बुजुर्गों की सम्पत्ति हड़पने वाले बच्चों को अब मिलेगी सजा


अंतिम अरण्य में जीवन
केपी सिंह जनसत्ता 1 अक्तूबर, 2014: महर्षि वाल्मीकि ने रामायण के लव-कुश प्रकरण में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को राजधर्म का पाठ पढ़ाते हुए कहा था कि स्त्रियों, वृद्धों और बच्चों की सुरक्षा का प्रमुख दायित्व राजा पर ही होता है। 

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण के लव-कुश प्रकरण में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को राजधर्म का पाठ पढ़ाते हुए कहा था कि स्त्रियों, वृद्धों और बच्चों की सुरक्षा का प्रमुख दायित्व राजा पर ही होता है। भारत में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने अनेक कानून बनाए हैं। सामाजिक चेतना के कारण महिलाओं और बच्चों पर अत्याचार से जुड़े मसले समाचार माध्यमों के जरिए सार्वजनिक बहस का भी विषय बनते रहते हैं। पर यह हकीकत है कि वरिष्ठ नागरिकों की सुरक्षा और कल्याण के प्रति हम उतने संवेदनशील नहीं हो सके हैं जितने होने चाहिए। देश में पैंसठ प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या पैंतीस वर्ष से कम उम्र के लोगों की है।

आज भारत सबसे युवा देश है, पर आगामी पच्चीस वर्षों बाद यहां वरिष्ठ नागरिकों की तादाद दुनिया में सबसे अधिक होगी। संविधान के इकतालीसवें अनुच्छेद में व्यवस्था है कि वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए सरकार उनके सार्वजनिक सहायता प्राप्त करने के अधिकार की रक्षा के कारगर कदम उठाएगी। बदलते राष्ट्रीय और सामाजिक परिवेश में यह जरूरी हो जाता है कि वरिष्ठ नागरिकों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें समुचित कानूनी संरक्षण प्रदान किया जाए। प्रतिवर्ष एक अक्तूबर को मनाया जाने वाला अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस हमें आत्मावलोकन करने का अवसर प्रदान करता है।

जीवन भर समाज और राष्ट्र की सेवा में लगा देने के बाद, जब न शरीर साथ देता है और न ही मस्तिष्क, वरिष्ठ नागरिकों को तरह-तरह की समस्याओं से जूझना पड़ता है। कोई पारिवारिक सदस्यों के दुर्व्यवहार और घेरलू हिंसा का शिकार होता है तो किसी को अपने ही घर से बाहर निकाल दिया जाता है। मथुरा की सांसद और अपने समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री हेमामालिनी ने वृंदावन की विधवाओं और वृद्ध महिलाओं को लेकर समाज का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की है।

अकेले रहने वाले बुजुर्ग अमूमन अपराधियों, असामाजिक तत्त्वों और घरेलू नौकरों की हिंसा के शिकार होते रहते हैं। उनकी चल-अचल संपत्ति को हड़पने की फिराक में सगे-संबंधी और रिश्तेदार ही नहीं, किराएदार और आपराधिक तत्त्व भी रहते हैं। बढ़ती उम्र के कारण वरिष्ठ नागरिक अपनी संपत्ति की देखभाल करने में असमर्थ हो जाते है। किराएदार न तो किराया देता है और न ही संपत्ति को वापस सौंपता है। जीवन की सांध्य वेला से गुजर रहे व्यक्ति में लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने का हौसला नहीं होता।

सामाजिक और भावनात्मक सुरक्षा की जरूरत वरिष्ठ नागरिकों को सबसे अधिक होती है। सीमित होते जा रहे पारिवारिक दायरे में वे समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ जाते हैं। बहुत थोड़े-से संवेदनशील लोग ही उनसे मिलना-जुलना पसंद करते हैं। इस कारण अनेक वरिष्ठ नागरिक एकांत में दूसरे दर्जे का जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं। उनके एकांत-वास को तोड़ने के उपाय करना एक गंभीर चुनौती है।

