समान नागरिक संहिता से सभी वर्गों में एक रूपता आयेगी - अरविन्द सिसौदिया

समान नागरिक संहिता से सभी वर्गों में एक रूपता आयेगी - अरविन्द सिसौदिया

 

अरविन्द सिसौदिया

समान नागरिक संहिता से सभी वर्गों में एक रूपता आयेगी - अरविन्द सिसौदिया


Uniform Civil Code will bring uniformity in all sections - Arvind Sisodia

मुस्लिम महिलाओं का जीवन गंभीर रूप से अनिश्चितताओं और अपमानजनक स्थितियों से भरा होता है । भारत में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाकर मुस्लिम महिलाओं को एक बड़ी राहत दी है। पिछले दिनों भारत के गृह मंत्री अमित शाह मध्य प्रदेश के दौरे पर गए थे और वहां उन्होंने समान नागरिक संहिता की बात कही हे।  प्रदेश स्तर पर देखें तो उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू की जा रही है और असम के मुख्यमंत्री ने भी समान नागरिक संहिता का समर्थन किया है।

समान नागरिक संहिता को लेकर कोई प्रश्न इसलिए नहीं उठना चाहिए यह भारत के संविधान में तमाम विचार विमर्श की प्रक्रिया के द्वारा ही अनुमोदित होकर स्थापित हुई है । प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू एवं बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने कॉफी सोचविचार कर इसे लागू करने की प्रबल पैरवी की थी। जो
संविधान से देश चलानें की बात करते है। उन्हे इस लागू करने के लिये सामनें आना चाहिये। यह देश को एक रूपता प्रदान करती है।

सभ्य मानव समाज के लिए समान नागरिक संहिता अत्यंत महत्वपूर्ण और मानवता की क्षमताओं से युक्त होती है , इससे परम्परागत चली आ रहीं कुरीतियों को दूर करनें का भी अवसर मिलता है। इससे मुस्लिम महिलाओं सहित हिन्दूओं के भिन्न पद्यतीयों को भी एक रूपता प्रदान की जा सकती है। विवाह,गोद,विवाह विच्छेद और सम्पत्ती वितरण के लिये समान नागरिक संहिता
बहुत जरूरी है। विश्व के बहुत से मुस्लिम और इसाई बहुल देशों में समान नागरिक संहिता लम्बे समय से लागू है। इसे विकसित समाज का प्रतीक माना जाता है।

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 समान नागरिक संहिता और भारत की संविधान सभा

संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि 'राज्य, भारत के समस्त क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू कराने का प्रयास करेगा। ' यह अनुच्छेद राज्य के नीति निदेशक तत्व भाग में है, जो कि संविधान में सलाह के रूप में दर्ज है। यानी यह बाध्यकारी नहीं है।

नई दिल्ली: हमारे देश में हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है. 26 नवंबर, 1949 को हमारी संविधान सभा ने उस संविधान को स्वीकार किया था जिसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया. संविधान सभा में समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर हुई बहस सबसे दिलचस्प बहसों में से एक है.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी हाल ही में एक टिप्पणी करते हुए समान नागरिक संहिता का समर्थन किया और केंद्र से इसे लागू करने की दिशा में काम करने के लिए भी कहा.

अदालत ने कहा, ‘यह राज्य की जिम्मेदारी है वह देश के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता हासिल लागू करे और नि:स्संदेह, उसके पास ऐसा करने की विधायी क्षमता है.

संविधान सभा में
23 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा हुई. पहले मुस्लिम सदस्यों ने बात की और अनुच्छेद 35 जिसमें देश में समान नागरिक संहिता होने से संबंधित प्रावधान शामिल थे, को लेकर कई संशोधनों के प्रस्ताव दिए. प्रस्ताव देने वालों में मोहम्मद इस्माइल, नज़ीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, हुसैन इमाम कुछ ऐसे सदस्य थे जिन्होंने इन संशोधनों को पेश किया.

नज़ीरुद्दीन अहमद ने यह कहते हुए संशोधन पेश किया कि अनुच्छेद 35 में निम्नलिखित प्रावधान जोड़ा जाए
‘बशर्ते कि किसी भी समुदाय का पर्सनल लॉ है, जिसे क़ानून द्वारा गारंटी दी गई है, उस समुदाय की पूर्व स्वीकृति के बिना उसे नहीं बदला जाएगा. इस स्वीकृति को प्राप्त करने के लिए कानूनी प्रावधानों का सहारा लिया जाएगा.


अहमद ने इस बहस में भाग लेते हुए कहा कहा, ‘मैं अपनी टिप्पणी को केवल मुस्लिम समुदाय को होने वाली असुविधा तक सीमित नहीं रखना चाहता. मैं इसे बहुत व्यापक आधार पर रखूंगा. वास्तव में, प्रत्येक समुदाय, प्रत्येक मत के अनुयायियों के कुछ पंथिक कानून होते हैं, कुछ नागरिक कानून पंथिक विश्वासों और प्रथाओं से अविभाज्य रूप से जुड़े होते हैं. मेरा मानना है कि एक समान नागरिक संहिता से इन पंथिक कानूनों या अर्ध-पंथिक कानूनों को दूर रखा जाना चाहिए.’

विरोध-प्रतिवाद
एक और संशोधन पेश करते हुए तत्कालीन मद्रास से संविधान सभा में आए एक मुस्लिम सदस्य मोहम्मद इस्माइल ने कहा, ‘महोदय, मैं प्रस्ताव करता हूं कि अनुच्छेद 35 में निम्नलिखित प्रावधान जोड़ दिया जाए: बशर्ते कि किसी भी समूह, वर्ग या समुदाय के लोगों को ऐसा कानून होने की स्थिति में अपना निजी कानून छोड़ने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा.’

