वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के परिजन इंदौर में Rani Laxmibai's family in Indore
Veerangana Rani Laxmibai's family in Indore
19 नवम्बर : झांसी की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की जयंती है ।
19 नवम्बर : झांसी की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की जयंती है ।
इंदौर में रहते थे रानी लक्ष्मीबाई के बेटे, हर पल रहती थी अंग्रेजों की नजर दामोदर के बारे में कहा जाता है कि इंदौर के ब्राह्मण परिवार ने उनका लालन-पालन किया था।
ग्वालियर/इंदौर। 18 जून को झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि है। dainikbhaskar.com
उनके खास व्यक्तित्व, गौरवशाली इतिहास और अन्य पहलुओं से आपको रूबरू करा रहा है।
इतिहास की ताकतवर महिलाओं में शुमार रानी लक्ष्मी बाई के बेटे का जिक्र इतिहास में भी बहुत कम हुआ है। यही वजह है कि यह असलियत लोगों के सामने नहीं आ पाई। रानी के शहीद होने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें इंदौर भेज दिया था। उन्होंने बेहद गरीबी में अपना जीवन बिताया। अंग्रेजों की उनपर हर पल नजर रहती थीं। दामोदर के बारे में कहा जाता है कि इंदौर के ब्राह्मण परिवार ने उनका लालन-पालन किया था।
इतिहास में जब भी पहले स्वतंत्रता संग्राम की बात होती है तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जिक्र सबसे पहले होता है। रानी लक्ष्मीबाई के परिजन आज भी गुमनामी का जीवन जी रहे हैं। 18 जून 1858 में ग्वालियर में रानी शहीद हो गई थी। रानी के शहीद होते ही वह राजकुमार गुमनामी के अंधेरे में खो गया जिसको पीठ बांधकर उन्होंने अंग्रेजो से युद्ध लड़ा था। इतिहासकार कहते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई का परिवार आज भी गुमनामी की जिंदगी जी रहा है। दामोदर राव का असली नाम आनंद राव था। इसे भी बहुत कम लोग जानते हैं। उनका जन्म झांसी के राजा गंगाधर राव के खानदान में ही हुआ था।
500 पठान थे अंगरक्षक
दामोदर राव जब भी अपनी मां झांसी की रानी के साथ महालक्ष्मी मंदिर जाते थे, तो 500 पठान अंगरक्षक उनके साथ होते थे। रानी के शहीद होने के बाद राजकुमार दामोदर को मेजर प्लीक ने इंदौर भेज दिया था। पांच मई 1860 को इंदौर के रेजिडेंट रिचमंड शेक्सपियर ने दामोदर राव का लालन-पालन मीर मुंशी पंडित धर्मनारायण कश्मीरी को सौंप दिया। दामोदर राव को सिर्फ 150 रुपए महीने पेंशन दी जाती थी।
28 मई 1906 को इंदौर में हुआ था दामोदर का निधन
लोगों का यह भी कहना है कि दामोदर राव कभी 25 लाख रुपए की सालाना आय वाली रियासत के मालिक थे, जबकि दामोदर के असली पिता वासुदेव राव नेवालकर के पास खुद चार से पांच लाख रुपए सालाना आमदनी की जागीर थी। बेहद संघर्षों में जिंदगी जीने वाली दामोदर राव 1848 में पैदा हुए थे। उनका निधन 28 मई 1906 को इंदौर में बताया जाता है।
इंदौर में हुआ था दामोदर राव का विवाह
रानी लक्ष्मीबाई के बेटे के निधन के बाद 19 नवंबर 1853 को पांच वर्षीय दामोदर राव को गोद लिया गया था। दामोदर के पिता वासुदेव थे। वह बाद में जब इंदौर रहने लगे तो वहां पर ही उनका विवाह हो गया दामोदर राव के बेटे का नाम लक्ष्मण राव था। लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।
लक्ष्मण राव को बाहर जाने की नहीं थी इजाजत
