परिजीवी कांग्रेस की रणनीति बड़ी मछली बनने की, साथी दल सावधान और सतर्क हुये Arvind Sisodia
लेख, सादर प्रकाशनार्थ / प्रसारित 27 अगस्त 2025
परिजीवी कांग्रेस की रणनीति बड़ी मछली बनने की, साथी दल सावधान और सतर्क हुये
आलेख – अरविन्द सिसोदिया, कोटा
कांग्रेस नें 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गान्धी की हत्या की छाँव में हुये चुनाव में 400 सीट का आंकड़ा पार किया था, किन्तु इसके बाद वह कभी भी लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं कर सकी है, अर्थात 40 साल से वह लोकसभा में स्पष्ट बहुमत से दूर है। पिछले तीन चुनावों में उसका स्कोर 44, 52, 99 का रहा है। जो कांग्रेस इतिहास की सबसे शर्मनाक स्थिति है। कांग्रेस का सामान्य अस्तित्व उसके सहयोगी दलों पर आश्रित है। इसलिए कांग्रेस को वर्तमान में परिजीवी पार्टी भी कहा जाता है। उसकी यह हालत मुख्यतः क्षेत्रीय दलों नें उसके वोट बैंक पर कब्जा कर की है। उनमें से अधिकांश दल वर्तमान में ईडी गठबंधन के सदस्य भी हैँ। कांग्रेस लगातार तीसरी शर्मनाक हार के बाद अपनी पुरानी ताकत प्राप्त करने मछली की तरह तड़फ रही है। इससे उसकी स्वयंभू भूमिका अधिकांश परिलक्षित हो रही है। जिसने ईडी गठबंधन में आंतरिक सतर्कता बड़ा दी है और अब इस गठबंधन में इंटरनल असहमति और दो धड़े होते दिख रहे हैँ।
यूँ तो पिछले छह वर्षों में कांग्रेस की राजनीति और उसकी कार्यप्रणाली ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उसका मुख्य लक्ष्य अपनी खोई हुई ताकत को वापस पाना और विपक्षी खेमे में सबसे बड़ी निर्णायक ताकत बनकर रहना है। कांग्रेस केवल भाजपा जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी को चुनौती देने की तैयारी नहीं कर रही, बल्कि असल में वह उन क्षेत्रीय दलों को भी कमजोर करना चाहती है, जिनकी पकड़ उसके तुष्टिकरण आधारित वोट बैंक पर है, सीधी भाषा में मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस अपने नाम करना चाहती है। जो लंबे समय तक कांग्रेस का वोट बैंक था और तब कांग्रेस ही यूपी, बिहार, बंगाल सहित भारत के तमाम प्रमुख प्रांतों में हुआ करती थी। कांग्रेस और राहुल गाँधी की वर्तमान हाय तौबा इसी अंतिम प्रयास के रूप में देखी जा सकती है।
कांग्रेस का विपक्षी दलों से आंतरिक टकराव
कांग्रेस जानती है कि तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेता उसके पारंपरिक वोट बैंक में सेंध लगाकर ही खड़े हुए हैं। ये दल कभी कांग्रेस विरोधी ही थे। यही कारण है कि कांग्रेस की कई बयानबाज़ियों और राजनीतिक चालों का निशाना सहयोगी दलों पर न होते हुये भी उनके वोट बैंक पर ही होता है।
जैसे हाल ही में जब मीडिया ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में पेश करने का प्रश्न पूछा तो कांग्रेस सर्वेसर्वा राहुल गांधी ने स्पष्ट जबाब टाल दिया । जबकि तेजस्वी राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनानें की घोषणा कई कई बार कर चुके हैँ। तेजस्वी की पार्टी नें भी उन्हें मुख्यमंत्री घोषित किया हुआ है। किन्तु यह सार्वजनिक फजीहत राहुल नें तेजस्वी की की है। कहीं न कहीं तेजस्वी की पार्टी कांग्रेस के इस व्यवहार से दुखी भी हुई है। इसी कारण उसने जे पी सी में जानें के मुद्दे पर कांग्रेस से अलग राह पकड़ली है। इससे संकेत मिलता है कि कांग्रेस बिहार में अपना खोया बर्चस्व चाहती है। वहीं राजद अपना बर्चस्व बचाये रखना चाहता है।