इस्माइल ने इस बहस में हिस्सा लेते हुए समान नागरिक संहिता का विरोध किया. उन्होंने कहा, ‘एक समूह या समुदाय का अपने निजी कानून का पालन करने का अधिकार मौलिक अधिकारों में से है और यह प्रावधान वास्तव में वैधानिक और न्याय संगत मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाना चाहिए. इसी कारण से मैंने अन्य मित्रों के साथ इससे पूर्व के कुछ अन्य अनुच्छेदों में संशोधन का प्रस्ताव दिया है, जिन्हें मैं उचित समय पर उपस्थित करूंगा. अब पर्सनल लॉ का पालन करने का अधिकार उन लोगों के जीवन के तरीके का हिस्सा है जो ऐसे कानूनों का पालन कर रहे हैं; यह उनके मत का हिस्सा है और उनकी संस्कृति का हिस्सा है. यदि व्यक्तिगत कानूनों को प्रभावित करने वाला कुछ भी किया जाता है, तो यह उन लोगों के जीवन के तरीके में हस्तक्षेप के समान होगा जो पीढ़ियों और युगों से इन कानूनों का पालन कर रहे हैं. यह पंथनिरपेक्ष राज्य जिसे हम बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उसे लोगों के मत और पंथ में हस्तक्षेप करने के लिए कुछ भी नहीं करना चाहिए.’

इन सभी तर्कों का प्रतिवाद डॉ. बीआर अंबेडकर, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (केएम मुंशी) और अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर द्वारा प्रस्तुत किया गया था.

अंबेडकर की पैरवी
देश के लिए समान नागरिक संहिता का जोरदार समर्थन करते हुए आंबडेकर ने कहा, ‘मुझे लगता है कि मेरे अधिकांश मित्र जिन्होंने इस संशोधन पर बात की है, वे यह भूल गए हैं कि 1935 तक उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत शरीयत कानून के अधीन नहीं था. इसने उत्तराधिकार के मामले में और अन्य मामलों में हिंदू कानून का पालन किया, यह पालन इतना व्यापक और मजबूत था कि अंतत: 1939 में केंद्रीय विधानमंडल को मैदान में आना पड़ा और उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत के मुसलमानों के लिए हिंदू कानून को निरस्त कर उन पर शरीयत कानून लागू किया गया.’

उन्होंने आगे कहा, ‘मुझे इस मामले में उनकी भावनाओं का एहसास है, लेकिन मुझे लगता है कि वे अनुच्छेद 35 को लेकर कुछ ज्यादा ही आशंकित हो रहे हैं. यह अनुच्छेद केवल यही प्रस्तावित करता है कि राज्य, देश के नागरिकों के लिए नागरिक संहिता को सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा.’

केएम मुंशी ने इस बहस में हिस्सा लेते हुए बहुत ही दिलचस्प बात कही, ‘… उन नुकसानों को देखें जिनमें नागरिक संहिता नहीं होने पर वृद्धि होगी. उदाहरण के लिए हिंदुओं को लें. हमारे पास भारत के कुछ हिस्सों में ‘मयूख’ कानून लागू है; हमारे पास दूसरे कुछ हिस्सों में ‘मीताक्षरा’ कानून; और हमारे पास बंगाल में ‘दयाबाघ’ नामक कानून है. इस प्रकार स्वयं हिन्दुओं के भी अलग-अलग कानून हैं और हमारे अधिकांश प्रांतों ने अपने लिए अलग-अलग हिन्दू कानून बनाना शुरू कर दिया है. क्या हम इन टुकड़े-टुकड़े कानूनों को इस आधार पर अनुमति देने जा रहे हैं कि यह देश के पर्सनल लॉ को प्रभावित करता है? इसलिए यह केवल अल्पसंख्यकों का सवाल नहीं है बल्कि बहुसंख्यकों को भी प्रभावित करता है.’

खुद इस्लामी शासकों में से एक का उदाहरण लेते हुए उन्होंने आगे कहा, ‘ब्रिटिश शासन के तहत मन का यह रवैया कि पर्सनल लॉ मत/पंथ का हिस्सा है, को अंग्रेजों और ब्रिटिश अदालतों द्वारा बढ़ावा दिया गया है. इसलिए हमें इससे आगे बढ़ कर इसे छोड़ देना चाहिए. अगर मैं माननीय सदस्य को याद दिला दूं … तो अलाउद्दीन खिलजी ने कई बदलाव किए, जो शरीयत के खिलाफ थे, हालांकि वह यहां मुस्लिम सल्तनत की स्थापना करने वाले पहले शासक थे.

दिल्ली के काजी ने उनके कुछ सुधारों पर आपत्ति जताई, और उनका उत्तर था- ‘मैं एक अज्ञानी व्यक्ति हूं और मैं इस देश के सर्वोत्तम हित में शासन कर रहा हूं. मुझे यकीन है, मेरी अज्ञानता और मेरे अच्छे इरादों को देखते हुए, सर्वशक्तिमान मुझे माफ कर देंगे, जब उन्हें पता चलेगा कि मैंने शरीयत के अनुसार काम नहीं किया है.’ ‘यदि अलाउद्दीन ऐसा नहीं कर सकता है, तो आधुनिक सरकार इस प्रस्ताव को तो बिल्कुल भी स्वीकार नहीं कर सकती है कि पंथिक अधिकारों के दायरे में व्यक्तिगत कानून या कई अन्य मामले आते हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से हमें अपने पंथ अथवा मत के हिस्से के रूप में मानने के लिए प्रशिक्षित किया गया है.’