हजारों की संख्या में वरिष्ठ नागरिक जेलों में बंद हैं। जेल में होने वाली कठिनाइयों को भुगतना उनके लिए सबसे बड़ी त्रासदी है। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में बुजुर्गों की अवस्था को ध्यान में रखते हुए उनके लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं किए गए हैं। न्यायिक प्रक्रिया में वरिष्ठ नागरिक उसी प्रकार संवेदनशील नजरिये के हकदार हैं जिस प्रकार बच्चे। खूंखार अपराधियों से निपटने के लिए बनाई गई दंड प्रक्रिया संहिता वरिष्ठ नागरिकों के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाती है।

मनुष्य के जीवन की अंतिम वेला में एक पड़ाव ऐसा भी आता है जब उसे अपनी दैनिक निवृत्तियों और स्वास्थ्य संबंधी आपातकालीन समस्याओं से निपटने के लिए दूसरों के सहारे पर निर्भर रहना पड़ता है, जो हमेशा सभी को उपलब्ध नहीं होता है। इन समस्याओं से निपटने के लिए पर्याप्त व्यवस्था करने की नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी सरकार की ही है।

कुछ वर्ष पहले तक भारत में औसत आयु कम होने के कारण वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बहुत थोड़ी होती थी। इसलिए उनके कल्याण के लिए कोई सक्षम व्यवस्था यहां विकसित नहीं हो पाई है। वर्ष 2050 तक भारत में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या तैंतीस करोड़ होगी। इनमें से पांच करोड़ लोग अस्सी से ज्यादा उम्र के होंगे। औसत आयु के लगातार बढ़ने से अधिक उम्र के लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इतनी बड़ी संख्या में वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण और पुनर्वास संबंधी जरूरतों को पूरा करने लिए उचित व्यवस्था भविष्य की सरकारों के लिए एक महत्त्वपूर्ण चुनौती बनने जा रही है।

विदेशों में, विशेषकर पश्चिमी देशों में, सरकारें वरिष्ठ नागरिकों के प्रति बहुत पहले से संवेदनशील रही हैं। वहां उनके रहन-सहन की स्थितियों और सेहत आदि को लेकर सर्वेक्षण भी होते रहते हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने उनकी जरूरतों को ध्यान में रख कर बहुत पहले मैड्रिड योजना तैयार की थी। वर्ष 2002 में संयुक्तराष्ट्र ने वरिष्ठ नागरिकों के कल्याणार्थ कुछ मूल सिद्धांत निर्धारित किए थे। उसी साल इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित ‘शंघाई कार्य-योजना’ सभी देशों के मार्गदर्शन के लिए तैयार की गई थी।

वर्ष 2007 में ‘मकाओ दस्तावेज’ के नाम से इसी विषय पर एक दिग्दर्शिका तैयार की गई थी। इन सभी दस्तावेजों में अंतरराष्ट्रीय समुदाय से वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के समुचित कदम उठाने का आह्वान किया गया है। भारत ने इन सभी दस्तावेजों पर सहमति-स्वरूप हस्ताक्षर करके इन्हें कार्यान्वित करने का वचन अंतरराष्ट्रीय समुदाय को दिया हुआ है। अत: यह हमारा नैतिक और कानूनी दायित्व है कि वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए सक्षम कार्य-योजना तैयार की जाए।

भारत में वरिष्ठ नागरिकों को उचित सम्मान देने की परंपरा रही है। बीसवीं सदी में एक कहावत प्रचलित थी कि बचपन में संरक्षण के लिए जापान, जवानी में लुत्फ उठाने के लिए पश्चिमी देश और वृदावस्था में सुरक्षा पाने लिए भारत दुनिया के सर्वोत्तम स्थान हैं। बुजुर्गों के प्रति पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारी का भाव हमें विरासत में मिलता है। पर परिस्थितियां और परिवेश बदल रहे हैं। प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक इतना भाग्यशाली नहीं होता कि उसे जरूरत के समय पर्याप्त सहायता मिलने की गारंटी हो। इसी के मद््देनजर पहले वर्ष 1999 और फिर वर्ष 2011 में भारत में वरिष्ठ नागरिकों के लिए राष्ट्रीय नीति की घोषणा की गई थी। उनके कल्याण और सुरक्षा के मद््देनजर 2007 में एक कानून भी बनाया गया था।

वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण से संबंधित 2007 का कानून प्रभावकारी साबित नहीं हुआ है। इस कानून में उनके भरण-पोषण की जिम्मेदारी मुख्यतया वारिसों पर डाली गई है। इस जिम्मेदारी का कोई मतलब नहीं रह जाता जब चालीस प्रतिशत जनता खुद गरीबी की रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रही है। हमें यह बात भी याद रखनी चाहिए कि किसी को उसकी पारिवारिक, नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारियों का अहसास अकेले कानून बना कर नहीं कराया जा सकता। जरूरतमंद वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी सरकार को वहन करनी चाहिए। उनके लिए आशियाने और आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराना सरकार की प्राथामिकता में होना चाहिए। ऐसे हर वरिष्ठ नागरिक के लिए, जिसे कोई पेंशन नहीं मिलती, सामाजिक सुरक्षा की ऐसी योजना बनाई जाए जिसमें निर्वाह-योग्य न्यूनतम पेंशन की व्यवस्था हो।

वर्ष 2007 में बने कानून में वरिष्ठ नागरिकों से संबंधित मुद््दों पर निर्णय करने के अधिकार सब डिविजनल मजिस्ट्रेट स्तर के अधिकारी को दिए गए हैं। यह अधिकारी जिला प्रशासन का सबसे व्यस्त अधिकारी होता है।
वरिष्ठ नागरिकों के मामलों पर विचार करने के लिए उसके पास पर्याप्त समय ही नहीं होता। इस कानून के अंतर्गत केवल वरिष्ठ नागरिकों के रहने और खाने की व्यवस्था की तरफ ही ध्यान केंद्रित किया गया है। यह जिम्मेवारी भी मुख्य रूप से वारिसों पर ही डाली गई है। वरिष्ठ नागरिकों की सबसे मुख्य समस्या उनके साथ होने वाले घरेलू दुर्व्यवहार हैं जिनमें संपत्ति को हड़पने, मारपीट करने और घर से निकाल देने जैसे घिनौने कृत्य शामिल हैं अधिकतर वरिष्ठ नागरिक घर की इज्जत को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार की शिकायतों को लेकर किसी भी अधिकारी के पास जाना उचित नहीं समझते हैं। वर्तमान कानून भी इस प्रकार की समस्याओं से निजात नहीं दिला पाता है। यह आवश्यक है कि महिलाओं को ध्यान में रख कर बनाए गए घरेलू हिंसा अधिनियम की तर्ज पर वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक कारगर कानून बनाया जाए, जिसमें उनकी सभी समस्याओं का निदान हो।
जो वरिष्ठ नागरिक आर्थिक रूप से समर्थ हैं उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा, संपत्ति की सुरक्षा और भावनात्मक सुरक्षा की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उचित कानूनी प्रावधान किए जा सकते हैं। वर्तमान कानून में इसके लिए पर्याप्त प्रावधान नहीं है। वर्ष 2007 के कानून की धारा 22 (2) में वरिष्ठ नागरिकों की जिंदगी और संपत्ति की सुरक्षा के लिए एक विस्तृत कार्य-योजना बनाने की जिम्मेदारी सरकार पर डाली गई थी। दुर्भाग्यवश इस कार्य-योजना में वरिष्ठ नागरिकों की उपरोक्तवास्तविक जरूरतों को ध्यान में रख कर पर्याप्त प्रावधान नहीं किए गए हैं। वरिष्ठ नागरिकों का एक वर्ग ऐसा भी है जो आर्थिक तंगी का शिकार है। उनके लिए अलग से सरकारी व्यवस्था करने की जरूरत है।

किसी भी कार्य-योजना को बनाने से पहले भरोसेमंद आंकड़ों की जरूरत होती है। किसी भी सरकारी संस्था के पास वरिष्ठ नागरिकों की जरूरतों के संबंध में आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। किसी को ठीक से यह नहीं पता है कि कितने वरिष्ठ नागरिकों को आश्रय चाहिए, कितनों को आर्थिक मदद, कितनों को संपत्ति की सुरक्षा की दरकार है और कितने कारावासों में बंद हैं। वर्ष 2007 के कानून को लागू करने से जुड़े आंकड़े भी किसी संस्था के पास नहीं हैं। यह बहुत जरूरी है कि इस प्रकार के सभी आंकड़ों को सरकारी तंत्र इकट्ठा करे ताकि उनका प्रयोग नीतियां बनाने में किया जा सके।
जिन नागरिकों ने अपने जीवन का बहुमूल्य समय देश और समाज के लिए लगाया है उन्हें सम्मान का जीवन व्यतीत करने के अवसर प्रदान करना हम सबकी नैतिक और राष्ट्रीय जिम्मेदारी है। वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए बनाए गए वर्ष 2007 के कानून से किसी का भी भला नहीं होने वाला है। इस विषय पर एक नए, अधिक सक्षम कानून बनाने के तकाजे को अब ज्यादा समय तक नहीं टाला जा सकता।