हालही में दूसरी घटना पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने130वें संविधान संशोधन पर गठित संयुक्त संसदीय समिति (JPC) से दूरी बनाई है, अखिलेश यादव, अरविन्द केजरीवाल, उद्धव ठाकरे उनके साथ खड़े हैँ । किन्तु कांग्रेस और डीएमके उनके तर्क से सहमत नहीं है और अभी तक़ कांग्रेस का रुख ममता के साथ नहीं है। इससे स्पष्ट है कि "इंडी गठबंधन" में कुछ बड़े दल, राहुल इफेक्ट से अपनी सुरक्षा में भी सावधान हैँ,अपने अस्तित्व की रक्षा में जुटे हैँ। वे प्रत्येक मुद्दे पर राहुल के निर्देश पर चलते नहीं दिखना चाहते।
दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी एक दूसरे के सामने खडे हैँ , आप कहती है कि गठबंधन लोकसभा चुनाव हेतु था। जबकि वह उसी ईडी गठबंधन का हिस्सा भी हैँ । यह अजीब स्थिति अंदर सब कुछ ठीक ठाक नहीं होनें की की बात कहता है।
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के कारण ही कांग्रेस का अस्तित्व है। इसके बावजूद कांग्रेस से अलग विचार रखते हुए सपा लगातार अपना स्तर ऊँचा बनाए रखने की कोशिश करती देखी गईं है। कारण स्पष्ट है कि राहुल गाँधी का अगला कदम क्या होगा, इसका पता गठबंधन को भी नहीं होता है। मुद्दा वे खुद अकेले तय करते हैँ और स्वयं ही उछालते हैँ, श्रेय पूरा खुद लेते हैँ और पीछे गठबंधन को आने को कहते हैँ। यह असहज स्थिति से कुछ प्रमुख सहयोगी दल निरंतर परेशान दिखते हैँ।
लोकसभा चुनाव 2024 में ईडी गठबंधन का फायदा कांग्रेस के अपेक्षाकृत सहयोगी दलों को अधिक हुआ, विशेषकर सपा को, ममता को, तेजस्वी को भी । कांग्रेस नें ईडी गठबंधन इसीलिए तैयार किया था की वोट कटिंग के कारण होनें वाला नुकसान रोका जाये। उसकी सीटें 52 से 99 तो हो गईं, मगर वह सफलता नहीं मिली जिसका उन्हें अनुमान था। गठबंधन द्वारा वोटों के डिवाइडेशन रोकने का लाभ मुख्यतः सपा को मिला और कुछ हद तक़ ममता को, कांग्रेस की सीटें जो बड़ी वे मूलतः उसके खुद के प्रांतो के कारण। उसकी अपेछा 200 का आंकड़ा छूने का था। किन्तु वह लगातार तीसरीबार सौ से कम रही है। इसका सीधा संदेश यही निकला कि वह क्षेत्रीय दलों से अपना वोट बैंक छींनें बिना, सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती।
कांग्रेस 2029 में हर हालत में सत्ता पाना चाहती है। वोट चोरी कोई सत्यता नहीं है बल्कि गढ़ा गया चुनावी नारा है,जिसका मुख्य संदेश बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों के नाम कटने से बचाने वाला मसीहा बनना है। और चुनाव आयोग को डराना व धमकाना है। इससे क्षेत्रीय दल भी आशंकित है कि कांग्रेस उनके वोट बैंक को निंगल न जाये। इसी से उसके साथी दल सतर्क भी हैँ और सावधान भी हैँ।
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कांग्रेस बनाम क्षेत्रीय दलों का संतुलन
पार्टी ने हाल के वर्षों में अपने संगठन को सक्रिय करने के प्रयास किए हैं। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा इसी दिशा में एक बड़ा कदम थी, जिसने जनता से संवाद स्थापित किया। संगठनात्मक चुनावों से भी कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने की कोशिश की गई।
जैसे-जैसे कांग्रेस मज़बूत होगी, वैसे-वैसे सपा, बसपा, राजद, टीएमसी, टीआरएस जैसे क्षेत्रीय दल कमजोर होंगे। एक ही वोट बैंक पर आधारित दलों के बीच यह टकराव आगे और बढ़ने वाला है।
भावी चुनावी रणनीति