पक्ष में बोले एके अय्यर
एक समान नागरिक संहिता के पक्ष में बोलते हुए और मुस्लिम सदस्यों द्वारा प्रस्तावित संशोधनों का विरोध करते हुए अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा कि एक आपत्ति यह दर्ज की गई है कि कि समान नागरिक संहिता से समुदायों में वैमनस्य बढ़ेगा, जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है. समान नागरिक संहिता के पीछे विचार यह है कि अपसी मतभेदों को बढ़ावा देने वाले कारकों को समाप्त किया जाए.

बहस के अंत में, कुछ मुस्लिम सदस्यों द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को अस्वीकार कर दिया गया. संविधान सभा के सदस्यों ने समान नागरिक संहिता के संविधान का हिस्सा होने के पक्ष में भारी मतदान किया.

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समान नागरिक संहिता जरूरी, यह सभी मुस्लिम महिलाओं का मुद्दा है : हिमंत विश्व शर्मा

मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा ने कहा कि कोई भी मुस्लिम महिला नहीं चाहती कि उसका पति तीन अन्य पत्नियों को घर लाए

Sudhir Kumar Pandey
 May 1, 2022,
हिमंत विश्व शर्मा

 
देश में समान नागरिक संहिता की मांग जोर-शोर से हो रही है। महिलाओं, खासकर मुस्लिम महिलाओं को न्याय मिले इसके लिए भी इसकी वकालत की जा रही है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा ने भी इसका समर्थन किया है।

मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा ने दिल्ली में पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि हर कोई समान नागरिक संहिता (UCC) चाहता है। कोई भी मुस्लिम महिला नहीं चाहती कि उसका पति तीन अन्य पत्नियों को घर लाए। UCC मेरा मुद्दा नहीं है, यह सभी मुस्लिम महिलाओं का मुद्दा है। अगर उन्हें तीन तलाक को खत्म करने के बाद इंसाफ देना है तो UCC लाना होगा। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह भी कह चुके हैं हमारी सरकार राम जन्मभूमि, तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और नागरिकता संशोधन कानून जैसे मुद्दों को हल कर चुकी है, अब समान नागरिक संहिता की बारी है। उत्तराखंड में इसका प्रयोग किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि समान नागरिक संहिता का सबसे ज्यादा लाभ मुस्लिम और पारसी बेटियों को मिलेगा। हिंदू मैरिज एक्ट में बेटा-बेटी को समान अधिकार है, इसलिए समान नागरिक संहिता से हिंदू बेटियों को कोई फायदा नहीं मिलेगा।

वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बाद अब AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने समान नागरिक संहिता का विरोध किया है। उनका कहना है कि लॉ कमीशन ने खुद यह बोला है कि भारत में ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड’ की जरूरत नहीं है। अर्थव्यवस्था बैठ गई है, बेरोज़गारी, महंगाई बढ़ रही है और आपको ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड’ की फिक्र है। मुस्लिम संगठनों ने इससे पहले तीन तलाक पर आए कानून का भी काफी विरोध किया था। महिलाओं के खिलाफ इस बोर्ड ने अपमानजनक टिप्पणी भी की थी। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी का कहना है कि समान नागरिक संहिता बेवक्त की रागिनी है। यह अल्पसंख्यक विरोधी और संविधान विरोधी कदम है। यह मुसलमानों को कबूल नहीं है।

क्या कहते हैं उत्तराखंड के मुख्यमंत्री धामी
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का कहना है कि राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर चुनाव से पूर्व किए अपने वायदे को पूरा करने की दिशा में हमने महत्वपूर्ण् कदम उठाया। सरकार की पहली कैबिनेट बैठक में निर्णय लिया गया कि राज्य में समान नागरिक संहिता के क्रियान्वयन के लिये विशेषज्ञों की समिति बनाई जाएगी। न्यायविदों, सेवानिवृत्त जज, समाज के प्रबुद्जनों और अन्य स्टेकहोल्डर्स की एक कमेटी गठित की जाएगी, जोकि यूनिफार्म सिविल कोड का ड्राफ्ट तैयार करेगी।

संविधान सभा में हो चुकी है चर्चा

वरिष्ठ वकील अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि समान नागरिक संहिता पर 23 नवंबर 1948 को संविधान सभा में विस्तृत चर्चा हुई थी। दोनों पक्षों ने दलीलें दीं। जो लोग पर्सनल लॉ चाहते थे, उन्होंने सबसे पहले अपनी बात रखी थी। जिस बात पर 75 साल पहले चर्चा हो गई थी तो क्या उस पर दोबारा चर्चा होनी चाहिए? यदि समान नागरिक संहिता संविधान में नहीं होती तो उस पर चर्चा करने की जरूरत थी। विस्तृत चर्चा के बाद यह आया है तो इसे लागू करें। इसे लागू करने में वैसे भी बहुत देर हो चुकी है।

अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि यूनिफार्म सिविल कोड से सबसे ज्यादा फायदा मुस्लिमों को होगा। उसके बाद ईसाइयों और पारसियों को होगा। हिंदुओं में बेटे और बेटी को लगभग समान अधिकार मिल चुके हैं। हिंदुओं को इससे कोई फायदा नहीं होगा। लोगों को भड़काया जा रहा है कि समान नागरिक संहिता लागू होने की वजह से काजी निकाह नहीं पढ़ा पाएंगे। इससे इसका कोई लेना-देना नहीं है। हिंदू सात फेरे लेते रहेंगे। मुस्लिम में काजी निकाहनामा पढ़ाते रहेंगे। सिख, क्रिश्चियन अपनी परंपरा के अनुसार विवाह करते रहेंगे। समान नागरिक संहिता वास्तव में समानता का मामला है। लैंगिक समानता का मामला है। यह हिंदू-मुसलमान का मामला नहीं है, यह बेटियों के अधिकार का मामला है। उन्होंने इसका वीडियो ट्विटर पर शेयर किया है।