हिन्दू जीवन पद्धति में वृद्धवस्था को सुखी बनाने के लिए, लोक व्यवस्था है, जो जिम्मेवार व जबावदेह भी है। किन्तु पश्चात्य जगत के प्रभाव में सब कुछ धूल धूसरित हो रहा है। कहीं न कहीं आचरणों की चिंता करनी ही होगी...

फ़िल्म एक फूल दो माली का यह गीत बहुत ही सटीक है....

तुझे सूरज कहूं या चंदा
तुझे दीप कहूं या तारा
मेरा नाम करेगा रौशन
जग में मेरा राज दुलारा
तुझे सूरज कहूं या चंदा
तुझे दीप कहूं या तारा
मेरा नाम करेगा रौशन
जग में मेरा राज दुलारा
मैं कब से तरस रहा था
मेरे आँगन में कोई खेले
नन्ही सी हँसी के बदले
मेरी सारी दुनिया ले ले
तेरे संग झूल रहा है
मेरी बाहों में जग सारा
मेरा नाम करेगा रौशन
जग में मेरा राज दुलारा
तुझे सूरज कहूं या चंदा
तुझे दीप कहूं या तारा
मेरा नाम करेगा रौशन
जग में मेरा राज दुलारा
आज उँगली थाम के तेरी
तुझे मैं चलना सिखलाऊँ
कल हाथ पकड़ना मेरा
जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ
तू मिला तो मैं ने पाया
जीने का नया सहारा
मेरा नाम करेगा रौशन
जग में मेरा राज दुलारा
तुझे सूरज कहूं या चंदा
तुझे दीप कहूं या तारा
मेरा नाम करेगा रौशन
जग में मेरा राज दुलारा
मेरे बाद भी इस दुनिया में
ज़िंदा मेरा नाम रहेगा
जो भी तुझ को देखेगा
तुझे मेरा लाल कहेगा
तेरे रूप में मिल जायेगा
मुझ को जीवन दोबारा
मेरा नाम करेगा रौशन
जग में मेरा राज दुलारा
तुझे सूरज कहूं या चंदा
तुझे दीप कहूं या तारा
मेरा नाम करेगा रौशन
जग में मेरा राज दुलारा
- आवाज - मन्ना डे 
- गीतकार - प्रेम धवन
- संगीतकार - रवि

