महान धर्मरक्षक आदि शंकराचार्य का जन्म

 Birth of the great Dharmarakshak Adi Shankaracharya

महान धर्मरक्षक आदि शंकराचार्य का जन्म
(साभार)
पुस्तक - शंकराचार्य
लेखक - उमादत्त शर्मा

शास्त्रों में कहा गया है कि सब जन्मों में नर - जन्म ही श्रेष्ठ है । क्योंकि और जन्म तो केवल तुच्छ भोग - वासनाओं की तृप्ति के लिये हैं और मनुष्य जन्म है , मोक्ष प्राप्ति के लिये ।

भोग दो भागों में संघटित होता है । एक अनुकूल वेदना जनित सुख भोग , दूसरा प्रतिफूल वेदना जनित दुःख



भोग । जन्म ग्रहण करने अथवा देह धारण करने पर इन दोनों प्रकार के भोगों मे से एक प्रकार के भोग को तो भोगना ही पड़ता है । इनसे कोई भी परित्राण नहीं पा सकता । जीव नर - देह धारण करके सुख - दुःख  से परित्राण पा सकता है । मुक्ति हो सकती है । परन्तु इसका एक मात्र माग है , धर्म-साधना ।

शास्त्रों मे लिखा है कि आहार , निद्रा , भय , मैथुन आदि की नीच प्रकृति , पशुओं की तरहसे मनुष्यों मे भी रहती है । परन्तु धर्म के कारण ही मनुष्य , पशु की अपेक्षा श्रेष्ठ है ।
इसी धर्म - साधना द्वारा मनुष्य देवत्त्व लाभ कर सकता है , त्रिविध दुःखों से उद्धार पाकर महा निर्वाण और निःश्रेयस का अधिकारी हो सकता है । इसी लिये हिन्दूशास्त्रों में मानव देह को ही सर्वश्रेष्ठ कहा गया है । पुराणो मे लिखा है कि नर - देह पाने के लिये स्वर्गके देवता भी लालायित रहते हैं । कारण कि स्वर्ग में भी उन्हें उस परमानन्द और सुखकी प्राप्ति नहीं हो सकती , जो नर - जन्म धारण करके पा सकते हैं ।

मुक्ति प्राप्त करके ही जीव संसार के सुख - दुःखों से परित्राण पा सकता है । मानव - जन्म धारण करके ही साधना हो सकती है , और उस साधना से ही सिद्धि प्राप्त होती है , जिससे परमानन्द की प्राप्ति होती है ।

हिन्दू शास्त्रों में नर-जन्म की ऐसी ही महिमा गाई गई है । हिन्दुओं के लिए हिन्दू शास्त्रों का मानना परमावश्यक है । क्योंकि "पर धर्मो भयावह" के अनुसार इस व्यवस्था को मानने के लिये हम वाध्य हैं । उन्हीं हिन्दू शास्त्रों में भारतवर्ष को धर्म क्षेत्र और भगवान् की लीलाभूमि कहा गया है ।

वास्तवमें देखा जाय तो भारत की इस महिमा की तुलना भी नहीं हो सकती । धर्म के सूक्ष्म - तत्व , साधनमार्ग , धर्मकाण्ड का ऐसा अच्छा भाव - विकास संसार में और कहीं नहीं हुआ है । पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी भारत के आध्यात्मवाद को ही सर्वश्रेष्ठ बताया है ।

धर्म की ऐसी गूढ़ साधन - प्रक्रिया , ऐसा उत्तम साधन व्यापार , ध्यान , धारणा और योग - समाधि द्वारा महामुक्ति को प्राप्तिका निरूपण , केवल हिन्दूशास्त्रों में ही प्रतिपादित हुआ है । इसीलिये सभ्यता- गर्व से गर्वित और विज्ञानबल से वलियान् , पाश्चात्यजगत् मुग्ध नेत्रों से भारत को देख रहा है ।

पाश्चात्यजगत् आज बड़े - बड़े वैज्ञानिकों को जन्म दे करके भी मुक्ति के लिये भारत की ओर ही नजर दौड़ा रहा है ! इस लिये जिन लोगों का जन्म इस भगवान की लीला भूमि में होता है , वे धन्य हैं ।

