ईश्वर सर्वज्ञ God
ईश्वर और धर्म के संबंध में अनेक वैज्ञानिकों के बीच प्रचलित दृष्टिकोण विविध है, जिसमें दृढ़ विश्वास से लेकर नास्तिकता और अज्ञेयवाद तक के दृष्टिकोण शामिल हैं, कुछ लोग आस्था और वैज्ञानिक सिद्धांतों के बीच अनुकूलता पाते हैं, जबकि अन्य उन्हें अलग या परस्पर विरोधी क्षेत्र के रूप में देखते हैं।
ऐतिहासिक रूप से, गैलीलियो गैलिली (1564-1642) जैसे व्यक्तियों को अपनी वैज्ञानिक खोजों के लिए धार्मिक संस्थाओं से उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, फिर भी उन्होंने कहा कि ईश्वर ने मनुष्यों को इंद्रियाँ, तर्क और बुद्धि प्रदान की है, जिसका अर्थ है कि इन क्षमताओं का उपयोग दुनिया को समझने के लिए किया जाना चाहिए।
इसी प्रकार, वैज्ञानिक पद्धति के एक आधारभूत व्यक्ति, सर फ्रांसिस बेकन (1561-1626) का मानना था कि गहन दार्शनिक अन्वेषण धर्म की ओर ले जाता है, उन्होंने कहा कि "थोड़ा सा दर्शन मनुष्य के मन को नास्तिकता की ओर प्रवृत्त करता है; किन्तु दर्शन में गहराई मनुष्य के मन को धर्म की ओर ले जाती है।"
लॉर्ड केल्विन (1824-1907), एक धर्मनिष्ठ ईसाई और 19वीं सदी के प्रभावशाली वैज्ञानिक, ने सक्रिय रूप से अपने विश्वास को विज्ञान के साथ मिलाने की कोशिश की, उनका मानना था कि वैज्ञानिक अध्ययन ईश्वर में विश्वास को बाध्य करता है। उन्होंने तर्क दिया कि "विज्ञान सकारात्मक रूप से रचनात्मक शक्ति की पुष्टि करता है" और "यदि आप दृढ़ता से सोचते हैं तो विज्ञान आपको ईश्वर में विश्वास करने के लिए मजबूर कर देगा"
]मारिया मिशेल (1818-1889), अमेरिका की पहली महिला खगोलशास्त्री, ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करती थीं, लेकिन धर्म द्वारा ईश्वर को प्रस्तुत करने के तरीके पर सवाल उठाती थीं, उनका सुझाव था कि वैज्ञानिक जांच से ईश्वर के काम करने के नए तरीके सामने आएंगे।
इसके विपरीत, अन्य प्रमुख वैज्ञानिकों ने धार्मिक विश्वासों के प्रति संदेह या पूर्ण अस्वीकृति व्यक्त की है।
अल्बर्ट आइंस्टीन (1879-1955) ने एक "व्यक्तिगत ईश्वर" की अवधारणा को अस्वीकार कर दिया जो पुरस्कार या दंड देता है, हालाँकि वे स्वयं को नास्तिक भी नहीं मानते थे, और ब्रह्मांड की रहस्यमय और सुंदर व्यवस्था में विस्मय का अनुभव करते थे।
डीएनए संरचना को समझने में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली रोज़लिंड फ्रैंकलिन (1920-1958) ने ईश्वर के अस्तित्व और परलोक के बारे में गंभीर संदेह व्यक्त किए थे ।
स्टीफन हॉकिंग (1942-2018) एक मुखर नास्तिक थे, उनका कहना था कि ईश्वर ने ब्रह्मांड की रचना नहीं की है और धार्मिक चमत्कार विज्ञान के साथ असंगत हैं । उन्होंने अपनी पुस्तक द ग्रैंड डिज़ाइन में प्रसिद्ध रूप से कहा था कि "ब्रह्मांड को चलाने के लिए ईश्वर का आह्वान करना आवश्यक नहीं है।".
