जातीवाद की आग में झोंकना का पाप caste based survey

जातीवाद की आग में छोंकनें का पाप caste based survey

जातीगत आरक्षण के द्वारा देश को हिंसा की और आपसी संर्घष की भट्टी में झोंकनें की जबरदस्त कोशिश कांग्रेस के वरिष्ठनेता रहे और बोफोर्स कमीशन खोरी मामले में कांग्रेस बाहर आकर , जनता दल के नाम से केन्द्र की सरकार में प्रधानमंत्री बनें वी पी सिंह ने की थी। मण्डल आयोग की सिफारिसों के नाम पर , पूरा देश जबरदस्त हिंसा और आपसी संघर्ष में उलछ गया था। जिसका अंतिम परिणाम वी पी सिंह की सत्ता व राजनीति से बिदाई के रूप में पूरे देश नें देखा है। जातीवाद और आरक्षण के आधार पर फूट डालो राज करो अभियान भारत में अंग्रेजों के द्वारा प्रारम्भ किया था। आरक्षण मूलतः अंग्रेजों की ही देन है, बाबा भीमराव अम्बेडकर के कॉफी समय पूर्व अंग्रेज भारत में आरक्षण ले आये थे। तब उसका स्वरूप मात्र ही अलग था। 

भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार सरकार से पूछा था कि जातीगत जनगणना को लेकर इतनी जल्द बाजी क्यों है ? यह सबको मालूम है कि जातीगत जनगणना के पीछे देश में फिर से विभाजन की आराजकता फैलाना उन राजनैतिक राजनैतिक दलों का उद्देश्य है, जो हिन्दू एकता से बौखला गये हैं और हिन्दू एकता तोडना चाहते हैं। 

देश यह जानता है कि जनसंख्या जनगणना के द्वारा देश में गरीबी और पिछडेपन की स्थिती पिछले 70 साल से ही स्पष्ट है। व्यवहारिक रूप में उनके जीवनस्तर के उत्थान के लिए प्रयत्न होना ही मुख्य लक्ष्य होना चाहिये। मगर यह बहुत कम होता है। वास्तविकता तो यह है कि आरक्षण के नाम पर भी वास्तविक पिछडे को लाभ लेनें ही नहीं दिया जाता है। ए,बीसी क्लास अफसर और ए,बी सी क्लास नेता इस पर कब्जा जमाये बैठे हैं। जबकि यह मूलतः सम्पन्न लोगों के लिए नहीं बल्कि वास्तविक पिछडेपन को दूर करने बना था। 

नितिश कुमार 18 साल से बिहार के मुख्यमंत्री और महत्वपूर्ण पदों पर हैं, उन्हे अब अंतिम दौर में जब बिहार की जनता उन्हे अलबिदा कहना चाहती है, तब जातीगत जनगणना याद आई। नितिश भला तो किसी का कर नहीं पाये, खुद के भले के लिए बंदर कूद लगाते रहे। अब उन्हे जातीगत जनगणना स्वार्थ सिद्धि के लिए याद आई । राजनैतिक स्वार्थ की पूर्ती के लिए गरीब को आग में झोंकना को दुस्साहस, कोई पापी ही कर सकता है। यह पूरी तरह से अधर्म और अनैतिक है। मुझे नहीं लगता कि इससे नितिश कुमार की बेडा पार हो पायेगा। 

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 जातीगत आरक्षण पर मोदी जी की प्रतिक्रिया

बिहार सरकार ने जाति आधारित जनगणना रिपोर्ट सोमवार को जारी की, जिसके बाद से बवाल मचा हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जातिगत आरक्षण को लेकर बिहार सरकार पर निशाना साधा। पीएम मोदी ने कहा कि विपक्ष देश को जाति के नाम पर विभाजित करने की कोशिश कर रहा है। 