भगवान की लीलाभूमि भारतवष में जब धर्म की हानि होती है तो भगवान का आसन डोलने लगता है । वे धर्म की पुनर्स्थापनाके लिये किसी विशेष आत्मा को जन्म देकर इस भारतभूमि में भेजते हैं । उन्हीं को हम अवतार कहते हैं ।। भगवान की विशिष्ट विभूति समझते हैं ।

एक समय भारत मे धर्म का महान लोप हो रहा था, नास्तिक मतों के कारण हिन्दू धर्म लगभग समाप्ति की और पहुंच गया ।। वेद और धर्ममार्ग को त्यागकर भारतवासी विपथगामी हो रहे थे , नास्तिक लोग हिन्दुओ पर नाना प्रकार के अत्याचार कर रहे थे,  किसी महापुरुष के आविर्भाव के लिए भारत भूमि व्याकुल हो उठी ....
उसी समय धर्म की रक्षार्थ हेतु भगवान शङ्कर -- स्वामी शङ्कर के रूप में पधारे ... नाम्बुरि ब्राह्मण परिवार के में शङ्करजी ने जन्म लिया ।


उनके पितामह का नाम विद्याधरजी  था ।।।  दक्षिण मालाबार के जिस कालटी ग्राम मे रहते थे । वह गाँव ब्राह्मण बहुल का ही गांव था । कालटी ग्राम के समस्त ब्राह्मण ही सदाचारी थे । उस समय वेदों उपनिषदों तथा दर्शनशास्त्रो को कंठस्त करने का रिवाज था ....

पितामह विद्याधर जी गृहस्थ आश्रम में होते हुए भी हर समय भगवान की भक्ति में ही तत्पर रहते थे । यथासमय जब विद्याधरजी के यहां एक पुत्र का जन्म हुआ, तो उसका मुख एवं ललाट देखकर   विद्याधर जी बहुत प्रसन्न हुए, और उसे भगवान पिनाकमणि का आशीर्वाद समझकर नाम रखा -- शिवगुरु।। यही शिवगुरु शङ्कर स्वामी के पिताजी थे।  
शिवगुरु को जब उपयुक्त वय प्राप्त हुआ, तब उन्हें यज्ञोपवित धारण कर द्विजत्व लाभ दिया गया । उसके बाद उन्हें शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरु के ब्रह्मचर्यआश्रम में भेजा गया । बहुत थोड़े समय मे ही शिवगुरु ने अपनी प्रचंड प्रतिभा के बल पर समस्त वेद-वेदाङ्ग  उपनिषदों एवं दर्शन शास्त्रो को कंठस्थ कर डाला । उनके गुरुओं ने उन्हें प्रसन्न होकर कहा,  पुत्र शिवगुरु !! तुम प्रत्येक शास्त्र में ही पारंगत हो चुके होब..... जाओ अब गृहस्थ धर्म का पालन करो ... और अपने माता पिता को प्रसन्न करो ......


तब विद्वान् शिष्य शिवगुरु ने अत्यन्त नम्र - होकर विनीत भाव से कहा ,– “ गुरुदेव , मेरी संसार में और वासना नहीं है । आपकी शिक्षा के प्रभाव से मेरी संसार से मोह - ममता विनष्ट हो गई है । मुझे ऐसा स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि ये संसार के सुख दुःख क्षणभंगुर हैं । मुझे तो ऐसा ज्ञात होता है कि यह संसार दुःखों की खान है । संसार की विषय - वासनाओं में लिप्त रह कर ही जो लोग जिस सुख को अनुभव करते हैं , वह मुढों और मूर्खो के लिये ही उपादेय है । परन्तु जो मनुष्य तत्त्व अनुशीलन करके प्रकृष्ट पथ का पथिक होना चाहता है , उसके लिये संसार के ये सुख अत्यन्त असार और हेय हैं । विद्वान् और ज्ञानी व्यक्ति भी यदि इन सांसारिक सुख वासनाओं में लिप्त हो तो उसको भी मतिभ्रम हुए बिना न रहेगा । तत्त्व को भूल कर वह भी मूढ़मति हो जायगा और सांसारिक सुख - भोग के लिये उन्मत्त हो उठेगा । मानव जीवन के वास्तविक उद्देश्यको भूल जयगा । संसार में रहने से कामिनी - काश्चन का प्रलोभन इतना अधिक आकर्षण करता है कि विद्वान् और ज्ञानी पुरुष भी फिर सरलता से उससे उद्धार नहीं पा सकता । इन बातों की मन ही मन में मैं जितनी ही विवेचना करता हूं , मुझे उतनी ही संसार से घृणा होती जाती है । गुरुदेव , इस लिये मेरी एकान्त वासना है कि मैं सदा ही आपकी सेवा में रह कर वेदों का अनुशीलन और अध्यात्म विद्या की परिचर्चा तथा वेदान्त वाक्यों को श्रवण करता हुआ इस जीवनको व्यतीत करूं । अब फिर से संसार में प्रवेश करके देह और मन को कलुषित करनेकी इच्छा नहीं होती । अब तो यही इच्छा है कि जब तक यह नश्वर शरीर संसार में रहे , आपकी सेवा मे रहकर तत्त्व विद्या का अनुशीलन करता रहूं ।