बुजुर्गों की सम्पत्ति हड़पने वाले बच्चों को अब मिलेगी सजा

अक्सर ऐसे बुजुर्ग मेरे पास अपनी पीड़ा व्यक्त करने आते रहते हैं जिनसे उनकी संतानों ने उनकी जमीन-जायदाद ïआदि अपने नाम लिखवा लेने के बाद उनकी ओर से आंखें फेर कर उन्हें बेसहारा छोड़ दिया है। हाल ही में 2 ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जिनसे एक बार फिर इस गलत रुझान की पुष्टि हुई। पहला मामला महाराष्ट्र के पुणे का है जहां एक सेवानिवृत्त बुजुर्ग ने दो मंजिला मकान बनवाया ताकि वह अतिरिक्त आमदनी के लिए ऊपर का हिस्सा किराए पर दे सकें परंतु बेटे ने धोखे से स्टाम्प पेपर पर उनके हस्ताक्षर लेकर उस हिस्से पर कब्जा कर लिया। इस बीच जब पिता बीमार पड़े तो बेटे ने न सिर्फ उनके इलाज में कोई सहयोग नहीं दिया बल्कि घर के निचले हिस्से पर भी कब्जा जमा लिया। इस पर पिता ने पुणे के अतिरिक्त जिलाधिकारी के पास शिकायत की तो फैसला उनके पक्ष में आने पर बेटे ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दे दी जिस पर बम्बई हाईकोर्ट की न्यायाधीश न्यायमूर्ति साधना जाधव ने पुणे अदालत का फैसला बहाल रखते हुए पिता के घर पर अवैध रूप से कब्जा करने वाले बेटे को घर खाली करने का आदेश देते हुए कहा: ''बच्चे सिर्फ अपने माता-पिता की संपत्ति पर हक ही न जताएं, उनकी देखरेख की जिम्मेदारी भी उठाएं और यदि बेटा घर खाली नहीं करता तो माता-पिता पुलिस का भी सहयोग ले सकते हैं।'' ''यह मामला गिरते सामाजिक मूल्यों की ओर इशारा करता है, इसलिए सरकार को 'माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक कल्याण एवं भरण-पोषण कानून -2007' के प्रावधानों को सख्ती से लागू करना चाहिए।'' इसी प्रकार के एक अन्य मामले में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजन गुप्ता ने 29 जून को स्पष्ट किया कि: ''जायदाद अपने नाम पर हस्तांतरित करवा लेने के बाद अपने माता-पिता को वहां से बाहर निकाल देने वाली संतान के नाम पर किया गया हस्तांतरण रद्द करके उसे दंडित किया जा सकता है और उसे 3 महीने जेल एवं 5000 रुपए तक जुर्माना भी हो सकता है।'' इस मामले में एक महिला ने, जिसे उसके बेटे ने धोखे से उसका 14 मरले का मकान हड़प कर घर से निकाल दिया था, जून 2014 में अपने बेटे के पक्ष में किए गए मकान का हस्तांतरण रद्द करने के लिए धर्मकोट के एस.डी.ओ. व मैंटेनैंस ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष के समक्ष अपील की थी। इस पर उन्होंने 18 दिसम्बर 2015 को यह आवेदन स्वीकार करके याचिकाकत्र्ता के पक्ष में किया गया हस्तांतरण रद्द करने का आदेश दिया था। 'माता-पिता और वरिष्ठï नागरिक कल्याण एवं भरण-पोषण कानून -2007' की धारा 23 का हवाला देते हुए न्यायमूर्ति राजन गुप्ता ने कहा, ''यदि अपने नाम सम्पत्ति हस्तांतरित करवाने वाला सम्पत्ति देने वाले को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं करता तो इसे धोखे से प्राप्त सम्पत्ति माना जाएगा।'' ''इस स्थिति में कानून ने वरिष्ठ नागरिक को यह विकल्प दिया है कि वह इस हस्तांतरण को रद्द करवा सके। इस मामले में साबित हो गया है कि याचिकाकत्र्ता बेटे ने अपनी बुजुर्ग मां को गुमराह करके उसे धोखा देने के और मकान से बाहर निकालने के इरादे से ही मकान अपने नाम लिखवाया।'' न्यायमूर्ति राजन गुप्ता ने पीड़िता के बेटे की याचिका रद्द करते हुए कहा : ''आज वरिष्ठ नागरिकों को अपने जीवन की संध्या में बुनियादी सुविधाओं और उनकी शारीरिक जरूरतों से वंचित करने के लगातार बढ़ रहे मामले रोकने के लिए यह कानून बनाया गया है और ट्रिब्यूनल ने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उक्त आदेश दिया जिसे बहाल रखा जाता है।'' पहले बम्बई हाईकोर्ट और अब पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा संतानों द्वारा पीड़ित बुजुर्गों

को उनकी सम्पत्ति लौटाने के आदेश एक मार्गदर्शक हैं जिनका पालन यदि सभी संबंधित अधिकारी कठोरतापूर्वक करवाएं तो संतानों द्वारा उपेक्षित बुजुर्गों की दशा में काफी सुधार हो सकता है। भारत में जहां बुजुर्गों को अतीत में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था, आज बुजुर्गों की यह दयनीय स्थिति परेशान करने वाली एवं भारतीय संस्कृति और संस्कारों के विपरीत है। मां की गोद में आंख खुली, जग देखा बाप के कंधे चढ़ कर, सेवा बड़ी न होगी कोई, इन दोनों की सेवा से बढ़ कर।

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