23 अक्टूबर वर्ष1879 में जन्मे दामोदर राव के पुत्र लक्ष्मण राव का चार मई 1959 को निधन हो गया। लक्ष्मण राव को इंदौर के बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। इंदौर रेजिडेंसी से 200 रुपए मासिक पेंशन आती थी, लेकिन पिता दामोदर के निधन के बाद यह पेंशन 100 रुपए हो गई। वर्ष 1923 में 50 रुपए हो गई। 1951 में यूपी सरकार ने रानी के नाती यानी दामोदर राव के पुत्र को 50 रुपए मासिक सहायता आवेदन करने पर दी थी, जो बाद में 75 रुपए कर दी गई।
जंगल में भटकते रहे दामोदर राव
इतिहासकार ओम शंकर असर के अनुसार, रानी लक्ष्मीबाई दामोदर राव को पीठ से बांध कर चार अप्रैल 1858 को झांसी से कूच कर गई थीं। 18 जून 1858 को तक यह बालक सोता-जागता रहा। युद्ध के अंतिम दिनों में तेज होती लड़ाई के बीच महारानी ने अपने विश्वास पात्र सरदार रामचंद्र राव देशमुख को दामोदर राव की जिम्मेदारी सौंप दी। दो वर्षों तक वह दामोदर को अपने साथ लिए रहे। वह दामोदर राव को लेकर ललितपुर जिले के जंगलों में भटके।
पहले किया गिरफ्तार फिर भेजा इंदौर
दामोदर राव के दल के सदस्य वेश बदलकर राशन का सामान लाते थे। दामोदर के दल में कुछ उंट और घोड़े थे। इनमें से कुछ घोड़े देने की शर्त पर उन्हें शरण मिलती थी। शिवपुरी के पास जिला पाटन में एक नदी के पास छिपे दामोदर राव को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर उन्हें मई, 1860 में अंग्रेजों ने इंदौर भेज दिया गया था। बताया जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई के परिजन आज भी इंदौर में गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। परिवार के सदस्य प्रदेश के पुलिस विभाग में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
इतिहास में जब भी पहले स्वतंत्रता संग्राम की बात होती है तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जिक्र सबसे पहले होता है। रानी लक्ष्मीबाई के परिजन आज भी गुमनामी का जीवन जी रहे हैं। 18 जून 1858 में ग्वालियर में रानी शहीद हो गई थी। रानी के शहीद होते ही वह राजकुमार गुमनामी के अंधेरे में खो गया जिसको पीठ बांधकर उन्होंने अंग्रेजो से युद्ध लड़ा था। इतिहासकार कहते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई का परिवार आज भी गुमनामी की जिंदगी जी रहा है। दामोदर राव का असली नाम आनंद राव था। इसे भी बहुत कम लोग जानते हैं। उनका जन्म झांसी के राजा गंगाधर राव के खानदान में ही हुआ था।
500 पठान थे अंगरक्षक
दामोदर राव जब भी अपनी मां झांसी की रानी के साथ महालक्ष्मी मंदिर जाते थे, तो 500 पठान अंगरक्षक उनके साथ होते थे। रानी के शहीद होने के बाद राजकुमार दामोदर को मेजर प्लीक ने इंदौर भेज दिया था। पांच मई 1860 को इंदौर के रेजिडेंट रिचमंड शेक्सपियर ने दामोदर राव का लालन-पालन मीर मुंशी पंडित धर्मनारायण कश्मीरी को सौंप दिया। दामोदर राव को सिर्फ 150 रुपए महीने पेंशन दी जाती थी।
28 मई 1906 को इंदौर में हुआ था दामोदर का निधन
लोगों का यह भी कहना है कि दामोदर राव कभी 25 लाख रुपए की सालाना आय वाली रियासत के मालिक थे, जबकि दामोदर के असली पिता वासुदेव राव नेवालकर के पास खुद चार से पांच लाख रुपए सालाना आमदनी की जागीर थी। बेहद संघर्षों में जिंदगी जीने वाली दामोदर राव 1848 में पैदा हुए थे। उनका निधन 28 मई 1906 को इंदौर में बताया जाता है।
इंदौर में हुआ था दामोदर राव का विवाह
रानी लक्ष्मीबाई के बेटे के निधन के बाद 19 नवंबर 1853 को पांच वर्षीय दामोदर राव को गोद लिया गया था। दामोदर के पिता वासुदेव थे। वह बाद में जब इंदौर रहने लगे तो वहां पर ही उनका विवाह हो गया दामोदर राव के बेटे का नाम लक्ष्मण राव था। लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।