 यहां उन्होंने किसी पार्टी या नेता का नाम लिए बिना कहा कि सत्ता में रहते हुए वे विकास सुनिश्चित नहीं कर पाए। उन्होंने गरीबों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है। पीएम ने कहा कि वे तब भी गरीबों की भावनाओं के साथ खेलते थे और आज भी वे खेल रहे हैं। उन्होंने पहले भी देश को जाति के नाम पर बांटा और आज भी वे देश को जाति के नाम पर बांट रहे हैं। पहले तो वे सिर्फ भ्रष्टाचारी थे लेकिन आज तो वे अधिक भ्रष्टाचारी हैं। जाति के नाम पर देश के विभाजन के प्रयासों को पीएम मोदी ने पाप बताया है। 

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नीतीश कुमार चाहते हैं जाति में आग लगाकर अपनी रोटी सेंक लें - प्रशांत किशोर 

बिहार में जातिगत जनगणना JDU-RJD का अंतिम दांव, प्रशांत किशोर ने CM नीतीश बोला हमला

प्रशांत किशोर ने कहा कि जातिगत जनगणना राज्य सरकार का विषय है ही नहीं. बिहार के 13 करोड़ लोग सबसे गरीब और पिछड़े हैं, ये जानकारी सरकार के पास है तो इसे क्यों नहीं सुधारते. जातियों की जनगणना मात्र से लोगों की स्थिति नहीं सुधरेगी.

बिहार में जातिगत जनगणना को लेकर जन सुराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर ने नीतीश सरकार पर निशाना साधा है. उन्होंने कहा कि आने वाले चुनाव से पहले बिहार में जातिगत जनगणना जेडीयू और आरजेडी का अंतिम दांव है. पीके ने कहा कि जातिगत जनगणना का समाज की बेहतरी से कोई लेना-देना नहीं है.

जन सुराज पार्टी के संयोजक ने कहा कि जातिगत जनगणना को अंतिम दांव के रूप में खेला गया है ताकि समाज के लोगों को जातियों में बांटकर एक बार फिर किसी तरह चुनाव की नैया पार लग जाए. पीके ने आगे कहा कि नीतीश कुमार 18 साल से सत्ता में हैं पर अब क्यों जातिगत जनगणना करवा रहे हैं? नीतीश कुमार को 18 साल से याद नहीं आ रहा था ?

बिहार के 13 करोड़ लोग सबसे गरीब और पिछड़े, क्यों नहीं सुधारते?

दूसरी बात, जातिगत जनगणना राज्य सरकार का विषय है ही नहीं. प्रशांत किशोर ने कहा कि बिहार के 13 करोड़ लोग सबसे गरीब और पिछड़े हैं, ये जानकारी सरकार के पास है इसे क्यों नहीं सुधारते. जातियों की जनगणना मात्र से लोगों की स्थिति नहीं सुधरेगी. बिहार के 13 करोड़ लोग जनगणना के मुताबिक सबसे गरीब और पिछड़े हैं और ये जानकारी सरकार के पास है इसे क्यों नहीं सुधारते.

बिहार में दलितों के बाद मुसलमानों की हालत सबसे खराब

दलितों की जनगणना आजादी के बाद से हो रही है. उसकी दशा आप क्यों नहीं सुधार रहे हैं? उनके लिए आपने क्या किया? मुसलमानों की जनगणना हुई है, उनकी हालत सुधर क्यों नहीं रही है? बिहार में आज दलितों के बाद मुसलमानों की हालत सबसे खराब है पर कोई इस पर बात नहीं कर रहा है. समाज में कोई वर्ग सही मायने में पीछे छूट गया है और उसकी संख्या ज्यादा है.

जनता को उलझा रही है बिहार सरकार

बिहार सरकार जनता को उलझा रही है कि आधे लोग लग जाए जनगणना के पक्ष में और आधे लोग लग जाएं जनगणना के विपक्ष में. इसके बाद कोई इसकी चर्चा न करे कि बिहार में पढ़ाई हो रही है की नहीं, रोजगार मिल रहा है की नहीं. नीतीश कुमार चाहते हैं जाति में आग लगाकर अपनी रोटी सेंक लें और फिर से एक बार मुख्यमंत्री बन जाएं.

