क्या एकनाथ शिंदे, मायावती और उद्धव की तरह आत्मघाती राजनीति की राह पर ?

क्या एकनाथ शिंदे, मायावती और उद्धव की तरह आत्मघाती राजनीति की राह पर हैं ? 

देश में भारतीय जनता पार्टी को स्वीकारोक्ति उसके राष्ट्र प्रथम के भाव के कारण मिल रही है । जब जनसंघ ने 3 सीटों से राजनैतिक यात्रा प्रारंभ की थी तब भी उसके लिए राष्ट्र प्रथम था और जब वह बदल कर भारतीय जनता पार्टी हुई तब भी उसके लिए राष्ट्र प्रथम है । इसी कारण भाजपा का आदर और जन स्वीकृति निरन्तर प्रगति कर रही है । वहीं निरन्तर राष्ट्रहित के भाव की अनदेखी करने वाली कांग्रेस अब हंसिये पर अपने अस्तित्व के संघर्ष कर रही है । 

महाराष्ट्र में भाजपा अस्तित्व को लगातार तीसरीबार चुनोती 

महाराष्ट्र में भाजपा लगातार तीसरीबार सबसे बड़ा दल है जो निरन्तर 100 से अधिक संख्याबल  पर बना हुआ है । किंतु यह बात वहां के अन्य  दल स्वीकार नहीं कर पा रहे । पहले उद्धव अलग होकर लड़े तब भी वे भाजपा से पिछड़ गए थे , भाजपा के साथ लड़े तब भी वे पीछे थे और अब भाजपा के सामने आकर लड़े तो लगभग समाप्त प्रायः हैं । कुल मिला कर महाराष्ट्र तो भाजपा के राष्ट्रवाद के साथ लगातार तीन चुनावों से खड़ा है । किन्तु उसे अस्वीकृत दल स्वीकार नहीं पा रहे ।

एकनाथ को आवश्यकता से अधिक मिलजाने से हुआ मतिभ्रम 

शिवसेना जब मुख्यमंत्री पद के लिए अपने प्रखर हिंदुत्व के मुद्दे को छोड़ कर हिंदुत्व को समाप्त करने की कोशिशें कर रही कांग्रेस के साथ खड़ी हुई तो उनके विधायकों में विद्रोह हुआ और इस विद्रोह को सफलता सिर्फ इसलिए मिली कि केंद्र में हिन्दू विचारों की सरकार थी । जब इस विद्रोही गुट से मिल कर महाराष्ट्र में सरकार बनाई गई तब नेतृत्व भाजपा को अपने पास रखना चाहिए था । किंतु उन्होंने बड़े मन से मुख्यमंत्री पद एकनाथ शिंदे को दे दिया, यह चलती ठीक वैसी ही थी जैसी मायावती को मुख्यमंत्री बनाने की थी । शिंदे को वह मिल गया था जिसकी कल्पना भी उन्होंने कभी नहीं की थी । यह मद उन्हें आगे भी उसी तरह परेशान करेगा जिस तरह मायावती और उद्धव परेशान हुये । क्योंकि कल को शिवसेना शिंदे गुट में भी दो फाड़ हो सकती हैं क्योंकि शिंदे अभी नए नए नेता हैं भाजपा की पिच पर वे मुख्यमंत्री पद का आनंद ले रहे थे , वे कभी स्वयं के दम पर मुख्यमंत्री बनजाएँगे यह लगता नहीं । 

एकनाथ शिंदे का राजनीतिक परिदृश्य 

एकनाथ शिंदे ने हाल ही में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के नाते अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने शिवसेना पार्टी के एक धड़े का नेतृत्व किया और भाजपा के साथ मिलकर सरकार गठबन्धन कायम रखने में सफल रहे। हालाँकि, उनके द्वारा अब जो असंतुष्टता जाहिर की जारही है वह आत्मघाती राजनीति की ओर भी इशारा कर रही हैं । 

• सहयोगियों के साथ संबंध : यदि शिंदे भाजपा अलग तरीके से अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने का प्रयास करते हैं, तो यह उनके लिए आत्मघाती साबित हो सकता है। वे अस्थिरता के भंवर में फंस सकते हैं ।  जिस तरह से मायावती ने अपने सहयोगियों से अलग होकर अपने आपको अकेले  कर लिया था और अंततः सब कुछ खत्म कर लिया । यह उनकी अहंकारी फैसलों के कारण हुआ  था, उसी तरह अगर शिंदे भी ऐसा करते हैं तो उन्हें भी भारी नुकसान हो सकता है। 

• इंटरनल डिविजन : बगावत करने के बाद शिंदे ने पार्टी में भी इंटरनल गुट तो हैं ही, उनके अधिकांश विधायक भाजपा के करीब वैचारिक आधार पर हैं । अगर शिंदे अलग होने की तरफ बड़े तो जरूरी नहीं कि उनका यह संख्या बल बना रहे । यदि उनकी पार्टी में असंतोष उत्पन्न हुआ या अन्य नेता दूर होते  हैं, तो यह उनके लिए विनाशकारी क्षति का कारण भी बन सकता है। 

• जनता की विशिष्टताएँ : जनता की विशिष्टताएँ हमेशा मुख्य घटक से जुड़ी होती हैं। जो लगभग 10 साल से लेकर वर्तमान तक में भाजपा है । यदि शिंदे  मुख्यमंत्री नहीं बन पा रहे हैं तो भी उन्हें भाजपा के साथ ही चलना होगा अन्यथा जनमत उन्हें अलग से फिलहाल स्वीकार नहीं कर रहा है । यह सब  मायावती नें भी और उद्धव नें भी झेल लिया है । इसी रास्ते पर पर शिंदे का आगे बढ़ना आत्मघाती होगा । 

निष्कर्ष :- 

इस प्रकार, एकनाथ शिंदे की राजनीति में कुछ ऐसे संकेत दिखाई देते हैं जो  आत्मघाती हो सकते हैं। हालाँकि, अभी तक यह नहीं कहा गया है कि वे पूरी तरह से गठबन्धन छोड़ रहे हैं । गुलजारीलाल नंदा समय परिस्थितियों में कार्यवाहक प्रधानमंत्री बना दिये जाते थे मगर वे कभी इस बात पर नहीं अड़े की उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाया जाए । यह बात शिंदे को भी समझनी चाहिए । 

उनका भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि वे अपने सहयोगियों के साथ कैसे संबंध बनाएं और जनता की जरूरतों को कैसे पूरा करें। पद के साथ मद तो आता है मगर उसे हावी नहीं होने देना चाहिए ।

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