम अपने निजी फायदे के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता, इससे लोगों की भावना आहत हुई है.
शिकायत में यह भी कहा गया है कि इन 26 दलों के द्वारा देश के नाम का गलत इस्तेमाल किया गया है. ये सभी विपक्षी दल बेंगलुरु की विपक्षी एकता की बैठक का हिस्सा थे और इनका नाम इंडियन नेशनल डिवेलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस के आधार पर INDIA किया गया और साथ ही इसकी टैगलाइन जीतेगा भारत (Jeetega Bharat) रखा गया है. इन सभी दलों का नाम आगे लिखा गया है.
अब बता दें कि Emblems Act वह एक्ट है जिसके तहत प्रतीक या नाम का अनुचित उपयोग ना हो इसके लिए यह बनाया गया है. इस एक्ट के मुताबिक यह निशानों और नामों के आधिकारिक उपयोग को नियंत्रित करता है ताकि इसके गलत प्रयोग से बचा जा सके और राष्ट्र के प्रतीकों की सुरक्षा हो सके. ऐसे में इस अधिनियम के तहत राष्ट्रीय झंडा, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय प्रतीक, राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय मान, राष्ट्रीय निशान, और राष्ट्रीय भाषा जैसे कुछ चीजों का विशेष ध्यान रखना अनिवार्य है. शिकायत अवनीश मिश्रा (उम्र 26 साल) नाम के एक शख्स ने दाखिल की है.
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कांग्रेस एलाइन्स इण्डिया के नाम का विरोध
इण्डिया नाम को लेकर आंतरिक विरोध भी था
राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा
नाम के पीछे राहुल गांधी की प्रेरणा ?
कहा जा रहा है कि नए नामकरण के पीछे कांग्रेस नेता राहुल गांधी की प्रेरणा रही है। सोच यह है कि भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों में कांग्रेस और विपक्षी दलों पर तो प्रहार कर सकते हैं, लेकिन ‘इंडिया’ का विरोध किस मुंह से करेंगे? उन्होंने ऐसा किया तो क्या यह भारत और प्रकारांतर से भारत की जनता का विरोध नहीं होगा? इस नामांतरण से यह भी संदेश भी निहित है कि यूपीए में शामिलों ने मान लिया है कि पुराना नाम अब राजनीतिक अपशकुन का शिकार हो गया है।
हालांकि, ‘नामांतरण’ से ‘भाग्यांतरण’ की उम्मीद पालने का टोटका पुराना है। वह हमेशा कामयाब हो, जरूरी नहीं है। लेकिन असली सवाल भी इसी ‘नामांतरण’ में छिपा है। नए नाम के जरिए जिस ‘इंडिया’ को बचाने की बात की जा रही है, क्या वही ‘भारत’ भी है? क्या आज ‘इंडिया’ से ज्यादा जरूरत ‘भारत’ बचाने की नहीं है? इसी मुद्दे पर बीजेपी ने पलटवार शुरू कर दिया है।
असम के मुख्यमंत्री हिंमत बिस्वा सरमा ने कटाक्ष किया कि अंग्रेजों ने देश का नाम ‘इंडिया’ रखा था। हमें औपनिवेशिक विरासतों से राष्ट्र को मुक्त करने के लिए लड़ना चाहिए। वैसे आजादी के बाद ही से ही यह बात कही जाती रही है कि भारत में दो देश बसते हैं, पहला है- ‘इंडिया’, जो समाज के प्रभुत्वशाली, आर्थिक रूप से सम्पन्न, अंग्रेजीदां और ऐसी ही महत्वाकांक्षा रखने वालों का देश है और दूसरा- ‘भारत’ है, जो गरीबों, किसानों और देसी भाषा बोलने समझने तथा एक न्यूनतम सम्मान जनक जिंदगी जीने चाह रखने वालों का देश है। तो क्या भारत के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक द्वंद्व का मूल यही है?