लक्ष्मण राव को बाहर जाने की नहीं थी इजाजत
23 अक्टूबर वर्ष1879 में जन्मे दामोदर राव के पुत्र लक्ष्मण राव का चार मई 1959 को निधन हो गया। लक्ष्मण राव को इंदौर के बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। इंदौर रेजिडेंसी से 200 रुपए मासिक पेंशन आती थी, लेकिन पिता दामोदर के निधन के बाद यह पेंशन 100 रुपए हो गई। वर्ष 1923 में 50 रुपए हो गई। 1951 में यूपी सरकार ने रानी के नाती यानी दामोदर राव के पुत्र को 50 रुपए मासिक सहायता आवेदन करने पर दी थी, जो बाद में 75 रुपए कर दी गई।
जंगल में भटकते रहे दामोदर राव
इतिहासकार ओम शंकर असर के अनुसार, रानी लक्ष्मीबाई दामोदर राव को पीठ से बांध कर चार अप्रैल 1858 को झांसी से कूच कर गई थीं। 18 जून 1858 को तक यह बालक सोता-जागता रहा। युद्ध के अंतिम दिनों में तेज होती लड़ाई के बीच महारानी ने अपने विश्वास पात्र सरदार रामचंद्र राव देशमुख को दामोदर राव की जिम्मेदारी सौंप दी। दो वर्षों तक वह दामोदर को अपने साथ लिए रहे। वह दामोदर राव को लेकर ललितपुर जिले के जंगलों में भटके।
पहले किया गिरफ्तार फिर भेजा इंदौर
दामोदर राव के दल के सदस्य वेश बदलकर राशन का सामान लाते थे। दामोदर के दल में कुछ उंट और घोड़े थे। इनमें से कुछ घोड़े देने की शर्त पर उन्हें शरण मिलती थी। शिवपुरी के पास जिला पाटन में एक नदी के पास छिपे दामोदर राव को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर उन्हें मई, 1860 में अंग्रेजों ने इंदौर भेज दिया गया था। बताया जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई के परिजन आज भी इंदौर में गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। परिवार के सदस्य प्रदेश के पुलिस विभाग में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
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Jhansi's queen Lakshmibai great-grandson
महाश्वेता देवी की पुस्तक ‘झांसी की रानी’ के अनुसार 1870 में इंदौर में अकाल पड़ा था। इस दौरान दामोदर राव एक सूदखोर महाजन के कर्ज में फंस गए। दामोदर राव ने सहायता के लिए इंदौर के रेजीडेंट जनरल से कई बार निवेदन किया, लेकिन मदद नहीं मिली।
नहीं माना गया स्वतंत्रता सेनानी आश्रित भी..
इसके बाद दामोदर राव ने तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड नोर्थब्रुक से अनुरोध किया। उनके निर्देश पर रेजीडेंट ने उन्हें एक मुश्त दस हजार रुपये और दो सौ रुपये मासिक पेंशन देना स्वीकृत की। उनकी मृत्यु के बाद 100 रुपये मासिक पेंशन उनके पुत्र लक्ष्मण राव को भी मिली। आजाद भारत होते ही सारी सुविधाएं छीन ली गईं।
लक्ष्मण राव के प्रपौत्र योगेश राव के अनुसार देश की आजादी के बाद उनके परिजनों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आश्रित का प्रमाण पत्र भी नहीं मिला, इस कारण उन्हें वह सुविधाएं भी नहीं मिलीं जो स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रितों को मिल रही हैं।
स्थिति यह रही कि उनके दादाजी कृष्ण राव को आजाद भारत में इंदौर की कचहरी में टाइपिस्ट का कार्य कर अपने परिवार का भरण पोषण करना पड़ा।
महाश्वेता देवी की पुस्तक ‘झांसी की रानी’ के अनुसार 1870 में इंदौर में अकाल पड़ा था। इस दौरान दामोदर राव एक सूदखोर महाजन के कर्ज में फंस गए। दामोदर राव ने सहायता के लिए इंदौर के रेजीडेंट जनरल से कई बार निवेदन किया, लेकिन मदद नहीं मिली।
नहीं माना गया स्वतंत्रता सेनानी आश्रित भी..