नोबेल पुरस्कार विजेता वेंकटरमन रामकृष्णन (जन्म 1952) धर्म और ज्योतिष की वैधता पर सवाल उठाते हैं, उनका मानना है कि अंधविश्वास पर आधारित संस्कृतियां वैज्ञानिक ज्ञान और तर्कसंगत विचारों पर आधारित संस्कृतियों की तुलना में खराब प्रदर्शन करती हैं।
चार्ल्स डार्विन (1809-1882), जिन्हें उनके विकासवाद के सिद्धांत के लिए जाना जाता है, इस विचार से जूझते रहे कि एक सर्वशक्तिमान ईश्वर दुखों से भरी दुनिया का निर्माण कर सकता है ।
नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिक विज्ञानी और रसायनज्ञ मैरी क्यूरी (1867-1934) कैथोलिक परिवार में पली-बढ़ीं, लेकिन युवावस्था में अज्ञेयवादी बन गईं और जीवन से डरने के बजाय उसे समझने पर ध्यान केंद्रित किया।
आधुनिक सर्वेक्षणों से पता चलता है कि वैज्ञानिकों का एक बड़ा हिस्सा धार्मिक विश्वास रखता है। 2005 में अमेरिका के शीर्ष विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों पर किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 48% धार्मिक मान्यताओं से जुड़े थे, और 75% का मानना था कि धर्म महत्वपूर्ण सत्यों को व्यक्त करता है। इससे पता चलता है कि हालांकि कुछ प्रमुख हस्तियां नास्तिक हो सकती हैं, लेकिन वैज्ञानिकों की एक बड़ी संख्या को अपने वैज्ञानिक प्रयासों और अपने विश्वास के बीच कोई अंतर्निहित संघर्ष नहीं दिखता है।विज्ञान और धर्म के बीच चल रही बातचीत निरंतर विकसित हो रही है, जिसमें कई विद्वान और वैज्ञानिक समान आधार तलाश रहे हैं या अपने अलग-अलग, लेकिन जरूरी नहीं कि विरोधी क्षेत्रों को स्वीकार कर रहे हैं।
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भारतीय दर्शन में ईश्वर के सिद्धांत और उनकी परम शक्ति के संबंध में विविध विचार प्रकट होते हैं, जो वेदों से लेकर आधुनिक ईश्वरवाद तक विकसित हुए हैं। भारतीय दर्शन में ईश्वर का विचार अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह धर्म से गहराई तक प्रभावित है, और सामान्य धर्म ईश्वर में विश्वास को आरोपित करता है।
वैदिक मत
भारतीय दर्शन में ईश्वरीय संबद्ध सभी प्रमुख विचार वेदों में बीज रूप में निहित हैं, ऋग्वेद में वर्णित हैं। वैदिक काल में विभिन्न देवताओं की पूजा की जाती थी, जैसे इंद्र, वरुण, अग्नि, और सूर्य, जो प्रकृति की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे। इसे अनेकवादेश्वर (बहुदेववाद) कहा गया है।
मैक्समूलर ने हेनोथिज्म (हेनोथिज्म) की अवधारणा दी, जहां किसी एक देवता की पूजा करने का समय ही सर्वोपरी माना जाता था।
त्रयवादेश्वर (Tritheism) के अनुसार, देवताओं को पृथ्वी, आकाश और वायु को देवताओं के रूप में देखा गया है। वैदिक साहित्य में, विशेष रूप से 'पुरुषसूक्त' में, एकेश्वरवादी (एकेश्वरवाद) विचार भी प्रकट होते हैं, जहाँ ईश्वर को परम सत्य और सृष्टि में व्याप्ति और उनके पारिश्रमिक दोनों को माना गया है।
उपनिषदों का ईश्वर-विचार
वेदों के बाद, उपनिषदों में ईश्वर का स्थान पृथक गौण हो जाता है, और ब्रह्म को चरम तत्व के रूप में स्वीकार किया जाता है।उपनिषदों में ब्रह्म को अद्वितीय, निराकार और गुण माना गया है, जबकि जगत् को ब्रह्म के रूप में प्रकाशित किया गया है। बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है, "यह आत्मा ही ब्रह्म है," जिसे 'सच्चिदानंद' (सत्, चित, आनंद) के रूप में वर्णित किया गया है। उपनिषदों में ब्रह्म के दो रूप बताए गए हैं: पर-ब्रह्म (निराकार और निर्गुण) और अपर-ब्रह्म (सगुण और साकार)