जहां तक ‘यूपीए’ के ‘इंडिया’ में बदलाव की बात है यह केवल शाब्दिक परिवर्तन नहीं है। इसमें कुछ हद तक भारत की आत्मा को बचाने के हर संभव प्रयास और राजनीतिक मतांतरण को भी मान्य करने का आग्रह निहित है। राजनीतिक मतातंरण इसलिए क्योंकि कांग्रेस ने पहले तो साॅफ्ट हिंदुत्व को स्वीकार किया।
अब वह साॅफ्ट नेशनलिज्म ( नरम राष्ट्रवाद) को गले लगाने भी तैयार है। मूव यही है कि भाजपा को उसी की पिच पर बोल्ड किया जाए। इसीलिए वैचारिक और स्थानीय आग्रहों के मामले में परस्पर विरोधी नेता और दल भी एक पंगत में साथ खाना खाने के लिए तैयार हैं। बशर्ते मोदी और भाजपा का आक्रामक राष्ट्रवाद पराजित हो।
दूसरी तरफ सत्तारूढ़ एनडीए ( नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस) नई चाल के साथ पुरानी लीक पर ही चल रहा है। एनडीए के 25 साल के इतिहास में फर्क इतना आया है कि बावजूद इसके कुछ पुराने साथियों के खेमा बदलने के उसका जनाधार बढ़ा ही है। भले वह सीटों में न बदला हो। कुछ पुराने साथियों द्वारा एनडीए छोड़ने के बाद अब कुछ नए और मामूली राजनीतिक हैसियत रखने वाले स्थानीय रिसालदार एनडीए की छतरी में अपना सियासी भविष्य सुरक्षित कर रहे हैं।
किसके पास कितने दल ?
संख्या की दृष्टि से ‘एनडीए’ अभी भी ‘इंडिया’ पर भारी है। इंडिया में 26 तो एनडीए में 38 दल हैं। लेकिन हत्व केवल संख्या का नहीं, राजनीतिक दलों के जनाधार और वैचारिक धरातल का है। कांग्रेस और कम्युनिस्टों के अलावा कई क्षेत्रीय दल हैं, जिनकी अपनी मजबूत जमीनी पकड़ राज्यों में है। इसलिए संख्या में भले कम हों, लेकिन तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस, जनता दल यू, राजद, झामुमो, नेशनल कांफ्रेंस आदि ऐसी पार्टियां हैं, जिनका अपना मजबूत और परखा हुआ वोट बैंक है। इसके विपरीत एनडीए में शामिल दलों में भाजपा को छोड़ दिया जाए तो बाकी दलो और नेताओं के जनाधार और प्रभाव की स्थिति शेरनी के पीछे चलने वाले शावकों जैसी है।
बेंगलुरू की विपक्षी महाजुटान को यकीन है कि वर्तमान हालात में ‘इंडिया’ नाम आम मतदाता में नई फुरफुरी और चेतना पैदा करेगा, जो चुनावी जीत का समीकरण बदल सकता है। लेकिन यह लक्ष्य कठिन इसलिए है कि भाजपानीत ‘एनडीए’ और ‘इंडिया’ के बीच वोट बैंक की बड़ी खाई है। आंकड़ों को देखें तो 2004 के बाद से ‘एनडीए’ का वोट बैंक लगातार बढ़ रहा है। यह 2004 में 22.18 प्रतिशत था, जो 2019 में बढ़कर 37.36 प्रतिशत हो गया। जबकि यूपीए का वोट प्रतिशत 2004 व 2009 में तो बढ़ा, लेकिन 2014 व 2019 के चुनाव में 19 फीसदी के आसपास स्थिर है।
इसका सीधा अर्थ यह है कि जब तक ‘इंडिया’ अपना वोट बैंक 37 फीसदी के पार नहीं ले जाता, लाल किले पर उसका कब्जा सपना ही होगा। वोट बैंक दोगुना करना आसान काम नहीं है। यह तभी संभव है, जब विपक्ष के पास दमदार चेहरा, ठोस कार्यक्रम और देश को आगे ले जाने का स्पष्ट रोड मैप हो। संविधान और लोकतंत्र को बचाने जैसे जुमले सैद्धांतिक ज्यादा हैं। यह राजनीतिक हितों से ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं, लेकिन आम आदमी के लिए बहुत ज्यादा मायने नहीं रखते। खासकर तब कि जब इस देश में अब ‘रेवड़ी कल्चर’ को राजनीतिक मान्यता मिल चुकी हो।
अलबत्ता 2024 के चुनाव में ‘इंडिया’ का वोट दो-चार प्रतिशत बढ़ सकता है, क्योंकि कुछ राज्यों में मजबूत जनाधार वाले दल उसमें शामिल हो गए हैं। लेकिन यहां भी पेंच यह है कि जनाधार वाले शिवसेना, राकांपा व अकाली दल में फूट पड़ने से उनका खुद को वोट बैंक दरक रहा है। ऐसे में ‘इंडिया’ को उसका सीमित लाभ ही मिल सकेगा। दूसरी तरफ एनडीए वोट बैंक की इस कमी को उन छोटे दलों को अपने खेमे में लाकर पूरी कर सकता है, जिनका वोट दो चार प्रतिशत है और जो ज्यादा आंख दिखाने की स्थिति में नहीं हैं। यानी दिल्ली की सत्ता में बदलाव तभी संभव है, जब जनता मोदी और भाजपा को हर कीमत पर हराने पर उतारू हो, जिसकी कोई संभावना नजर नहीं आती। तो क्या ‘इंडिया’ का जुमला ‘भारत’ पर भारी पड़ेगा या नहीं? अभी संभावनाएं धुंधली ही हैं।
इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि इस मोर्चे का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस का पसोपेश में होना भी है। खुद राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के अनिच्छुक बताए जाते हैं। ऐसे में सवाल नेतृत्व पर अटकेगा। 26 दलों के बीच सम्बन्धित राज्यों में लोकसभा सीटों का बंटवारा भी टेढ़ी खीर है, जिसमें अभी कई पेंच आने हैं। लोकसभा चुनाव को वन टू वन मुकाबले में तब्दील करने के लिए सभी दलों को पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर राजनीतिक त्याग करना होगा। जो व्यवहार में कैसा होगा, यह देखने की बात है।
यहां दो तर्क 1977 और 2004 के लोकसभा चुनाव के दिए जाते हैं। पहले मामले में जनता पार्टी द्वारा श्रीमती इंदिरा गांधी नीत कांग्रेस को पराजित करना और दूसरे मामले में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेता के बावजूद एनडीए का नवोदित यूपीए के हाथों पराजित होने का है। जनता पार्टी का प्रयोग तत्कालीन भारतीय जनसंघ सहित 6 पार्टियों के एक पार्टी में विलीनीकरण के तौर पर हुआ था। लेकिन उस वक्त भी गैर कांग्रेसी 32 पार्टियां उसमें शामिल नहीं थी। जनता पार्टी को उस चुनाव में 41.32 फीसदी वोट मिले थे, जो अब किसी भी विपक्षी पार्टी को मिले सर्वाधिक वोट हैं। लेकिन जनता पार्टी भी मुख्य रूप से उत्तर पश्चिम भारत में ही जीती थी और दक्षिण में कांग्रेस ने अपना किला बचाया था।
जनता पार्टी के पास तब जयप्रकाश नारायण और कुछ पुराने कांग्रेस नेताओं का नेतृत्व था। लेकिन जपा की जीत का असली कारण श्रीमती गांधी द्वारा देश में लागू आपातकाल को लेकर जनता में फैला रोष था। चूंकि यह जपा भी दलो का बेमेल वैचारिक गठजोड़ थी, इसलिए यह प्रयोग ढाई साल बाद ही असफल हो गया। 2004 में भाजपानीत एनडीए अटलजी जैसा दमदार चेहरा होने के बाद भी इसलिए हारा, क्योंकि तब उन्होंने उदारवादी राजनीति की दरी तले हिंदुत्ववादी विचार को दबा दिया था।
भाजपा और एनडीए के बढ़ते जनाधार के पीछे असली वजह राम मंदिर को लेकर बहुसंख्यक हिंदू वोटरों की विस्तारित होती गोलबंदी रही है, लेकिन अटल सरकार ने राम मंदिर जैसे कोर इश्यु को भी ठंडे बस्ते में डाला हुआ था। साथ ही ‘फील गुड’ फैक्टर भी एनडीए को ले डूबा। जनता में संदेश गया कि सरकार को गरीबों की खास चिंता नहीं है। इसी को मुद्दा बनाकर 2004 में यूपीए बिना किसी चेहरे के सत्ता में आ गया। लेकिन यूपीए 2 कार्यकाल घपले, घोटालों और प्रबल राजनीतिक नेतृत्व के अभाव से जूझता रहा। दूसरी तरफ भाजपा ने राम मंदिर मुद्दे को और पकाया और कट्टर हिंदुत्ववादी नेता के रूप में नरेन्द्र मोदी को चेहरा बनाया।
यह प्रयोग सफल रहा, जिसका भरपूर लाभांश भाजपा और एनडीए को 2019 में भी मिला। बारीकी से देखें तो 2019 के चुनाव में मोदीजी के खाते में नोटबंदी जैसे नकारात्मक मुद्दे ज्यादा थे। लेकिन एयर स्ट्राइक जैसे कदमों ने उनकी निर्णायक छवि को चमकाया। आज मोदी पर सर्वसत्तावाद, तानाशाही रवैये और लोकतांत्रिक संस्थाओं को खत्म करने जैसे विपक्षी आरोपों के बाद भी उनके खाते में राम मंदिर, कश्मीर से धारा 370 हटाने, एनसीए लागू करने और जल्द ही यूसीसी लाने जैसे काम होंगे। नरेन्द्र मोदी की सबसे बड़ी सफलता यह है कि उन्होंने भाजपा से हटकर अपना एक प्रतिबद्ध वोट बैंक भी खड़ा कर लिया है, अगर हम इसे ‘भारत’ मानें तो उससे पार पाना ‘इंडिया’ के लिए बेहद कठिन है।
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