क्या कहती है समान नागरिक संहिता

लड़के और लड़की की शादी की उम्र बराबर हो जाएगी। इससे मुस्लिम बेटियों को फायदा होगा। मुस्लिम बेटियों में शादी की उम्र अभी नौ साल है। वे अभी पढ़ नहीं पातीं, वो पढ़ पाएंगी। मानसिक, आर्थिक रूप से मजबूत होंगी।
तलाक के नियम सभी के लिए बराबर होंगे। मुस्लिमों में तीन तलाक खत्म हुआ है, बाकी तलाक चल रहे हैं। इसलिए मुस्लिम बेटियों को इसका लाभ मिलेगा।
एक पति और एक पत्नी का नियम सभी पर लागू होगा
गोद लेने का नियम और प्रक्रिया एक जैसी होगी।
विरासत का अधिकार, वसीयत का अधिकार। यह हिंदुओं में बराबर का हो चुका है। मुस्लिम में इस तरह का नहीं है। मुस्लिम में शौहर को अधिक अधिकार है।
Topics: Uniform Civil CodeHimanta Biswa Sharmaसमान नागरिक संहितासीएम हिमंत विश्व शर्माUCCमुस्लिम महिलाओं का मुद्दाMuslim women
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भारत में यूनिफॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता): एक समीक्षा

10 January 2022

ABHINAV MEHROTRA

भारत में एक समान नागरिक संहिता कानून की कमी के चलते भारतीय समाज के समग्र विकास की संभावनाएं बाधित हो रही हैं.


हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के मुताबिक, देश में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) ज़रूरी और अनिवार्य रूप से आवश्यक है, इस टिप्पणी के बाद भारत में समान नागरिक संहिता की घटना को समझने की ज़रूरत बढ़ गई है. सवाल यह उठता है कि यूसीसी की अवधारणा कैसे अस्तित्व में आई? स्वतंत्रता के बाद के दौर में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लाने के लिए क्या कदम उठाए गए थे? इस मुद्दे पर कानूनों का न्यायशास्त्र क्या है? वर्तमान सरकार इसे लागू करने में क्यों विफल रही है, और इसे लेकर आगे बढ़ने का संभावित तरीका क्या है? यह संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत शामिल है जो यह घोषणा करता है कि राज्य नागरिकों को एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की कोशिश करेगा. यह लेख संविधान के भाग IV में है  जो राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों से संबंधित है, जो किसी भी अदालत में लागू नहीं होते हैं, लेकिन इसमें निर्धारित सिद्धांत देश के शासन में मौलिक अधिकार का दर्ज़ा पाते हैं, और यह राज्य का कर्तव्य होगा कि इन सिद्धान्तों को कानून में शामिल किया जा सके. निदेशक सिद्धांतों से जुड़े महत्व को मिनर्वा मिल्स बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया मामले में मान्यता दी गई थी, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि मौलिक अधिकारों को निदेशक सिद्धांतों के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिेए और इस तरह का सामंजस्य संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक है.

1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने ब्रिटेन को एक सख़्त संदेश दिया कि वो भारतीय समाज के ताने बाने को नहीं छेड़े और शादियां, तलाक, मेनटेनेंस, गोद लेने और और उत्तराधिकार जैसे मामलों से संबंधित कोड में कोई बदलाव लाने की कोशिश नहीं करे.

ऐतिहासिक रूप से यूनिफॉर्म सिविल कोड का विचार 19वीं और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में यूरोपीय देशों में तैयार किए गए इसी तरह के कानून से प्रभावित था और विशेष रूप से 1804 के फ्रांसीसी संहिता ने उस समय प्रचलित सभी प्रकार के परंपरागत या वैधानिक कानूनों को ख़त्म कर दिया था और इसे समान संहिता से बदल दिया था. बड़े स्तर पर, यह पश्चिम के बाद एक बड़ी औपनिवेशिक परियोजना के हिस्से के रूप में राष्ट्र को ‘सभ्य बनाने’ की कोशिश थी. हालांकि, 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने ब्रिटेन को एक सख़्त संदेश दिया कि वो भारतीय समाज के ताने बाने को नहीं छेड़े और शादियां, तलाक, मेनटेनेंस, गोद लेने और और उत्तराधिकार जैसे मामलों से संबंधित कोड में कोई बदलाव लाने की कोशिश नहीं करे.
स्वतंत्रता के बाद, विभाजन की पृष्ठभूमि के विरूद्ध, नतीजे के तौर पर सांप्रदायिक वैमनस्यता और व्यक्तिगत कानूनों को हटाने के प्रतिरोध में यूसीसी को एक डायरेक्टिव प्रिसिंपल के रूप में समायोजित किया गया जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है. हालांकि, संविधान के लेखकों ने संसद में एक हिंदू कोड बिल लाने का प्रयास किया जिसमें महिलाओं के उत्तराधिकार के समान अधिकार जैसे प्रगतिशील उपाय भी शामिल थे, लेकिन दुर्भाग्य से, इसे हक़ीक़त में नहीं बदला जा सका. 5 सितंबर 2005 को जब हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005, भारत के राष्ट्रपति की सहमति से पारित हुआ तब कहीं जाकर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में संपत्ति के अधिकारों के बारे में भेदभावपूर्ण प्रावधान हटाया जा सका. इस संदर्भ में, न्यायिक दृष्टिकोण से, सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में देश में एक यूसीसी होने के महत्व पर ज़ोर दिया है, जिसका विश्लेषण करने की आज ज़रूरत है. शाह बानो बेगम मामले से लेकर हाल ही में शायरा बानो बनाम भारत संघ के मामले में, जिसने तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक़) की प्रथा की वैधता पर सवाल उठाए और इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया .

शाह बानो बेगम मामले से लेकर हाल ही में शायरा बानो बनाम भारत संघ के मामले में, जिसने तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक़) की प्रथा की वैधता पर सवाल उठाए और इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया .

कई दशकों से विवादित मुद्दा

शुरुआत मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम और अन्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पति द्वारा उनके ख़िलाफ़ तलाक़ की घोषणा करने के बाद, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत रखरखाव के मुद्दे पर अपना फैसला सुनाया. इस मामले पर फैसला सुनाते हुए, मुख्य न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड़ ने कहा कि संसद को एक सामान्य नागरिक संहिता की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा साधन है जो कानून के समक्ष राष्ट्रीय सद्भाव और समानता की सुविधा प्रदान करता है. इसके बावजूद, सरकार ने इस मुद्दे के समाधान में अपनी सक्रियता नहीं दिखाई और 1986 में तलाक़ पर मुस्लिम महिला अधिकारों का संरक्षण अधिनियम ले आई.

पूर्व के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराधिकार के संदर्भ में यूसीसी के महत्व पर ज़ोर दिया, और बाद के मामले में यह माना गया कि गार्ज़ियन एंड वॉर्ड्स एक्ट 1890 के तहत ईसाई धर्म की सिंगल मदर, बच्चे के कुदरती बाप की सहमति के बिना भी अपने बच्चे की एकमात्र गार्ज़ियनशिप के लिए आवेदन कर सकती है.

अगले दशक तक, इस मुद्दे पर चुप्पी छाई रही लेकिन फिर सरला मुद्गल, अध्यक्ष, कल्याणी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य का मामला आया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से समान नागरिक संहिता को एक हिंदू मॉडल के रूप में देश की रक्षा और राष्ट्रीय एकता को सुनिश्चित करने के लिए इसे अमल में लाने का आग्रह किया. इसी तरह, लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और एबीसी बनाम द स्टेट (एनसीटी ऑफ दिल्ली) के मामलों का भी निपटारा किया गया. पूर्व के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराधिकार के संदर्भ में यूसीसी के महत्व पर ज़ोर दिया, और बाद के मामले में यह माना गया कि गार्ज़ियन एंड वॉर्ड्स एक्ट 1890 के तहत ईसाई धर्म की सिंगल मदर, बच्चे के कुदरती बाप की सहमति के बिना भी अपने बच्चे की एकमात्र गार्ज़ियनशिप के लिए आवेदन कर सकती है. इस संदर्भ में, अदालत ने समान नागरिक संहिता की कमी के चलते होने वाली समस्याओं की ओर इशारा किया था.
वर्तमान में, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), जो 2014 से सत्ता में है, ने अपने आम चुनावी घोषणापत्र में कहा था कि, “बीजेपी का मानना ​​​​है कि जब तक भारत एक समान नागरिक संहिता को नहीं अपनाता है, तब तक देश में लैंगिक समानता नहीं आ सकती है, यह देश की सभी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है और भाजपा एक समान नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करने के लिए प्रतिबद्ध है, जो सर्वोत्तम परंपराओं पर आधारित है और उन्हें आधुनिक समय के साथ सामंजस्य स्थापित करने का मौका देती है.”

हाल ही में वर्तमान सरकार ने विवाह के लिए बालिकाओं की आयु बढ़ाकर 21 वर्ष करने जैसे उपाय किये हैं, जो लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए एक सराहनीय कदम कहा जा सकता है.

वास्तविकता में, ऐसा नहीं हुआ है और हाल ही में वर्तमान सरकार ने विवाह के लिए बालिकाओं की आयु बढ़ाकर 21 वर्ष करने जैसे उपाय किये हैं, जो लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए एक सराहनीय कदम कहा जा सकता है. यह सोचने की ज़रूरत है कि यूसीसी लाकर महिलाओं सहित समाज के समग्र विकास को कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है और संविधान के अनुच्छेद 51 ए (एफ) और अनुच्छेद 51 ए (ई) के उद्देश्यों को कैसे संतुलित किया जा सकता है, जो मूल्य निर्धारण के पहलुओं से संबंधित है, और जो मिली-जुली संस्कृति और त्याग की समृद्ध विरासत को संरक्षित करता है और जो उन परंपराओं को ख़त्म करता है जो महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक हैं.
 


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समान नागरिक संहिता की तत्काल आवश्यकता
Rajesh Singh
August 1 , 2016  
हाल में भारत के लॉ कमीशन से जब केन्द्रीय सरकार ने रिपोर्ट मांगी तो एक बार फिर से ये बहस छिड़ गई कि क्या अब वक्त आ गया है जब भारत सभी नागरिकों के लिए चाहे वो किसी भी धर्म के हों, एक जैसी, समान नागरिक संहिता लागु कर सके ? पिछले महीने केन्द्रीय कानून और न्याय मंत्रालय ने कमीशन से कहा कि वो प्रस्तावित कानून के सभी पक्षों पर अपनी राय दे। ये कोई ऐसा मुद्दा नहीं जिसे जल्दबाजी में सुलझाया जा सकता हो। जैसा की अभी कानून मंत्री श्री सदानंद गौडा के बयान से इशारा मिलता है, कमीशन को इस रिपोर्ट को देने में “छह महीने से एक साल” तक का वक्त लग सकता है। एक बार जब रिपोर्ट आ जाती है तो फिर सभी राजनैतिक दलों के अलावा विभिन्न साझेदारों से भी इस मामले में चर्चा होगी। इस तरह जब मोटे तौर पर एक सहमती बनेगी, तभी समान नागरिक संहिता की संभावना किसी निश्चितता की शक्ल लेगी। इतने समय में, सरकार को भी अपनी दिशा बनाए रखना पड़ेगा ताकि मामले को एक सार्थक निष्कर्ष तक पहुँचाया जा सके। मंत्रालय के नए सदस्य के लिए ये एक चुनौती भरा काम होगा।