भगवद गीता में ईश्वर का स्वरूप
भगवद गीता में ईश्वर के विचार और विस्तार हुआ है, जिसमें ईश्वरवाद और सर्वेश्वरवाद का समन्वय है। ईश्वर को जगत का परम कारण और नायक माना जाता है, जो व्यक्तित्व पूर्ण हुआ वह भी अनंत है। गीता के अनुसार, ईश्वर संसार की नैतिक व्यवस्था कायम है और कर्मफल निर्धारित है। गीता में भगवान के अवतारवाद को भी सत्य माना गया है। गीता में ईश्वर को सर्वोच्च या उत्तम पुरुष कहा गया है, जो क्षर और अक्षर पुरुषों से श्रेष्ठ है।
विभिन्न ईश्वरीय सिद्धांत
भारतीय दर्शन में ईश्वर की धारणाएं और स्वरूप पर अलग-अलग दृष्टिकोण मौजूद हैं, और ईश्वर की धारणाओं को प्रमाणित करने के लिए कई तर्कों का उपयोग किया गया है।
- आस्तिक और नास्तिक दर्शन: भारतीय दर्शन में दो प्रमुख वर्ग हैं: आस्तिक, जो ईश्वर की धारणा को स्वीकार करते हैं (जैसे न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदांत), और नास्तिक, जो इसे स्वीकार करते हैं (जैसे चार्वाक, जैन, बौद्ध)।
- चार्वाक दर्शन: चार्वाक दर्शन ईश्वर की धारणा पर सवाल उठाता है, यह केवल काल्पनिक चित्रण है क्योंकि इसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया जा सकता है
बौद्ध और जैन दर्शन: ये दर्शन भी ईश्वर की मान्यता के पात्र हैं। बौद्ध धर्म में बुद्ध को ईश्वर नहीं, बल्कि एक सिद्धांत माना गया है, और जैन धर्म में तीर्थकरों को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। हालाँकि, ये सर्वज्ञ को विश्वास नहीं था।
न्याय और वैशेषिक दर्शन: इन दर्शनों में ईश्वर को विश्व का श्रीष्टा, पालक और कर्मफल प्रदाता माना जाता है। न्याय-दर्शन में ईश्वर को विश्व का संस्थापक और पालक माना गया है, और उसे कार्य के फल वाला माना गया है। वैशेषिक में भी ईश्वर को एक चैतन्य आत्मा के रूप में माना गया है, जो सृष्टि का संचालन करता है।
सांख्य और योग दर्शन: सांख्य दर्शन में ईश्वर की अनुभूति लेकर आते हैं, जबकि योग दर्शन में ईश्वर को एक सर्वोच्च व्यक्तित्व माना जाता है, जो ध्यान और भक्ति का विषय है।
मीमांसा दर्शन: मीमांसा दर्शन ईश्वर को गौण स्थान देता है, धर्म और कर्म के आधार पर सृष्टि का वर्णन करती है, और देवताओं को केवल बलि और पूजा के माध्यम से महत्वपूर्ण स्थान देती है।मीमांसक ईश्वर की मान्यता को स्वीकार न करें और जगत् की सामूहिक सृष्टि तथा प्रलय को भी स्वीकार न करें।
अद्वैत वेदांत (आचार्य शंकर): पंचों ने ब्रह्म को परमसत्ता के रूप में स्वीकार किया, उन्हें निर्गुण और सगुण दोनों सिद्धांतों में व्याख्यायित किया। उनके अनुसार, अज्ञान के कारण आत्मा और ब्रह्म अलग-अलग दिखाई देते हैं। अद्वैत वेदांत में ईश्वर को सगुण ब्रह्म का नामान्तर माना गया है, और अद्वैत वेदांत में ईश्वर को चैतन्य कहा जाता है।
विशिष्टाद्वैत वेदांत (रामानुज): रामानुज के दर्शन में ईश्वर ही परम सत्ता है, जो व्यक्तित्वपूर्ण है और भक्तों की मांग पूरी करता है।रामानुज के मत में ईश्वर चित और अचित दो से विशिष्ट हैं, और दोनों ही नित्य हैं।