इसके बाद दामोदर राव ने तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड नोर्थब्रुक से अनुरोध किया। उनके निर्देश पर रेजीडेंट ने उन्हें एक मुश्त दस हजार रुपये और दो सौ रुपये मासिक पेंशन देना स्वीकृत की। उनकी मृत्यु के बाद 100 रुपये मासिक पेंशन उनके पुत्र लक्ष्मण राव को भी मिली। आजाद भारत होते ही सारी सुविधाएं छीन ली गईं।
लक्ष्मण राव के प्रपौत्र योगेश राव के अनुसार देश की आजादी के बाद उनके परिजनों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आश्रित का प्रमाण पत्र भी नहीं मिला, इस कारण उन्हें वह सुविधाएं भी नहीं मिलीं जो स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रितों को मिल रही हैं।
स्थिति यह रही कि उनके दादाजी कृष्ण राव को आजाद भारत में इंदौर की कचहरी में टाइपिस्ट का कार्य कर अपने परिवार का भरण पोषण करना पड़ा।
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लक्ष्मीबाई के बेटे दावेदार राव की मृत्यु कब और कहां हुई
दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे। यहां उनकी चाची (जो दामोदर राव की असली मां थी क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई ने दामोदर को गोद लिया था) ने उनका विवाह करवा दिया लेकिन कुछ समय बाद ही दामोदर राव की पहली पत्नी का निधन हो गया।दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया।
लक्ष्मीबाई के बेटे दामोदर राव के वंशज कहां है क्या करते हैं
अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए।
कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा
चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।
दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं। लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे। अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है।
दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे। यहां उनकी चाची (जो दामोदर राव की असली मां थी क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई ने दामोदर को गोद लिया था) ने उनका विवाह करवा दिया लेकिन कुछ समय बाद ही दामोदर राव की पहली पत्नी का निधन हो गया।दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया।
लक्ष्मीबाई के बेटे दामोदर राव के वंशज कहां है क्या करते हैं
अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए।
कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा
चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।
दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं। लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे। अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है।
नोट
- झांसी की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के वंशजों को जो भी जानते हों वे
उनके विषय में अवश्य हमें बतायें । उनके कान्टेक्ट नम्बर एवं पता बतायें ।
इस महान वंशजों से मुलाकात भी हमारे लिये महान अवसर होगा ।
- 9414180151Veerangana Rani Laxmibai's family in Indore
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ग्वालियर के इतिहासकार लाल बहादुर सोमवंशी के मुताबिक झांसी से रानी कालपी पहुंचीं जहां पेशवा ने रानी को जरूरत के अनुसार अपनी सेना और हथियार दिए. यहां से राव साहेब पेशवा, तात्या टोपे और लक्ष्मी बाई ने ग्वालियर जाने का फैसला किया. इधर तात्या और रानी की संयुक्त सेनाओं के ग्वालियर आने की खबर सुन कर अंग्रेजों से नाराज ग्वालियर की सेना ने विद्रोह कर दिया. एक जून की शाम ग्वालियर की विद्रोही सेना की मदद से रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर शहर के घास मंडी की तरफ से ग्वालियर के किले को घेर लिया. 2 जून को सुबह ग्वालियर की सेना द्वारा बताई गई किले की कमजोर दीवार को तोड़ कर रानी की विद्रोही सेना ने किले पर कब्जा कर लिया. ग्वालियर के तत्कालीन महाराजा जयाजीराव सिंधिया ग्वालियर छोड़कर अंग्रेजों से मदद मांगने आगरा चले गए. ग्वालियर किले पर विजय की खबर सुनकर बिठूर से नाना साहेब पेशवा भी ग्वालियर किले पर रानी से आ मिले.
रानी लक्ष्मीबाई जानती थीं कि जब तक ग्वालियर की सेना उनके साथ है वो अंग्रेजों को घेरकर हरा सकती हैं. रानी को ये भी मालूम था कि अंग्रेजी हुकूमत से जुड़े लोग जयाजी राव सिंधिया को सैनिक मदद देकर आगरा से ग्वालियर भेजेंगे. लिहाज़ा विद्रोहियों की सेना का मनोबल बना रहे इसके लिए रानी अंग्रेज सैनिक आने से पहले ही ग्वालियर पर पूरी तरह कब्जा करना चाहती थीं. लेकिन इस दौरान नाना किले में ही आमोद-प्रमोद में डूब गए. जिससे अंग्रेज सैनिकों को इकट्ठा होने का मौका मिल गया. रानी की आशंका के मुताबिक ही अंग्रेजों ने जयाजीराव को आगे कर ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया. ग्वालियर की सेना ने हथियार डाल दिए. रानी को किले से बाहर निकलना पड़ा, भयंकर युध्द में रानी की शहादत हुई. रानी के बलिदान के बाद आजादी के लिए लड़ रही सेना तितर-बितर हो गई. कहते हैं कि रानी ने दोनों हाथों में तलवार लेकर युद्ध लड़ा.