गुरुकुल के सभी गुरुगण तरुण वयस्क गुरुभक्त शिष्य शिवगुरु के मुख से ऐसी ज्ञानपूर्ण बात सुन कर , क्षणभर के लिये उसके मुख को देखते रहे ।
थोड़ी देर के पश्चात् बोले , - " वत्स , तो फिर क्या तुम घर वापस जाना नहीं चाहते ? परन्तु संन्यास ग्रहण करने का समय भी तो अभी नहीं आया । संसार में रह कर जो माता - पिता की सेवा नहीं करता , आश्रित अनुगत तथा आत्मीय स्वजनों का प्रतिपालन तथा व्यतिथि- सेवादि शुभ कर्मों को नहीं करता , वह उच्च आदर्श का प्रतिपालक और श्रेष्ठ मार्ग का अधिकारी नहीं हो सकता । गृहस्थाश्रम में रह कर ही मनुष्य देव ऋण , ऋषिऋण और पितृऋण से उन्मुक्त हो सकता है और जब तक इन ऋण से उॠरण न हो जाय , मानव - जीवन की कोई भी तपस्या और धर्म साधना सिद्ध नहीं हो सकती । वत्स , इन सब बातों को विचारते हुए तुम्हारा यही कर्तव्य है कि तुम गृहस्था - अपने माता - पिता को प्रसन्न करो । तुम्हारे लक्षणों से मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि निकट भविष्यमे तुम्हारे द्वारा संसारका कोई महान् कार्य सिद्ध होने वाला है । इस लिये अब तो तुम जाओ और गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर अपने कर्तव्य को पूरा करो , पीछे वय प्राप्त होने पर यदि उचित प्रतीत हो तो संन्यास धर्मको ग्रहण करना । "


गुरु से कर्म एवं कर्तव्य का उपदेश सुन कर ब्रह्मचारी शिवगुरु ने गुरुदेवके चरणों में प्रणाम किया और गुरु दक्षिणा देकर आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर को प्रस्थान किया । ब्रह्मचर्य्याश्रम से विद्याध्ययन कर घर लौटने पर विद्वान् पुत्र शिवगुरु को पाकर माता - पिता अत्यन्त आह्लादित हुए । शिवगुरु की विद्वत्ता की चर्चा समस्त प्रदेशमें होने लगी । कितने ही सम्पन्न और विद्वान् सजातीय ब्राह्मणों ने अपनी - अपनी कन्याओंके साथ शिवगुरु का विवाह करनेका प्रस्ताव किया । अन्त में पमघ पण्डित नाम के एक सम्पन्न ब्राह्मण की विदुपी भक्तिमयी साध्वी सुशीला कन्या कामाक्षी देवी के साथ बड़े समारोह से शिवगुरु का विवाह हो गया ।