कांग्रेस ने लोकसभा और विधानसभा चुनावों में गठबंधन की राजनीति अपनाई, लेकिन उसकी असली नीति "बड़ी मछली" बनकर छोटी मछलियों को निगलने की है। नितीश कुमार इस रणनीति को भांपकर सबसे पहले अलग हुए। ममता हमेशा सावधान रहती है वह बंगाल में कांग्रेस की जड़े जमने नहीं दे रही है। अब यूपी में भी यही सावधानी प्रारंभ हो गईं है। आने वाले समय में कांग्रेस अपने सहयोगियों से लगातार टकराती दिखाई देगी। कई मौकों पर यही वर्चस्वकारी रवैया कांग्रेस को नुकसान भी पहुँचा चुका है।
कांग्रेस के वर्चस्व से असहज सहयोगी दल
कांग्रेस ने खुद को भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति के विकल्प के रूप में पेश करने की कोशिश की है। लेकिन इसमें हमेशा गांधी परिवार को ही आगे रखा जाता है, जिससे सहयोगी दलों को बराबरी का दर्जा नहीं मिलता। राहुल गांधी प्रायः उन मुद्दों को उठाते हैं, जिनमें सहयोगियों की भागीदारी गौण होती है। यही व्यवहार गठबंधन की एकजुटता पर सवाल खड़े करता है।
डीएमके को छोड़कर लगभग सभी सहयोगी दल कांग्रेस से सतर्क और संकुचित हैं। यह असमंजस भविष्य में और बढ़ने वाला है।
"बड़ी मछली" की नीति
कांग्रेस की मौजूदा रणनीति को "बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है" के सिद्धांत के रूप में देखा जा सकता है। पार्टी मानती है कि राष्ट्रीय राजनीति में अपनी धुरी को पुनः स्थापित करने के लिए उसे क्षेत्रीय दलों को कमजोर करना और उनका वोट बैंक अपने पक्ष में करना ही होगा।
मजबूरी का गठबंधन
कांग्रेस और उसके सहयोगियों की सबसे बड़ी मजबूरी यह है कि सभी का आधार हिंदुत्व विरोधी वोट बैंक ही है। यही उनकी राजनीति का प्राण है। विदेशी घुसपैठ, नकली मतदाता पहचान पत्र और मतदाता सूची की शुद्धि जैसे गंभीर मुद्दों पर भी दल एकजुट नहीं हैं। कारण स्पष्ट है – अल्पकालिक लाभ की राजनीति।
हिंदू और राष्ट्रवादी वोट बैंक की चुनौती
कांग्रेस को मालूम है कि हिंदू और राष्ट्रवादी सोच रखने वाला मतदाता अब उसके पक्ष में नहीं है। उनके अनेकों बयान इस वर्ग को जानबूझ कर चिढ़ाने वाले होते हैँ। कांग्रेस स्पष्टतः इस वर्ग को साधने के बजाय उन मतदाताओं को पुनः आकर्षित करने की रणनीति बनाती है, जिन्हें तुष्टिकरण आधारित वोट बैंक कहा जाता है।
इसी के साथ सच यह है कि यही वह वोट बैंक है जिस पर सहयोगी क्षेत्रीय दल, दिल्ली में केजरीवाल, यूपी में अखिलेश यादव, बिहार में लालू यादव व तेजस्वी यादव और बंगाल में ममता बनर्जी का प्रभुत्व बना हुआ है। यानी कांग्रेस को सीधी चुनौती भाजपा से नहीं, बल्कि इन सहयोगी क्षेत्रीय दलों से है और उसका मकसद इनके साथ खड़ा होकर फिरसे यह वोट बैंक प्राप्त करना है।
पिछले पाँच वर्षों में कांग्रेस की राजनीति का मुख्य उद्देश्य अपनी खोई हुई ताकत को पुनः प्राप्त करना रहा है। भाजपा को सीधी चुनौती देने से पहले उसे अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों से मुकाबला करना है। यही कारण है कि तेजस्वी, ममता, अखिलेश और केजरीवाल जैसे नेताओं को असली खतरा भाजपा से नहीं, बल्कि कांग्रेस से है।
"बड़ी मछली" की नीति
कांग्रेस की मौजूदा अघोषित रणनीति "बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है" के सिद्धांत के रूप में देखी जा सकती है। पार्टी जानती है कि राष्ट्रीय राजनीति में अपनी धुरी को पुनः स्थापित करने के लिए उसे उसका वोट बैंक हजम करने वाले क्षेत्रीय दलों को कमजोर करना और उनका वोट बैंक अपने पक्ष में करना ही होगा।
आने वाला समय यह तय करेगा कि क्या कांग्रेस सचमुच "बड़ी मछली" बनकर अपना खोया वोट बैंक वापस पा सकेगी, या क्षेत्रीय दल उसकी राह में सबसे बड़ी चुनौती बने रहेंगे।
– अरविन्द सिसोदिया
मो. 9414180151
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