श्रीलंका से सीखना होगा, लोक लुभावन मुफतखोरी देश को डुबो देती है - अरविन्द सिसौदिया
श्रीलंका लाखों वर्षों से भारतीय सभ्यता, संस्कृति एवं समाज व्यवस्था का अभिन्न अंग रहा है। इसे अंग्रेजों ने कूटनीतिक पाखण्ड के तहत 1948 में भारत से अलग स्वतंत्र देश के रूप में आजाद किया और आज यह सबसे बुरे आर्थिक दौर से गुजर रहा है। श्रीलंका सरकार के मंत्री सामूहिक इस्तीफा दे चुके हैं। श्रीलंका में लोगों को रोजमर्रा से जुड़ी चीजें भी नहीं मिल पा रही हैं या कई गुना महंगी मिल रही हैं।
श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म हो चुका है। जिससे वह जरूरी चीजों का आयात नहीं कर पा रहा है। देश में अनाज, चीनी, मिल्क पाउडर, सब्जियों से लेकर दवाओं तक की कमी है। पेट्रोल पंपों पर सेना तैनात करनी पड़ी है। देश में 13-13 घंटे की बिजली कटौती हो रही है। देश का सार्वजनिक परिवहन ठप हो गया है, क्योंकि बसों को चलाने के लिए डीजल ही नहीं है।
चीन जापान सहित विदेशों से लिया गया कर्ज और बेसुमार एफडीआई के स्वागत के साथ साथ आंतरिक उत्पादन के प्रति जिम्मेवारी में नकारात्म होनें से आयात अथवा विदेश से ही सामान मंगाने पर निर्भरता रही, जिसके चलते श्रीलंका पूरी तरह डूब गया है। आतंकी हमलों और कोरोना के चलते वहां का टूरिज्म व्यवसाय भी डूब गया । कर्ज लेकर मेगा परियोजनाओं को शिरू किया गया, इस धन को राजनैतिक भ्रष्ट्रता डकार गई, यह सबसे बडी हॉनी का कारण बन गये। रही सही कसर टैक्सों में दी गई लोक लुभावन छूट से सरकार की रोजमर्रा की आय भी आधी रह गई । आज श्रीलंका में आर्थिक आराजकता है , जिससे बहुत कुछ समझनें की जरूरत है। क्यों कि भारत में भी मुफतखोरी की राजनीति तेजी से बढ रही है।
सच अपने राजनैतिक फायदे के लिए निकम्मों की फौज तैयार कर रही है देश के राजनेता। समय रहते चेते नहीं तो यहां उससे भी बदतर हालात पैदा होते देर नहीं लगेगी।
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