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जातिवाद का इतिहास 

भारत में जातियों का सूचीकरण ब्रिटिश सरकार में किया गया 

The listing of castes in India was done by the British Government.

जातीवाद का जहर

भारत में जाति व्यवस्था जातियों के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण का आदर्श नृवंशविज्ञान उदाहरण है । इसकी उत्पत्ति प्राचीन भारत में हुई है, और मध्ययुगीन , प्रारंभिक-आधुनिक और आधुनिक भारत, विशेष रूप से मुगल साम्राज्य और ब्रिटिश राज में विभिन्न शासक अभिजात वर्ग द्वारा इसे रूपांतरित किया गया था । यह आज भारत में सकारात्मक कार्रवाई कार्यक्रमों का आधार है जैसा कि इसके संविधान के माध्यम से लागू किया गया है । जाति व्यवस्था में दो अलग-अलग अवधारणाएँ शामिल हैं, वर्ण और जाति, जिसे इस प्रणाली के विश्लेषण के विभिन्न स्तर माना जा सकता है।

आज मौजूद जाति व्यवस्था को मुगल काल के पतन और भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के उदय के दौरान हुए विकास का परिणाम माना जाता है।  ब्रिटिश राज ने कठोर जाति संगठन को प्रशासन का केंद्रीय तंत्र बनाकर इस विकास को आगे बढ़ाया।

1860 और 1920 के बीच, अंग्रेजों ने भारतीय जाति व्यवस्था को अपनी शासन प्रणाली में शामिल कर लिया, प्रशासनिक नौकरियाँ और वरिष्ठ नियुक्तियाँ केवल ईसाइयों और कुछ जातियों के लोगों को दी गईं। 1920 के दशक के दौरान सामाजिक अशांति के कारण इस नीति में बदलाव आया। औपनिवेशिक सत्ता द्वारा नागरिक समाज को कार्यात्मक रूप से संगठित करने के लिए अब जाति का उपयोग नहीं किया जाता था। इसने प्रशासनिक प्रथाओं में बदलाव, विशेषज्ञता की समझ और नए यूरोपीय विद्वान संस्थानों के उदय को प्रतिबिंबित किया।  1920 के दशक के बाद, औपनिवेशिक प्रशासन ने निचली जातियों के लिए सरकारी नौकरियों का एक निश्चित प्रतिशत आरक्षित करके सकारात्मक भेदभाव की नीति शुरू की। 1948 में, जाति के आधार पर नकारात्मक भेदभाव को कानून द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया और 1950 में इसे भारतीय संविधान में शामिल किया गया;  हालाँकि, यह प्रणाली भारत के कुछ हिस्सों में अभी भी प्रचलित है। भारत में 3,000 जातियाँ और 25,000 उप-जातियाँ हैं, जिनमें से प्रत्येक एक विशिष्ट व्यवसाय से संबंधित हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य क्षेत्रों और धर्मों में भी जाति-आधारित मतभेद प्रचलित हैं , जैसे नेपाली बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म , इस्लाम , यहूदी धर्म और सिख धर्म । इसे कई सुधारवादी हिंदू आंदोलनों, सिख धर्म, ईसाई धर्म, और वर्तमान भारतीय बौद्ध धर्म द्वारा चुनौती दी गई है । भारतीय प्रभाव के साथ, बाली में भी जाति व्यवस्था प्रचलित है । 

1947 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारत ने ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समूहों के उत्थान के लिए कई सकारात्मक कार्रवाई नीतियां बनाईं , जिन्हें इसके संविधान के माध्यम से लागू किया गया। इन नीतियों में उच्च शिक्षा और सरकारी रोजगार में इन समूहों के लिए स्थानों का कोटा आरक्षित करना शामिल था।

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शासन व्यवस्था / जाति आधारित जनगणना / 02 Jun 2022 

जनगणना, एसईसीसी, ओबीसी। 

जाति आधारित जनगणना और संबंधित मुद्दे, जनसंख्या और संबद्ध मुद्दे। 


चर्चा में क्यों ? 