दुर्भाग्यवश, विभिन्न कारणों से, काफी हद तक तो क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों के कारण इस मुद्दे को हमेशा गैर जरूरी समझा जाता रहा है। इसलिए आजादी के समय से ही इसे ढक कर, दबा कर रखा गया। इसे ना सुलझाने का एक नुकसान ये भी हुआ है कि इसके कारण विभिन्न निजी स्वार्थों वाले दलों को इस मौके का फायदा मिल गया। उन्हों इसे धर्म से जोड़ने की कोशिश की, साथ ही इसपर भावनाएं भड़काने का प्रयास किया। एक तर्क जो अक्सर पेश किया जाता है वो ये है कि इस से देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक अधिकार छिन जायेंगे। इस संदेह को काफी पहले ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 को पढ़कर सुलझा लिया जाना चाहिए था, जहाँ ये स्पष्ट उल्लेख है कि समान नागरिक संहिता का उद्देश्य सभी समुदायों को “एक साझा मंच पर लाना है, जहाँ अभी अलग अलग नियम हैं लेकिन वो किसी धर्म का आधार नहीं, उदाहरण के तौर पर तलाक और तलाकशुदा पत्नी के जीवनयापन का खर्च” (भारत का संक्षिप्त संविधान: दुर्गा दास बासु)। इस तरह हम देख सकते हैं कि वो मुद्दे जो धर्म का “मूल तत्व” नहीं है सिर्फ वही समान नागरिक संहिता के अन्दर आयेंगे। कम शब्दों में कहा जाए तो अनुच्छेद 44 ने पहले ही समान नागरिक संहिता को धर्म से अलग करने का इंतजाम कर दिया है।

हमारे संविधान निर्माताओं का पूरे देश के लिए समान नागरिक संहिता का सपना – “राज्य अपने नागरिकों के लिए पूरे भारतवर्ष में एक समान नागरिक संहिता की स्थापना के लिए प्रयासरत रहेगा”, आज भी सपना ही रह गया क्योंकि अनुच्छेद 44 संविधान के भाग 4 का हिस्सा है, जो कि राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की बात करता है। यद्यपि संविधान नीति निर्देशक तत्वों को राज्य के सफल प्रशासन के लिए मौलिक मानता है, लेकिन साथ ही वो ये भी कहता है कि ये किसी न्यायालय द्वारा लागू नहीं किये जा सकते बल्कि ये विधायिका के जरिये ही लागू किये जायेंगे। इसके अलावा न्यायालय सर्कार को “बाध्य” नहीं कर सकती कि वो इन नीतियों को लागू करने के लिए कानून बनाये ही। यही कारण है कि जब स्वाई विधि (पर्सनल लॉ) का मुद्दा आता है तो न्यायपालिका के हाथ बंधे होते हैं। समान नागरिक संहिता के अभाव में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937, अपनी जगह पे बना हुआ है। लेकिन विभिन्न मामलों में बार बार इन्हें चुनौती भी दी जा रही है – ख़ास तौर पर उन मामलों में जहाँ याचिकाकर्ताओं के मूल अधिकारों का ऐसे कानूनों के कारण हनन होता है।

लगातार बढ़ते इस असंतोष के कारण न्यायालयों ने इसपर एक दूसरा रुख लिया : संविधान द्वारा सुनिश्चित अधिकारों के हनन का मसला। लगभग सभी ऐसे मामले विवाह, बहुविवाह, तलाक, निर्वाह निधि जैसे मामलों के हैं – साथ ही मुस्लिम महिलाएं ऐसे मामलों में अदालती हस्तक्षेप की मांग कर रही हैं। इन सभी ने अपने साथ मजहब की आड़ में संवैधानिक अधिकारों के हनन की शिकायत की है, ये मुस्लिम स्वाई विधि के दुरुपयोग की शिकायत कर रही हैं। ये अब लैंगिक भेदभाव का मसला बन गया है जहाँ मुस्लिम महिलाओं की शिकायत है कि इस्लामिक कानूनों की आड़ में उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन हो रहा है। महिला आन्दोलनकारियों में अभी इस बात को लेकर थोड़ा मतभेद है कि उन्हें इस्लामिक कानूनों के अन्दर अपने लिए कुछ सहूलियतें चाहिए या फिर वो ये मानती हैं कि कट्टरपंथी मुल्लाओं के रहते, एक समान नागरिक संहिता ही उन्हें न्याय दिला सकती है।

सर्वोच्च न्यायलय पहले ही इस बात पर राज़ी है कि वो इस बात की जांच करेगा कि क्या शादी और विरासत के अधिकार के इस्लामिक कानून भारत की मुस्लिम महिलाओं के मूल अधिकारों का हनन करते हैं या नहीं। पिछले सालों में ऐसे कई मामलों से अदालतों को निपटना पड़ा है। साल 1995 में अदालत को सरला मुद्गल और भारत राष्ट्र के बीच एक मुक़दमे का फैसला करना पड़ा। ये मामला एक हिन्दू पुरुष के मुस्लिम बनकर दूसरी शादी करने का था (अदालत ने कहा कि हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के हिसाब से उसने पहली शादी से तलाक नहीं लिया था इसलिए दूसरा विवाह निरस्त किया गया), इस्मने भी जज ने सरकार को संविधान के अनुच्छेद 44 को लागू करने को कहा।