रानी लक्ष्मीबाई जानती थीं कि जब तक ग्वालियर की सेना उनके साथ है वो अंग्रेजों को घेरकर हरा सकती हैं. रानी को ये भी मालूम था कि अंग्रेजी हुकूमत से जुड़े लोग जयाजी राव सिंधिया को सैनिक मदद देकर आगरा से ग्वालियर भेजेंगे. लिहाज़ा विद्रोहियों की सेना का मनोबल बना रहे इसके लिए रानी अंग्रेज सैनिक आने से पहले ही ग्वालियर पर पूरी तरह कब्जा करना चाहती थीं. लेकिन इस दौरान नाना किले में ही आमोद-प्रमोद में डूब गए. जिससे अंग्रेज सैनिकों को इकट्ठा होने का मौका मिल गया. रानी की आशंका के मुताबिक ही अंग्रेजों ने जयाजीराव को आगे कर ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया. ग्वालियर की सेना ने हथियार डाल दिए. रानी को किले से बाहर निकलना पड़ा, भयंकर युध्द में रानी की शहादत हुई. रानी के बलिदान के बाद आजादी के लिए लड़ रही सेना तितर-बितर हो गई. कहते हैं कि रानी ने दोनों हाथों में तलवार लेकर युद्ध लड़ा.
युद्ध में रानी घायल हुईं तो किले से घोड़े सहित नीचे स्वर्णरेखा नदी किनारे छलांग लगा दी. नदी किनारे गंगादास जी की बड़ी शाला नाम से आश्रम है. गंगादास की शाला के पीठाधीश्वर रामदास महाराज के मुताबिक बचपन में रानी लक्ष्मीबाई ने गंगादास की शाला में गंगादास जी महाराज से अपने पिता के साथ दीक्षा ली थी. लिहाज़ा घायल रानी ने यहां पहुंचकर संतों से कहा मेरी लाश अंग्रेजों के हाथ न लगे. इसके बाद संतों ने रानी को गंगाजल पिलाया उसके बाद उनकी सांसें थम गईं. इधर अंग्रेज सेना ने किले से उतरकर गंगा दास की शाला को घेर लिया. लेकिन संतों ने चारों तरफ से घेरा बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. अंग्रेजों ने गोले दागे, यहां युद्द लड़ते हुए 745 संत शहीद हो गए. लेकिन रानी की देह को अंग्रेजों के हाथ नहीं लगने दिया. संतों ने अंग्रेजी सेना को युद्ध में उलझाकर जल्दी से रानी का अंतिम संस्कार कर दिया.
युद्ध में रानी घायल हुईं तो किले से घोड़े सहित नीचे स्वर्णरेखा नदी किनारे छलांग लगा दी. नदी किनारे गंगादास जी की बड़ी शाला नाम से आश्रम है. गंगादास की शाला के पीठाधीश्वर रामदास महाराज के मुताबिक बचपन में रानी लक्ष्मीबाई ने गंगादास की शाला में गंगादास जी महाराज से अपने पिता के साथ दीक्षा ली थी. लिहाज़ा घायल रानी ने यहां पहुंचकर संतों से कहा मेरी लाश अंग्रेजों के हाथ न लगे. इसके बाद संतों ने रानी को गंगाजल पिलाया उसके बाद उनकी सांसें थम गईं. इधर अंग्रेज सेना ने किले से उतरकर गंगा दास की शाला को घेर लिया. लेकिन संतों ने चारों तरफ से घेरा बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. अंग्रेजों ने गोले दागे, यहां युद्द लड़ते हुए 745 संत शहीद हो गए. लेकिन रानी की देह को अंग्रेजों के हाथ नहीं लगने दिया. संतों ने अंग्रेजी सेना को युद्ध में उलझाकर जल्दी से रानी का अंतिम संस्कार कर दिया.