ब्रह्म का नामान्तर माना गया है, और अद्वैत वेदांत में ईश्वर को चैतन्य कहा जाता है।
विशिष्टाद्वैत वेदांत (रामानुज): रामानुज के दर्शन में ईश्वर ही परम सत्ता है, जो व्यक्तित्वपूर्ण है और भक्तों की मांग पूरी करता है।रामानुज के मत में ईश्वर चित और अचित दो से विशिष्ट हैं, और दोनों ही नित्य हैं।
समसामयिक भारतीय दर्शन
यूक्रेन, अरविंद, ईसाईनाथ ठाकुर, राधाकृष्णन और महात्मा गांधी जैसे समकालीन भारतीय दार्शनिकों ने भी अपने विचारों में ईश्वर को महत्वपूर्ण स्थान दिया है, जोवादी ईश्वर परंपरा की झलक दिखाते हैं।
भारतीय दर्शन में ईश्वर के दृष्टिकोण और उनकी परम शक्ति के संबंध में विचार वेदों से लेकर आधुनिक काल तक विकसित हुए हैं, जिसमें अनेकेश्वरवाद से लेकर एकेश्वरवाद की ओर एक अभिनव विकास देखा जा सकता है, और विभिन्न सिद्धांतों ने ईश्वर के स्वरूप और भूमिका पर अपने विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत किए हैं।
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1. गीता का दृष्टिकोण – गीता के अनुसार ईश्वर पुरुषोत्तम है, जो क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) पुरुष दोनों से श्रेष्ठ है। उसका धाम स्वयंप्रकाश है, वहाँ सूर्य-चंद्र का प्रकाश काम नहीं देता। वही सब प्राणियों के हृदय में स्थित होकर नियमन करता है।
2. न्याय दर्शन (उदयनाचार्य और गंगेशोपाध्याय) –
न्यायकुसुमांजलि में उदयनाचार्य ने तर्कों द्वारा ईश्वर की सत्ता सिद्ध की और चार्वाक, मीमांसक, जैन व बौद्ध संप्रदायों की ईश्वर-निषेधक युक्तियों का खंडन किया।
आगे गंगेशोपाध्याय और अन्य नैयायिक विद्वानों ने भी ईश्वरवाद पर विचार किया।
3. रामानुज संप्रदाय – यामुन मुनि के सिद्धित्रय, लोकाचार्य के तत्त्वत्रय, वेदांतदेशिक की रचनाओं में ईश्वरसिद्धि का विवेचन हुआ।
4. अन्य वेदांती और शैव संप्रदाय –
खंडनखंडखांड श्रीहर्ष, नरेश्वरपरीक्षा (शैव), तथा प्रत्यभिज्ञा दर्शन में भी ईश्वरतत्व पर गहन चिंतन मिलता है।
अभिनवगुप्त व अन्य विद्वानों ने ईश्वरप्रत्यभिज्ञा पर व्याख्या की।
5. बौद्ध और जैन दृष्टिकोण –
ये ईश्वर को नहीं मानते, परंतु सर्वज्ञ (सर्वज्ञानी) को स्वीकार करते हैं।
रत्नकीर्ति (ईश्वर-साधन-दूषण) और ज्ञानश्री (ईश्वरवाददूषण) जैसे ग्रंथों में ईश्वरवाद का खंडन मिलता है।
जैन आचार्यों ने भी निरंतर इस विषय पर आलोचना की।
6. मीमांसा का दृष्टिकोण (कुमारिल भट्ट) – कुमारिल ईश्वर और सर्वज्ञ दोनों का खंडन करते हैं।
7. समग्र संकेत –
विभिन्न दार्शनिक धाराओं ने ईश्वर के अस्तित्व, स्वरूप और भूमिका पर भिन्न-भिन्न मत रखे।
वेदांत और न्याय परंपरा में ईश्वरवाद का प्रतिपादन तर्क और शास्त्र दोनों आधारों पर किया गया।
जबकि चार्वाक, बौद्ध, जैन, और मीमांसक परंपराओं ने ईश्वर की सत्ता को नकार कर वैकल्पिक सिद्धांत प्रस्तुत किए।
अंततः गीता के पुरुषोत्तम ईश्वर की अवधारणा सर्वश्रेष्ठ और सर्वमान्य रूप में सामने आती है।
👉 संक्षिप्त सार:
ईश्वरतत्व पर भारत के दार्शनिक परंपराओं में व्यापक विमर्श हुआ है। कुछ संप्रदायों ने उसकी सत्ता को प्रमाणित किया, तो कुछ ने उसका खंडन किया। परंतु गीता और वेदांत में ईश्वर को परम पुरुष, सर्वज्ञ, सर्वनियंता और सर्वोच्च सत्ता मानकर उसकी सिद्धि का प्रतिपादन हुआ है।
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