इसी वर्ष (2016) के अप्रैल में, शायरा बानो ने सर्वोच्च न्यायलय का दरवाजा खटखटाया और तीन तलाक और बहु विवाह पर पाबन्दी लगाने की मांग की।उन्होंने अदालत को बताया कि उनके ससुराल वालों ने पहले तो उसे और उसके माता-पिता को कार और दहेज़ के लिए तंग करना शुरू किया। धीरे धीरे जब स्थिति असहनीय हो गई तो वो अपने माँ-बाप के घर आई, एक दिन वहीँ उसे एक तलाकनामा ख़त के जरिये मिला। स्थानीय मौलवी के मुताबिक कागज़ दुरुस्त तलाक था। ऐसे में वो न्यायालय में इन्साफ की गुहार लगाने आई थी।

एक महीने बाद अफरीन रहमान ने ऐसी ही वजहों से सर्वोच्च न्यायलय का दरवाजा खटखटाया। उन्हें भी उनके शौहर ने तलाक के कागज़ स्पीड पोस्ट से भेज दिए थे जब वो दहेज़ की मांग से परेशान होकर अपने ससुराल से आई थी।

इन घटनाओं से हमें 1985 के सर्वोच्च न्यायलय द्वारा शाहबानो मामले के परिवर्तनकारी फैसले और उसके बाद की घटनाओं की याद हो आती है। तलाकशुदा शाहबानो जब सर्वोच्च न्यायलय गई तो उसे निर्वाह निधि मिल गई। सर्वोच्च न्यायलय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत मुस्लिम महिला को तलाक के बाद गुजारा भत्ता पाने के अधिकार को मान्यता दी। इस बात से कट्टरपंथी मुस्लिम जमात और कई मौलाना नाराज़ हो गए, उनका मानना था कि ये उनके इस्लामिक नियमों के खिलाफ है। अगर केंद्र सर्कार ने दृढ़ता दिखाई होती तो इस्लामिक कानूनों के जरिये महिलाओं के शोषण का मामला 30 साल पहले ही सुलझ गया होता। दुर्भाग्यवश उन दिनों की सरकार इस्लामिक कट्टरपन्थियों के आगे झुक गई – उन्होंने मुस्लिम महिलाएं (तलाक के अधिकार) एक्ट, 1986 लाया, जो कि सर्वोच्च न्यायलय के नियमों को पलट कर मुस्लिम महिलाओं को बाकी सभी महिलाओं के अधिकारों से वंचित करता था। सरकार ने इस से अपना वोट बैंक शायद बचा लिया हो, लेकिन उन्होंने सुधर की प्रक्रिया को जारी रखने का एक सुनहरा मौका खो दिया। ये एक विशेष समुदाय की महिलाओं को बराबरी के अधिकार दिलाने का अवसर खोना था।

इस घटना के करीब 17 साल बाद एक और ऐसी ही घटना में सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया वो मील का पत्थर साबित हुआ। ये मुकदमा था शमिन आरा बनाम उत्तर प्रदेश सरकार का मुकदमा। इसने गैरजिम्मेदाराना तरीके से दिए गए तलाक को अवैध करार देते हुए जैसा कुरआन में लिखा था बिलकुल वैसे तलाक देने का फैसला दिया। इस फैसले से होना तो ये चाहिए था कि गलत तरीकों से तलाक पर रोक लग जाती। जो चिट्ठी या स्पीड पोस्ट (अब तो ईमेल भी) से तलाक के कागज़ भिजवा देने की प्रथा शुरू हो गई थी, जिस से मुस्लिम महिलाओं को अदालती कारवाही से पहले ही गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया जाता था वो बंद हो जाए। जस्टिस कृष्णा अय्यर ने एक फैसले में (यूसुफ़ रवठेर बनाम सोवराम्मा) ये टिप्पणी की थी की “ये ख़याल कि मुस्लिम पति अपनी पत्नी पर तलाक देने का एकतरफा अधिकार होता है ये इस्लामिक आदेशों के अनुरूप नहीं है...”। अभी हाल के एक फैसले, विश्व लोचन मदन बनाम भारत सरकार(2014) में सर्वोच्च न्यायलय ने कहा कि फ़तवे उस व्यक्ति को बाध्य नहीं करते जो फतवा मांगने गया हो। इस अदालत ने लेकिन, ऐसे कामों पर कोई रोक नहीं लगे, इस तरह इस्लामिक कानूनों के जरिये ऐसे वहम को फैलाना बदस्तूर जारी रहा।

इन सभी पे एक नजर डालना आज इसलिए भी जरूरी है ताकि समझा जा सके कि अदालत के विस्तृत आदेशों और स्पष्टीकरण के वाबजूद ये फैसले मुस्लिम महिलाओं के साथ तलाक और गुजारे भत्ते के मामले निपटाने में शायद ही कुछ कर पाए हैं। उन्हें आज भी इस्लामिक कानूनों के नाम पर भेदभाव और शोषण झेलना पड़ रहा है। उस से भी बुरी बात ये है कि मुस्लिम उलेमा और मौलाना, जो शरिया जानते हैं उन्हें पता होना चाहिए कि जो महिलाएं अदालत का दरवाजा खटखटाने आई हैं (और बहुत सी जो नहीं आई हैं) उन सब को नैन्सफी झेलनी पड़ी है। मौलाना और मुफ़्ती जब अपने आप को न्यायिक प्रक्रिया के खिलाफ खड़ा कर लेते हैं तो जो समान नागरिक संहिता के पक्ष में हैं, उनकी दलील और मजबूत हो जाती है।