बाद में स्वर्णरेखा नदी के किनारे रानी के शहादत स्थल पर समाधि बनाई गई. सन 1957 में समाधि स्थल पर घोड़े पर सवार रानी लक्ष्मीबाई की विशाल प्रतिमा स्थापित की गई. करीब 22 साल पहले समाधि स्थल पर वीरांगना बलिदान मेला की शुरुवात हुई. 18 जून को रानी के शहादत दिवस पर वीरांगना बलिदान मेला लगता है. जिसमे देश की ख्यातिप्राप्त नारी शक्ति को वीरांगना सम्मान दिया जाता है. बलिदान मेला के संस्थापक पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया के मुताबिक देश की पहली शहादत देने वाली वीरांगना लक्ष्मीबाई की समाधि देश प्रेमियों के लिए तीर्थ स्थल जैसी है. यहां आकर युवाओं को देशप्रेम का जज्बा मिलता है. ये समाधि स्थल रानी लक्ष्मी बाई की शौर्यगाथा का गवाह बना हुआ है.
बाद में स्वर्णरेखा नदी के किनारे रानी के शहादत स्थल पर समाधि बनाई गई. सन 1957 में समाधि स्थल पर घोड़े पर सवार रानी लक्ष्मीबाई की विशाल प्रतिमा स्थापित की गई. करीब 22 साल पहले समाधि स्थल पर वीरांगना बलिदान मेला की शुरुवात हुई. 18 जून को रानी के शहादत दिवस पर वीरांगना बलिदान मेला लगता है. जिसमे देश की ख्यातिप्राप्त नारी शक्ति को वीरांगना सम्मान दिया जाता है. बलिदान मेला के संस्थापक पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया के मुताबिक देश की पहली शहादत देने वाली वीरांगना लक्ष्मीबाई की समाधि देश प्रेमियों के लिए तीर्थ स्थल जैसी है. यहां आकर युवाओं को देशप्रेम का जज्बा मिलता है. ये समाधि स्थल रानी लक्ष्मी बाई की शौर्यगाथा का गवाह बना हुआ है.
रानी लक्ष्मीबाई जानती थीं कि जब तक ग्वालियर की सेना उनके साथ है वो अंग्रेजों को घेरकर हरा सकती हैं. रानी को ये भी मालूम था कि अंग्रेजी हुकूमत से जुड़े लोग जयाजी राव सिंधिया को सैनिक मदद देकर आगरा से ग्वालियर भेजेंगे. लिहाज़ा विद्रोहियों की सेना का मनोबल बना रहे इसके लिए रानी अंग्रेज सैनिक आने से पहले ही ग्वालियर पर पूरी तरह कब्जा करना चाहती थीं. लेकिन इस दौरान नाना किले में ही आमोद-प्रमोद में डूब गए. जिससे अंग्रेज सैनिकों को इकट्ठा होने का मौका मिल गया. रानी की आशंका के मुताबिक ही अंग्रेजों ने जयाजीराव को आगे कर ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया. ग्वालियर की सेना ने हथियार डाल दिए. रानी को किले से बाहर निकलना पड़ा, भयंकर युध्द में रानी की शहादत हुई. रानी के बलिदान के बाद आजादी के लिए लड़ रही सेना तितर-बितर हो गई. कहते हैं कि रानी ने दोनों हाथों में तलवार लेकर युद्ध लड़ा.
रानी लक्ष्मीबाई जानती थीं कि जब तक ग्वालियर की सेना उनके साथ है वो अंग्रेजों को घेरकर हरा सकती हैं. रानी को ये भी मालूम था कि अंग्रेजी हुकूमत से जुड़े लोग जयाजी राव सिंधिया को सैनिक मदद देकर आगरा से ग्वालियर भेजेंगे. लिहाज़ा विद्रोहियों की सेना का मनोबल बना रहे इसके लिए रानी अंग्रेज सैनिक आने से पहले ही ग्वालियर पर पूरी तरह कब्जा करना चाहती थीं. लेकिन इस दौरान नाना किले में ही आमोद-प्रमोद में डूब गए. जिससे अंग्रेज सैनिकों को इकट्ठा होने का मौका मिल गया. रानी की आशंका के मुताबिक ही अंग्रेजों ने जयाजीराव को आगे कर ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया. ग्वालियर की सेना ने हथियार डाल दिए. रानी को किले से बाहर निकलना पड़ा, भयंकर युध्द में रानी की शहादत हुई. रानी के बलिदान के बाद आजादी के लिए लड़ रही सेना तितर-बितर हो गई. कहते हैं कि रानी ने दोनों हाथों में तलवार लेकर युद्ध लड़ा.