हाल ही में बिहार सरकार ने घोषणा की है कि वह सभी जातियों और समुदायों (SECC) का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण करेगी। 

जनगणना और SECC के बीच अंतर : -

जनगणना : -

भारत में जनगणना की शुरुआत औपनिवेशिक शासन के दौरान वर्ष 1881 में हुई। 

जनगणना का आयोजन सरकार, नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और अन्य लोगों द्वारा भारतीय जनसंख्या से संबंधित आँकड़े प्राप्त करने, संसाधनों तक पहुँचने, सामाजिक परिवर्तन, परिसीमन से संबंधित आँकड़े आदि का उपयोग करने के लिये किया जाता है। 

हालाँकि 1940 के दशक की शुरुआत में वर्ष 1941 की जनगणना के लिये भारत के जनगणना आयुक्त ‘डब्ल्यू. डब्ल्यू. एम. यीट्स’ ने कहा था कि जनगणना एक बड़ी, बेहद मज़बूत अवधारणा है लेकिन विशेष जाँच के लिये यह एक अनुपयुक्त साधन है। 

सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC): 

वर्ष 1931 के बाद वर्ष 2011 में इसे पहली बार आयोजित किया गया था। 

SECC का आशय ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में प्रत्येक भारतीय परिवार की निम्नलिखित स्थितियों के बारे में पता करना है : -

आर्थिक स्थिति पता करना ताकि केंद्र और राज्य के अधिकारियों को वंचित वर्गों के क्रमचयी और संचयी संकेतकों की एक शृंखला प्राप्त करने तथा उन्हें इसमें शामिल करने की अनुमति दी जा सके, जिसका उपयोग प्रत्येक प्राधिकरण द्वारा एक गरीब या वंचित व्यक्ति को परिभाषित करने के लिये किया जा सकता है। 

इसका अर्थ प्रत्येक व्यक्ति से उसका विशिष्ट जातिगत नाम पूछना है, जिससे सरकार को यह पुनर्मूल्यांकन करने में आसानी हो कि कौन से जाति समूह आर्थिक रूप से सबसे खराब स्थिति में थे और कौन बेहतर थे। 

SECC में व्यापक स्तर पर ‘असमानताओं के मानचित्रण’ की जानकारी देने की क्षमता है। 

जनगणना और SECC के बीच अंतर: 

जनगणना भारतीय आबादी का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करती है, जबकि SECC राज्य द्वारा सहायता के योग्य लाभार्थियों की पहचान करने का एक उपाय/साधन है। 

चूँकि जनगणना, वर्ष 1948 के जनगणना अधिनियम के अंतर्गत आती है, इसलिये सभी आँकड़ों को गोपनीय माना जाता है, जबकि SECC की वेबसाइट के अनुसार, “SECC में दी गई सभी व्यक्तिगत जानकारी का उपयोग कर सरकारी विभाग परिवारों को लाभ पहुँचाने और/या प्रतिबंधित करने के लिये स्वतंत्र हैं।

 जाति आधारित जनगणना आयोजित करने के पक्ष और विपक्ष में तर्क: 

पक्ष में तर्क: 

सामाजिक समानता कार्यक्रमों के प्रबंधन में सहायक: 

भारत के सामाजिक समानता कार्यक्रम डेटा के बिना सफल नहीं हो सकते हैं और जाति जनगणना इसे ठीक करने में मदद करेगी। 

डेटा की कमी के कारण ओबीसी की आबादी, ओबीसी के भीतर के समूह  के लिये कोई उचित अनुमान उपलब्ध नहीं है। 

मंडल आयोग ने अनुमान लगाया कि ओबीसी आबादी 5% है, जबकि कुछ अन्य ने ओबीसी आबादी के 36 से 65% तक होने का अनुमान लगाया। 