विवाह को बहुत समय बीत गया,  लेकिन गृहस्थ धर्म का श्रेष्ठ उपादान " संतान " की प्राप्ति नही हुई । पत्नी कामाक्षी  की सलाह पर दम्पति जोड़े ने भगवान पिनाकमणि की आराधना करनी शुरू की ।। दोनों दम्पति कभी कंद मूल खाकर रहते, तो कभी एकदम भूखे । प्रत्येक समय केवल भगवान पिनाकमणि का ही स्मरण था ।।
बहुत दिनों की तपश्चर्या के बाद आशुतोष शङ्कर उनका तपस्या से  सन्तुष्ट हुए । एक दिन सोते हुए शिवगुरु ने स्वप्न में देखा कि एक वृद्ध ब्राह्मण प्रसन्न होकर उनसे कह रहा है कि , " वत्स तुम्हारी तपस्या सफल हुई । तुमको शीघ्र ही पुत्र फल लाभ होगा । परन्तु तुमसे मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूं ।


"पुत्र तुमको दो प्रकार के मिल सकते हैं । एक तो परम ज्ञानी और महान् विद्वान् साधु स्वभावका मिल सकता है । किन्तु उसकी आयु बहुत थोड़ी होगी । दूसरे प्रकार का पुत्र मूर्ख ज्ञानहीन होगा , किन्तु उसकी आयु बड़ी होगी , वह दीर्घ काल तक जीवित रहेगा । इन दोनों प्रकारके पुत्रों में से किस प्रकार का पुत्र चाहते हो , सो सरल हृदयसे स्पष्ट कहो ।
" स्वप्न देखते ही देखते शिवगुरु ने कहा , – “ देव , मूर्ख पुत्र तो यमके समान होता है । वैसे पुत्र से तो पुत्रहीन ही रहना मङ्गल-जनक है । यदि आप सचमुच हम लोगों के तपसे प्रसन्न हुए हैं , तो साधु विद्वान् और ज्ञानी पुत्र प्रदान करने की ही कृपा कीजिये । ”

' तथास्तु ' कह कर वृद्ध ब्राह्मण अन्तर्धान हुए । इधर आंख खुलने पर परम प्रसन्न होकर शिवगुरुने पत्नीको बुला कर कहा , – " प्रियतमे , प्रतीत होता है कि इतने दिनोंके वाद देवाधिदेव महादेव हम पर प्रसन्न हुए हैं । मुझे स्वप्न हुआ है कि शीघ्र ही हमारी मनोकामना पूर्ण होगी ।

" इस प्रकारसे कह कर शिवगुरुने स्वप्न व्यतीत समस्त घटना पत्नी को कह सुनाई । महिमामयी साध्वी धर्मपरायणा कामाक्षी देवी स्वप्न की बात को सुन कर परम आनन्दित हुई । इसके पश्चात् जप - तप और व्रत का उद्यापन कर साधना समाप्त की गई और दोनों धर्मपरायण पति - पत्नी धर्मशास्त्रके मन्तव्यानुसार पुनः गृहस्थाश्रमका पालन करने लगे ।
कुछ समय बाद .... भगवान शङ्कर के आशीर्वाद से .... भगवान शङ्कर ने शिवगुरु के यहां कामाक्षी देवी के गर्भ से जन्म लिया.....

क्रमशः ---

टिप्पणियाँ

इन्हे भी पढे़....

हमारा देश “भारतवर्ष” : जम्बू दीपे भरत खण्डे

सेंगर राजपूतों का इतिहास एवं विकास

चुनाव में अराजकतावाद स्वीकार नहीं किया जा सकता Aarajktavad

‘फ्रीडम टु पब्लिश’ : सत्य पथ के बलिदानी महाशय राजपाल

सांसारिक सुख, मोह और मायाजाल ही दु:खों का मुख्य कारण Sukh Dukhah

जीवन मे कुछ करना है तो, मन को मारे मत बैठो

ईश्वर की परमशक्ति पर हिंदुत्व का महाज्ञान - अरविन्द सिसोदिया Hinduism's great wisdom on divine supreme power

मोक्ष : ईश्वर के कार्य योग्य अपने आपको बनाओ Moksha Ishwar Ka Dham

छत्रपति शिवाजी : सिसोदिया राजपूत वंश

भगवान की संपत्ति हैं जीवात्माएं हैं , उन्हें सहयोग करना ईश्वर की सेवा है - अरविन्द सिसोदिया Ishwar ki Seva