युद्ध में रानी घायल हुईं तो किले से घोड़े सहित नीचे स्वर्णरेखा नदी किनारे छलांग लगा दी. नदी किनारे गंगादास जी की बड़ी शाला नाम से आश्रम है. गंगादास की शाला के पीठाधीश्वर रामदास महाराज के मुताबिक बचपन में रानी लक्ष्मीबाई ने गंगादास की शाला में गंगादास जी महाराज से अपने पिता के साथ दीक्षा ली थी. लिहाज़ा घायल रानी ने यहां पहुंचकर संतों से कहा मेरी लाश अंग्रेजों के हाथ न लगे. इसके बाद संतों ने रानी को गंगाजल पिलाया उसके बाद उनकी सांसें थम गईं. इधर अंग्रेज सेना ने किले से उतरकर गंगा दास की शाला को घेर लिया. लेकिन संतों ने चारों तरफ से घेरा बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. अंग्रेजों ने गोले दागे, यहां युद्द लड़ते हुए 745 संत शहीद हो गए. लेकिन रानी की देह को अंग्रेजों के हाथ नहीं लगने दिया. संतों ने अंग्रेजी सेना को युद्ध में उलझाकर जल्दी से रानी का अंतिम संस्कार कर दिया.
युद्ध में रानी घायल हुईं तो किले से घोड़े सहित नीचे स्वर्णरेखा नदी किनारे छलांग लगा दी. नदी किनारे गंगादास जी की बड़ी शाला नाम से आश्रम है. गंगादास की शाला के पीठाधीश्वर रामदास महाराज के मुताबिक बचपन में रानी लक्ष्मीबाई ने गंगादास की शाला में गंगादास जी महाराज से अपने पिता के साथ दीक्षा ली थी. लिहाज़ा घायल रानी ने यहां पहुंचकर संतों से कहा मेरी लाश अंग्रेजों के हाथ न लगे. इसके बाद संतों ने रानी को गंगाजल पिलाया उसके बाद उनकी सांसें थम गईं. इधर अंग्रेज सेना ने किले से उतरकर गंगा दास की शाला को घेर लिया. लेकिन संतों ने चारों तरफ से घेरा बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. अंग्रेजों ने गोले दागे, यहां युद्द लड़ते हुए 745 संत शहीद हो गए. लेकिन रानी की देह को अंग्रेजों के हाथ नहीं लगने दिया. संतों ने अंग्रेजी सेना को युद्ध में उलझाकर जल्दी से रानी का अंतिम संस्कार कर दिया.
बाद में स्वर्णरेखा नदी के किनारे रानी के शहादत स्थल पर समाधि बनाई गई. सन 1957 में समाधि स्थल पर घोड़े पर सवार रानी लक्ष्मीबाई की विशाल प्रतिमा स्थापित की गई. करीब 22 साल पहले समाधि स्थल पर वीरांगना बलिदान मेला की शुरुवात हुई. 18 जून को रानी के शहादत दिवस पर वीरांगना बलिदान मेला लगता है. जिसमे देश की ख्यातिप्राप्त नारी शक्ति को वीरांगना सम्मान दिया जाता है. बलिदान मेला के संस्थापक पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया के मुताबिक देश की पहली शहादत देने वाली वीरांगना लक्ष्मीबाई की समाधि देश प्रेमियों के लिए तीर्थ स्थल जैसी है. यहां आकर युवाओं को देशप्रेम का जज्बा मिलता है. ये समाधि स्थल रानी लक्ष्मी बाई की शौर्यगाथा का गवाह बना हुआ है.
बाद में स्वर्णरेखा नदी के किनारे रानी के शहादत स्थल पर समाधि बनाई गई. सन 1957 में समाधि स्थल पर घोड़े पर सवार रानी लक्ष्मीबाई की विशाल प्रतिमा स्थापित की गई. करीब 22 साल पहले समाधि स्थल पर वीरांगना बलिदान मेला की शुरुवात हुई. 18 जून को रानी के शहादत दिवस पर वीरांगना बलिदान मेला लगता है. जिसमे देश की ख्यातिप्राप्त नारी शक्ति को वीरांगना सम्मान दिया जाता है. बलिदान मेला के संस्थापक पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया के मुताबिक देश की पहली शहादत देने वाली वीरांगना लक्ष्मीबाई की समाधि देश प्रेमियों के लिए तीर्थ स्थल जैसी है. यहां आकर युवाओं को देशप्रेम का जज्बा मिलता है. ये समाधि स्थल रानी लक्ष्मी बाई की शौर्यगाथा का गवाह बना हुआ है.
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