ये लड़ाई सिर्फ अदालतों में ही नहीं बल्कि मुस्लिम समुदाय के अन्दर भी चल रही है। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में किसी भी किस्म की छेड़ छाड़ के खिलाफ सलाह देते हुए कहा है, कि ये मुस्लिम समाज को अपने व्यवहार के मामलों में शरिया लागू करने पर पाबन्दी है। दूसरी तरफ आल इंडिया मुस्लिम वुमन पर्सनल लॉ बोर्ड, जो कि 2005 में बना था, वो तलाक और बहुविवाह पर क़ानूनी हस्तक्षेप का पक्षधर है। उनका कहना है कि मुस्लिम उलेमाओं ने शरिया की गलत व्याख्या कर के मुस्लिम समुदाय के ऊपर पकड़ मजबूत करने की कोशिश की है। ऐसा प्रतीत होता है कि वो भारत की ज्यादातर मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। मुंबई से काम करने वाल भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन ने जब 2013 में एक सर्वेक्षण करवाया तो करीब 92% महिलाओं का कहना था कि तीन तलाक जो की कथित रूप से इस्लामिक कानूनों में जायज है उसे पूरी तरह प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।

इस लड़ाई ने राजनैतिक रूप भी ले लिया है। जैसे ही सरकार ने न्यायिक आयोग से समान नागरिक संहिता पर उनकी रिपोर्ट और राय मांगी, वरिष्ठ कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने इसे “स्टंटबाजी” करार दिया। एक टिप्पणी में, द हिन्दू नामक दैनिक से बात करते हुए उन्होंने पुछा, “क्या (भाजपा नेतृत्व की एन.डी.ए.) सरकार ने इस मुद्दे को राजनैतिक अखाड़े में फेंकने से पहले क्या कदम उठाये हैं ?” इसके साथ ही उन्होंने जोड़ा, “अगर सरकार ने कुछ सकारात्मक कदम उठायें हों, तो हो सकता है इस मुद्दे को किसी निष्कर्ष तक पहुँचाया जा सके”।

लेकिन राजनीती तो इस मामले में तभी से है जब से शाहबानो का मामला हुआ था। अभी हाल में सर्वोच्च न्यायलय के पूर्व जज ए.आर. लक्ष्मणन, जो कि न्यायिक कमीशन के प्रमुख भी रह चुके हैं जब विवाह के निबंधन पर 211वीं और गैर न्यायिक विवाह पर 212वीं रिपोर्ट जमा हुई, उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस अख़बार को दिए साक्षात्कार में बताया कि उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व वाली यु.पी.ए. सर्कार को ये अनुशंसा की थी कि सभी शादियों और तलाक के मामलों को एक कानून के तहत लाया जाए। “हर चीज़ को सरकार ने ठन्डे बस्ते में दाल दिया। उम्झे बहुत खेद हुआ जब एक समान नागरिक संहिता के साध्य होने की जांच के लिए कोई प्रयास नहीं किये गए”, उन्होंने खेद जताते हुए कहा था।

इस मामले में झुंझलाने वाली बात ये भी है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के कानून वहीँ के वहीँ हैं, जबकि हिन्दुओं के कानूनों में कई बार फेरबदल हो चूका है। जब हिन्दू कोड बिल लाया गया तो वो भी संविधान सभा में गरमा गर्म बहस का मुद्दा था, लेकिन जब तक वो लोक सभा के सामने आया (1952-57 सत्र में) तब तक उसे तीन अलग अलग बिल में तोडा जा चुका था। ये अन्य चीज़ों के अलावा बहुविवाह को प्रतिबंधित करता था और बेतिओं को विधवा और बेटों के बराबरी की विरासत देता था। उस दौर में भी कई ऐसे ‘हिन्दुत्ववादी’ सदस्य थे जो जवाहरलाल नेहरू की ‘धर्मनिरपेक्ष’ सरकार के इन कदमों को भारत के हिन्दू समाज के विवाह और विरासत सम्बन्धी परंपरागत नियमों के लिए एक खतरा मानते थे। लेकिन असंतोष का एक बड़ा कारण दोहरी नीतियां भी हैं – जहाँ एक और इस्लामिक कानूनों को छुआ भी नहीं गया वहां हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था में अमूल चूल परिवर्तन कर दिए गए। विख्यात राष्ट्रवादी नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि “सरकार की हिम्मत नहीं पड़ी कि वो मुस्लिम समुदाय को छु भी सके”। कहा जाता है कि नेहरु के समर्थन में उन्होंने मुस्लिम कानूनों को जस का तस छोड़ देने का फैसला किया था ताकि अल्पसंख्यक समुदाय को भारत के आजादी के बाद भारत में घुल मिल जाने का मौका मिल सके। नेहरु के समर्थक कहते हैं कि वो हिन्दुओं के कानून में जितने सुधार चाहते थे उतने नहीं हुए, क्योंकि उन्हें मुख़र्जी और राजेन्द्र प्रसाद जैसे कई नेताओं के सामने झुकना पड़ा। उनकी दलील है कि हिन्दुओं के कानूनों के अन्दर भी विवाह और भत्ते के मामलों में भेदभाव है, हालाँकि सुधार किये गए हैं। हो सकता है ऐसा हो, लेकिन एक समान नागरिक संहिता के होने से वो भी हट जाएगा। चाहे इस मामले पर जितनी भी बात की जाए, इतना तो तय है कि इस मुद्दे पर दोहरी नीतियां अपनाई गई हैं।

(लेखक जनहित मामलों के वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)

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