जाति आधारित जनगणना के माध्यम से 'OBC आबादी के आकार के बारे में जानकारी  के अलावा OBC की आर्थिक स्थिति (घर के प्रकार, संपत्ति, व्यवसाय) के बारे में नीति संबंधी प्रासंगिक जानकारी, जनसांख्यिकीय जानकारी (लिंग अनुपात, मृत्यु दर, जीवन प्रत्याशा), शैक्षिक डेटा (पुरुष और महिला साक्षरता, स्कूल जाने वाली आबादी का अनुपात, संख्या) प्राप्त होगा। 


आरक्षण पर वस्तुनिष्ठता उपाय: 

जाति-आधारित जनगणना आरक्षण पर वस्तुनिष्ठता का उपाय लाने में लंबा रास्ता तय कर सकती है। 

OBC के लिये 27% कोटा के समान पुनर्वितरण की जाँच के लिये गठित रोहिणी आयोग के अनुसार, ओबीसी आरक्षण के तहत लगभग 2,633 जातियांँ शामिल हैं। 

हालाँकि 1992 से केंद्र की आरक्षण नीति इस बात पर ध्यान नहीं देती है कि OBC के भीतर अत्यंत पिछड़ी जातियों की एक अलग श्रेणी मौजूद है, जो अभी भी हाशिये पर हैं। 

 विपक्ष में तर्क: 

जाति आधारित जनगणना के दुष्प्रभाव: जाति में एक भावनात्मक तत्त्व निहित होता है और इस प्रकार जाति आधारित जनगणना के राजनीतिक व सामाजिक दुष्प्रभाव भी उत्पन्न हो सकते हैं।   

ऐसी आशंकाएँ प्रकट होती रही हैं कि जाति संबंधित गणना से उनकी पहचान की सुदृढ़ता या कठोरता को मदद मिल सकती है। 

इन दुष्प्रभावों के कारण ही सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना, 2011 के लगभग एक दशक बाद भी इसके आँकड़े के बड़े अंश अप्रकाशित रहे हैं या ये केवल अंशों में ही जारी किये गए हैं। 

जाति संदर्भ-विशिष्ट होती है: जाति कभी भी भारत में वर्ग या वंचना का छद्म रूप नहीं रही; यह एक विशिष्ट प्रकार के अंतर्निहित भेदभाव का गठन करती है जो प्रायः वर्ग के भी पार चला जाता है। उदाहरण के लिये:   

दलित उपनाम वाले लोगों को नौकरी हेतु साक्षात्कार के लिये बुलाए जाने की संभावना कम होती है, भले ही उनकी योग्यता उच्च जाति के उम्मीदवार से बेहतर हो। 

ज़मींदारों द्वारा उन्हें पट्टेदारों के रूप में स्वीकार किये जाने की संभावना भी कम होती है।  

एक पढ़े-लिखे, संपन्न दलित व्यक्ति से विवाह अभी भी उच्च जाति की महिलाओं के परिवारों में हिंसक प्रतिशोध को जन्म देता है। 


आगे की राह 

एक जाति जनगणना जातिविहीन समाज के लक्ष्य के लिये भले ही अनुकूल न हो लेकिन यह समाज में असमानताओं को दूर करने के साधन के रूप में काम कर सकती है। 

जाति के आँकड़े न केवल इस सवाल पर स्वतंत्र शोध करने में सक्षम होंगे कि सकारात्मक कार्रवाई की आवश्यकता किसे है और किसे नहीं, बल्कि यह आरक्षण की प्रभावशीलता में भी वृद्धि लाएगा। 

निष्पक्ष डेटा और उसके बाद के शोध सबसे पिछड़े वर्गों के उत्थान के वास्तविक प्रयासों को जाति व वर्ग की राजनीति से बचा सकते हैं तथा यह उन दोनों पक्षों के लोगों के लिये सही सूचना के स्रोत हो सकते हैं जो आरक्षण के पक्ष या उसके विपक्ष में हैं। 

आरक्षण का प्रावधान नहीं बल्कि आरक्षण का दुरुपयोग हमारे समाज में विभाजन पैदा करता है। 

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